श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कबीर दाता तरवरु दया फलु उपकारी जीवंत ॥ पंखी चले दिसावरी बिरखा सुफल फलंत ॥२३०॥ {पन्ना 1377}

पद्अर्थ: दाता = प्रभू के नाम की दाति करने वाला। दया = जीवों से प्यार। उपकारी जीवंत = जो उपकार करने में ही जीता है, जो सारा जीवन उपकार में ही गुजारता है। पंखी = इस जगत-वृक्ष के पंछी, सारे जीव। दिसावरी = दिशा अवर, और और दिशाओं को, और और तरफ, और और धंधों में। बिरखा = 'नाम' देने वाला पेड़ (साधू)। सुफल फलंत = 'दया' की सुंदर दाति ही करता रहता है, सबको यही सिखाता रहता है कि सभ जीवों के साथ प्यार करो। सुफल = सु+फल, सुंदर फल।

अर्थ: हे कबीर! ('जिनि तजिआ बादु बिबादु') वह 'साधू' अपनी सारी उम्र परोपकार में ही गुजारता है; प्रभू के नाम की दाति देने वाला वह 'साधू' विकारों में तपते सारे इस संसार के लिए, मानो, एक सुंदर वृक्ष है, उससे 'जीव दया' की दाति प्राप्त होती है। संसारी जीव तो और-और धंधों में व्यस्त रहते हैं, पर गुरमुखि 'साध' सदा यही शिक्षा देता रहता है कि सबके साथ दया-प्यार करो।230।

कबीर साधू संगु परापती लिखिआ होइ लिलाट ॥ मुकति पदारथु पाईऐ ठाक न अवघट घाट ॥२३१॥ {पन्ना 1377}

पद्अर्थ: साधू संगु = ('जिनि तजिआ बादु बिबादु' उस) साधू की सुहबति। लिलाट = माथा। लिखिआ होइ लिलाट = अगर माथे पर लेख लिखा हो, यदि अच्छे भाग्य हों। मुकति = 'बाद बिबाद' से खलासी। ठाक = रोक। अवघट घाट = मुश्किल पहाड़ी रास्ता।

(नोट: दुनिया के 'बाद बिबाद' से बच के रहने की कोशिश करनी ऐसे है जैसे किसी ऊँची पहाड़ी पर चढ़ना)।

अर्थ: हे कबीर! 'जिनि तजिआ बादु बिबादु' उस साधु-गुरमुखि की संगति उस मनुष्य को प्राप्त होती है जिसके बहुत अच्छे भाग्य हों। उसकी संगति से फल ये मिलता है कि दुनिया के 'बाद-बिबाद' से मुक्ति मिल जाती है, कोई भी विकार इस मुश्किल सफर के रास्ते में रोक नहीं डालता।231।

कबीर एक घड़ी आधी घरी आधी हूं ते आध ॥ भगतन सेती गोसटे जो कीने सो लाभ ॥२३२॥ {पन्ना 1377}

पद्अर्थ: गोसटे = गोष्ठी, बातचीत, मिलाप। कीने = किया जाए।

(नोट: शब्द 'गोष्ठि के दो अर्थ हैं- 1. चर्चा, बहस, बातचीत और 2. मिलाप, संगति। जैसे 'सिध गोसटि' = 1. सिद्धों से बहस, 2. परमात्मा से मिलाप। देखो मेरा टीका 'सिध गोसटि')।

अर्थ: हे कबीर! (चुँकि दुनिया के 'बाद बिबाद' से मुक्ति साधू की संगति करने से ही मिलती है, इसलिए) एक घड़ी, आधी घड़ी, घड़ी का चौथा हिस्सा- जितना समय भी गुरमुखों की संगति की जाए, इससे (आत्मिक जीवन में) फायदा ही फायदा है।232।

कबीर भांग माछुली सुरा पानि जो जो प्रानी खांहि ॥ तीरथ बरत नेम कीए ते सभै रसातलि जांहि ॥२३३॥ {पन्ना 1377}

नोट: शलोक नं:228 से एक नया ख्याल आरम्भ हुआ है। जगत में 'बाद बिबाद' की तपश पड़ रही है, जीव तड़प रहे हैं। परमात्मा का नाम यहाँ एक खूबसूरत वृक्ष है। जिन विरले भाग्यशाली गुरमुखों ने दुनिया का यह 'बादु बिबादु तजिआ' है, वे इस वृक्ष की ठंडी छाया हैं। इस छाया का आसरा लेने से, साधु-गुरमुखों की संगति करने से इस 'बाद बिबाद' से खलासी हो जाती है, इससे 'वैराग' प्राप्त हो जाता है।

पर दुनियां में एक अजीब खेल हो रही है। लोग सवेरे के वक्त धर्म-स्थान में भी आते हैं, व्रत आदि भी रखते हैं, और कई किस्म के नियम भी निभाते हैं; पर, इन सबके साथ-साथ विकार भी करते जाते हैं। कबीर जी यहाँ कहते हैं कि 'साधू' की संगति करने का भाव यह नहीं है कि जितना समय सत्संग में बैठो, उतने समय 'राम-राम' किए जाओ, वहाँ से आओ तो विकारों में भी हिस्सा लिए जाओ। यह तीर्थ-यात्रा, व्रत नेम सभ निष्फल जाते हैं अगर मनुष्य विकारी जीवन से नहीं पलटता।

पद्अर्थ: भांग = भांग (नशे की वस्तु)। माछुली = मछली। सुरा = शराब। पान = पीना। पानि = पीने वाला (जैसे, 'धन' से 'धनि' = धन वाला; 'गुण' से 'गुणि' = गुण वाला)।

उपरोक्त सारी तुक का गद्य (Prose Order) इस प्रकार है: 'जो जो सुरापानि प्रानी भांग माछुली खांहि'।

खांहि = खाते हैं। ते सभै = वह सारे ही (तीर्थ यात्रा व्रत नेम आदि)। रसातलि जांहि = गर्क जाते हैं, उनसे कोई रक्ती भर लाभ नहीं होता।

(नोट: पिछले शलोक में जिकर है कि 'भगतन सेती गोसटे' से आ के शराब-मास आदि में लगा रहे, तो वह किया हुआ सत्संग और वहाँ लिए हुए प्रण (- व्रत) सभ व्यर्थ जाते हैं)।

नोट: कई सज्जन शब्द 'पानि' का अर्थ 'पान का पक्ता' करते हैं। यह ग़लत है। बाणी में जहाँ भी वह शब्द है उसका जोड़ 'पान' है; जैसे:

'पान सुपारी खातीआं मुखि बीड़ीआ लाईआ'॥

शब्द 'भांग माछुली और सुरा' से भाव यह नहीं लेना कि कबीर जी सिर्फ भांग और शराब से रोकते हैं, और पोस्त-अफीम की मनाही नहीं करते। इसी तरह ये बात भी नहीं कि यहाँ मछली का मास खाने से रोक रहे हैं। सारे प्रसंग को मिला के पढ़ो। सत्संग भी करना और विकार भी किए जाने- कबीर जी इस काम से वरजते हैं। कामी लोग आम तौर पर शराब मास बर्त के काम-वासना व्यभचार में प्रवृक्त होते हैं; और; मछली का मास चुँकि काम-रुचि पैदा करने में प्रसिद्ध है, इस वास्ते कबीर जी ने शराब भांग मछली शब्दों का प्रयोग किया है।

अर्थ: हे कबीर! अगर लोग 'भगतन सेती गोसटे' कर के तीर्थ-यात्रा व्रत नेम आदि भी करते हैं और वह शराबी लोग भांग-मछली भी खाते हैं (भाव, सत्संग में भी जाते हैं और शराब-कबाब भी खाते-पीते हैं, विकार भी करते हैं) उनके वह तीर्थ-व्रत आदि वाले सारे कर्म बिल्कुल व्यर्थ जाते हैं।

नीचे लोइन करि रहउ ले साजन घट माहि ॥ सभ रस खेलउ पीअ सउ किसी लखावउ नाहि ॥२३४॥ आठ जाम चउसठि घरी तुअ निरखत रहै जीउ ॥ नीचे लोइन किउ करउ सभ घट देखउ पीउ ॥२३५॥ सुनु सखी पीअ महि जीउ बसै जीअ महि बसै कि पीउ ॥ जीउ पीउ बूझउ नही घट महि जीउ कि पीउ ॥२३६॥ {पन्ना 1377}

पद्अर्थ: लोइन = आँखें। करि रहउ = मैं करी रखती हूँ। साजन = प्यारे पति प्रभू को। घट माहि ले = हृदय में संभाल के। पीअ सउ = प्यारे प्रभू से। खेलउ = मैं खेलती हूँ। लखावउ नाहि = मैं बताती नहीं।234।

जाम = पहर। आठ जाम = आठ पहर ।

(नोट: दिन रात के कुल आठ पहर होते हैं), दिन रात, हर वक्त। चउसठि घरी-चौंसठ घड़ियां (नोट: एक पहर की आठ घड़ियां होती हैं, चौंसठ घड़ियों के आठ पहर, रात दिन, हर वक्त)।

तुअ = (सं: त्वा, तुआं) तुझे। निरखत रहै = देखती रहती है। जीउ = मेरी जिंद। नीचे...करउ = मैं किसी जीव से आँखें नीची क्यों करूँ? मैं किसी भी जीव से अब नफरत नहीं करती।235।

सुन सखी = हे मेरी सहेलिए! सुन। पीअ महि = प्यारे प्रभू पति में। जीउ = जिंद, जीवात्मा। जीअ महि = जिंद में। कि = अथवा। बूझउ नही = हे सखी! तू नहीं समझ सकती।236।

अर्थ: (हे मेरी सत्संगी सहेलिए! जब से मुझे 'साधू संगु परापती' हुई है, मैं 'भगतन सेती गोसटे' ही करती हूँ, इस 'साधू संग' की बरकति से) प्यारे प्रभू-पति को अपने हृदय में संभाल के (इन 'भांग माछुली सुरा' आदि विकारों से) मैं अपनी आँखें नीची किए रखती हूँ, (दुनिया के इन रसों से खेल खेलने की जगह) मैं प्रभू-पति के साथ सारे रंग भोगती हूँ; पर मैं (यह भेद) किसी को नहीं बताती।234।

(हे सखी! मैं सिर्फ प्रभू-पति को ही कहती हूँ कि हे पति!) आठों पहर हर घड़ी मेरी जीवात्मा तुझे ही ताकती रहती है। (हे सखी!) मैं सभ शरीरों में प्रभू-पति को ही देखती हूं, इसलिए मुझे किसी प्राणी-मात्र से नफ़रत नहीं है।235।

हे सहेलिए! ('साधू संग' की बरकति से मेरे अंदर एक आश्चर्यजनक खेल बन गई है, मुझे अब ये पता नहीं लगता कि) मेरी जिंद प्रभू-पति में बस रही है या जिंद में प्यारा आ बसा है। हे सहेलिए! तू अब ये समझ ही नहीं सकती कि मेरे अंदर मेरी जिंद है या मेरा प्यारा प्रभू-पति।236।

कबीर बामनु गुरू है जगत का भगतन का गुरु नाहि ॥ अरझि उरझि कै पचि मूआ चारउ बेदहु माहि ॥२३७॥ {पन्ना 1377}

पद्अर्थ: अरझि = फस के। उरझि = उलझ के। पचि = ख्वार हो के। मूआ = मर गया है, आत्मिक मौत मर गया है, उसकी जिंद प्रभू मिलाप का जीवन नहीं जी सकी।

अर्थ: पर, हे कबीर! (कह- मुझे जो यह जीवन-दाति मिली है, जीवन-दाते सतिगुरू से मिली है जो स्वयं भी नाम का रसिया है; जनेऊ आदि दे के और कर्म-काण्ड का रास्ता बता के) ब्राहमण सिर्फ दुनियादारों का ही गुरू कहलवा सकता है, भगती करने वालों का उपदेश-दाता ब्राहमण नहीं बन सकता, क्योंकि यह तो आप ही चारों वेदों के यज्ञ आदि कर्म-काण्ड की उलझनों को सोच-सोच के इन में ही खप-खप के आत्मिक मौत मर चुका है (इसकी अपनी ही जिंद प्रभू-मिलाप का आनंद नहीं ले सकी, ये भगतों को वह स्वाद कैसे दे सकता है?)।237।

हरि है खांडु रेतु महि बिखरी हाथी चुनी न जाइ ॥ कहि कबीर गुरि भली बुझाई कीटी होइ कै खाइ ॥२३८॥ {पन्ना 1377}

पद्अर्थ: रेतु महि = रेत में।

(नोट: शब्द 'रेतु' सदा उकारांत 'ु' मात्रा के साथ अंत होता है वैसे ये स्त्रीलिंग है। इस शब्द का ये आखिरी 'ु' भी टिका रहता है)।

हाथी = हाथी से। कहि = कहे, कहता है। गुरि = गुरू ने। भली बुझाई = अच्छी मति दी है। कीटी = कीड़ी। होइ कै = बन के। खाइ = खा सकता है।

अर्थ: परमात्मा का नाम, मानो, खंड है जो रेत में बिखरी हुई है, हाथी से ये खंड रेत में से चुनी नहीं जा सकती। कबीर कहता है- पूरे सतिगुरू ने यह भली मति दी है कि मनुष्य कीड़ी बन के यह खंड खा सकता है।238।

नोट: विनम्रता गरीबी की दाति ब्राहमण से नहीं मिल सकती, क्योंकि उसके कर्म-काण्ड ने तो सिर्फ यह सिखाना है कि फलाना कर्म करने से अवश्य फलाना फल मिल जाएगा। 'गरीबी' की उसकी शिक्षा में जगह ही नहीं है, क्योंकि 'गरीबी' किसी कर्म-काण्ड का हिस्सा नहीं है। ये कर्म-काण्ड बल्कि अहंकार पैदा करते हैं क्योंकि इससे ये यकीन बनता है कि इसके करने से फल अवश्य मिलना है। पर परमात्मा का सिमरन गरीबी स्वभाव के बिना हो ही नहीं सकता।

कबीर जउ तुहि साध पिरम की सीसु काटि करि गोइ ॥ खेलत खेलत हाल करि जो किछु होइ त होइ ॥२३९॥ कबीर जउ तुहि साध पिरम की पाके सेती खेलु ॥ काची सरसउं पेलि कै ना खलि भई न तेलु ॥२४०॥ {पन्ना 1377}

पद्अर्थ: तुहि = तुझे। साध = तमन्ना, चाह। पिरंम = प्रेम। गोइ = गेंद। हाल करि = मस्त हो जा। त होइ = होता रहे।239।

(नोट: नौशाहीऐ फकीर 'हाल' खेलते हैं, और मस्त हो जाते हैं)।

पाके सेती = पक्के (गुरू) से, पूरे सतिगुरू की शरण पड़ के। पेलि कै = पीढ़ के।240।

अर्थ: हे कबीर! अगर तुझे प्रभू-प्यार की खेल खेलने की चाहत है, तो अपना सिर काट के गेंद बना ले (इस तरह अहंकार दूर कर कि लोग बेशक ठोकरें मारें 'कबीर रोड़ा होइ रहु बाट का, तजि मन का अभिमानु') यह खेल खेलता-खेलता इतना मस्त हो जा कि (दुनिया की ओर से) जो (सलूक तेरे साथ) हो वह होता रहे।239।

पर, हे कबीर! अगर तुझे प्रभू-प्यार की ये खेल खेलने की उमंग है तो पूरे सतिगुरू की शरण पड़ के खेल; (कर्म-काण्डी ब्राहमण के पास यह चीज नहीं है)। कच्ची सरसों पीढ़ने से ना तेल निकलता है और ना ही खॅल बनती है (यही हाल जनेऊ आदि दे के बने कच्चे गुरूओं का है)।240।

ढूंढत डोलहि अंध गति अरु चीनत नाही संत ॥ कहि नामा किउ पाईऐ बिनु भगतहु भगवंतु ॥२४१॥ {पन्ना 1377}

पद्अर्थ: डोलहि = डोलते हैं, भटकते हैं, टटौले मारते हैं। गति = हालत, हाल। अंध गति = जैसे अंधों की हालत होती है, अंधों की तरह। अरु = और। चीन्त नाही = चीन्हत नाही, पहचानते नहीं। कहि = कहे, कहता है। किउ पाईअै = नहीं मिल सकता। बिनु भगतहु = भगती करने वालों की (संगति) के बिना। भगवंतु = भगवान, परमात्मा।

(नोट: 'चीन्त नाही' अक्षर 'न' के तले आधा 'ह' है)।

अर्थ: नामदेव कहता है कि भगती करने वाले लोगों (की संगति) के बिना भगवान नहीं मिल सकता; जो मनुष्य (प्रभू की) तलाश करते हैं, पर भगत-जनों को पहचान नहीं सकते वह अंधों की तरह ही टटोलते रहते हैं।241।

हरि सो हीरा छाडि कै करहि आन की आस ॥ ते नर दोजक जाहिगे सति भाखै रविदास ॥२४२॥ {पन्ना 1377}

पद्अर्थ: सो = जैसा। करहि = करते हैं। आन = अन्य। दोजक = नर्क, वह जगह जहाँ जीवों को दुख ही दुख भोगने पड़ते हैं। जाहिगे = (भाव,) जाते हैं, पड़ते हैं। दोजक जाहिगे = दोजकों में पड़ते हैं, दुख ही दुख भोगते हैं। सति = सच, सही बात। भाखै = कहता है।

अर्थ: (सारे सुख प्रभू के सिमरन में हैं, पर) जो मनुष्य परमात्मा का नाम-हीरा छोड़ के और-और जगहों से सुखों की आस रखते हैं वे लोग सदा दुख ही सहते हैं- ये सच्ची बात रविदास बताता है।242।

नोट: भगत नामदेव जी और भगत रविदास जी के कोई शलोक नहीं हैं, सिर्फ शबद हैं। जैसे शलोक नं: 212 और 213 हैं तो कबीर जी के अपने उचारे हुए, वैसे ही शलोक नं241 और 242 भी कबीर जी के अपने ही हैं। कबीर जी कहते हैं कि हमने उनकी बाणी पढ़ के देखी है वह भी हमारे साथ ही सहमति रखते हैं।

कबीर जउ ग्रिहु करहि त धरमु करु नाही त करु बैरागु ॥ बैरागी बंधनु करै ता को बडो अभागु ॥२४३॥ {पन्ना 1377}

पद्अर्थ: जउ = अगर। ग्रिहु करहि = तू घर बनाता है, तू गृहस्ती बनता है। त = तो। धरमु = फर्ज, घर बारी वाला फर्ज।

(नोट: गृहस्ती के लिए वह कौन सा 'धर्म' है जिसकी तरफ इस आखिरी शलोक में इशारा है?)

शलोक नं: 228 से ले कर 242 तक ध्यान से पढ़िए। एक ही ख्याल की सुंदर कड़ी चली आ रही है कि विकारों और वाद-विवाद की तपश में जलते इस संसार के अंदर परमात्मा का नाम ही सुंदर छाया वाला वृक्ष है। ये नाम कर्म-काण्डी ब्राहमण से नहीं मिल सकता, इसकी प्राप्ति केवल 'साधू संग' से ही है, पूरे गुरू से ही है। शलोक नं:242 में सारी विचार को समेटते हैं और रविदास जी के विचारों का हवाला देकर कहते हैं कि यदि विकारों और वाद-विवाद की दोज़ख की तपश से बचना है तो परमात्मा का नाम ही सिमरो। बस! यही है गृहस्ती का 'धर्म'।

अगर इस शलोकों को पिछली तरफ से पढ़ना शुरू कर दें, तो इस 'धर्म' की प्रौढ़ता के लिए शलोक नं: 234, 235 और 236 पर नजर आ टिकेगी। नं:237 से 241 तक सिर्फ इस बात पर जोर है कि यह 'धर्म', यह आत्मिक जीवन, तपश दूर करने वाला यह वसीला, कर्म-काण्डी ब्राहमण से नहीं मिलता, सिर्फ पूरे गुरू से ही मिल सकता है। नं: 234, 235 और 236 में इस 'धर्म' का फैसला यूँ किया है कि किरत-कार के साथ-साथ प्रभू का नाम सिमरो, इस सिमरन की बरकति से विकारों की तपश से बचे रहोगे और किसी प्राणी-मात्र से नफरत नहीं रहेगी।

शलोक नं:192 में तो कबीर जी खुले शब्दों में 'घर' का 'धर्म' बता आए हैं;

कबीर जा घर साध न सेवीअहि, हरि की सेवा नाहि॥ ते घर मरहट सारखे, भूत बसहि तिन माहि॥१९२॥

(सो, गृहस्त का धरम है भलों की सेवा और प्रभू की बँदगी)। बैरागु-त्याग। अभागु-बद किस्मती।

नोट: कबीर जी इन्सानी जीवन को दो हिस्सों में नहीं बाँट रहे। गृहस्ती-जीवन के ही हॅक में हैं, पर वे गृहस्ती नहीं जो दातार को बिसार के उसकी दातों में ही अंधा हुआ रहे। कबीर जी कहते हैं कि विकारों में ग़रके रहने से, सिर्फ विकारी जीवन से, 'त्याग' बेहतर है। गृहस्ती के विकारी जीवन और त्याग का मुकाबला करते हुए इन दोनों में से 'त्याग' को ही अच्छा कह रहे हैं; पर उस त्याग में पूण त्याग हो, पाखण्ड ना हो।

अर्थ: हे कबीर! अगर तू घर-बारी बनता है तो घर-बारी वाला फर्ज भी निभा (भाव, प्रभू का सिमरन कर, विकारों से बचा रह और किसी से नफरत ना कर। पर गृहस्ती में रह के) अगर तूने माया में ग़रके रहना है तो इसको त्यागना ही भला है। त्यागी बन के जो मनुष्य फिर भी साथ-साथ माया का जंजाल सहेड़ता है उसके बहुत दुभाग्य समझो (वह किसी जगह के लायक नहीं रहा)।243।

नोट: सबसे पहले शलोक नं: 1 में कबीर जी ने ये कहा है कि जब से संसार बना है इन्सान के लिए सुख और शांती का साधन सिर्फ हरी-नाम ही चला आ रहा है, यही कारण है कि आदि काल से भगत-जन हरी-नाम ही सिमरते आ रहे हैं। आखिर में आ के शलोक नं: 243 में कबीर जी ने ये मोहर लगा दी और फैसला दे दिया है कि बस! हरि-नाम ही गृहस्ती का मुख्य 'धर्म' है, यदि 'हरि-नाम' को बिसार के सांसारिक भोगों और विकारों से मनुष्य सुख तलाशता है तो यह इसका कमला-पन है। मनुष्य के लिए घर-बारी जीवन जिंदगी का सही रास्ता है, पर वह भी तब ही, अगर इसमें हरी-नाम सिमरे; वरना जीवन गंदा कर लेने से बढ़िया है घर-बार छोड़ दे।

पाठकों के लिए ये बात जान लेनी मजेदार होगी कि जिस ख्याल से शलोकों को कबीर जी ने शुरू किया है वहीं आ के खत्म किया है। सारे ही शलोकों में एक ही विषय-वस्तु 'हरि नाम का सिमरन' के ऊपर उसके अलग-अलग पहलुओं को ले के विचार की गई है। सो, यह कहना बिल्कुल ही ग़लत है कि ये शलोक अलग-अलग विचारों वाले हैं और इनमें कोई मिला हुआ बँधा हुआ भाव नहीं है।

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सलोक शेख फरीद के॥

जान-पहचान

टीका कब लिखा?

बाबा फरीद जी के सारे शलोक का टीका मैंने दिसंबर 1942 में लिखा था, और जुलाई 1944 में इसको छपवाना शुरू किया। पर 20 सफे ही छपे थे कि काम वहीं पर अटक गया। उसके बाद मेरा ख्याल बना कि अब इन शलोकों को सारी भगतों की बाणी के टीके के साथ मिला के ही छापा जाए। भगत-बाणी का टीका मैंने सितंबर 1945 में खतम किया। कबीर जी के शलोक रह गए।

टीका लिखने का अवसर:

गुरू नानक खालसा कालेज गुजरांवाले से फ़ारक हो के खालसा कालिज अमृतसर में मुझे नवंबर 1929 में नौकरी मिल गई। एफ.ए. की कक्षा के विद्यार्थियों की गिनती बहुत ज्यादा होने के कारण धार्मिक विषय की पढ़ाई के लिए उनके दो-दो सेक्शन बनाए होते थे। एक-एक सेक्शन की धार्मिक पढ़ाई मुझे दी गई, और एक-एक सेक्शन को सरदार जोध सिंघ पढ़ाया करते थे। बी.ऐ. की कक्षाओं को धार्मिक विषय वही पढ़ाते थे। इस विषय के मुख्य अध्यापक वही थे।

संन् 1936 में वे कालेज के प्रिंसीपल बन गए। उनको सारा वक्त दफतर और अन्य जिंमेवारियों की तरफ देना पड़ गया। इसलिए बी.ऐ. की कक्षा का धार्मिक विषय भी मेरे सुपुर्द किया गया। बी.ऐ. की कक्षा में और बाणियों के अलावा फरीद जी के शलोक भी पढ़ाए जाते थे। मैंने इन शलोकों का ज़बानी याद करना शुरू कर दिया।

एक अनोखी मुश्किल और उसका हल:

श्री गुरू ग्रंथ साहिब की बाणी की बोली के व्याकरण की पहली झलक मुझे दिसंबर 1920 में नसीब हुई थी। तब से ही मैं सारी बाणी को उस वयाकरण के अनुसार ही विचारने का यतन करता आ रहा था। सारा व्याकरण भी 1932 में मुकम्मल तौर पर मैं लिखती रूप में ला सका था। विद्यार्थों को बाणी पढ़ाने के वक्त थोड़ा व्याकरण भी समझा दिया करता था, इस तरह बाणी को समझने की दिशा में उनकी रुचि बढ़ती थी।

फरीद जी के शलोक पढ़ाने के वक्त शलोक नं: 43 मेरे राह में बहुत सारी रुकावट डालता था। टीकाकार ने उसकी पहली तुक इस प्रकार लिखी हुई थी;

'कंधि कुहाड़ा सिरि घड़ा, वणि कै सरु लोहारु॥'

इसके अर्थ उन्होंने लिखे हुए थे- 'वण के सिर पर लोहार (खड़ा है')। गुरबाणी व्याकरण के अनुसार ना ही यह पाठ मुझे जचता था, और ना ही इसके लिखे हुए अर्थ। पर मुझे खुद को कुछ नहीं सूझ रहा था। मैं विद्यार्थियों को अपनी ये मुश्किल साफ कह देता था।

सन 1938 की गर्मी की छुट्टियों में कुछ दिनों के लिए मैं शिमला गया, वहाँ मेरा बड़ा बेटा करतार सिंह नौकरी करता था। फरीद जी के शलोक मुझे ज़बानी याद हो चुके हुए हैं। रोज़ सवेरे मैं उनका पाठ ज़बानी किया करता था। एक दिन पाठ करते हुए शलोक नं: 43 का पाठ अपने आप मेरे मुँह से निकला, 'वणि कैसरु लोहारु'। मेरी आँखे खल गई। मेरी आदत बन चुकी है कि पाठ करने के वक्त तकरीबन हरेक शब्द का व्याकर्णि्क जोड़ मेरे सामने आया रहता है। ये नया पाठ मुँह से निकला, कि अर्थ भी खुल गए। मैं स्कूल में चौथी कक्षा से लेकर आठवी कक्षा तक फारसी पढ़ाता रहा था। 'कैसरु' फारसी शब्द है, और इसका अर्थ है 'बादशाह'। उसी दिन वहाँ फारसी पढ़ाने वाले एक मौलवी से इस शब्द के बारे में तसल्ली भी कर ली।

भगत-बाणी के टीके में से झलक:

भगतों की बाणी का टीका 1945 में लिखते-लिखते मुझे ऐसा प्रतीत होने लग पड़ा कि यह बाणी गुरू नानक देव जी ने स्वयं ही इकट्ठी की थी। ये विचार आँखों के आगे रख ज्यों-ज्यों मैं भगत-बाणी की अंदरूनी गवाही की तलाश करने लगा, मेरा यह विचार और भी ज्यादा पक्का होता चला गया।

पर गुरू नानक देव जी ने इसको क्या करना था? हमारे इतिहास में यह जिकर है कि सतिगुरू नानक देव जी की अपनी ही बाणी जगह-जगह पर बिखरी पड़ी थी जो गुरू अरजन साहिब ने देश-देशांतरों में सिखों को चिट्ठियां भेज के इकट्ठी करवाई थी। जिस गुरू-व्यक्ति ने अपनी ही बाणी संभाल के नहीं रखी, उसने भगत-बाणी एकत्र करने की ज़हमत क्यों करनी थी? पर, भगत-बाणी की अंदरूनी खोज ने यह खुल्लम-खुल्ला बताना शुरू कर दिया कि इसके इकट्ठे करने का काम गुरू नानक देव जी के हिस्से आया था।

नई तलाश:

सो, मैंने गुरू नानक साहिब से ले के गुरू अरजन साहिब तक पाँचों गुरू-व्यक्तियों की बाणी को खोजना शुरू कर दिया। थोड़ी सी मेहनत से ही यह बात प्रत्यक्ष दिखाई दे गई कि सतिगुरू नानक देव जी ने अपनी सारी बाणी ही लिख के संभाली थी। यह खजाना उन्होंने गुरू अंगद साहिब को दिया, और हरेक गुरू-व्यक्ति ने अपनी बाणी मिला के, आखिर में गुरू रामदास जी ने यह सारा भण्डार गुरू अरजन साहिब के हवाले किया।

मैंने ये सारा विषय तीन लेखों में बाँट कर अर्ध-मासिक अखबार 'पटियाला समाचार' में छपवाया। फिर मेरे और लेखों समेत ये लेख भी मेरी लेखों की दूसरी पुस्तक 'कुछ और धार्मिक लेख' में छापे गए। अब इस पुस्तक का नाम बदल के 'गुरबाणी के इतिहास बारे' रखा गया है। 'सिंघ ब्रदर्ज़' बाजार माई सेवां अमृतसर से मिलती है। इसी पुस्तक में से वे तीनों लेख ले कर 'श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण' के तीसरे भाग में पाठकों की जानकारी के लिए छाप दिए गए हैं (देखें इसी दर्पण के तीसरे भाग के आखिरी लेख)।

भुलेखे:

जैसे श्री गुरू गोबिंद सिंघ जी की बाणी में से कई शब्दों को गलत समझ के सतिगुरू जी के जीवन-लिखारियों ने देवी-पूजा आदि कहानियां घड़ लीं, इसी तरह बाबा फरीद जी के शलोकों को बेपरवाही से पढ़ के यहाँ भी लिखा गया कि बाबा जी ने अपने पल्ले काठ की रोटी बाँधी हुई थी, जब भूख लगती थी, इस रोटी को दांतों से चबा के गुजारा कर लेते थे। यह भी कहा जाता है कि बाबा फरीद जी उल्टे लटक के कई साल तप करते रहे, और कई बार कौए आ-आ के इनके पैरों में चोंच मारते थे।

सिख का फर्ज:

अगर बाबा फरीद जी की बाणी गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज ना होती, तो हमें इन कहानियों के विश्लेषण करने की आवश्यक्ता नहीं थी। हरेक मनुष्य का हॅक है कि वह अपने ईष्ट को जिस रूप में चाहे देखे। पर, इन कहानियों की प्रौढ़ता के लिए चुँकि उस बाणी में से प्रमाण दिए जाते हैं जो गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज है, इसलिए हरेक सिख का फर्ज है कि इनको थोड़ी गंभीरता से विचारे। जिस 'बीड़' कोहम 'गुरू ग्रंथ साहिब' कहते हैं और 'गुरू की तरह जिसका आदर करते हैं उसका हरेक शबद गुरू-रूप है। अगर हम किसी भट्ट अथवा भगत का कोई शबद गुरू-आशय के उलट समझते हैं, तो वह 'बीड़' जिसमें गुरू-आशय से अलग भाव वाले वाक्य दर्ज हैं समूचे तौर पर गुरू का दर्जा नहीं रख सकती। यह एक हास्यास्पद निष्चय है कि भगतों के कई शबदों को हम गुरमति अनुसार मानें, और, कई शबदों को गुरू आशय के विरुद्ध। गुरू अरजन साहिब ने सारी 'बीड़' में ये बात कहीं भी नहीं लिखी कि फलाने-फलाने शबद गुरमति अनुसार नहीं हैं। तर्क करने वाले तो जल्दबाजी में यह भी कह उठे हैं कि तुखारी राग में से छंत महला ४ 'नावनु पुरबु अभीचु' भी गुरमति के उलट है।

सिख की श्रद्धा:

सिख को यह श्रद्धा बनानी चाहिए कि श्री गुरू ग्रंथ साहिब के किसी भी अंग में कोई कमी नहीं है। और, इसी ही निष्चय से हमने बाबा फरीद जी के ये शलोक पढ़ने हैं। पर, यह सिर्फ पढ़ने के लिए तो नहीं, और गुरबाणी ही की तरह ये भी सिख को जीवन की जाच सिखाते हैं, सिख के जीवन का आसरा हैं, सिख के मन का स्तम्भ हैं। इस धुरे से 'फरीदा रोटी मेरी काठ की' वाले शलोक पढ़ के काठ की रोटी वाली कहानी सुन के साधारण तौर पर पाठक के मन में कई प्रश्न उठते हैं। क्या रोटी खानी बुरा काम है? अगर ये बुरा काम है तो काठ की रोटी से मन को परचाना कैसे अच्छा काम हो सकता है? पर, क्या काठ से मन भी परच सकता है? क्या यह शलोक हरेक प्राणी मात्र के लिए सांझा उपदेश है? तो फिर, क्या कभी कोई ऐसी अवस्था भी आनी चाहिए जब इस बाणी को पढ़ने वाले काठ की रोटी पल्ले से बाँधे फिरें? अगर ऐसा दौर नहीं आना चाहिए, तो इसके पढ़ने का क्या लाभ?

जैसे काठ की रोटी की कहानी इस शलोक को गलत ढंग से समझने से बनी, वैसे ही 'कागा चूंडि न पिंजरा' शलोक से यह ख्याल बन गया, कि फरीद जी उल्टे लटक के तप करते थे। भूखें काटनीं, धूणियां तपानी और उल्टे लटकना आदि कर्म गुरमति के अनुसार अनावश्यक हैं, और ना ही फरीद जी की बाणी में कहीं भी इनको जरूरी बताया गया है।

यह हानिकारक मनौत:

कई सज्जन सहज-सुभाय यह कह दिया करते हैं कि कई-कई जगह फरीद जी ने गुरमति के दृष्टिकोण से अलग ख्याल प्रकट किए, पर सतिगुरू जी ने अपना पक्षा पूरा करने के लिए उसके साथ अपना शलोक दर्ज कर दिया, जैसे 'तनु तपै तनूर जिउ' और 'फरीदा पाड़ि पटोला धजु करी'। ये ख्याल बहुत खतरनाक और हानीकारक है। 'गुरू' (ग्रंथ साहिब) में गुरू-आशय से ना मिलने वाले वाक्य बता-बता के सिख के सिदक को भारी चोट मारना है, और अपने ईष्ट को खुद ही बे-प्रतीता साबित करने का कोझा यतन है।

ऐसे ऐतराज़-योग्य ख्याल पैदा होने के कारण ऐसा लगता है कि आम सज्जन फरीद जी के शलोकों को एक कड़ी में जुड़ा हुआ मज़मून नहीं मानते, ऐसा समझते हैं कि रंग-बिरंगी तरंगों का संग्रह है ।

असल बात:

असल बात ये है कि फरीद जी के शलोकों में कहीं भी गुरमति की विरोधता नहीं जिसको सतिगुरू जी ने अपने अगले शलोक में ठीक कर दिया हो। हाँ, जहाँ-कहाँ फरीद जी ने कोई ख्याल इशारे मात्र दिया है और भुलेखा होने की संभावना हो सकती हो, सतिगुरू जी ने उस को और ज्यादा खोल के दे दिया है।

इस टीके में मैंने इन शलोकों को एक कड़ी में परोया हुआ विषय समझने की कोशिश की है, जिसके कारण ऊपर लिखे संशय अपने आप ही खत्म हो जाते हैं। सारे शलोकों का लड़ी-वार भाव भी दिया गया है, ताकि पाठकों को इस सारी बाणी को समझने में सहूलत हो सके।

नोट: बाबा फरीद जी के शलोकों के टीके की पहली एडीशन मई संन् 1946 में छपी थी। तब मैं खालसा कालिज अमृतसर में पढ़ाता था। दूसरी एडीशन 1949 में छप गई थी, तब भी मैं खालसा कालेज में ही था।

नोट: 'काठ की रोटी' और 'उल्टे लटक के तप करने' के बारे में मेरा लेख पहले पहले मेरी लेख लड़ी की तीसरी पुस्तक 'गुरमति प्रकाश' में छपे थे। उसमें से ले के अब 'श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण' की तीसरी पोथी के अंतिम लेख के रूप में छापे गए हैं। यह तीन लेख हैं। पहला यह कि बाबा फरीद जी की बाणी गुरू नानक देव जी ने आप ही ला के अपने पास रखी हुई थी। पुस्तक 'गुरमति प्रकाश' सिंघ ब्रदर्ज़ बाजार माई सेवां अमृतसर से मिलती है। मेरी और पुस्तकें भी वहीं से ही।

-साहिब सिंह

ੴ (इक ओअंकार) सतिगुर प्रसादि॥

जीवन बाबा फरीद जी

(संन ११७३ से १२६६)

बारहवीं सदी ईसवी में काबुल का बदशाह फ़रुख शाह था। गज़नी व और नज़दीक के इलाकों के बादशाह इसकी ईन मानते थे। पर फरुखशाह का पुत्र अपने पिता की तरह तेज-प्रताप वाला साबित ना हुआ, और, गज़नी के बादशाह ने काबुल पर कब्ज़ा कर लिया। पर आखिर उसने अपनी लड़की की शादी फरुख़शाह के पुत्र से करके उसको काबुल की बादशाहियत वापस कर दी।

जब गजनी और काबुल के आपस में इस तरह के लड़ाई-झगड़े हो रहे थे, तो गज़नी के बादशाह का एक भाई शेख शईब (519 हिजरी) संन 1125 में अपना वतन छोड़ के अपने कुछ रिश्तेदारों और तीन पुत्रों समेत कसूर आ बसा। कुछ समय बाद कसूर से ये मुल्तान चले गए, और फिर दिपालपुर के नजदीक एक नगर कोठीवाल जा बसे, जिसका नाम इस वक्त चाउली मुशैखां है। शेख शईब के बड़े पुत्र का नाम जमालॅु-दीन सुलेमान था।

गजनी और काबुल के शाही झगड़ों के दिनों में काबुल का रहने वाला एक मौलवी वजीह-उद्दीन भी काबुल से मुल्तान के जिले में नगर करोर में आ बसा। यह मौलवी हज़रत मुहम्मद साहिब के चाचा हज़रत अब्बास के खानदान में से था। इस मौलवी ने हज़रत अली के खनदान के एक सय्यद मुहम्मद अब्दुल्ला शाह की लड़की बीबी मरियम को अपनी लड़की बना के पाला हुआ था। काबुल से चलने के वक्त इस लड़की को भी यह मौलवी अपने साथ ले आया।

जब बीबी मरियम जवान हुई तब मौलवी वजीहुद्दीन ने इसकी शादी शेख शईश के बड़े बेटे जमाल्लुद्दीन से कर दी। इनके घर तीन लड़के पैदा हुए, और एक लड़की। दूसरे बेटे का नाम फरीदुद्दीन मसऊद का। ये हिजरी 569 के महीने रमज़ान की पहली तारीख़ को पैदा हुए। तब संन ईसवी 1173 थी।

16 साल की उम्र में फरीद जी माता-पिता के साथ हॅज करने के लिए मक्के-शरीफ़ गए। वापस आ के इस्लामी तालीम हासिल करने के लिए काबुल भेजे गए। तालीम पूरी करके जब ये मुल्तान वापस आए, तो यहाँ इनको दिल्ली वाले ख्वाजा कुतबॅुद्दीन बख़्तीअर उशी के दर्शन हुए। फरीद जी ख्वाजा जी के मुरीद बन गए। मुरशद के हुकम अनुसार कुछ समय फरीद जी हांसी और सरसे भी इस्लामी तामील लेते रहे। जब ख्वाजा कुतबॅुद्दीन का इंतकाल हो गया, तब फरीद जी अजोधण आ टिके, जिसको अब पाकपट्टन कहते हैं। इस वक्त तक फरीद जी की शादी हो चुकी थी। फरीद जी के छे लड़के दो लड़कियां थीं, बड़े बेटे का नाम शेख बदरुद्दीन सुलेमान था। बाबा फरीद जी के बाद यही उनकी गद्दी पर बैठे।

बाबा फरीद जी, हिजरी 664 के महीना मुहॅरम की पाँच तारीख को (संन ईसवी 1266) 93 साल की उम्र में अपने गाँव अजोधण (पाक-पक्तन) में संसार से रुख़्सत हुए।

शेख-ब्रहम, जिसको गुरू नानक देव जी तीसरी 'उदासी' के वक्त पाकपट्टन में मिले थे, बाबा फरीद जी के खानदान में ग्यारहवीं जगह पर थे। जब अमीर तैमूर अपने हमले के वक्त संन 1398 में अजोधण आया था, तब बाबा फरीद जी का पौत हज़रत अलाउद्दीन मौजदरिया गद्दी पर था।

शेख ब्रहम, बाबा फरीद जी की गद्दी पर संन 1510 में बैठे थे, और 42 साल रह के संन 1552 में इनका इंतकाल हुआ। सरहंद में इनका मकबरा है। गुरू नानक साहिब ने शेख ब्रहम से ही बाबा फरीद जी की सारी बाणी हासिल की थी।

कई लिखारी यह कहते हैं कि यह शलोक और शबद जो बाबा फरीद के नाम पर लिखे हुए गुरू ग्रंथ साहिब में मिलते हैं, ये शेख ब्रहम के हैं जिस को फरीद सानी भी कहा जाता है। पर, ये ख्याल बिल्कुल ही ग़लत है। अगर बाबा फरीद जी ने खुद कोई बाणी उचारी ना होती, तो उनकी गद्दी पर बैठे किसी और व्यक्ति को ये हॅक नहीं हो सकता कि वह फरीद जी का नाम बरतता। गुरू अंगद साहिब, गुरू अमरदास, गुरू रामदास, गुरू अरजन साहिब और गुरू तेग बहादर साहिब ने अपनी उचारी बाणी में सतिगुरू नानक देव जी का नाम तब ही प्रयोग कर सके जब गुरू नानक देव जी ने स्वयं भी बाणी उचारी और शब्द 'नानक' बरता। फिर, बागबा फरीद जी की गद्दी पर उनसे ले के शेख ब्रहम तक बाबा फरीद जी के बिना कोई भी और सज्जन उनकी बराबरी का मशहूर नहीं हुआ।

ये ख्याल भी निर्मूल है कि बाबा फरीद जी के समय तक 'पंजाबी बोली' इतने सुंदर ठेठ रूप में नहीं आ सकी थी। फरीद जी का देहांत संन 1266 में हुआ। गुरू नानक देव जी संन 1469 में जन्मे। सिर्फ दो सौ साल का अंतर था। सतिगुरू नानक देव जी की बाणी में बहुत सारे शब्द निरोल ठेठ पंजाबी के हैं। अकबर के समय कवि दमोदर हुआ है, जिसने ठेठ पंजाबी में हीर का किस्सा लिखा है। यदि बाबा फरीद जी के वक्त अभी 'पंजाबी बोली' ठेठ रूप में नहीं थी आ सकी, तो इन तीन सौ सालों में इतनी भारी तब्दीली नहीं आ सकती थी। 'बोली' बनते और तब्दील होते सैंकड़ों नहीं हजारों साल लग जाया करते हैं। बाबा फरीद जी भले ही अरबी-फारसी के प्रसिद्ध विद्वान थे, पर वे पंजाब में जन्मे-पले थे, और पंजाबी उनकी अपनी बोली थी। पंजाब के लोगों में प्रचार करने के लिए सबसे उक्तम ढंग पंजाबी बोली ही हो सकता था, जो फरीद जी ने अपनाया। इलाके के असर तले लहिंदी पंजाबी के शब्द बाबा जी की बाणी में काफी हैं।

गंज शकर

बाबा फरीद जी के नाम के साथ उनके नाम-लेवा शब्द 'गंज शकर' बरतते हैं। बाबा जी को 'गंज शकर कहना कैसे शुरू हुआ - इस बारे भी आश्चर्य भरी कहानियां लिखी मिलती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे फरीद जी की बाणी को गलत समझ के ये ख्याल बनाए गए कि बाबा जी ने काठ की रोटी अपने पल्ले बाँधी हुई थी, और वे जंगल में उल्टे लटक के तप किया करते थे, इसी तरह उनके जीवन को ग़लत समझ के उनके 'गंज शकर' होने के संबन्ध में भी अजीब साखियां लिखी हुई मिलती हैं।

उन कहानियों में से एक कहानी यूँ है कि फरीद जी अपने नफ़स को मारने के लिए तीन-तीन दिन रोज़ा रखा करते थे। एक बार रोज़ा रखा, तीन दिनों बाद जब रोज़ा खोलना था तो खाने को कुछ ना मिला, भूख से घबराए तो फरीद जी ने मिट्टी की कुछ ढेलियां मुँह में डालीं। वह मिट्टी शक्कर बन गई। बस! इससे उनको लोगों ने 'गंज शकर' कहना शुरू कर दिया।

पर, यह कहानी लिखने वाले को उनकी काठ की रोटी का चेता नहीं रहा। अगर फरीद जी सिर्फ तीन दिन की भूख से व्याकुल हो सकते थे, तो वे कई-कई दिन काठ की रोटी को दाँतों से चबा के अपने आप को कैसे तसल्ली दे लेते थे? दोनों बातें आपस में मेल नहीं खातीं।

असल बात बिल्कुल और है। ये बात आम प्रसिद्ध है कि बाबा फरीद जी के जीवन की छू से लाखों लोगों की जिंदगी को सही राह मिला, सिर्फ मुसलमान ही नहीं, लाखों हिन्दुओं ने भी आ के फरीद जी का पलला पकड़ा। आखिर ये बात तब ही हो सकी जब बाबा जी के जीवन में कोई आकर्षण और मिठास थी, जब उनके पास बैठने वालों को कोई ठंडक पड़ती थी। मनुष्य की विनम्रता और मिठास एक ऐसा गुण है जो अन्य सभी मानवीय गुणों का श्रोत है, और सभी अच्छाईयों का मूल है तॅत है, साहिब गुरू नानक देव जी ने इस गुण को यूँ सराहा है;

मिठतु नीवी नानका गुण चंगिआईआ ततु॥

रॅब के दरवेश के गुण बयान करते वक्त फरीद जी ने खुद भी यही कहा है कि मीठा बोलना और किसी का दिल ना दुखाना रॅब को मिलने के चाहवान के लिए सबसे जरूरी गुण है;

इकु फिका न गालाइ, सभना मै सचा धणी॥ हिआउ न कैही ठाहि, माणक सभ अमोलवे॥१२९॥ सभना मन माणिक, ठाहणु मूलि मचांगवा॥ जो तउ पिरीआ दी सिक, हिआउ न ठाहे कहीदा॥१३०॥

बस! यही शक्कर थी बाबा फरीद जी के मुँह में। यही 'गंज' थी और यही खजाना था 'शक्कर' का, जिसने लाखों लोगों को उनके चरणों का भँवरा बना रखा था।

बाबा फरीद का मज़हब

फरीद जी के जीवन-लिखारी फरीद जी को 'सूफी' कहते हैं। उनके मज़हब का नाम कोई भी रख लो, पर जब हम उनकी अपनी बाणी को ध्यान से पढ़ के निर्णय करते हैं, तो उनके धार्मिक ख्याल निम्न-लिखित अनुसार दिखाई देते हैं;

मनुष्य नीयत समय ले के जगत में ईश्वर को मिलने के लिए आया है, 'दरवेश' बनने आया है। पर माया के मोह की पोटली इसको निंदा और वैर-विरोध आदि इसे गलत रास्ते पर डाल देते हैं।

'दरवेश' बनने के लिए किसी जंगल में जाने की जरूरत नहीं है, घर का काम-काज करते हुए हृदय में ईश्वर को देखना है। ऐसे 'दरवेश' के लक्षण ये हैं- सहनशीलता, दुनियावी लालच से मुक्ति, एक ईश्वर पर आस, ख़लकति की सेवा, किसी का दिल ना दुखाना, हॅक की कमाई, और रॅब की याद। अगर माया का लालच खत्म नहीं हुआ, तो धार्मिक भेख और धार्मिक आहर, 'दरवेश' जीवन का दम इतना घोट देते हैं कि उसका पनपना मुश्किल हो जाता है।

शलोकों का वेरवा

ये सारे शलोकों की गिनती 130 है। इनमें से 18 शलोक गुरू नानक देव, गुरू अमरदास, गुरू रामदास व गुरू अरजन साहिब के भी हैं, जो फरीद जी के कुछ शलोकों के भाव और ज्यादा स्पष्ट समझाने के लिए लिखे गए हैं, ताकि कोई अंजान मनुष्य गलती ना करे। सो, सिर्फ फरीद जी के शलोकों का भाव लिखने के वक्त सतिगुरू जी के शलोकों को साथ मिलाने की जरूरत नहीं है।

विचारों की मिलती-जुलती तरतीब के अनुसार इन शलोकों को निम्नलिखित पाँच हिस्सों में बाँटा गया है;

शलोक नं: 1 से 15 तक। इनमें शलोक नं: 13 गुरू अमरदास जी का है (फरीद जी के 14 हैं)।

शलोक नं: 16 से 36 तक (21शलोक)। इनमें शलोक नं: 32 गुरू नानक साहिब का है, (फरीद जी के अपने 20 हैं)।

शलोक नं: 37 से 65 तक (29 शलोक)। इनमें शलोक नं: 52 गुरू अमरदास जी का है (फरीद जी के 28 हैं)।

शलोक नं: 66 से 92 तक (27 शलोक)। इनमें शलोक नं: 75, 82, 83 गुरू अरजन साहिब जी के हैं (फरीद जी के अपने 24 हैं)।

शलोक नं: 93 से 130 तक (38 शलोक)। इनमें गुरू नानक देव जी के तीन शलोक हैं (नं: 113, 120, 124), गुरू अमरदास जी के तीन शलोक हैं (नं: 104, 122, 123), गुरू रामदास जी का एक शलोक (नं: 121), और गुरू अरजन साहिब के पाँच शलोक हैं (नं: 105, 108, 109, 110, 111)। फरीद जी के अपने 26 शलोक हैं।

सो,

बाबा फरीद जी के   - 112 शलोक

गुरू नानक देव जी   - 4 (नं:32,113,120,124)

गुरू अमरदास जी   - 5 (नं:13,52,104,122,123)

गुरू रामदास जी   - 1 (नं: 121)

गुरू अरजन साहिब   - 8 (नं:75,82,83,105,108,109, 110, 111)

कुल जोड़       -130

बाबा फरीद जी के शलोकों का भाव

शलोक-वार

नं: 1 से 15 तक -15 शलोक

हरेक जीव की जिंदगी के दिन गिने-मिथे हुए हैं, जीव यहाँ बँदगी, 'दरवेशी' करने आया है। पर मनुष्य मोह की पोटली सिर पर बाँधे फिरता है, यह छुपी हुई गहन आग हमेशा इसे जलाती है। फिर भी माया के कारण अहंकारी होया हुआ जीव ईश्वर से संबन्ध तोड़ लेता है। इस मस्ती में किसी की निंदा करता है, किसी के साथ वैर बाँध लेता है। इन कामों में जवानी का समय (जब बँदगी हो सकती है) गवा लेता है। आखिर बुढ़ापा आ जाता है, दुनिया के पदार्थ भी नहीं हज़म होते, क्योंकि सारे अंग कमजोर हो जाते हैं, और, जवानी गुजार के बुढ़ापे में बँदगी का स्वभाव पकाना बहुत मुश्किल हो जाता है। अंत मरने पर ये सुंदर शरीर मिट्टी हो जाता है। पर, आश्चर्यजनक बात ये है कि इस मन के मुरीद बंदे को कितना भी समझाओ, ये एक नहीं सुनता।

नं: 16 से 36 तक - 21 शलोक

इस जगत-मेले की भीड़ में कई बार धक्के खाने पड़ते हैं, ज्यादतियां सहनी पड़ती हैं; पर, 'दरवेश' दभ और खाक की तरह सहनशील हो जाता है।

'दरवेश' का रॅबी प्यार किसी दुनियावी लालच के आसरे नहीं होता। उसको ये जरूरत भी नहीं पड़ती कि ईश्वर को जंगलों में ढूँढने जाए, उसको हृदय में ही पा लेता हैं पर, 'दरवेशी' कमाने का वक्त जवानी ही है।

'दरवेश' कभी पराई आस नहीं ताकता, और ना ही घर आए किसी परदेसी की सेवा से चिक्त चुराता है।

सुखी जीवन की खातिर बँदगी के बिना और उपाय करने मूर्खता है। दरवेश को कोई और लालच आदि बँदगी के राह से नहीं हटा सकते, क्योंकि वह जानता है कि जिस शरीर और सुख के लिए जगत गलतियां करता है, आखिर वह शरीर भी मिट्टी में मिल जाता है। सो, 'दरवेश' शरीर के निर्वाह के लिए पराई चोपड़ी से अपनी कमाई हुई रूखी-सूखी को ज्यादा अच्छा समझता है।

'दरवेश' एक पल भर के लिए भी रॅब को याद किए बिना नहीं रह सकता। सिमरन से टूट के धार्मिक भेष और साधनों को 'दरवेश' निकम्मे जानता है, क्योंकि इनमें उम्र व्यर्थ ही गुजरती है, चिंता ओर दुख सदा सताते ही रहते हैं। जिस मनुष्य को कभी याद नहीं आया कि मैं रॅब से विछुड़ा हुआ हूँ, उसकी आत्मा विकारों में जल गई समझो।

नं: 37 से 65 तक-29 शलोक

दुनिया के इन मीठे मगर जहरीले पदार्थों की खातिर मनुष्य सारा दिन भटकता है, और, उम्र दुखों में गुजारता है। बुढ़ापे में भी इसका यही हाल रहता है, दूसरों के दर पर जा-जा के धक्के खाता है। था ये सृष्टि का सरदार; पर इसकी सारी उम्र, मानो, कोयलों के व्यापार में गुजर जाती है।

मनुष्य-जीवन की कामयाबी के माप-दण्ड ये पदार्थ नहीं हैं, क्योंकि छत्र-धारी पातशाह भी आखिर यतीमों जैसे हो गए। महल-माढ़ियों वाले भी यहीं छोड़ के चले गए। ये पदार्थ तो कहां रहे, इसकी अपनी जान की भी कोई बिसात नहीं (इसकी जान का भी कोई भरोसा नहीं); इससे ज्यादा भरोसा तो इस बेकार सी दिखती गोदड़ी पर किया जा सकता है। देखते-देखते ही मौत इस शरीर-किले को लूट के ले जाती है। सो, ये पदार्थ भी साथ ना निभे, और इनकी खातिर किए बुरे कामों के कारण उम्र भी दुखों में कटी।

बाहरी धार्मिक भेष भी सहायता नहीं करता। चाहिए तो ये कि बँदगी की बरकति से इन 'विसु-गंदला' का लालच ना रहे।

इन 'विसु गंदलों' की खातिर भटकते हुए जवानी बीत जाती है, सफेद बाल आ जाते हैं। आखिर कब तक? जिंदगी के गिने-चुने दिन खत्म होते जाते हैं, महल-माढ़ियां और धन यही पड़े रह जाते हैं, और खसम के दर पर जा के शर्मिंदा होना पड़ता है।

अगर फकीरी के राह पर चलते हुए, और अपनी ओर से धार्मिक जीवन व्यतीत करते हुए, मन में 'विसु गंदलों' के लिए भटकना टिकी रहे तो सारे धार्मिक उद्यम बाहर-मुखी हो जाते हैं। बल्कि, एक और नुकसान का खतरा हो जाता है कि वह पहला धार्मिक चाव उत्साह खत्म ही हो जाता है, उसका दोबारा पनपना मुश्किल हो जाता है। पर, हँस इस दुनिया- कलॅर की छपड़ी से पानी नहीं पीता, हँस कोधरा नहीं खाता, उसकी ख़ुराक मानसरोवर के मोती हैं।

नं: 66 से 92 तक - 27 शलोक

इस संसार-सरोवर के जीव-पंछियों के झुंड में से नित्य किसी ना किसी के चलने की बारी आती रहती है। यहाँ बँदगी-हीन बँदे का जीवन किसी काम का नहीं। यहीं पर रह जाने वाली माया के कारण उसका अकड़ा हुआ सिर सूखी लकड़ी ही समझो।

अहंकारी मनुष्य इस जिंदगी को इतना दोज़क बना देते हैं कि जीने का कोई उल्लास ही नहीं रह जाता। पर माया का मान तो कहाँ रहा, ये अपने शारीरिक अंग भी जवाब दे जाते हैं किसी को दुखाना है ही मूर्खता। यहाँ तो सारे पंछी मेहमान ही हैं। इस संसार-वृक्ष पर गफ़लति में सारी रात सोते रहने की बजाए अगले सफर की तैयारी करने की जरूरत है।

माया में भूल के, बँदगी-हीन हो के सभ जीव दुखी हो रहे हैं, ये अपने ही किए बुरे कर्मों का फल मिलता है, दिन दुखों में और रात चिंताओं में बीतती है। दुखों की इस बाढ़ में बहने से सिर्फ वही मनुष्य बचते हैं, जिनकी जिंदगी का मल्लाह गुरू है।

जगत में चारों तरफ स्वादिष्ट और मन-मोहक वस्तुएं मनुष्य के मन को आकर्षित करती हैं, इनके चस्कों में पड़ कर शरीर का सत्यानाश हो जाता है, पर, तृष्णा (झाक) खत्म नहीं होती। हाँ, जिस हृदय में पति-प्रभू का प्यार बसता है, उसको कोई विकार विषौ-भोगों की तरफ़ प्रेरित नहीं कर सकते।

नं: 93 से 130 तक (38 शलोक)

मनुष्य के देखते-देखते ही ख़लकति मौत का शिकार हो के कब्रों में पड़ती जा रही है। ये बँदा नदी के किनारे के सूने पेड़ की तरह है, उस बगुले की तरह है, जिसको केल करते को बाज़ झपट्टा मार के आ दबोचता है। सारे जगत को मौत ने अपने चुँगल में लपेटा हुआ है, अच्छे-भले पले शरीर भी मौत से नहीं बच सकते, क्योंकि बुढ़ापा आने पर आखिर पले हुए अंग भी कमजोर हो जाते हैं, जैसे पेड़ों के पत्ते झड़ जाते हैं। पर, ये सब देखते हुए भी हरेक मनुष्य स्वार्थ का मारा हुआ है। ऐसे मनुष्य से बेहतर तो वे पंछी हैं, जो कंकड़ चुग के पेड़ों पर घोंसले बना के गुजारा करते हैं, पर ईश्वर को याद रखते हैं।

ऐसी महल-माढियों के बसेरे से तो कंबली पहन के फकीर बन जाना अच्छा है अगर वहाँ रॅब याद रह सके, क्योंकि महल-माढ़ियों का वासा और पहनने के लिए पट-रेशम होते हुए भी अगर रॅब बिसरा है तो यहाँ भी दुख ही दुख, और रॅब की हजूरी में भी शर्मिंदगी।

वैसे कंबली पहन के फकीर बनने की जरूरत नहीं, घर में रह के ही 'दरवेशी' कमानी है। वह दरवेशी है- अमृत बेला में उठ के मालिक को याद करना, और आसरे छोड़ के सब्र धरना (ये रास्ता कठिन अवश्य है, पर माया के अनेकों फंदों से बचने के लिए रास्ता यही है), निम्रता, सहन-शीलता, मीठा बोलना और किसी का दिल ना दुखाना, क्योंकि सब में वही मालिक मौजूद है जिसकी बँदगी करने के लिए मनुष्य यहाँ आया है।

संक्षेप भाव:

(शलोक नं: 1 से 15 तक) मनुष्य गिने हुए दिन ले के, 'दरवेशी' के लिए आता है, पर, माया के मोह की पोटली इसको निंदा वैर आदि गलत राह पर डाल देती है।

(शलोक नं: 16 से 36 तक) सहन-शीलता, दुनियावी लालच से निजात, एक रॅब की आस, ख़लकति की सेवा, हॅक की कमाई, और रॅब की याद -ये हैं लक्षण 'दरवेश' के। ऐसे 'दरवेश' को जंगल में जाने की जरूरत नहीं पड़ती, घर में ही वह रॅब को मिल लेता है।

(शलोक नं: 37 से 65 तक) माया की खातिर भटकते हुए सारी उम्र ख्वारी में गुजरती है, माया भी यहीं रह जाती है। जब तक माया का लालच मौजूद है धार्मिक भेख और आहर 'दरवेश' जीवन का बल्कि दम घोट देते हैं, उसका पनपना कठिन हो जाता है।

(शलोक नं: 66 से 92 तक) यहीं पर रह जाने वाली माया के कारण अहंकारी हुआ मनुष्य जिंदगी को इतना दोज़क बना देता है कि जीने का चाव ही समाप्त हो जाता है। दिन-रात दुखों में बीतते हैं, मन-मोहक पदार्थों के चस्के शरीर का सत्यानाश कर देते हैं। यह जीवन असल में 'दरवेशी' कमाने के लिए मिला है। जो मनुष्य प्रभू-प्यार में जुड़ता है उसको विषौ-भोग नहीं सताते। वह सुखी हो जाता है।

(शलोक नं: 93 से 130 तक) दूसरों को मरते हुए देख के भी स्वार्थ में फसा हुआ मनुष्य ईश्वर को याद नहीं करता। ऐसे मनुष्य से तो पक्षी अच्छे। ऐसे महल-माढ़ियों से फकीरी बेहतर। वैसे घर-घाट छोड़ने की जरूरत नहीं है। घर में रहते हुए ही 'दरवेशी' कमानी है। वह 'दरवेशी' यह है- अमृत बेला में प्रभू की याद, एक रॅब की आस, विनम्रता, सहन-शीलता और किसी का दिल ना दुखाना।


सलोक सेख फरीद के    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जितु दिहाड़ै धन वरी साहे लए लिखाइ ॥ मलकु जि कंनी सुणीदा मुहु देखाले आइ ॥ जिंदु निमाणी कढीऐ हडा कू कड़काइ ॥ साहे लिखे न चलनी जिंदू कूं समझाइ ॥ जिंदु वहुटी मरणु वरु लै जासी परणाइ ॥ आपण हथी जोलि कै कै गलि लगै धाइ ॥ वालहु निकी पुरसलात कंनी न सुणी आइ ॥ फरीदा किड़ी पवंदीई खड़ा न आपु मुहाइ ॥१॥ {पन्ना 1377}

पद्अर्थ: जितु = जिस में। जितु दिहाड़ै = जिस दिन में, जिस दिन। धन = स्त्री। वरी = चुनी जाएगी, ब्याही जाएगी। साहे = (उसका) नीयत समय। मलकु = मलकतु मौत, (मौत का) फरिश्ता। कूं = को। न चलनी = नहीं टल सकते। जिंदू कूँ = जिंद को। मरण = मौत। वरु = दूल्हा। परणाइ = ब्याह के। जोलि कै = चला के, विदा कर के। कै गलि = किस के गले में? धाइ = दौड़ के। वालहु = बाल से। पुरसलात = पुल सिरात। कंनी = कानों से। किड़ी पवंदीई = आवाजें पड़ती हैं। किड़ी = आवाज। आपु = अपने आप को। न मुहाइ = ना ठगा, धोखे में ना डाल, ना लुटा।

अर्थ: जिस दिन (जीव-) स्त्री ब्याही जाएगी, वह समय (पहले ही) लिखा गया है (भाव, जीव के जगत में आने से पहले ही इसकी मौत का समय मिथा जाता है), मौत का फरिश्ता जो कानों से सुना ही हुआ था, आ के मुँह दिखाता है (भाव, जिसके बारे में पहले औरों की मौत के समय सुना था, अब वह जीव-स्त्री को आ के मुँह दिखाता है जिसकी वारी आ जाती है)।

हड्डियों को तोड़-तोड़ के (भाव, शरीर को रोग आदि से शिथिल कर के ) बेचारी जीवात्मा (इसमें से) निकाल ली जाती है। (हे भाई!) जिंद को (ये बात) समझा कि (मौत का) ये निहित समय टल नहीं सकता।

जीवात्मा, मानो, दुल्हन है, मौत (का फरिश्ता इसका) दूल्हा है (जीवात्मा को) ब्याह के अवश्य ले जाएगा, यह (काया जीवात्मा को) अपने हाथों से विदा करके किसके गले लगेगी? (भाव, निआसरी हो जाएगी)।

हे फरीद! तूने कभी 'पुल सिरात' का नाम नहीं सुना जो बाल से भी बारीक है? कानों में आवाजें पड़ने पर भी अपने आप को लुटाए ना जा (भाव, जगत में समुंद्र है जिसमें विकारों की लहरें उठ रही हैं, इसमें से सही सलामत पार लांघने के लिए 'दरवेशी', मानो, एक पुल है, जो है बहुत ही सँकरा और बारीक, अर्थात, दरवेशी कमानी बहुत कठिन है, पर दुनिया के विकारों से बचने के लिए रास्ता सिर्फ यही है। हे भाई! धर्म-पुस्तकों के द्वारा गुरू-पैग़ंबर तुझे विकारों की लहरों के खतरों से बचाने के लिए आवाजें मार रहे हैं; ध्यान से सुन और जीवन को व्यर्थ ना गवा)।1।

नोट: शब्द 'जिंदु' के अंत में 'ु' मात्रा होती है, वैसे यह स्त्रीलिंग है। 'संबंधक' आदि के साथ 'जिंदु' से 'जिंदू' हो जाता है, जैसे 'खाकु' से 'खाकू', 'विसु' से विसू'। (देखो 'गुरबाणी व्यकरण')।

फरीदा दर दरवेसी गाखड़ी चलां दुनीआं भति ॥ बंन्हि उठाई पोटली किथै वंञा घति ॥२॥ {पन्ना 1377-1378}

पद्अर्थ: गाखड़ी = मुश्किल। दरवेसी = फकीरी। दर = (परमात्मा के) दर की। भति = भांति, की तरह। बंनि् = (अक्षर 'न' के नीचे आधा 'ह' है = बन्ह) बाँध के। वंञा = जाऊँ। घति = फेंक के। पोटली = छोटी सी गठरी।

अर्थ: हे फरीद! (परमात्मा के) दर की फकीरी कठिन (कार) है, और मैं दुनियादारों की तरह चल रहा हूँ, ('दुनिया' वाली) छोटी सी पोटली (मैंने भी) बाँध के उठाई हुई है, इसको कहाँ फेंक के जाऊँ? (भाव, दुनिया के मोह को छोड़ना कोई आसान काम नहीं है)।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh