श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मनमुख दह दिसि फिरि रहे अति तिसना लोभ विकार ॥ माइआ मोहु न चुकई मरि जमहि वारो वार ॥ सतिगुरु सेवि सुखु पाइआ अति तिसना तजि विकार ॥ जनम मरन का दुखु गइआ जन नानक सबदु बीचारि ॥४९॥ {पन्ना 1419}

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। दह = दस। दिसि = दिशा। दह दिसि = दसों तरफ (चार तरफें, चार कोने, ऊपर, नीचे)। न चुकई = खत्म नहीं होता। मरि जंमहि = मर के पैदा होते हैं। वारो वार = बार बार। सेवि = सेवा कर के, शरण पड़ कर। सुखु = आत्मिक आनंद। तजि = त्याग के। सबदु बीचारि = गुरू के शबद को मन में बसा के।49।

अर्थ: हे भाई! माया की भारी तृष्णा, माया का लालच और अनेकों विकारों में फस के अपने मन के मुरीद मनुष्य दसों दिशाओं में भटकते फिरते हैं। (जब तक उनके अंदर से) माया का मोह खत्म नहीं होता, वह बार-बार पैदा होते रहते हैं।

हे दास नानक! गुरू की शरण पड़ कर (अपने अंदर से) तृष्णा आदि विकार त्याग के जिन्होंने आत्मिक आनंद हासिल कर लिया, गुरू के शबद को मन में बसा के उनका जनम-मरण (के चक्कर) का दुख दूर हे गया।49।

हरि हरि नामु धिआइ मन हरि दरगह पावहि मानु ॥ किलविख पाप सभि कटीअहि हउमै चुकै गुमानु ॥ गुरमुखि कमलु विगसिआ सभु आतम ब्रहमु पछानु ॥ हरि हरि किरपा धारि प्रभ जन नानक जपि हरि नामु ॥५०॥ {पन्ना 1419}

पद्अर्थ: मन = हेमन! धिआइ = सिमरा कर। पावहि = तू हासिल कर लेगा। मानु = आदर, इज्जत। किलविख = पाप। सभि = सारे। कटीअहि = काटे जाते हैं। चुकै = खत्म हो जाता है। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। कमलु = हृदय कमल फूल। विगसिआ = खिल उठता है। सभु = हर जगह। आतम ब्रहम = सर्व व्यापक हरी। पछानु = पहचान का, साथी। हरि हरि = हे हरी! प्रभ = हे प्रभू! जपि = मैं जपता रहूँ।50।

अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा का नाम सिमरा कर (सिमरन की बरकति से) तू परमात्मा की हजूरी में आदर प्राप्त करेगा। (सिमरन करने से मनुष्य के) सारे पाप ऐब काटे जाते हैं, (मन में से) अहम्-अहंकार दूर हो जाता है। गुरू की शरण पड़ कर (सिमरन करने से) हृदय-कमल-फूल खिल उठता है, हर जगह सर्व-व्यापक प्रभू ही साथी दिखता है।

हे दास नानक! (कह-) हे हरी! हे प्रभू (मेरे पर) मेहर कर, मैं (सदा तेरा) नाम जपता रहूँ।50।

धनासरी धनवंती जाणीऐ भाई जां सतिगुर की कार कमाइ ॥ तनु मनु सउपे जीअ सउ भाई लए हुकमि फिराउ ॥ जह बैसावहि बैसह भाई जह भेजहि तह जाउ ॥ एवडु धनु होरु को नही भाई जेवडु सचा नाउ ॥ सदा सचे के गुण गावां भाई सदा सचे कै संगि रहाउ ॥ पैनणु गुण चंगिआईआ भाई आपणी पति के साद आपे खाइ ॥ तिस का किआ सालाहीऐ भाई दरसन कउ बलि जाइ ॥ सतिगुर विचि वडीआ वडिआईआ भाई करमि मिलै तां पाइ ॥ इकि हुकमु मंनि न जाणनी भाई दूजै भाइ फिराइ ॥ संगति ढोई ना मिलै भाई बैसणि मिलै न थाउ ॥ नानक हुकमु तिना मनाइसी भाई जिना धुरे कमाइआ नाउ ॥ तिन्ह विटहु हउ वारिआ भाई तिन कउ सद बलिहारै जाउ ॥५१॥ {पन्ना 1419}

धनासरी = एक रागनी।

पद्अर्थ: धनवंती = धन वाली, भाग्यशाली। जाणीअै = समझी जानी चाहिए। भाई = हे भाई! जां = जब। कमाइ = कमाती है। सउपे = सौंपती है, भेटा रती है, हवाले करती है। जीअ सउ = जिंद समेत। हुकमि = हुकम में। लऐ फिराउ = फेरा लेती है, चलती फिरती है, जीवन चाल चलती है। जह = जहाँ। बैसावहि = (प्रभू जी) बैठाते हैं। बैसह = हम जीव बैठते हैं। भेजहि = (प्रभू जी) भेजते हैं। तह = वहाँ। जाउ = मैं जाता हूँ।

ऐवडु = इतना बड़ा, इतना कीमती। को = कोई। जेवडु = जितना कीमती। सचा नाउ = सदा हरी नाम धन। गावां = मैंगाता हूँ। भाई = हे भाई! कै संगि = के साथ। सचे कै संगि = सदा स्थिर प्रभूके साथ। रहाउ = रहूँ, मैं रहता हूँ।

पैनणु = पोशाक, सिरोपा, (लोक परलोक में) इज्जत। पति = इज्जत। पति के साद = (मिली) इज्जत के आनंद। आपे = आप ही। खाइ = खाता है, भोगता है। तिस का उस (मनुष्य) का (संबंधक 'का' के कारण शब्द 'तिसु' का 'ु' हट गया है)। किआ सालाहीअै = क्या सिफत की जाए? सिफत हो ही नहीं सकती। बलि जाइ = सदके जाता रहता है। दरसन कउ = (परमात्मा के) दर्शन से।

वडिआईआ = गुण। भाई = हे भाई! करमि = मेहर से, प्रभू की बख्शिश से। मिलै = (गुरू) मिल जाता है। तां = तब। पाइ = (जब मनुष्य को गुरू मिल जाता है तब) हासिल रता है। इकि = (शब्द 'इक' से बहुवचन) कई। मंनि न जाणनी = मानना नहीं जानते। दूजै भाइ = माया के प्यार में। फिराइ = भटक भटक के। ढोई = आसरा, सहारा। बैसणि = बैठने के लिए।

नानक = हे नानक! धुरे = धुर दरगाह से लिए अनुसार। कमाइआ नाउ = नाम मिशन की कमाई की। विटहु = से। हउ = मैं। वारिआ = कुरबान। सद = सदा। जाउ = मैं जाता हूँ।51।

अर्थ: हे भाई! जब कोई जीव-स्त्री गुरू के (बताए हुए) कार्य करने लग जाती है, जब वह अपना तन अपना मन अपनी जिंद समेत (अपने गुरू के) हवाले करती है, जब वह (अपने गुरू के) हुकम में जीवन-चाल चलने लग जाती है, तब उस जीव-स्त्री को नाम-धन वाली भाग्यशाली समझना चाहिए। (हे भाई! जीव प्रभू के हुकम से आकी हो ही नहीं सकते) जहाँ प्रभू जी हम जीवों को बैठाते हैं, वहीं हम बैठते हैं, जहाँ प्रभू जी मुझे भेजते हैं, वहीं मैं जाता हूँ।

हे भाई! सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम (-धन) जितना कीमती है, इतना कीमती और कोईधन नहीं है। हे भाई! मैं तो सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू के गुण ही सदा गाता हूँ, सदा-स्थिर प्रभू के चरनों में ही सदा टिका रहता हूँ।

हे भाई! (जिस मनुष्य के हृदय में ईश्वरीय) गुणों (ईश्वरीय) अच्छाईयों का निवास हो जाता है (वे मनुष्य लोक-परलोक में) आदर-सत्कार हासिल करते हैं। (वे मनुष्य) अपनी (इस मिली) इज्जत का आनंद खुद ही भोगते रहते हैं (वे आनंद बयान नहीं किए जा सकते)। हे भाई! उस मनुष्य की सिफत (पूरे तौर पर) नहीं की जा सकती, वह मनुष्य परमात्मा के दर्शन से (हमेशा) सदका होता रहता है।

हे भाई! गुरू में बड़े गुण हैं, (जब किसी मनुष्य को परमात्मा की) मेहर से (गुरू) मिल जाता है, तब वह (ये गुण) हासिल कर लेता है। पर कई लोग (ऐसे हैं जो) माया के मोह में भटक-भटक के (गुरू का) हुकम मानना नहीं जानते। हे भाई! (ऐसे मनुष्यों को) साध-संगति में आसरा नहीं मिलता, साध-संगतिमें बैठने के लिए जगह नहीं मिलती (क्योंकि वह तो संगति की ओर जाता ही नहीं)।

हे नानक! (कह- हे भाई!) धुर दरगाह से (पिछले किए कर्मों के संस्कारोंके अनुसार) जिन मनुष्यों ने हरी-नाम सिमरन की कमाई करनी शुरू की, उन मनुष्यों से ही (परमात्मा अपनी) रज़ा (मीठी कर के) मनाता है। हे भाई! मैं ऐसे मनुष्यों पर से कुर्बान जाता हूँ, सदके जाता हूँ।51।

से दाड़ीआं सचीआ जि गुर चरनी लगंन्हि ॥ अनदिनु सेवनि गुरु आपणा अनदिनु अनदि रहंन्हि ॥ नानक से मुह सोहणे सचै दरि दिसंन्हि ॥५२॥ {पन्ना 1419}

नोट: किसी मनुष्य की दाढ़ी इस बात का लक्षण माना गया है कि वह अब ऐतबार योग्य हो गया है, आदर-सत्कार का हॅकदार हो गया है।

पद्अर्थ: से = वे (बहुवचन)। सचीआ = सच्ची, सचमुच आदर सत्कार की हकदार। जि = जो मनुष्य। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सेवनि = शरण पड़े रहते हैं। अनदि = आनंद में। रहंनि् = टिके रहते हैं। सचै दरि = सदा स्थिर हरी के दर पर।52।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू के चरणों में टिके रहते हैं, जो मनुष्य हर वक्त अपने गुरू की शरण पड़े रहते हैं, और हर वक्त आत्मिक आनंद में लीन रहते हैं, उन मनुष्यों की दाढ़ियां सचमुच आदर-सत्कार की हकदार हो जाती हैं। हे नानक! (उन ही मनुष्यों के) ये मुँह सदा-स्थिर प्रभू के दर पर सुंदर दिखाई देते हैं।52।

मुख सचे सचु दाड़ीआ सचु बोलहि सचु कमाहि ॥ सचा सबदु मनि वसिआ सतिगुर मांहि समांहि ॥ सची रासी सचु धनु उतम पदवी पांहि ॥ सचु सुणहि सचु मंनि लैनि सची कार कमाहि ॥ सची दरगह बैसणा सचे माहि समाहि ॥ नानक विणु सतिगुर सचु न पाईऐ मनमुख भूले जांहि ॥५३॥ {पन्ना 1419}

पद्अर्थ: मुख = मुँह (बहुवचन)। सचे = आदर-सत्कार के हकदार। सचु = सदा स्थिर हरी नाम। सचु कमाहि = सदा स्थिर हरी नाम सिमरन की कमाई करते हैं। मनि = मन में। मांहि = में। समांहि = लीन हुए रहते हैं। रासी = राशि, पूँजी, सरमाया। पदवी = आत्मिक दर्जा। पांहि = पाते हैं, हासिल कर लेते हैं। मंनि लैनि = मान लेतेहैं। बैसणा = आदर की जगह। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। भूले जांहि = गलत राह पर पड़े रहते हैं।53।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर हरी-नाम सिमरते हैं, सदा-स्थिर हरी-नाम सिमरन की कमाई करते रहते हैं, जिनके मन में सदा-स्थिर प्रभू की सिफत-सालाह का शबद हर वक्त टिका रहता है, जो हर वक्त गुरू में लीन रहते हैं, उनके मुँह सचमुच सत्कार के हॅकदार हो जाते हैं, उनकी दाढ़ियां सम्मान की हकदार हो जाती हैं। उन मनुष्यों के पास सदा-स्थिर हरी-नाम का सरमाया धन (एकत्र हो जाता) है, वह मनुष्य (लोक-परलोक में) उच्च आत्मिक दर्जा हासिल कर लेते हैं।

हे भाई! जो मनुष्य (हर वक्त) सदा-स्थिर हरी-नाम सुनते हैं, सदा-स्थिर हरी-नाम को सिदक-श्रद्धा से अपने अंदर बसा लेते हैं। सदा-स्थिर हरी-नाम सिमरन की कार करते हैं उन मनुष्यों को सदा-स्थिर प्रभू की हजूरी में मान-सम्मान की जगह मिलती है, वह सदा-स्थिर प्रभू (की याद) में हर वक्त लीन रहते हैं।

पर, हे नानक! गुरू की शरण के बिना सदा-स्थिर हरी-नाम नहीं मिलता। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (अवश्य जिन्दगी के) ग़लत रास्ते पर पड़े रहते हैं।53।

बाबीहा प्रिउ प्रिउ करे जलनिधि प्रेम पिआरि ॥ गुर मिले सीतल जलु पाइआ सभि दूख निवारणहारु ॥ तिस चुकै सहजु ऊपजै चुकै कूक पुकार ॥ नानक गुरमुखि सांति होइ नामु रखहु उरि धारि ॥५४॥ {पन्ना 1419}

पद्अर्थ: बाबीहा = पपीहा। प्रिउ प्रिउ करे = 'प्रिउ प्रिउ' पुकारता है। जल निधि = पानी का खजाना, बादल, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल का खजाना, परमात्मा। पिआरि = प्यार में। सीतल जलु = आत्मिक ठंड देने वाला नाम जल। सभि = सारे। निवारणहारु = दूर करने की समर्थता वाला। तिस = तिखा, प्यास, तृष्णा। चुकै = खत्म हो जाती है। सहजु = आत्मिक अडोलता। कूक पुकार = (माया की खातिर) दौड़ भाग। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने पर। उरि = हृदय में।54।

अर्थ: हे भाई! (जैसे) पपीहा बादल के प्रेम में (वर्षा की बूँद की खातिर) 'प्रिउ प्रिउ' पुकारता रहता है (जब वह बूँद उसको मिलती है, तो वह प्यास खत्म हो जाती है, उसकी 'कूक पुकार' खत्म हो जाती है। वैसे ही गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य परमात्मा के प्रेम-प्यार में परमात्मा का नाम उचारता रहता है), गुरू को मिल के वह आत्मिक ठंड देने वाला नाम-जल प्राप्त कर लेता है, (वह नाम-जल) सारे दुख दूर करने की समर्थता वाला है। (इस नाम-जल की बरकति से, उसकी) तृष्णा खत्म हो जाती है (उसके अंदर) आत्मिक अडोलता पैदा हो जाती है, (माया की खातिर उसकी) घबराहट खत्म हो जाती है।

हे नानक! गुरू की शरण पड़ने से (नाम की बरकति से) आत्मिक ठंड मिल जाती है। इसलिए, हे भाई! परमात्मा का नाम हृदय में बसाए रखो।54।

बाबीहा तूं सचु चउ सचे सउ लिव लाइ ॥ बोलिआ तेरा थाइ पवै गुरमुखि होइ अलाइ ॥ सबदु चीनि तिख उतरै मंनि लै रजाइ ॥ चारे कुंडा झोकि वरसदा बूंद पवै सहजि सुभाइ ॥ जल ही ते सभ ऊपजै बिनु जल पिआस न जाइ ॥ नानक हरि जलु जिनि पीआ तिसु भूख न लागै आइ ॥५५॥ {पन्ना 1419-1420}

पद्अर्थ: बाबीहा = हे पपीहे! (हे आत्मिक बूँद देने वाली नाम बूँद के रसिए!)। सचु = सदा कायम रहने वाला हरी नाम। चउ = उचार, उचारा कर। सचे कउ = सदा स्थिर हरी नाम से। लिव लाइ = सुरति जोड़ी रख। थाइ = (शब्द 'थाउ' का अधिकरण कारक एक वचन) जगह में। थाइ पवै = कबूल होगा। अलाइ = अलापा कर। गुरमुखि सोइ = गुरू की शरण पड़ कर। चीनि = पहचान के, सांझ डाल के। तिख = प्यास (माया की तृष्णा)। रजाइ = रजा, भाणा, हुकम। चारे कुंडां = हर तरफ। झोकि = झुक के। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। ते = से। सभ = सारी लुकाई। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। तिसु = उस (मनुष्य) को।55।

अर्थ: हे पपीहे! (हे आत्मिक जीवन देने वाली नाम-बूँद के रसिए!) तू सदा कायम रहने वाले परमात्मा का नाम सिमरा कर, सदा-स्थिर प्रभू से सुरति जोड़ के रखा कर। गुरू की शरण पड़ कर (हरी-नाम) उचारा कर, (तब ही) तेरा सिमरन करने का उद्यम (प्रभू की हजूरी में) कबूल पड़ सकता है। हे भाई! गुरू के शबद के साथ सांझ डाल के (परमात्मा के) हुकम को भला समझ के माना कर (इस तरह माया की) तृष्णा दूर हो जाती है। (हे पपीहे! यह नाम-जल) सारी सृष्टि में बरसता रहता है (पर, इसकी) बूँद (उस मनुष्य के मुँह में ही) पड़ती है (जो) आत्मिक अडोलता में है (जो परमात्मा के) प्रेम में (लीन) है।

हे भाई! (प्रभू से ही, हरी नाम) जल से ही सारी सृष्टि पैदा होती है (तभी हरी-नाम) जल के बिना (किसी भी जीव की माया की) प्यास दूर नहीं होती। हे नानक! जिस (मनुष्य) ने हरी-नाम-जल पी लिया, उसको (कभी माया की) भूख नहीं व्यापती।55।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh