श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ध्रिगंत मात पिता सनेहं ध्रिग सनेहं भ्रात बांधवह ॥ ध्रिग स्नेहं बनिता बिलास सुतह ॥ ध्रिग स्नेहं ग्रिहारथ कह ॥ साधसंग स्नेह सत्यिं सुखयं बसंति नानकह ॥२॥ {पन्ना 1354}

पद्अर्थ: ध्रिगं = धिक्कारयोग, बुरा, त्यागने योग्य (धिक्)। त = तां, ही। सनेह = स्नेह, प्यार, मोह। बिलास = विलास, आनंद। सुतह = (सुत:) पुत्र का। ग्रिहारथकह = गृह+अर्थका, घर के पदार्थों का। सनेह = स्नेह, प्यार। सत्यिं = सत्यं, सदा स्थिर रहने वाला। सुख्यं = सुख से, आत्मिक आनंद से। बसंति = वसन्ति, बसते हैं। नानकह = (नानक:) हे नानक! बांधव = संबन्धी।

अर्थ: माता-पिता का मोह त्यागने-योग्य है, भाईयों सन्बंधियों का मोह भी खराब है। स्त्री-पुत्र के मोह का आनंद भी त्यागने लायक है, घर के पदार्थों की कसक भी बुरी है (क्योंकि ये सारे नाशवंत है, और इनका मोह प्यार भी सदा कायम नहीं रह सकता)।

सत्संग से (किया हुआ) प्यार सदा स्थिर रहता है, और, हे नानक! (सत्संग से प्यार करने वाले मनुष्य) आत्मिक आनंद से जीवन व्यतीत करते हैं।2।

भाव: जो मनुष्य साध-संगति में प्यार बनाते हैं, उनकी जिंदगी आत्मिक आनंद में बीतती है।

मिथ्यंत देहं खीणंत बलनं ॥ बरधंति जरूआ हित्यंत माइआ ॥ अत्यंत आसा आथित्य भवनं ॥ गनंत स्वासा भैयान धरमं ॥ पतंति मोह कूप दुरलभ्य देहं तत आस्रयं नानक ॥ गोबिंद गोबिंद गोबिंद गोपाल क्रिपा ॥३॥ {पन्ना 1354}

पद्अर्थ: मिथ्य = मिथ्या, नाशवंत। देहं = शरीर। खीणं = क्षीण, कमजोर हो जाना। जरूआ = जरा, बुढ़ापा। हित्यं = हित, मोह। अत्यंत = बहुत ही। आथित्य = अतिथि, मेहमान। भवन = घर। गनंत = गिनता है। भैयान = भयानक, डरावना। धरमं = धर्म राज। पतंति = पतित होता है, गिरता है। कूप = कुप, कूआँ। दुरलभ्य = दुर्लभ, मुश्किल से मिलने वाला। तत = उसका। गोपाल क्रिपा = परमात्मा की कृपा।

अर्थ: (ये) शरीर तो नाशवंत है, (इसका) बल भी घटता रहता है। (पर ज्यों-ज्यों) बुढ़ापा बढ़ता है, माया का मोह भी (बढ़ता जाता है,) (पदार्थों की) आसा तीव्र होती जाती है (वैसे जीव यहाँ) घर के मेहमान (की तरह) हैं। डरावना धर्मराज (इसकी उम्र की) सांसें गिनता रहता है। यह अमोलक मनुष्य शरीर मोह के कूएं में गिरा रहता है।

हे नानक! एक गोबिंद गोपाल की मेहर ही (बचा सकती हे), उसी का आसरा (लेना चाहिए)।3।

भाव: अजीब खेल बनी हुई है! ज्यों-ज्यों बुढ़ापा बढ़ता है त्यों-त्यों मनुष्य के अंदर माया का मोह भी बढ़ता जाता है। मनुष्य माया के मोह के कूएँ में गिरा रहता है। परमात्मा की कृपा ही इस कूएं में से निकालती है।

काच कोटं रचंति तोयं लेपनं रकत चरमणह ॥ नवंत दुआरं भीत रहितं बाइ रूपं असथ्मभनह ॥ गोबिंद नामं नह सिमरंति अगिआनी जानंति असथिरं ॥ दुरलभ देह उधरंत साध सरण नानक ॥ हरि हरि हरि हरि हरि हरे जपंति ॥४॥ {पन्ना 1354}

पद्अर्थ: काच = कच्चा। कोट = किला। रचंति = रचा हुआ है। तोयं = पानी। रकत = रक्त, लहू। चरमणह = (चर्मण:) चमड़ी, खाल। नवं = नौ। भीत = भिक्ति, दरवाजे के तख्ते। बाइ = बाय, हवा, श्वास। असथंभनह = (स्तंभन:) स्तंभ। जानंति = जानते हैं। असथिरं = सदा स्थिर रहने वाला। उधरंत = बचा लेते हैं। जपंति = जपते हैं (जो)।

अर्थ: (यह शरीर) कच्चा किला है, (जो) पानी (भाव, वीर्य) का बना हुआ है, और लहू और चमड़ी के साथ लिंबा हुआ है। (इसके) नौ दरवाजे (गोलकें) हैं, पर (पर दरवाजों के) भिक्त नहीं हैं, साँसों की (इसको) स्तंभ (लगा हुआ) है।

मूर्ख जीव (इस शरीर को) सदा-स्थिर रहने वाला जानते हैं, और परमात्मा का नाम कभी याद नहीं करते।

हे नानक! जो लोग साध-संगति में आ के परमात्मा का नाम जपते हैं, वे इस दुर्ल भ इस शरीर को (नित्य की मौत के मुँह से) बचा लेते हैं।4।

भाव: इस शरीर की क्या पायां है? पर आत्मिक-जीवन की समझ से वंचित मनुष्य इसको सदा कायम रहने वाला मिथ बैठता है और परमात्मा को भुला देता है।

सुभंत तुयं अचुत गुणग्यं पूरनं बहुलो क्रिपाला ॥ ग्मभीरं ऊचै सरबगि अपारा ॥ भ्रितिआ प्रिअं बिस्राम चरणं ॥ अनाथ नाथे नानक सरणं ॥५॥ {पन्ना 1354}

पद्अर्थ: सुभं = शोभा दे रहा हैं। तुयं = तू। गुणग्यं = गुणों को जानने वाला। बहुलो = बहुत। सरबगि = सर्वज्ञ, सबका जानने वाला। भ्रितिआ = भृत्य, सेवक। भ्रितिआ प्रिअं = सेवकों का प्यारा। अचुत = (अचुत्य) अविनाशी। पूरन = व्यापक।

अर्थ: हे अविनाशी! हे गुणों के जानने वाले! हे सर्व-व्यापक! तू बड़ा कृपालु है, तू (सब जगह) शोभा दे रहा है। तू अथाह है, ऊँचा है, सबका जानने वाले है, और बेअंत है।

तू अपने सेवकों का प्यारा है, तेरे चरण (उनके लिए) आसरा हैं।

हे नानक! (कह-) हे अनाथों के नाथ! हम तेरी शरण आए हैं।5।

भाव: परमात्मा के दर पर पड़े रहने से ही जीवन की सही समझ पड़ती है।

म्रिगी पेखंत बधिक प्रहारेण लख्य आवधह ॥ अहो जस्य रखेण गोपालह नानक रोम न छेद्यते ॥६॥ {पन्ना 1354}

पद्अर्थ: म्रिगी = हिरनी। बधिक = शिकारी (वध् = to kill)। प्रहारेण = प्रहार से, चोट से। लख्य = लक्ष्य (aim, target) निशाना (देख के)। आवधह = (आयुध = a weapon) अस्त्र, हथियार। अहो = वाह! जस्य = (यस्य) जिसका। रखेण = रक्षा वास्ते। रोम = बाल। न छेद्यते = नहीं भेदा जाता।

अर्थ: (एक) हिरनी को देख के (एक) शिकारी निशाना लगा के शस्त्रों से चोट मारता है। पर वाह! हे नानक! जिसकी रक्षा के लिए परमात्मा हो, उसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता।

भाव: जिसका रखवाला परमात्मा खुद बने, उसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सका।

बहु जतन करता बलवंत कारी सेवंत सूरा चतुर दिसह ॥ बिखम थान बसंत ऊचह नह सिमरंत मरणं कदांचह ॥ होवंति आगिआ भगवान पुरखह नानक कीटी सास अकरखते ॥७॥ {पन्ना 1354}

पद्अर्थ: करता = करने वाला। सूरा = शूरवीर। चतुर = चार। दिसह = (दिस:), दिशा। चतुर दिसह = चारों तरफ से। बिखम = मुश्किल। बसंत = बसता। मरणं = मौत। कदांचह = कभी भी। होवंति = होती है। कीटी = कीड़ी। अकरखते = आकर्षित करती है।

अर्थ: (जो मनुष्य) बड़े यतन कर सकता हो, बड़ा बलवान हो, चारों तरफ से कई शूरवीर जिसकी सेवा करने वाले हों, जो मुश्किल ऊँची जगह पर बैठा हो, (जहाँ उसको) मौत की कभी याद भी ना आए। हे नानक! एक कीड़ी उसके प्राण खींच लेती है जब भगवान अकाल-पुरख का हुकम हो (उसको मारने का)।7।

भाव: धुर दरगाह से जिसकी चिट्ठी फटी हुई आ जाती है, वह अपनी रक्षा के भले ही अनेकों उपाय करे, थोड़ा सा बहाना ही उसकी चोग सदा के लिए समाप्त कर देता है।

सबदं रतं हितं मइआ कीरतं कली करम क्रितुआ ॥ मिटंति तत्रागत भरम मोहं ॥ भगवान रमणं सरबत्र थान्यिं ॥ द्रिसट तुयं अमोघ दरसनं बसंत साध रसना ॥ हरि हरि हरि हरे नानक प्रिअं जापु जपना ॥८॥ {पन्ना 1354}

पद्अर्थ: रतं = रति, प्रीति। हितं = प्रेम। मइआ = कृपा, तरस, जीवों पर दया। कीरतं = कीर्ति, सिफतसालाह। क्रितुआ = कृत्वा, कर के। तत्रागत = तत्+आगत, वहाँ आए हुए। रमणं = व्यापक। अमोघ = (अमोघ = Unfailing) कभी निष्फल ना होने वाला। रसना = जीभ। कली = कलियुग में (भाव, इस जगत में)। तुयं द्रिसटि = तेरी (मेहर की) नजर।

अर्थ: गुरू-शबद में प्रीति, जीव दया से हित, परमात्मा सें सिफतसालाह -इस जगत में जो मनुष्य ये काम करता है (शब्दों से, यह कर्म करके), वहाँ आए हुए (भाव, उसके) भरम और मोह मिट जाते हैं। उसको भगवान हर जगह व्यापक दिखता है।

हे नानक! (कह-) हे हरी! (संत जनों को) तेरा नाम जपना प्यारा लगता है, तू संतों की जीभ पर बसता है, तेरा दीदार तेरी (मेहर की) नज़र कभी निष्फल नहीं हैं।8।

भाव: जो मनुष्य गुरू के शबद को प्यार करके परमात्मा की सिफतसालाह करते हैं उनको परमात्मा हर जगह बसता दिखाई देता है।

घटंत रूपं घटंत दीपं घटंत रवि ससीअर नख्यत्र गगनं ॥ घटंत बसुधा गिरि तर सिखंडं ॥ घटंत ललना सुत भ्रात हीतं ॥ घटंत कनिक मानिक माइआ स्वरूपं ॥ नह घटंत केवल गोपाल अचुत ॥ असथिरं नानक साध जन ॥९॥

पद्अर्थ: घटंत = घटते हैं, नाश हो जाते हैं। दीपं = द्वीप, जजीरा। रवि = सूरज। ससीअर = (शशधर = Moon) चंद्रमा। नख्यत्र = (नक्षत्र) तारे। गगनं = आकाश। बसुधा = धरती (वसुधा)। गिरि = पहाड़। तर = (तरु) वृक्ष। सिखंडं = ऊँची चोटी वाले। ललना = स्त्री। कनिक = सोना। मानिक = मोती।

अर्थ: रूप नाशवंत है, (सातों) द्वीप नाशवान हैं, सूरज चंद्रमा तारे आकाश नाशवान हैं, स्त्री पुत्र भाई और संबन्धी नाशवंत हैं, सोना मोती माया के सारे सरूप नाशवंत हैं।

हे नानक! केवल अविनाशी गोपाल प्रभू नाशवंत नहीं है, और उस की साध-संगति भी सदा-स्थिर है।9।

भाव: ये सारा दिखाई देता जगत नाशवंत है। सिर्फ सृजनहार परमात्मा अविनाशी है। उसका सिमरन करने वाले लोगों का जीवन अटल रहता है।

नह बिल्मब धरमं बिल्मब पापं ॥ द्रिड़ंत नामं तजंत लोभं ॥ सरणि संतं किलबिख नासं प्रापतं धरम लख्यिण ॥ नानक जिह सुप्रसंन माधवह ॥१०॥ {पन्ना 1354}

पद्अर्थ: बिलंब = देर, (विलम्ब) ढील। द्रिड़ंद = दृढ़ करना, मन का ठिकाना, जपना। तजंत = त्यागना। किलबिख = पाप (किल्विषं)। लख्यिण = लक्षण। जिह = जिस पर। माधवह = (माधव:) माया का धव, माया का पति, परमात्मा।

अर्थ: धर्म कमाने में ढील ना करनी, पाप करने में विलम्ब करना, नाम (हृदय में) दृढ़ करना और लोभ त्यागना, संतों की शरण जा के पापों का नाश करना- हे नानक! धर्म के ये लक्षण उस मनुष्य को प्राप्त होते हैं जिस पर परमात्मा मेहर करता है।10।

भाव: जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, वह उसका नाम सिमरता है। नाम की बरकति से उसका जीवन ऐसा बन जाता है कि वह विकारों से सदा संकोच करता है, पर नेकी-भलाई करने में थोड़ी सी भी ढील नहीं करता।

मिरत मोहं अलप बुध्यं रचंति बनिता बिनोद साहं ॥ जौबन बहिक्रम कनिक कुंडलह ॥ बचित्र मंदिर सोभंति बसत्रा इत्यंत माइआ ब्यापितं ॥ हे अचुत सरणि संत नानक भो भगवानए नमह ॥११॥ {पन्ना 1354}

पद्अर्थ: मिरत = (मृत) नाशवान पदार्थ। अलप = अल्प, थोड़ी। अलप बुध्यं = अल्प बुद्धिं, होछी मति वाला मनुष्य। रचंति = रचा रहता है, मस्त रहता है। साह = उत्साह, चाव। जौबन = जवानी, यौवन। बहिक्रम = (बहिष्त्रन्न्म) बल। बचित्र = किस्म किस्म के, विचित्र। बसत्रा = वस्त्र, कपड़े। इत्यंत = इस तरह। ब्यापिंत = प्रभाव डालती है। भो = हे! भगवानऐ = भगवान को। नमह = नमस्कार। बिनोद = विनोद, कलोल, (amusement)।

अर्थ: होछी मति वाला मनुष्य नाशवान पदार्थों के मोह में लीन रहता है, स्त्री के विनोद और चावों में मस्त रहता है। जवानी, ताकत, सोने के कुण्डल (आदि), रंग-बिरंगे महल-माढ़ियों, सुंदर वस्त्र- इन तरीकों से उसको माया व्यापती है (अपना प्रभाव डालती है)।

हे नानक! (कह-) हे अविनाशी! हे संतों के सहारे! हे भगवान! तुझे हमारा नमस्कार है (तू ही माया के प्रभाव को बचाने वाला है)।11।

भाव: माया कई रूपों-रंगों में मनुष्य पर अपना प्रभाव डालती है। जो मनुष्य परमात्मा की शरण आता है उस पर माया का जोर नहीं पड़ सकता।

जनमं त मरणं हरखं त सोगं भोगं त रोगं ॥ ऊचं त नीचं नान्हा सु मूचं ॥ राजं त मानं अभिमानं त हीनं ॥ प्रविरति मारगं वरतंति बिनासनं ॥ गोबिंद भजन साध संगेण असथिरं नानक भगवंत भजनासनं ॥१२॥ {पन्ना 1354-1355}

पद्अर्थ: हरख = खुशी, हर्ष, खुशी। सोग = शोक, चिंता। नाना = नन्हा। मूच = बड़ा। हीन = हीनता, निरादरी। मारग = मार्ग, रास्ता। प्रविरति मारग = दुनियां में प्रवृक्ति होने का रास्ता। भजनासन = भजन+असन, भजन का भोजन (असन = भोजन) (अश् = to eat)। त = से, भी। असथिर = सदा कायम रहने वाला।

अर्थ: (जहाँ) जनम है (वहाँ) मौत भी है, खुशी है तो ग़मी भी है, (मायावी पदार्थों के) भोग हैं तो (उनसे उपजते) रोग भी हैं। जहाँ ऊँचा-पन है, वहां नीच-पना भी आ जाता है, जहाँ गरीबी है, वहाँ बड़प्पन भी आ सकता है। जहाँ राज है, वहाँ अहंकार भी है, जहाँ अहंकार है, वहाँ निरादरी भी है।

सो दुनिया के रास्ते में हरेक चीज़ का अंत (भी) है। सदा-स्थिर रहने वाली परमात्मा की भगती ही है साध-संगति (के आसरे की जा सकती है)। (इस वास्ते) हे नानक! भगवान के भजन का भोजन (अपनी जीवात्मा को दे)।12।

भाव: जगत में दिखाई देती हरेक चीज़ का अंत भी है। सिर्फ परमात्मा का नाम ही मनुष्य के साथ निभ सकता है, और यह नाम मिलता है साध-संगति में से।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh