श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1379 फरीदा राती वडीआं धुखि धुखि उठनि पास ॥ धिगु तिन्हा दा जीविआ जिना विडाणी आस ॥२१॥ {पन्ना 1379} पद्अर्थ: धुखि उठनि = धुख उठते हैं, अकड़ जाते हैं। पास = शरीर के पासे (शब्द 'पास' और 'पासि' में अंतर देखना आवश्यक है। देखो शलोक नं:45 'पासि दमामे'। व्याकरण अनुसार शब्द 'पास' संज्ञा बहुवचन (Noun Plural) भाव, जिस्म के पासे, पसलियां। 'पासि' संबंधक है भाव, जिनके पास)। विडाणी = बेगानी। (शब्द 'जिनां' और 'तिनां' के अक्षर 'न' के साथ 'ह' है)। वडीआं = लंबियां। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। अर्थ: हे फरीद! (सर्दियों की) लंबी रातों में (सो-सो के) पासे (पसलियां) अकड़ जाते हैं (इसी तरह पराई आस ताकते हुए समय खत्म नहीं होता, पराए दर पर बैठ के बोर हो जाते हैं)। सो, जो लोग दूसरों की आस देखते हैं उनके जीवन को धिककार है, (आस एक रॅब की रखो)।21। फरीदा जे मै होदा वारिआ मिता आइड़िआं ॥ हेड़ा जलै मजीठ जिउ उपरि अंगारा ॥२२॥ {पन्ना 1379} पद्अर्थ: वारिआ होदा = छुपाया होता। मिता आइड़िआं = आए हुए मित्रों को। हेड़ा = शरीर, मास। मजीठ जिउ = मजीठ की तरह। जलै = जलता है। अर्थ: हे फरीद! अगर मैं आए सज्जनों से कभी कुछ छुपा के रखूँ, तो मेरा शरीर (ऐसे) जलता है जैसे जलते हुए कोयलों पर मजीठ (भाव, घर-आए किसी अभ्यागत की सेवा करने से अगर कहीं मन खिसके तो जिंद को बहुत दुख प्रतीत होता है)।22। नोट: उपरोक्त दोनों शलोकों में मनुष्य को जीने की जाच सिखाते हुए, फरीद जी ने कहा है कि ना तो दूसरों के दरवाजों पर रुलता फिर, और ना ही घर आए किसी परदेसी की सेवा से चिक्त चुरा। फरीदा लोड़ै दाख बिजउरीआं किकरि बीजै जटु ॥ हंढै उंन कताइदा पैधा लोड़ै पटु ॥२३॥ {पन्ना 1379} पद्अर्थ: बिजउरीआं = बिजौर के इलाके की (यह इलाका पठानी देश में मालाकंद स्वात से परे है)। दाखु = छोटा अंगूर। किकरि = किक्कर। हंढै = फिरता है। पैधा लोड़ै = पहनना चाहता है। अर्थ: हे फरीद! (बँदगी के बिना सुखी जीवन की आस रखने वाला मनुष्य उस जॅट की तरह है) जो जॅट किक्करें बीजता है पर (उन किक्करों से) बिजौर के इलाके का छोटा अंगूर (खाना) चाहता है, (सारी उम्र) ऊन कातता फिरता है, पर रेशम पहनना चाहता है।23। फरीदा गलीए चिकड़ु दूरि घरु नालि पिआरे नेहु ॥ चला त भिजै क्मबली रहां त तुटै नेहु ॥२४॥ {पन्ना 1379} पद्अर्थ: रहां = अगर मैं रह जाऊँ, (भाव,) अगर मैं ना जाऊँ। त = तो। तुटै = टूटता है। नेहु = प्यार। अर्थ: हे फरीद! (बरखा के कारण) गली में कीचड़ है, (यहाँ से प्यारे का) घर दूर है (पर) प्यारे के साथ (मेरा) प्यार (बहुत) है। अगर मैं (प्यारे को मिलने के लिए) जाऊँ तो मेरी कंबली भीगती है, जो (बरखा के कीचड़ से डरता) ना जाऊँ तो मेरा प्यार टूटता है।24। भिजउ सिजउ क्मबली अलह वरसउ मेहु ॥ जाइ मिला तिना सजणा तुटउ नाही नेहु ॥२५॥ {पन्ना 1379} पद्अर्थ: अलह = अल्लाह कर के, रॅब कर के। भिजउ = बेशक भीगे (let it be soaked). 'भिजउ': ये शब्द व्याकरण के अनुसार 'हुकमी भविष्यत अॅन पुरख एकवचन (Imperative mood, Third person, Singular number) है, इस वास्ते शब्द 'कंबली' का अर्थ है 'हे कंबली!' नहीं हो सकता। इसी तरह 'वरसउ' भी 'हुकमी भविष्यत एकवचन' है, इसका अर्थ 'बेशक बरसे' (Let it rain) यहाँ भी शब्द 'मेहु' का अर्थ 'हे मींह तथा हे वर्षा' नहीं हो सकता, क्योंकि शब्द 'मेहु' व्याकरण के अनुसार पत्यक्ष तौर पर 'कर्ताकारक, एक वचन' है। अगर 'संबोधन' होता तो इसके अंत में 'ु' ना होता। ज्यादा जानकारी के लिए देखें मेरा 'गुरबाणी व्याकरण')। शब्द 'तुटउ' भी शब्द 'भिजउ सिजउ' और 'वरसउ' की तरह ही है। अर्थ: (मेरी) कंबली भले ही अच्छी तरह भीग जाए, रॅब करे वर्षा (भी) होती रहे, (पर) मैं उन सज्जनों को अवश्य मिलूँगा, (ताकि कहीं) मेरा प्यार टूट ना जाए।25। शलोक नंबर 24, 25 का भाव: दरवेश को दुनिया का कोई लालच रॅब की बँदगी के रास्ते से दूर नहीं ले जा सकता। फरीदा मै भोलावा पग दा मतु मैली होइ जाइ ॥ गहिला रूहु न जाणई सिरु भी मिटी खाइ ॥२६॥ {पन्ना 1379} पद्अर्थ: मै = मुझे। भोलावा = भेलेखा, धोखा, वहम, फिकर। मतु = कहीं ऐसा ना हो, मत कहीं। मतु हो जाइ = कहीं ऐसा ना हो जाए। गहिला = बेपरवाह, गाफिल। जाणई = जानता। अर्थ: हे फरीद! मुझे (अपनी) पगड़ी का फिकर (रहता) है (कि मिट्टी से मेरी पगड़ी) कहीं मैली ना हो जाए, पर कमली जिंद यह नहीं जानती कि मिट्टी (तो) सिर को भी खा जाती है।26। फरीदा सकर खंडु निवात गुड़ु माखिओु मांझा दुधु ॥ सभे वसतू मिठीआं रब न पुजनि तुधु ॥२७॥ {पन्ना 1379} पद्अर्थ: निवात = मिश्री। खंडु = मीठी वस्तु (इस शब्द का अंत सदा 'ु' से है। देखें शलोक न:37)। माखिओु = माखिओ, शहद। रॅब = हे रॅब! हे परमात्मा! न पुजनि = नहीं पहुँचतीं। तुधु = तुझे। नोट: 'माखिओु' शब्द के अक्षर (पंजाबी 'उ' = हिन्दी में 'अ' लिखा है) को दो मात्राएं लगी हुई हैं 'ु' और 'ो'। असल शब्द 'ो' मात्रा लगा के माखिओ है। पर यहाँ छंद की मात्राएं पूरी रखने के लिए पढ़ना है 'माखिउ'। इस दो मात्राओं के विशय में ज्यादा जानकारी के लिए पढ़े 'गुरबाणी व्याकरण'। अर्थ: हे फरीद! शक्कर, खंड, मिसरी, गुड़, शहद और माझा दूध- ये सारी चीजें मीठी हैं पर, हे रॅब! (मिठास में यह चीजें) तेरे (नाम की मिठास) तक नहीं पहुँच सकतीं।27। फरीदा रोटी मेरी काठ की लावणु मेरी भुख ॥ जिना खाधी चोपड़ी घणे सहनिगे दुख ॥२८॥ {पन्ना 1379} पद्अर्थ: काठ की रोटी = काठ की तरह सूखी रोटी, रूखी रोटी। लावणु = सब्जी, नमकीन। घणे = बहुत। चोपड़ी = चुपड़ी हुई स्वादिष्ट। अर्थ: हे फरीद! (अपने हाथों की कमाई हुई) मेरी रूखी-सूखी (भाव, सादी) रोटी है, मेरी भूख ही (इस रोटी के साथ) नमकीन है। जो लोग चुपड़ी खाते हैं, वे बड़े कष्ट सहते हैं (भाव, अपनी कमाई की सादी रोटी बेहतर है, चस्के मनुष्य को दुखी करते हैं)।28। रुखी सुखी खाइ कै ठंढा पाणी पीउ ॥ फरीदा देखि पराई चोपड़ी ना तरसाए जीउ ॥२९॥ {पन्ना 1379} पद्अर्थ: देखि = देख के। अर्थ: हे फरीद! (अपनी कमाई की) रूखी-सुखी ही खा के ठंडा पानी पी ले। पर पराई स्वादिष्ट रोटी देख के अपना मन ना तरसाना।29। नोट: इन तीन शलोकों में फरीद जी बताते हैं कि बँदगी करने वाले बंदे को परमात्मा का नाम सब पदार्थों से ज्यादा प्यारा लगता है। उस का जीवन संतोख वाला होता है। अपनी हक की कमाई के सामने वह बेगाने बढ़िया पदार्थों की भी परवाह नहीं करता। अजु न सुती कंत सिउ अंगु मुड़े मुड़ि जाइ ॥ जाइ पुछहु डोहागणी तुम किउ रैणि विहाइ ॥३०॥ {पन्ना 1379} पद्अर्थ: सिउ = साथ। अंगु = शरीर, जिस्म। मुड़ि जाइ = टूट रहा है। मुड़े मुड़ि जाइ = मुड़ मुड़ जाता है, ऐसे है जैसे टूट रहा है। डोहागणी = दुहागनि, छुटॅड़, पति से विछुड़ी हुई, भाग्यहीन, मंद भागिनी। जाइ = जा के। रैणि = रात (भाव, सारी जिंदगी रूप रात)। अर्थ: मैं (तो केवल) आज (ही) प्यारे के साथ नहीं सोई (भाव, मैं तो केवल आज ही प्यारे पति-परमात्मा में लीन नहीं हुई, और अब) यूँ है जैसे मेरा शरीर टूट रहा है। जा के छुटॅड़ों (भाग्यहीन दोहागिनों) को पूछो कि तुम्हारी (सदा ही) रात कैसे बीतती है (भाव, मुझे तो आज ही थोड़ा समय प्रभू बिसरा है और मैं दुखी हूँ। जिन्होंने कभी भी उसको याद ही नहीं किया, उनकी तो सारी उम्र ही दुख में गुजरती होगी)।30। साहुरै ढोई ना लहै पेईऐ नाही थाउ ॥ पिरु वातड़ी न पुछई धन सोहागणि नाउ ॥३१॥ {पन्ना 1379} पद्अर्थ: साहुरै = ससुराल घर, परलोक में, प्रभू की हजूरी में। ढोई = आसरा, जगह। पेईअै = पेके घर, इस लोक में। पिरु = पति प्रभू। वातड़ी = थोड़ी सी बात। धन = स्त्री। अर्थ: जिस स्त्री की थोड़ी सी बात भी पति नहीं पूछता, वह अपना नाम बेशक सोहागनि रखी रखे, पर उसको ना ससुराल और ना ही पेके घर कोई जगह कोई आसरा मिलता है (भाव, प्रभू की याद से टूटे हुए जीव लोक-परलोक दोनों जगह दुखी होते हें, बाहर से बँदगी वाला भेष कोई सहायता नहीं कर सकता)।31। साहुरै पेईऐ कंत की कंतु अगमु अथाहु ॥ नानक सो सोहागणी जु भावै बेपरवाह ॥३२॥ {पन्ना 1379} नोट: यह शलोक गुरू नानक देव जी का है, 'वार मारू म: ३़' की छेवीं पउड़ी में भी शलोक दर्ज है, कई शब्दों का फर्क है, वहाँ ये शलोक इस प्रकार है; महला १॥ ससुरै पेईअै कंत की, कंतु अगंमु अथाहु॥ नानक धंनु सुोहागणी जो भावहि वेपरवाहु॥२॥६॥ फरीद जी ने शलोक नं31 में बताया है कि अगर पति कभी बात ही ना पूछे तो सिर्फ नाम ही 'सोहागनि' रख लेना किसी काम का नहीं। गुरू नानक देव जी ने 'सोहागिनि' के असल लक्षण भी इस शलोक में बता के फरीद जी के शलोक की और ज्यादा व्याख्या कर दी है। पद्अर्थ: अगंमु = पहुँच से परे। अथाहु = गहरा, अगाध। बेपरवाह भावै = बेपरवाह को प्यारी लगती है। अर्थ: हे नानक! पति-परमात्मा जीवों की पहुँच से परे है, और बहुत गहरा है (भाव, वह इतना जिगरे वाला है कि भूलने वालों पर भी गुस्सा नहीं होता; पर) सोहागनि (जीव-स्त्री) वही है जो उस बेपरवाह प्रभू को प्यारी लगती है, जो इस लोक और परलोक में उस पति की बन के रहती है।32। नाती धोती स्मबही सुती आइ नचिंदु ॥ फरीदा रही सु बेड़ी हिंङु दी गई कथूरी गंधु ॥३३॥ {पन्ना 1379} पद्अर्थ: संबही = सजी हुई, फबती। नचिंदु = बे फिकर। बेड़ी = लिबड़ी हुई। कथूरी = कस्तूरी। गंधु = सुगंधि, खुशबो। अर्थ: (जो जीव-स्त्री) नहा-धो के (पति मिलने की आस में) तैयार बैठी हो, (पर फिर) बे फिकर हो के सो गई, हे फरीद! उसकी कस्तूरी वाली सुगंधि तो उड़ गई, वह हींग की (बदबू से) भरी रह गई (भाव, जो बाहरी धार्मिक साधन कर लिए, पर सिमरन से टूटे रहे तो भले गुण सब दूर हो जाते हैं, और पल्ले अवगुण ही रह जाते हैं)।33। जोबन जांदे ना डरां जे सह प्रीति न जाइ ॥ फरीदा कितीं जोबन प्रीति बिनु सुकि गए कुमलाइ ॥३४॥ {पन्ना 1379} पद्अर्थ: सहु = पति। सह प्रीति = पति का प्यार। किती = कितने ही। (नोट: शब्द 'सहु' औह 'सह' के 'जोड़', 'उच्चारण' और 'अर्थ' के अंतर को पाठक ध्यान से देख लें)। अर्थ: अगर पति (-प्रभू) के साथ मेरी प्रीति ना टूटे तो मेरी जवानी के (गुजर) जाने का डर नहीं है। हे फरीद! (प्रभू की) प्रीति से वंचित कितने ही जोबन कुम्हला के सूख गए (भाव, अगर प्रभू-चरनों के साथ प्यार नहीं बना तो मनुष्य-जीवन का जोबन व्यर्थ ही गया)।34। फरीदा चिंत खटोला वाणु दुखु बिरहि विछावण लेफु ॥ एहु हमारा जीवणा तू साहिब सचे वेखु ॥३५॥ {पन्ना 1379} पद्अर्थ: चिंत = चिंता। खटोला = चारपाई, छोटी सी खाट। बिरह = विरह, विछोड़ा। बिरहि = विछोड़े में (तड़पना)। विछावण = तुलाई, बिछौना। साहिब = हे साहिब! अर्थ: हे फरीद! (प्रभू की याद भुला के) चिंता (हमारी) छोटी सी खाट (बनी हुई है), दुख (उस चारपाई का) वाण है (जिससे चारपाई बुनी हुई है) और विछोड़े के कारण (दुख की) तुलाई और लेफ है। हे सच्चे मालिक! देख, (तुझसे विछुड़ के) यह है हमारा जीवन (का हाल)।35। बिरहा बिरहा आखीऐ बिरहा तू सुलतानु ॥ फरीदा जितु तनि बिरहु न ऊपजै सो तनु जाणु मसानु ॥३६॥ {पन्ना 1379} पद्अर्थ: बिरहा = विछोड़ा। आखीअै = कहा जाता है। सुलतानु = राजा। जितु तनि = जिस तन में। बिरहु = विछोड़ा, विछोड़े की सूझ। मसानु = मुर्दें जलाने की जगह। जितु = जिस में। तनि = तन में। अर्थ: हर कोई कहता है (हाय!) विछोड़ा (बुरा) (हाय!) विछोड़ा (बुरा)। पर, हे विछोड़े! तू बादशाह है (भाव, तुझे मैं सलाम करता हूँ, क्योंकि), हे फरीद! जिस शरीर में विछोड़े का दर्द नहीं पैदा होता (भाव, जिस मनुष्य को कभी ये चुभन नहीं लगी कि मैं प्रभू से विछुड़ा हुआ हूँ) उस शरीर को मसाण समझो (भाव, उस शरीर में रहने वाली रूह विकारों में जल रही है)।36। शलोक नं: 37 से 65 तक: फरीदा ए विसु गंदला धरीआं खंडु लिवाड़ि ॥ इकि राहेदे रहि गए इकि राधी गए उजाड़ि ॥३७॥ {पन्ना 1379} पद्अर्थ: ऐ = ये दुनिया के पदार्थ। विसु = जहर। गंदला = गंदल, नर्म डंठल (जैसे सरसों आदि के)। खंडु लिवाड़ि = खंड के साथ लपेट के। इकि = कई जीव। राहेदे = बीजते। रहि गऐ = थक गए, मर गए। राधी = बीजी हुई। उजाड़ि = उजाड़ के, वीरान करके। अर्थ: हे फरीद! ये दुनिया के पदार्थ (मानो,) जहर-भरी गंदलें हैं, जो खंड के साथ लपेट के रखी हुई हैं। इन गंदलों को कई बीजते ही मर गए और, बीजे हुओं को (बीच में ही) छोड़ गए।37। फरीदा चारि गवाइआ हंढि कै चारि गवाइआ समि ॥ लेखा रबु मंगेसीआ तू आंहो केर्हे कमि ॥३८॥ {पन्ना 1379} पद्अर्थ: हंढि कै = हंढा के, भटक के, दौड़ भाग करके। संमि = सो के। मंगेसीआ = माँगेगा। आंहो = आया था। केर्हे कंमि = केड़े कंमि, किस काम के लिए? अर्थ: हे फरीद! (इन विष-गंदलों के लिए, दुनिया के इन पदार्थों के लिए) चार (पहर दिन) तूने दौड़-भाग के व्यर्थ गुजार दी है, और चार (पहर रात) सो के गवा दी है। परमात्मा हिसाब माँगेगा कि (जगत में) तू किस काम के लिए आया था।38। फरीदा दरि दरवाजै जाइ कै किउ डिठो घड़ीआलु ॥ एहु निदोसां मारीऐ हम दोसां दा किआ हालु ॥३९॥ {पन्ना 1379} पद्अर्थ: दरि = दर पर, दरवाजे पर। दरवाजै = दरवाजे पर। जाइ कै = जा के। किउं = क्यों? क्या? निदोसा = निर्दोषों। मारीअै = मार खाता है। अर्थ: हे फरीद! क्या (किसी) दर पे (किसी) दरवाजे पर (कभी) घंटा (बजता) देखा है? ये (घड़ियाल या घंटा) बिना किसी दोष के (ही) मार खाता है, (भला,) हम दोषियों का क्या हाल? घड़ीए घड़ीए मारीऐ पहरी लहै सजाइ ॥ सो हेड़ा घड़ीआल जिउ डुखी रैणि विहाइ ॥४०॥ {पन्ना 1379} पद्अर्थ: घड़ीऐ घड़ीऐ = घड़ी घड़ी के बाद। पहरी = पहर पहर के बाद। सजाइ = दण्ड, मार, सजा। हेड़ा = शरीर। सिउ = की तरह। रैणि = (जिंदगी की) रात। विहाइ = गुजरती है, बीतती है। अर्थ: (घंटे को) हरेक घड़ी के बाद मार पड़ती है, हरेक पहर के बाद (यह) मार खाता है। घंटे की तरह ही है वह शरीर (जिसने 'विसु गंदलों' की खातिर ही उम्र गुजार दी)। उसकी (जिंदगी-रूप) रात दुखों में ही बीतती है।40। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |