श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1402 संसारु अगम सागरु तुलहा हरि नामु गुरू मुखि पाया ॥ जगि जनम मरणु भगा इह आई हीऐ परतीति ॥ {पन्ना 1402} पद्अर्थ: गुरू मुखि = गुरू से। जगि = जगत में। भगा = नाश हो गया, समाप्त हो गया। हीअै = हृदय में। परतीति = यकीन। अर्थ: संसार अथाह समुंद्र है, और हरी का नाम (इसमें से पार लगाने के लिए) तुलहा है; (जिस मनुष्य ने) गुरू के द्वारा (ये तुलहा) प्राप्त कर लिया है और जिसको हृदय में यकीन बँध गया है, उसका जगत में जनम-मरण समाप्त हो जाता है। परतीति हीऐ आई जिन जन कै तिन्ह कउ पदवी उच भई ॥ तजि माइआ मोहु लोभु अरु लालचु काम क्रोध की ब्रिथा गई ॥ {पन्ना 1402} पद्अर्थ: तजि = छोड़ के। ब्रिथा = (व्यथा) पीड़ा, कलेश। गई = खत्म हो गई। अर्थ: जिन मनुष्यों के हृदय में यकीन बँध गया है, उनको ऊँची पदवी मिली है; माया का मोह, लोभ और लालच त्याग के (भाव, उन्होंने त्याग दिया है और) उनकी काम-क्रोध की पीड़ा दूर हो गई है। अवलोक्या ब्रहमु भरमु सभु छुटक्या दिब्य द्रिस्टि कारण करणं ॥ सतिगुरु गुरु सेवि अलख गति जा की स्री रामदासु तारण तरणं ॥३॥ {पन्ना 1402} पद्अर्थ: अवलोक्या = देखा। ब्रहमु = हरी (रूप गुरू रामदास जी) को। छुटक्या = दूर हो गया। दिब्य द्रिस्टि = दिव्य दृष्टि, (जिस गुरू की) नज़र ईश्वरीय ज्योति वाली है। कारण करणं = जो सृष्टि का मूल है। अर्थ: जिस मनुष्य ने सृष्टि के मूल, दिव्य दृष्टि वाले हरी- (रूप गुरू रामदास जी) को देखा है, उसका सारा भ्रम मिट गया है। (इसलिए) गुरू रामदास जी की सेवा करो, जिसकी आत्मिक अवस्था बयान से परे है, और जो पार लगने के लिए जहाज है।3। परतापु सदा गुर का घटि घटि परगासु भया जसु जन कै ॥ इकि पड़हि सुणहि गावहि परभातिहि करहि इस्नानु ॥ {पन्ना 1402} पद्अर्थ: घटि घटि = हरेक हृदय में। जन कै = दासों के हृदय में। जसु = शोभा। परभातिहि = अमृत वेला में। इकि = (शब्द 'इक' का बहुवचन)। पढ़हि = पढ़ते हैं। अर्थ: सतिगुरू का प्रताप सदा हरेक घट में, और सतिगुरू का यश दासों के हृदय में प्रकट हो रहा है। कई मनुष्य (गुरू का यश) पढ़ते हैं, सुनते हैं और गाते हैं और (उस 'यश'-रूप जल में) अमृत वेला में स्नान करते हैं। इस्नानु करहि परभाति सुध मनि गुर पूजा बिधि सहित करं ॥ कंचनु तनु होइ परसि पारस कउ जोति सरूपी ध्यानु धरं ॥ {पन्ना 1402} पद्अर्थ: सुध मनि = शुद्ध मन से। बिधि सहित = मर्यादा से। परसि = छू के। करं = करते हैं। धरं = धरते हैं। गुर पूजा = गुरू की बताई हुई सेवा। अर्थ: (कई मनुष्य गुरू के यश-रूप जल में) अमृत वेला में डुबकी लगाते हैं, और शुद्ध हृदय से मर्यादा अनुसार गुरू की पूजा करते हैं, जोति-रूप गुरू का ध्यान धरते हैं, और पारस-गुरू को छू के उनका शरीर कंचन (की तरह शुद्ध) हो जाता है। जगजीवनु जगंनाथु जल थल महि रहिआ पूरि बहु बिधि बरनं ॥ सतिगुरु गुरु सेवि अलख गति जा की स्री रामदासु तारण तरणं ॥४॥ {पन्ना 1402} पद्अर्थ: रहिआ पूरि = व्यापक है। बहु बिधि बरनं = कई रंगों में। जगंनाथु = जगत नाथ, जगत का पति। अर्थ: सतिगुरू रामदास जी की सेवा करो, (शरण पड़ो) जिसकी आत्मिक अवस्था कथन से परे है, और जो पार लगने के लिए जहाज है, जो (गुरू) उस 'जगत के जीवन' और 'जगत के नाथ' हरी का रूप है जो (हरी) कई रंगों में जलों में थलों में व्यापक है।4। जिनहु बात निस्चल ध्रूअ जानी तेई जीव काल ते बचा ॥ तिन्ह तरिओ समुद्रु रुद्रु खिन इक महि जलहर बि्मब जुगति जगु रचा ॥ {पन्ना 1402} पद्अर्थ: निस्चल = निश्चय करके, दृढ़ कर के। बात = (गुरू के) वचन। रुद्रु = डरावना। जलहर = जलधर, बादल। बिंब = प्रतिबिंब, छाया। जलहर बिंब = बादलों की छाया। रचा = बचा हुआ है। अर्थ: जिन (मनुष्यों ने) गुरू के वचन ध्रुव भगत की तरह दृढ़ करके माने हैं, वे मनुष्य काल (के भय) से बच गए हैं। भयानक संसार-समुंद्र उन्होंने एक पल में पार कर लिया है, जगत को वह बादलों की छाया की तरह रचा हुआ (समझते हैं)। कुंडलनी सुरझी सतसंगति परमानंद गुरू मुखि मचा ॥ सिरी गुरू साहिबु सभ ऊपरि मन बच क्रम सेवीऐ सचा ॥५॥ {पन्ना 1402} पद्अर्थ: कुंडलनी = गूंझल, मन की माया के साथ उलझनें। सुरझी = सुलझी, खुल गई। गुरू मुखि = गुरू के द्वारा। मचा = मचे हैं, चमके हैं, प्रकट होते हैं। अर्थ: उनके मन की उलझनें सत्संग में खुलती हैं, वे परमानंद पाते हैं और गुरू की बरकति से उनका यश प्रकटता है। (इसलिए इस तरह के) सच्चे गुरू को मन वचन और कर्मों द्वारा पूजना चाहिए; यह सतिगुरू सबसे ऊँचा है।5। वाहिगुरू वाहिगुरू वाहिगुरू वाहि जीउ ॥ कवल नैन मधुर बैन कोटि सैन संग सोभ कहत मा जसोद जिसहि दही भातु खाहि जीउ ॥ देखि रूपु अति अनूपु मोह महा मग भई किंकनी सबद झनतकार खेलु पाहि जीउ ॥ {पन्ना 1402} पद्अर्थ: वाहि गुरू = हे गुरू! तू आश्चर्य है। नैन = नेत्र। मधुर = मीठे। बैन = बचन। कोटि सैन = करोड़ों सेनाएं, करोड़ों जीव। संग = (तेरे) साथ। सोभ = सुंदर लगते हैं। जिसहि = जिस को, (हे गुरू!) भाव, तुझे (हे गुरू!)। कहत = कहती थी। मा जसोद = माता यशोदा। भातु = चावल। जीउ = हे प्यारे! देखि = देख के। अति अनुपु = बहुत सुंदर। महा मग भई = बहुत मगन हो जाती थी। किंकनी = तगाड़ी। सबद = आवाज। झनतकार = छणकार। खेलु पाहि जीउ = जब तू खेल मचाता था। अर्थ: वाह वाह! हे प्यारे! हे गुरू! सदके! तेरे कमल जैसे नयन हैं, (मेरे वास्ते तो तू ही है जिसको) माँ यशोदा कहती थी- 'हे लाल (आ), दही चावल खा'। जब तू खेल मचाता था, तेरी तगाड़ी की आवाज आती थी, तेरे अति सुंदर मुख को देख के (माँ यशोदा) तेरे प्यार में मगन में हो जाती थी। काल कलम हुकमु हाथि कहहु कउनु मेटि सकै ईसु बम्यु ग्यानु ध्यानु धरत हीऐ चाहि जीउ ॥ सति साचु स्री निवासु आदि पुरखु सदा तुही वाहिगुरू वाहिगुरू वाहिगुरू वाहि जीउ ॥१॥६॥ {पन्ना 1402} पद्अर्थ: काल कलम = काल की कलम। हाथि = (तेरे) हाथ में। कहहु = बताओ। ईसु = शिव। बंम्हु = ब्रहमु, ब्रहमा। ग्यानु ध्यानु = ज्ञान ध्यान, तेरे ज्ञान और ध्यान को। धरत हीअै चाहि जीउ = हृदय में धारण करना चाहते हैं। श्री निवासु = लक्ष्मी का ठिकाना। अर्थ: (हे भाई!) काल की कलम और हुकम (गुरू के ही) हाथ में हैं। बताओ, कौन (गुरू के हुकम को) मिटा सकता है? शिव और ब्रहमा (गुरू के बख्शे हुए) ज्ञान और ध्यान को अपने हृदय में धारण करना चाहते हैं। हे गुरू! तू आश्चर्य है, तू सति-स्वरूप है, तू अटल है, तू ही लक्ष्मी का ठिकाना है, तू ही आदि पुरख है और सदा-स्थिर है।6। राम नाम परम धाम सुध बुध निरीकार बेसुमार सरबर कउ काहि जीउ ॥ सुथर चित भगत हित भेखु धरिओ हरनाखसु हरिओ नख बिदारि जीउ ॥ {पन्ना 1402} पद्अर्थ: राम नाम = हे राम नाम वाले! हे गुरू जिसका नाम 'राम' है। परम धाम = हे ऊँचे ठिकाने वाले! सुध बुध = हे शुद्व ज्ञान वाले! निरीकार = हे आकार रहित! बेसुमार = हे बेअंत! सरबर कउ = बराबर का, तेरे जितना। काहि = कौन है? सुथर = अडोल। भगत हित = भगत की खातिर। धरिओ = धरा है। हरिओ = मारा है। नख बिदारि = नाखूनों से चीर के। बिदारि = चीर के। अर्थ: हे सतिगुरू! तेरा ही नाम 'राम' है, और ठिकाना ऊँचा है। तू शुद्ध ज्ञान वाला है। (मेरे वास्ते तो तू ही है जिसने) भगत (प्रहलाद) की खातिर (नरसिंघ का) रूप धारण किया था, और हर्णाक्षस को नाखूनों से चीर दिया था। संख चक्र गदा पदम आपि आपु कीओ छदम अपर्मपर पारब्रहम लखै कउनु ताहि जीउ ॥ सति साचु स्री निवासु आदि पुरखु सदा तुही वाहिगुरू वाहिगुरू वाहिगुरू वाहि जीउ ॥२॥७॥ {पन्ना 1402} पद्अर्थ: संख चक्र गदा पदम = ये विष्णू के चिन्ह माने गए हैं। छदम = छल (भाव, बावन अवतार)। आपु = अपने आप को। अपरंपर = बेअंत। लखै = पहचाने। अर्थ: हे सतिगुरू! (मेरे लिए तो तू ही वह है जिसके) शंख, चक्र, गदा और पदम (चिन्ह हैं); (मेरे लिए तो तू ही वह है जिसने) अपने आप को (बावन-रूप) छल बनाया था। तू बेअंत पारब्रहम (का रूप) है, तेरे उस रूप को कौन पहचान सकता है? हे गुरू! तू आश्चर्य है, तू अटल है, तू ही लक्ष्मी का ठिकाना है, तू आदि पुरख है, और सदा-स्थिर है।2।7। पीत बसन कुंद दसन प्रिआ सहित कंठ माल मुकटु सीसि मोर पंख चाहि जीउ ॥ बेवजीर बडे धीर धरम अंग अलख अगम खेलु कीआ आपणै उछाहि जीउ ॥ {पन्ना 1402-1403} पद्अर्थ: पीत = पीले। बसन = वस्त्र। कुंद = एक किस्म की चमेली का फूल जो सफेद और कोमल होता है। दसन = दाँत। प्रिआ = प्यारी (राधिका)। सहित = से। कंठ = गला। माल = माला। सीसि = सिर पर। मोर पंख = मोर के पंखों का। चाहि = चाव से (पहनता है)। वजीर = सलाहकार। धीर = धैर्य वाला। धरम अंग = धर्म स्वरूप। उछाहि = चाव से। अर्थ: हे सतिगुरू! (मेरे लिए तो) पीले वस्त्रों वाला (कृष्ण) तू ही है, (जिसके) जिसके कुंद जैसे सफेद दाँत हैं, (जो) अपनी प्यारी (राधिका) के साथ है; (जिसके) गले में माला है, मोर के पंखों का मुकुट (जिसने) अपने मस्तक पर चाव से (पहना हुआ है)। तू बड़ा धैर्य वाला है, तुझे सलाहकार की जरूरत नहीं, तू धर्म-स्वरूप है, अलख और अगम है, ये सारा खेल तूने (ही) अपने चाव से रचा है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |