श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1416 जन की टेक हरि नामु हरि बिनु नावै ठवर न ठाउ ॥ गुरमती नाउ मनि वसै सहजे सहजि समाउ ॥ वडभागी नामु धिआइआ अहिनिसि लागा भाउ ॥ जन नानकु मंगै धूड़ि तिन हउ सद कुरबाणै जाउ ॥२७॥ {पन्ना 1416} पद्अर्थ: टेक = आसरा, सहारा। ठवर = जगह। मनि = मन में। सहजे = आत्मिक अडोलता में ही। समाउ = लीनता। अहि = दिन। निसि = रात। भाउ = प्यार। नानक मंगै = नानक माँगता है (एक वचन)। हउ = मैं। सद = सदा। जाउ = मैं जाता हूँ।27। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (ही परमात्मा के) सेवकों का सहारा है, हरी-नाम के बिना (उनको) कोई और आसरा नहीं सूझता। गुरू की मति की बरकति से परमात्मा का नाम (उनके) मन में बसा रहता है, हर वक्त आत्मिक अडोलता में (उनकी) लीनता रहती है। बड़े भाग्यों से (उन्होने दिन-रात परमात्मा का) नाम सिमरा है, दिन-रात उनका प्यार (हरी-नाम से) बना रहता है। दास नानक उनके चरणों की धूल (सदा) माँगता है (और कहता है- हे भाई!) मैं उनसे सदा सदके जाता हूँ।27। लख चउरासीह मेदनी तिसना जलती करे पुकार ॥ इहु मोहु माइआ सभु पसरिआ नालि चलै न अंती वार ॥ बिनु हरि सांति न आवई किसु आगै करी पुकार ॥ वडभागी सतिगुरु पाइआ बूझिआ ब्रहमु बिचारु ॥ तिसना अगनि सभ बुझि गई जन नानक हरि उरि धारि ॥२८॥ {पन्ना 1416} पद्अर्थ: मेदनी = धरती। तिसना = माया का लालच। जलदी = जल रही। सभ = सारी दुनिया में। पसरिआ = बिखरा हुआ है। अंती वार = आखिरी वक्त। आवई = आए, आती। करी = करीं, मैं करूँ। वडभागी = बड़े भाग्यों से। बूझिआ = समझ लिया। सभ = सारी। उरि = हृदय में। धारि = रख के।28। अर्थ: हे भाई! चौरासी लाख जूनियों वाली ये धरती तृष्णा (की आग) में जल रही है और पुकार रही है। माया का यह मोह सारी दुनिया में प्रभाव डाल रहा है (पर ये माया) आखिरी वक्त (किसी के भी) साथ नहीं जाती। परमात्मा के नाम के बिना (माया से किसी को) शांति भी नहीं मिलती। (गुरू के बिना) किस के आगे पुकार करूँ? (माया के मोह से और कोई नहीं छुड़ा सकता)। बहुत भाग्यशाली (जिन मनुष्यों ने) गुरू पा लिया, उन्होंने परमात्मा के साथ सांझ डाल ली, उन्होंने परमात्मा के गुणों को अपने मन में बसा लिया। हे दास नानक! परमात्मा को दिल में बसाने के कारण (उनके अंदर से) तृष्णा की सारी आग बुझ गई।28। असी खते बहुतु कमावदे अंतु न पारावारु ॥ हरि किरपा करि कै बखसि लैहु हउ पापी वड गुनहगारु ॥ हरि जीउ लेखै वार न आवई तूं बखसि मिलावणहारु ॥ गुर तुठै हरि प्रभु मेलिआ सभ किलविख कटि विकार ॥ जिना हरि हरि नामु धिआइआ जन नानक तिन्ह जैकारु ॥२९॥ {पन्ना 1416} पद्अर्थ: असी = हम जीव। खते = (खता = भूल, गुनाह) भूलें। पारावारु = (भूलों) इस पार उस पार। हरि = हे हरी! बखसि लैहु = माफ कर, क्षमा कर। हउ = मैं। गनहगारु = गुनाहीं। लेखै = लेखे से। वार = (माफ करने की) बारी। बखसि = बख्श के, माफ करके। तुठै गुर = प्रसन्न हुए गुरू ने। किलविख = पाप। कटि = काट के, दूर करके। जैकारु = इज्जत, शोभा।29। अर्थ: हे हरी! हम जीव बहुत भूलें करते रहते हैं, (हमारी भूलों का) अंत नहीं पाया जा सकता, (हमारी भूलों का) इस पार-उस पार का किनारा नहीं मिलता। तू मेहर करके खुद ही बख़्श ले, मैं पापी हूँ, गुनहगार हूँ। हे प्रभू जी! (मेरे किए कर्मों के) लेखों के आसरे तो (बख्शिश हासिल करने की मेरी) बारी नहीं आ सकती, तू (ही मेरी भूलें) बख्श के (मुझे अपने चरणों में) मिलाने की समर्था वाला है। हे भाई! (जिसके ऊपर प्रभू की मेहर हुई, उसके अंदर से) सारे पाप-विकार काट के दयावान हुए गुरू ने उसको हरी-प्रभू से मिला दिया। हे दास नाक! (कह-) जिन लोगों ने परमात्मा का नाम सिमरा है, उनको (लोक-परलोक में) आदर-सत्कार मिलता आया है।29। विछुड़ि विछुड़ि जो मिले सतिगुर के भै भाइ ॥ जनम मरण निहचलु भए गुरमुखि नामु धिआइ ॥ गुर साधू संगति मिलै हीरे रतन लभंन्हि ॥ नानक लालु अमोलका गुरमुखि खोजि लहंन्हि ॥३०॥ {पन्ना 1416} पद्अर्थ: विछुड़ि = (प्रभू से) विछुड़ के। विछुड़ि विछुड़ि = बार बार विछुड़ के। भै = डर अदब में। भाइ = प्यार में। निहचलु = अडोल। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। धिआइ = सिमर के। लभंनि = ढूँढ लेते हैं। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। खोजि = खोज के, ढूँढ के। लहंनि् = ढूँढ लेते हैं। अर्थ: हे भाई! (अनेकों जन्मों में परमात्मा से) बार-बार विछुड़ के जो मनुष्य (आखिर) गुरू के डर-अदब में गुरू के प्रेम में टिक गए, वे गुरू के माध्यम से परमात्मा का नाम सिमर-सिमर के जनम-मरण के चक्करों से अडोल हो गए। हे नानक! जिन मनुष्यों को साधू गुरू की संगति हासिल हो जाती है, वे (उस संगतिमें से) परमात्मा के कीमती आत्मिक गुण ढूँढ लेते हैं। परमात्मा का अत्यंत कीमती नाम-हीरा गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य (संगति में से) खोज के हासिल कर लेते हैं।30। मनमुख नामु न चेतिओ धिगु जीवणु धिगु वासु ॥ जिस दा दिता खाणा पैनणा सो मनि न वसिओ गुणतासु ॥ इहु मनु सबदि न भेदिओ किउ होवै घर वासु ॥ मनमुखीआ दोहागणी आवण जाणि मुईआसु ॥ गुरमुखि नामु सुहागु है मसतकि मणी लिखिआसु ॥ हरि हरि नामु उरि धारिआ हरि हिरदै कमल प्रगासु ॥ सतिगुरु सेवनि आपणा हउ सद बलिहारी तासु ॥ नानक तिन मुख उजले जिन अंतरि नामु प्रगासु ॥३१॥ {पन्ना 1416} पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों ने। धिगु = धिक्कारयोग्य। वासु = (जगत में) बसेरा। मनि = मन में। गुण तास = गुणों का खजाना हरी। सबदि = गुरू के शबद में। भेदिओ = भेदा हुआ, परोया गया। घर वासु = (असल) घर का वासा। मन मुखीआ = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव सि्त्रयां। दोहागणी = बुरे भाग्य वाली, छुटॅड़। आवण जाणि = पैदा होने मरने (के चक्कर) में। मुईआसु = आत्मिक मौत मरी हुई। जिस दा: संबंधक 'दा' के कारण 'जिसु' का 'ु' उड़ गया है। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाली। सुहागु = सुभाग। मसतकि = माथे पर। मणी = टीका। उरि = दिल में। हिरदै = दिल में। प्रगासु = खिड़ाव। सेवनि = सेवा करती हैं। हउ = मैं। सद = सदा। तासु = उनसे। उजले = रौशन। अंतरि = अंदर।31। अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों ने परमात्मा का नाम नहीं सिमरा, उनका जीना धिक्कार-योग्य, उनका जगत-बसेरा तिरस्कार-योग्य ही रहता है। उनके मन में गुणों का खजाना वह प्रभू नहीं टिका, जिसका दिया हुआ अन्न और वस्त्र वे बरतते रहते हैं। उनका ये मन (कभी) गुरू के शबद में नहीं जुड़ता। फिर उन्हें प्रभू-चरनों का निवास कैसे हासिल हो? हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-सि्त्रयांबद्-नसीब ही रहती हैं, वे जनम-मरण के चक्कर में पड़ी रहती हैं, वे सदा आत्मिक मौत मरती रहती हैं। हे भाई! जो जीव-सि्त्रयां गुरू के सन्मुख हैं (उनके हृदय में बसता हरी-) नाम उनके सिर पर सोहाग है, उनके माथे पर टीका लगा हुआ है। गुरू के सन्मुख रहने वालियों ने परमात्मा का नाम सदा अपने हृदय में बसाया होता है उनके दिल का कमल-फूल खिला हुआ रहता है। वे जीव-सि्त्रयां हमेशा अपने गुरू की शरण पड़ी रहती हैं। मैं उनसे सदा सदके हूँ। हे नानक! (कह-) जिनके दिल में (परमात्मा का) नाम (आत्मिक जीवन का) प्रकाश (किए रखता) है उनके मुँह (लोक-परलोक में) रौशन रहते हैं।31। सबदि मरै सोई जनु सिझै बिनु सबदै मुकति न होई ॥ भेख करहि बहु करम विगुते भाइ दूजै परज विगोई ॥ नानक बिनु सतिगुर नाउ न पाईऐ जे सउ लोचै कोई ॥३२॥ {पन्ना 1416} पद्अर्थ: सबदि = (गुरू के) शबद से। मरै = (विकारों से) मरता है। सिझै = कामयाब होता है। मुकति = विकारों से मुक्ति। भेख = धार्मिक पहरावा। करम = (दिखावे के धार्मिक) कर्म। विगुते = दुखी होते हैं। भाइ दूजै = माया के प्यार में। परज = सृष्टि। विगोई = दुखी होती है। न पाईअै = नहीं मिलता। जे = चाहे। सउ = सौ बार।32। अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य गुरू के) शबद से (विकारों से) मर जाता है वही मनुष्य (जिंदगी में) कामयाब होता है। (गुरू के) शबद के बिना विकारों से मुक्ति नहीं मिलती। जो मनुष्य सिर्फ दिखावे के धार्मिक पहरावे पहनते हैं और दिखावे के ही धार्मिक कर्म करते हैं, वह दुखी होते रहते हैं। हे भाई! माया के मोह में फसे रह के दुनिया दुखी होती है। हे नानक! (कह- हे भाई!) गुरू की शरण पड़े बिना परमात्मा का नाम नहीं मिलता, चाहे कोई मनुष्य सौ बार तमन्ना करता रहे।32। हरि का नाउ अति वड ऊचा ऊची हू ऊचा होई ॥ अपड़ि कोइ न सकई जे सउ लोचै कोई ॥ मुखि संजम हछा न होवई करि भेख भवै सभ कोई ॥ गुर की पउड़ी जाइ चड़ै करमि परापति होई ॥ अंतरि आइ वसै गुर सबदु वीचारै कोइ ॥ नानक सबदि मरै मनु मानीऐ साचे साची सोइ ॥३३॥ {पन्ना 1416-1417} पद्अर्थ: नाउ = नाम, महिमा। ऊची हू ऊचा = ऊचे से ऊँचा, बहुत ऊँचा है। न सकई = ना सके। सउ लोचै = सौ बार तमन्ना करे। मुखि = मुँह से, जबानी बातें करने से। संजम = इन्द्रियों को विकारों से रोकने का यतन। न होवई = न हो, नहीं होता। करि = कर के। भेख = धार्मिक पहरावे। सभ कोई = हर कोई, हरेक साधू। जाइ चढ़ै = (प्रभू-चरणों में) जा पहुँचता है। करमि = (प्रभू की) बख्शिश से। अंतरि = हृदय में। वीचारै = बिचारता है, मन में बसाता है। सबदि = शबद से। मरै = विकारों से हटता है। मानीअै = पतीज जाता है। साचे = साचि, सदा स्थिर प्रभू में (टिकने से)। साची = सदा कायम रहने वाली। सोइ = शोभा।33। अर्थ: हे भाई! परमात्मा की महानता ऊची से ऊँची है, बहुत ऊँची है। चाहे कोई मनुष्य सौ बार तमन्ना करता रहे, उसकी महानता तक कोई नहीं पहुँच सकता। हरेक साधू धार्मिक पहरावा पहन के फिरता है (और समझता होगा कि इस तरह उच्च जीवन में मैं परमात्मा की महानता तक पहुँच गया हूँ, पर) इन्द्रियों को वश में कर लेने की निरी ज़बानी बातें कर लेने से कोई मनुष्य पवित्र जीवन वाला नहीं हो जाता। हे भाई! जो कोई मनुष्य गुरू के शबद को अपने मन में बसाता है उसके अंदर परमात्मा आ बसता है। (गुरू का शबद ही है) गुरू की (बताई हुई) सीढ़ी (जिसकी सहायता से मनुष्य प्रभू के चरणों तक) जा पहुँचता है, (पर यह 'गुर की पउड़ी' परमात्मा की) मेहर से ही मिलती है। हे नानक! (जो मनुष्य गुरू के) शबद से (विकारों से) मरता है, उसका मन (परमात्मा की याद में) गिझ जात है, सदा-स्थिर प्रभू में लीन रहने से उसको सदा कायम रहने वाली शोभा मिलती है।33। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |