श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1422 अंतरि जोरु हउमै तनि माइआ कूड़ी आवै जाइ ॥ सतिगुर का फुरमाइआ मंनि न सकी दुतरु तरिआ न जाइ ॥ नदरि करे जिसु आपणी सो चलै सतिगुर भाइ ॥ सतिगुर का दरसनु सफलु है जो इछै सो फलु पाइ ॥ जिनी सतिगुरु मंनिआं हउ तिन के लागउ पाइ ॥ नानकु ता का दासु है जि अनदिनु रहै लिव लाइ ॥६॥ {पन्ना 1422} पद्अर्थ: जोरु हउमै = अहंकार का जोर। तनि = शरीर। कूड़ी = झूठ मूठ, दिखावे के लिए ही। आवै = (गुरू के दर से) आता है। जाइ = जाय, जाता है। दुतरु = दुष्तर, जिससे पार लंघाना मुश्किल होता है। नदरि = मेहर की निगाह। सतिगुर भाइ = गुरू की रजा में। सफलु = फल देने वाला। जो फलु = जो फल। इछै = मन में धारण करता है। सतिगुरु मंनिआ = गुरू पर श्रद्धा लाती है। हउ = मैं। लागउ = मैं लगता हूँ। तिन के पाइ = उनके पैरों पर। ता का = उस (मनुष्य) ने। जि = जो (मनुष्य)। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। लिव लाइ रहै = सुरति जोड़ी रखता है।6। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर अहंकार भारी हुआ रहता है जिसके शरीर में माया का प्रभाव बना रहता है, वह मनुष्य (गुरू के दर पर) सिर्फ दिखावे की खातिर ही आता रहता है। वह मनुष्य गुरू के बताए हुए हुकम में श्रद्धा नहीं बना सकता, (इस वास्ते वह मनुष्य इस संसार-समुंद्र से) पार नहीं लांघ सकता जिससे पार लांघना बहुत मुश्किल है। (पर, हे भाई!) वह मनुष्य (ही) गुरू की रजा में (जीवन-चाल) चलता है, जिस पर परमात्मा अपनी मेहर की निगाह करता है। हे भाई! गुरू का दीदार जरूर फल देता है, (गुरू के दर्शन करने वाला मनुष्य) जो मांग अपने मन में धारण करता है, वही माँग प्राप्त कर लेता है। हे भाई! जिन मनुष्यों ने गुरू पर श्रद्धा बनाई, मैं उनके चरणों में लगता हूँ। जो मनुष्य हर वक्त (गुरू-चरणों में) सुरति जोड़े रखता है, नानक उस मनुष्य का (सदा के लिए) दास है।6। जिना पिरी पिआरु बिनु दरसन किउ त्रिपतीऐ ॥ नानक मिले सुभाइ गुरमुखि इहु मनु रहसीऐ ॥७॥ जिना पिरी पिआरु किउ जीवनि पिर बाहरे ॥ जां सहु देखनि आपणा नानक थीवनि भी हरे ॥८॥ {पन्ना 1422} पद्अर्थ: पिरी पिआरु = प्यारे (प्रभू) का प्यार। किउ त्रिपतीअै = कैसे तृप्ति हो सकती है। सुभाइ = प्यार में। गुरमुखि मनु = गुरू के सन्मुख रहने वाले का मन। रहसीअै = प्रसन्न रहता है।7। किउ जीवनि = कैसे जी सकते हैं? सुखी जीवन नहीं जी सकते। बाहरे = बगैर। जा = जब। देखनि = देखते हैं (बहुवचन)। थीवनि = हो जाते हैं। भी = फिर। हरे = आत्मिक जीवन वाले।8। अर्थ: हे भाई! जिन (मनुष्यों) के अंदर प्यारे का प्रेम होता है, (अपने प्यारे के) दर्शन के बिना उनके मन में शांति नहीं होती। हे नानक! वह मनुष्य (प्यारे के) प्रेम में लीन रहते हैं। (इसी कारण) गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य का यह मन सदा खिला रहता है।7। हे भाई! जिन (मनुष्यों) के अंदर प्यारे का प्रेम होता है, वे अपने प्यारे के मिलाप के बिना सुखी नहीं जी सकते। हे नानक! जब वे अपने पति-प्रभू का दर्शन करते हैं, तब वे दोबारा आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं।8। जिना गुरमुखि अंदरि नेहु तै प्रीतम सचै लाइआ ॥ राती अतै डेहु नानक प्रेमि समाइआ ॥९॥ गुरमुखि सची आसकी जितु प्रीतमु सचा पाईऐ ॥ अनदिनु रहहि अनंदि नानक सहजि समाईऐ ॥१०॥ सचा प्रेम पिआरु गुर पूरे ते पाईऐ ॥ कबहू न होवै भंगु नानक हरि गुण गाईऐ ॥११॥ जिन्हा अंदरि सचा नेहु किउ जीवन्हि पिरी विहूणिआ ॥ गुरमुखि मेले आपि नानक चिरी विछुंनिआ ॥१२॥ जिन कउ प्रेम पिआरु तउ आपे लाइआ करमु करि ॥ नानक लेहु मिलाइ मै जाचिक दीजै नामु हरि ॥१३॥ {पन्ना 1422} पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू की शरण रख के। प्रीतम = हे प्रीतम प्रभू! तै सचै = तू सदा कायम रहने वाले ने। अतै = और। डेहु = दिन। प्रेमि = प्रेम में।9। सची आसकी = सच्ची आशिकी, सदा कायम रहने वाला प्रेम। जितु = जिस (आशिकी) से। पाईअै = मिल जाता है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। अनंदि = आनंद में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाईअै = लीन रहा जाता है।10। ते = से। न होवै भंगु = टूटता नहीं। गाईअै = गाते रहना चाहिए।11। नेहु = प्यार। किउ = सुखी जीवन नहीं जी सकते। गुरमुखि = गुरू से।12। तउ आपे = तू खुद ही। करमु = मेहर, बख्शिश। करि = कर के। मै जाचक = मुझे मंगते को। दीजै = दे।13। अर्थ: हे नानक! (कह-) हे प्रीतम प्रभू! तू सदा कायम रहने वाले ने गुरू के माध्यम से जिन मनुष्यों के अंदर (अपना) प्यार पैदा किया है, वे मनुष्य तेरे प्यार में दिन-रात लीन रहते हैं।9। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों के अंदर (परमात्मा के लिए) सदा कायम रहने वाला प्यार (पैदा हो जाता है), उस प्यार की बरकति से वह सदा-स्थिर प्रीतम-प्रभू उनको मिल जाता है, और वे हर वक्त आनंद में टिके रहते हैं। हे नानक! (प्यार की बरकति से) आत्मिक अडोलता में लीन रहा जाता है।10। हे भाई! (परमात्मा के साथ) सदा कायम रहने वाला प्रेम-प्यार पूरे गुरू से ही मिलता है, (और वह प्यार) कभी नहीं टूटता। हे नानक! (इस प्यार को कायम रखने के लिए) परमात्मा की सिफतसालाह करते रहना चाहिए।11। हे भाई! जिन मनुष्यों के दिल में (परमात्मा के साथ) सदा कायम रहने वाला प्यार बन जाता है, वह मनुष्य परमात्मा की याद के बिना सुखी जीवन नहीं जी सकते (पर, ये उसकी अपनी ही मेहर है)। हे नानक! चिरों से विछुड़े जीवों को प्रभू स्वयं ही गुरू के द्वारा अपने साथ मिलाता है।12। हे नानक! (कह-) हे हरी! तूने खुद ही मेहर करके जिनके अंदर अपना प्रेम-प्यार पैदा किया है, उनको तू (अपने चरणों में) जोड़े रखता है। हे हरी! मुझे मँगते को (भी) अपना नाम बख्श।13। गुरमुखि हसै गुरमुखि रोवै ॥ जि गुरमुखि करे साई भगति होवै ॥ गुरमुखि होवै सु करे वीचारु ॥ गुरमुखि नानक पावै पारु ॥१४॥ जिना अंदरि नामु निधानु है गुरबाणी वीचारि ॥ तिन के मुख सद उजले तितु सचै दरबारि ॥ तिन बहदिआ उठदिआ कदे न विसरै जि आपि बखसे करतारि ॥ नानक गुरमुखि मिले न विछुड़हि जि मेले सिरजणहारि ॥१५॥ {पन्ना 1422} पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहनें वाला मनुष्य। हसै = (भगती के आत्मिक आनंद में कभी) खिल उठता है। रोवै = (भगती के बिरह रस में कभी) वैराग में आ जाता है। जि = जो (भगती)। साई = वही। सु = वह मनुष्य। करे वीचारु = (परमात्मा की सिफतसालाह को) मन में बसाए रखता है। पारु = (संसार समुंद्र का) परला किनारा। पावै = पा लेता है।14। निधानु = (सारे सुखों का) खजाना। वीचारि = विचार के, मन में बसा के। सद = सदा। उजले = रौशन। तितु = उस में। तितु दरबारि = उस दरबार में। तितु सचै दरबारि = उस सदा स्थिर रहने वाले दरबार में। जि = जिनको। करतारि = करतार ने। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। सिरजणहारि = सृजनहार ने।15। अर्थ: हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (भगती के आत्मिक आनंद में कभी) खिल उठता है (कभी भगती के बिरह रस के कारण) वैराग में आ जाता है। हे भाई! असल भगती वही होती है जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रह कर करता है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ा रहता है, वह (परमात्मा की सिफत-सालाह को) अपने मन में बसाए रखता है। हे नानक! गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (इस संसार-समुंद्र का) परला छोर तलाश लेता है।14। हे भाई! सतिगुरू की बाणी को मन में बसा कर जिन मनुष्यों के हृदय में परमात्मा का नाम-खजाना आ बसता है, उनके मुँह उस सदा कायम रहने वाले (ईश्वरीय) दरबार में सदा रौशन रहते हैं। हे भाई! करतार ने स्वयं जिन मनुष्यों पर मेहर की होती है, उनको बैठते-उठते किसी भी वक्त (परमात्मा का नाम) नहीं भूलता। हे नानक! जिन मनुष्यों को सृजनहार प्रभू ने (स्वयं अपने चरणों में) जोड़ा होता है, वे मनुष्य गुरू के द्वारा (प्रभू चरणों में) मिले हुए फिर कभी नहीं बिछुड़ते।15। गुर पीरां की चाकरी महां करड़ी सुख सारु ॥ नदरि करे जिसु आपणी तिसु लाए हेत पिआरु ॥ सतिगुर की सेवै लगिआ भउजलु तरै संसारु ॥ मन चिंदिआ फलु पाइसी अंतरि बिबेक बीचारु ॥ नानक सतिगुरि मिलिऐ प्रभु पाईऐ सभु दूख निवारणहारु ॥१६॥ मनमुख सेवा जो करे दूजै भाइ चितु लाइ ॥ पुतु कलतु कुट्मबु है माइआ मोहु वधाइ ॥ दरगहि लेखा मंगीऐ कोई अंति न सकी छडाइ ॥ बिनु नावै सभु दुखु है दुखदाई मोह माइ ॥ नानक गुरमुखि नदरी आइआ मोह माइआ विछुड़ि सभ जाइ ॥१७॥ {पन्ना 1422-1423} पद्अर्थ: की चाकरी = की (बताई हुई) सेवा। करड़ी = मुश्किल। सारु = श्रेष्ठ। नदरि = मेहर की निगाह। हेत = हित, प्रेम। सेवै = सेवा में। भउजलु = संसार समुंद्र। संसारु = जगत। तरै = पार लांघ जाता है। मन चिंदिआ = मन इच्छित। पाइसी = हासिल कर लेगा। बिबेक बीचारु = बिबेक की सूझ, अच्छे बुरे काम के परख की सूझ। सतिगुर मिलिअै = अगर गुरू मिल जाए। निवारणहारु = दूर कर सकने वाला।16। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। सेवा जो = जो भी सेवा। दूजै भाइ = (परमात्मा के बिना) किसी और के प्यार में। लाइ = लगाए रखता है। कलतु = स्त्री। वधाइ = बढ़ाए जाता है। दरगहि = प्रभू की हजूरी में। मंगीअै = मांगा जाता है। अंति = अंत के समय। मोह माइ = माया का मोह। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। नदरी आइआ = दिखाई दे जाता है।17। अर्थ: हे भाई! महा पुरुषों की (बताई हुई) कार बहुत मुश्किल होती है (क्योंकि उसमें स्वै मारना पड़ता है, पर उसमें से) श्रेष्ठ आत्मिक आनंद प्राप्त होता है। (इस सेवा को करने के लिए) उस मनुष्य के अंदर (परमात्मा) प्रीत-प्यार पैदा करता है, जिस पर अपनी मेहर की निगाह करता है। हे भाई! गुरू की (बताई हुई) सेवा में लग के जगत संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है। (जो भी मनुष्य गुरू की बताई हुई सेवा करेगा वह) मन-माँगी मुरादें प्राप्त कर लेगा, उसके अंदर अच्छे-बुरे काम की परख की सूझ (पैदा हो जाएगी)। हे नानक! अगर गुरू मिल जाए, तो वह परमात्मा मिल जाता है, जो हरेक दुख दूर करने वाला है।16। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाल मनुष्य जो भी सेवा करता है, (उसके साथ-साथ वह अपना) चिक्त (परमात्मा के बिना) और के प्यार में जोड़े रखता है। (यह मेरा) पुत्र (है, यह मेरी) स्त्री (है, यह मेरा) परिवार है (-यह कह कह के ही वह मनुष्य अपने अंदर) माया का मोह बढ़ाए जाता है। परमात्मा की दरगाह में (किए हुए कर्मों का) हिसाब (तो) माँगा (ही) जाता है, (माया के मोह के फंदे से) अंत में कोई छुड़ा नहीं सकता। माया का मोह दुखदाई साबित होता है, परमात्मा के नाम के बिना और सारा (उद्यम) दुख (का ही मूल) है। हे नानक! गुरू की शरण पड़ कर (जिस मनुष्य को यह भेद) दिखाई दे जाता है, (उसके अंदर से) माया का सारा मोह दूर हो जाता है।17। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |