श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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किव करि आखा किव सालाही किउ वरनी किव जाणा ॥
नानक आखणि सभु को आखै इक दू इकु सिआ णा ॥

पद्अर्थ: किव करि = किस तरह, क्यूँ कर। आखा = मैं कहूँ, मैं बयान करूँ, मैं कह सकूँ। सालाही = मैं सालाहूँ, मैं अकाल-पुरख की स्तुति करूँ। किउ = किस तरह, क्यूँ कर। वरनी = मैं वर्णन करूँ। सभ को = हरेक जीव। आखणि आखै = कहने को तो कहता है, कहने का यत्न करता है। इक दू इकु सिआणा = एक दूसरे से ज्यादा समझदार बन बन के, एक जना अपने आपको दूसरे से ज्यादा समझदार समझ के। दू = से।

अर्थ: मैं किस तरह (अकाल-पुरख की वडियाई) बताऊँ, किस तरह अकाल-पुरख की महिमा करूँ, किस तरह (अकाल-पुरख की बड़ाई) का वर्णन करूँ और किस तरह उसे समझ सकूँ? हे नानक! हरेक जीव अपने आप को दूसरे से ज्यादा समझदार समझ के (अकाल-पुरख की वडियाई) बताने का प्रयत्न करता है (पर बता नहीं सकता)।

वडा साहिबु वडी नाई कीता जा का होवै ॥
नानक जे को आपौ जाणै अगै गइआ न सोहै ॥२१॥

पद्अर्थ: साहिबु = मालिक, अकाल-पुरख। नाई = बड़ाई। जा का = जिस (अकाल-पुरख) का। कीता जा का होवै = जिस हरि का किया ही सब कुछ होता है। जे को = यदि कोई मनुष्य। आपौ = अपने आप को, अपनी अक्ल के बल पे, स्वयं ही। न सोहै = शोभा नहीं पाता, आदर नहीं मिलता। अगै गइआ = अकाल-पुरख के दर पर जा के।

अर्थ: अकाल-पुरख (सबसे) बड़ा है, उसकी बड़ाई ऊँची है। जो कुछ जगत में हो रहा है, उसीका किया ही हो रहा है। हे नानक! यदि कोई मनुष्य अपनी अक्ल के आसरे (प्रभु की वडियाई का अंत पाने का) प्रयत्न करे, वह अकाल-पुरख के दर पर जा के आदर मान नहीं पाता।21।

भाव: जिस मनुष्य ने ‘नाम’ में चित्त जोड़ा है, जिसको नाम जपने की लगन लग गई है, जिसके मन में प्रभु का प्यार उपजा है, उसकी आत्मा शुद्ध पवित्र हो जाती है। पर ये भक्ति उसकी मेहर से ही प्राप्त होती है।

और बंदगी का ये नतीजा नहीं निकलता कि मनुष्य ये बता सके कि जगत कब बना। ना पण्डित, ना काज़ी, ना योगी, कोई भी ये भेत नहीं पा सके। परमात्मा बेअंत बड़ा है। उसका बड़प्पन (वडियाई) भी बेअंत है, उसकी रचना भी बेअंत है।21।

पाताला पाताल लख आगासा आगास ॥
ओड़क ओड़क भालि थके वेद कहनि इक वात ॥

पद्अर्थ: पाताला पाताल = पातालों के नीचे और पाताल हैं। आगासा आगास = आकाशों के ऊपर और आकाश हैं। ओड़क = आख़ीर, अंत, आखिरी छोर पे। भालि थके = ढूँढढूँढ के थक गए हैं। कहनि = कहते हैं। इक वात = एक बात, एक ज़बान हो के।

अर्थ: (सारे) वेद एक जुबान हो के कहते हैं, “पातालों के नीचे और भी लाखों पाताल हैं और आकाशों के ऊपर और भी लाखों आकाश हैं (बेअंत ऋषी मुनी) जगत के आखिरी छोर को ढूँढढूँढ के थक गए हैं (पर ढूँढ नहीं सके)”।

सहस अठारह कहनि कतेबा असुलू इकु धातु ॥
लेखा होइ त लिखीऐ लेखै होइ विणासु ॥

पद्अर्थ: सहस अठारह = अठारह हजार (आलम)। कहनि कतेबा = कतेबें कहती हैं। कतेबा = इसाई मत व इस्लाम आदि की चार किताबें: कुरान, अंजील, तौरेत व जंबूर। असुलू = शुरू।

नोट: ये अरबी बोली का शब्द है। अक्षर ‘स’ की मात्रा (ु) अरबी के अक्षर ‘सुआद’ बताने के लिए है।

इक धातु = एक अकाल-पुरख, एक पैदा करने वाला। लेखा होइ = अगर लेखा हो सके। लिखीऐ = लिख सकते हैं। लेखै विणासु = लेखे का खात्मा, लिखे का अंत।

अर्थ: (मुसलमान व इसाई धर्म की चारों) कतेबें कहती हैं, “कुल अठारह हजार आलम हैं, जिनका आरंभ एक अकाल-पुरख है। (पर सच्ची बात तो ये है कि शब्द) ‘हजारों’ और ‘लाखों’ भी कुदरत की गिनती में इस्तेमाल नहीं किए ना सकते (अकाल-पुरख की कुदरत का) लेखा तभी लिखा जा सकता है जो लेखा संभव हो (ये लेखा तो हो ही नहीं सकता, लेखा करते करते) लेखे का ही खात्मा हो जाता है (गिनती के हिंदसे ही खत्म हो जाते हैं)।

नानक वडा आखीऐ आपे जाणै आपु ॥२२॥

पद्अर्थ: आखीऐ = कहते हैं (जिस अकाल-पुरख को)। आपे = वह अकाल-पुरख खुद ही। जाणै = जानता है। आपु = अपने आपको।

अर्थ: हे नानक! जिस अकाल-पुरख को (सारे जगत में) बड़ा कहा जा रहा है, वह स्वयं ही अपने आप को जानता है (वह अपनी वडियाई स्वयं ही जानता है।22।

भाव: प्रभु की कुदरत को बयान करते हुए ‘हजारों’ व ‘लाखों’ के हिंदसे भी इस्तेमाल नहीं किये जा सकते। इतनी बेअंत कुदरत है कि इसका लेखा करने के समय गिनती के हिंदसे ही समाप्त हो जाते हैं।22।

सालाही सालाहि एती सुरति न पाईआ ॥
नदीआ अतै वाह पवहि समुंदि न जाणीअहि ॥

पद्अर्थ: सालाही = सालाहुण-जोग परमात्मा। सालाहि = महिमा कर के। एती सुरति = इतनी समझ (कि अकाल-पुरख कितना बड़ा है)। न पाईआ = किसी ने नहीं पाई। अतै = और, तथा। वाह = वहिण, नाले। पवहि = पड़ते हैं। समुंदि = समुन्द्र में। न जाणीअहि = नहीं जाने जाते, वह नदियां और नाले (जो फिर अलग) पहचाने नहीं जा सकते, (बीच में ही लीन हो जाते हैं, और समुंदर की थाह नहीं पा सकते)।

अर्थ: सालाहने योग्य अकाल-पुरख की महानताओं का वर्णन कर करके किसी भी मनुष्य ने इतनी समझ नहीं पाई कि वो अंत पा सके कि अकाल-पुरख कितना बड़ा है (महिमा करने वाले मनुष्य उस अकाल-पुरख में ही लीन हो जाते हैं)। (जैसे) नदियां और नाले समुंदर में जा मिलते हैं (और फिर उनका अलग अस्तित्व नहीं रहता) और वह पहचाने नहीं जा सकते (बीच में ही लीन हो जाते हैं, और समुंदर की थाह नहीं पा सकते)।

समुंद साह सुलतान गिरहा सेती मालु धनु ॥
कीड़ी तुलि न होवनी जे तिसु मनहु न वीसरहि ॥२३॥

पद्अर्थ: समुंद साह सुलतान = समुंद्रों के बादशाहों के सुल्तान। गिरहा सेती = पहाड़ों जितने। तुलि = बराबर। न होवई = नहीं होते। तिसु मनहु = उस कीड़ी के मन में से। जे न वासरहि = यदि तूँ ना बिसर जाए (हे हरि!)।

अर्थ: समुंद्रों के बादशाहों के सुल्तान (जिनके खजानों में) पहाड़ जितने धन-पदार्तों के (ढेर हों) (प्रभु की महिमा करने वाले की नजरों में) एक कीड़ी के भी बराबर नहीं होते, यदि (हे अकाल-पुरख!) उस कीड़ी के मन में से तू ना बिसर जाए।23।

भाव: सो, बंदगी करने से प्रभु का अंत नहीं पाया जा सकता। पर इसका ये भाव नहीं कि प्रमात्मा की महिमा करने का कोई लाभ नहीं है। प्रभु की भक्ति की बरकत से मनुष्य शाहों-बादशाहों की भी परवाह नहीं करता, प्रभु के नाम के सामने उसे बेअंत धन भी तुच्छ प्रतीत होता है।23।

अंतु न सिफती कहणि न अंतु ॥ अंतु न करणै देणि न अंतु ॥
अंतु न वेखणि सुणणि न अंतु ॥ अंतु न जापै किआ मनि मंतु ॥

पद्अर्थ: सिफती = सिफतों का, स्तुति का। कहणि = कहने से, बताने से। करणै = बनाई हुई कुदरत का। देणि = देने में, दातें देने में। वेखणि, सुणणि = देखने और सुनने से। न जापै = नहीं दिखता, नहीं प्रतीत होता। मनि = (अकाल-पुरख के) मन में। मंतु = सलाह।

अर्थ: (अकाल-पुरख के) गुणों की कोई हद-बंदी, सीमा नहीं है, गिनने से भी (गुणों का) अंत नहीं पाया जा सकता। (गिने नहीं जा सकते)। अकाल-पुरख की रचना और दातों का अंत नहीं पाया जा सकता। देखने और सुनने से भी उसके गुणों का पार नहीं पा सकते। उस अकाल-पुरख के मन में क्या सलाह हैइस बात का अंत भी नहीं पाया जा सकता।

अंतु न जापै कीता आकारु ॥ अंतु न जापै पारावारु ॥

पद्अर्थ: कीता = बनाया हुआ। आकारु = ये जगत जो दिखाई दे रहा है। पारावारु = इसपार व उसपार का छोर।

अर्थ: अकाल-पुरख ने यह जगत (जो दिखाई दे रहा है) बनाया है, पर इस का आखीर, इसके इसपार-उसपार का छोर दिखाई नहीं देता।

अंत कारणि केते बिललाहि ॥ ता के अंत न पाए जाहि ॥

पद्अर्थ: अंत कारणि = हदबंदी ढूँढने के लिए। केते = कई मनुष्य। बिललाहि = बिलकते हैं, तरले लेते हैं। ता के अंत = उस अकाल-पुरख का अंत/ की सीमा। न पाऐ जाहि = ढूँढे नही जा सकते।

अर्थ: कई मनुष्य अकाल-पुरख की हदें, सीमाएं तलाशने में व्याकुल हो रहे हैं, पर वे उस की सीमांओं को नहीं ढूँढ सकते।

एहु अंतु न जाणै कोइ ॥ बहुता कहीऐ बहुता होइ ॥

पद्अर्थ: एहु अंतु = ये सीमाएं (जिसकी तलाश बेअंत जीव कर रहे हैं)। बहुता कहीऐ = ज्यों ज्यों अकाल-पुरख को बड़ कहते जाएं, ज्यों ज्यों उसके गुण कथन करते जाएं। बहुता होइ = त्यों त्यों वह और बड़ा, और बड़ा प्रतीत होने लग जाता है।

अर्थ: (अकाल पुरख के गुणों का) इन सीमाओं को (जिसकी बेअंत जीव तलाश में लगे हुए हैं) कोई मनुष्य नहीं पा सकता। ज्यों ज्यों ये बात कहते जाएं कि वह बड़ा है, त्यों त्यों वह और भी बड़ा, और भी बेअंत प्रतीत होने लग पड़ता है।

वडा साहिबु ऊचा थाउ ॥ ऊचे उपरि ऊचा नाउ ॥
एवडु ऊचा होवै कोइ ॥ तिसु ऊचे कउ जाणै सोइ ॥

पद्अर्थ: थाउ = अकाल-पुरख के निवास का ठिकाना। ऊचे ऊपरि ऊचा = ऊचे से भी ऊँचा, बहुत ऊँचा। नाउ = मशहूरी, नाम, शोहरत। एवडु = इतना बड़ा। होवै कोइ = यदि कोई मनुष्य हो। तिसु ऊचे कउ = उस ऊँचे अकाल-पुरख को। सोइ = वह मनुष्य ही।

अर्थ: अकाल-पुरख बहुत बड़ा है, उसका ठिकाना ऊँचा है। उसकी शोहरत भी ऊँची है। अगर कोई और उसके जितना बड़ा हो, वह ही उस ऊचे अकाल-पुरख को समझ सकता है (कि वह कितना बड़ा है)।

जेवडु आपि जाणै आपि आपि ॥ नानक नदरी करमी दाति ॥२४॥

पद्अर्थ: जेवडु = जितना बड़ा। जाणै = जानता है। आपि आपि = केवल स्वयं ही (उसके बिना कोई और नहीं जानता)। नदरी = मेहर की नजर करने वाला हरि। करमी = करम से, कृपा से। दाति = बख़्शिश, कृपा।

अर्थ: अकाल-पुरख स्वयं ही जानता है कि वह खुद कितना बड़ा है। हे नानक! (हरेक) दात, मिहर की नज़र करने वाले अकाल पुरख की बख़्शिश से ही मिलती है।24।

भाव: प्रभु बेअंत गुणों का मालिक है, उसकी पैदा की हुई रचना भी बेअंत है। ज्यों ज्यों उसके गुणों की तरफ ध्यान मारें, वह और भी बड़ा प्रतीत होने लग पड़ता है। जगत में ना कोई उस प्रभु जितना बड़ा है, और इस वास्ते ना हीकोई ये बता सकता है कि प्रभु कितना बड़ा है।24।

बहुता करमु लिखिआ ना जाइ ॥ वडा दाता तिलु न तमाइ ॥

पद्अर्थ: करमु = बख्शिश। तिलु = तिल मात्र भी। तमाइ = लालच, त्रिष्णा। दाता = दातें देने वाला।

अर्थ: अकाल-पुरख बहुत सी दातें देने वाला है, उसे तिलमात्र भी लालच नहीं है। उसकी बख्शिश इतनी बड़ी है कि लिखने में नहीं लाई जा सकती।

केते मंगहि जोध अपार ॥
केतिआ गणत नही वीचारु ॥ केते खपि तुटहि वेकार ॥

पद्अर्थ: केते = कई। जोध अपार = अपार योद्धे, अनगिनत सूरमें। मंगहि = मांगते हैं। गणत = गिनती। केतिआ = कईयों की। वेकार = विकारों में। खपि तुटहि = खप खप के नाश होते हैं।

अर्थ: बेअंत शूरवीर व कई और ऐसे, जिनकी गिनती पे विचार नहीं हो सकती, (अकाल-पुरख के दर पे) मांग रहे हैं। कई जीव (उसकी दातें बरत के) विकारों में ही खप खप नाश हो रहे हैं।

केते लै लै मुकरु पाहि ॥ केते मूरख खाही खाहि ॥

पद्अर्थ: केते = बेअंत जीव। मुकरि पाहि = मुकर जाते हैं। खाही खाहि = खाते ही खाते हैं, खाए जाते हैं।

(नोट: ‘तूं देखहि हउ मुकरि पाउ।’

सभ किछु सुणदा वेखदा, किउ मुकरि पाइआ जाइ।’

इन दोनें तुकों में शब्द ‘मुकरि’ है, पर उपरोक्त तुक में ‘मुकरु’ है। दोनों का अर्थ एक ही है। ‘मुकरि’ व्याकरण अनुसार सटीक बैठता है। इस शब्द संबंधी अभी और खोज की जरूरत है)।

अर्थ: बेअंत जीव (अकाल-पुरख के दर से पदार्थ) प्राप्त कर के मुकर जाते हैं (भाव, कभी शुक्राने में आ के ये नहीं कहते कि सभ पदार्थ प्रभु स्वयं दे रहा है)। अनेक मूर्ख (पदार्थ ले कर) खाए ही जाते हैं (पर दातार को याद नहीं रखते)।

केतिआ दूख भूख सद मार ॥ एहि भि दाति तेरी दातार ॥

पद्अर्थ: केतिआ = कई जीवों को। दूख = कई दुख-कष्ट। भूख = भूख (अर्थात, खाने को भी नहीं मिलता)। सद = सदा। दाति = बख्शिश। दातार = हे देनहार अकाल-पुरख!

अर्थ: अनेक ही जीवों को सदैव मार, कष्ट व भूख (ही भाग्य में लिखे हैं)। (पर) हे देनहार अकाल-पुरख! ये भी तेरी बख्शिश ही है (क्योंकि, इन दुखों, कष्टों के कारण ही मनुष्य को रजा में चलने की समझ पड़ती है)।

बंदि खलासी भाणै होइ ॥ होरु आखि न सकै कोइ ॥

पद्अर्थ: बंद = बंदी से, कारागार से, माया के मोह से। खलासी = मुक्ति, छुटकारा। भाणें = अकाल-पुरख की रज़ा में चलने से। होइ = होता है। होरु = ईश्वर की रज़ा के उलट कोई और तरीका। कोइ = कोई मनुष्य।

अर्थ: और (माया के मोह रूप) बंधन से छुटकारा अकाल-पुरख की रज़ा में चलने से ही होता है। रज़ा के बग़ैर कोई और तरीका कोई मनुष्य नहीं बता सकता (भाव, कोई मनुष्य नहीं बता सकता कि ईश्वर की रज़ा में चलने के अलावा मोह से छुटकारे का और कोई तरीका भी हो सकता है)।

जे को खाइकु आखणि पाइ ॥ ओहु जाणै जेतीआ मुहि खाइ ॥

पद्अर्थ: खाइकु = मूर्ख, कच्चा मनुष्य। आखणि पाइ = कहने का यत्न करे (भाव, मोह से छुटकारे का कोई और तरीका) बताने का प्रयत्न करे। ओहु = वह मूर्ख ही। जेतीआ = जितनी (चोटें)। मुहि = मुंह पे। खाइ = खाता है।

अर्थ: (पर) यदि कोई मनुष्य (माया से छुटकारे का और कोई साधन) बताने का प्रयत्न करे तो वही जानता है जितनी चोटें वह (इस मूर्खता के कारण) अपने मुंह पे खाता है (भाव, ‘झूठ’ से बचने का एक ही तरीका है कि मानव रजा में चले। पर अगर कोई मूर्ख कोई और तरीका ढूँढता है तो इस ‘झूठ’ से बचने की बजाए बलिक ज्यादा दुखी होता है)।

आपे जाणै आपे देइ ॥ आखहि सि भि केई केइ ॥

पद्अर्थ: देइ = देता है। आखहि = कहते हैं। सि भी = ये बात भी। केई केइ = कई मनुष्य।

अर्थ: (सारे ना-शुक्रे ही नहीं हैं) अनेकां लोग ये बात भी कहते हैं कि अकाल-पुरख स्वयं ही (जीवों की जरूरतों को) जानता है तथा स्वयं ही (दातें) देता है।

जिस नो बखसे सिफति सालाह ॥ नानक पातिसाही पातिसाहु ॥२५॥

पद्अर्थ: जिस नो = जिस मनुष्य को। नानक = हे नानक! पातिसाही पातिसाहु = बादशाहों के बादशाह।

अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य को अकाल-पुरख अपनी महिमा की बख्शिश करता है, वह बादशाहों का बादशाह बन जाता है। (महिमा ही सब से ऊँची दात है)।25।

भाव: प्रभु कितना बड़ा है: ये बात बयान करनी तो कहां रही, उसकी बख्शिशें ही इतनी बड़ी हैं कि लिखने में नहीं लाई जा सकती। जगत में जो बड़े ब्ड़े दिखाई दे रहे हैं, ये सभी उस प्रभु के दर से ही मांगते हैं। वह तो बल्कि इतना बड़ा है कि जीवों के मांगने के बिना इनकी जरूरतों को जान के अपने आप दातें दिए जा रहा है।

पर जीव की मूर्खता देखिए! दातों का इस्तेमाल करते करते दातार को विसार के विकारों में पड़ जाता है और कई दुख-कष्ट अपने ऊपर ले लेता है। ये दुख-कष्ट भी प्रभु की दात हैं, क्योंकि इन दुखों-कष्टों के कारण ही मनुष्य को मुड़ रजा में चलने की समझ आ जाती है, और ये ईश्वर की महिमा करने लग जाता है। यह महिमा ही सबसे ऊँची दात है।25।

अमुल गुण अमुल वापार ॥ अमुल वापारीए अमुल भंडार ॥
अमुल आवहि अमुल लै जाहि ॥ अमुल भाइ अमुला समाहि ॥

पद्अर्थ: अमुल = अनमोल, जिसका कोई मुल्य ना हो सके। गुण = अकाल-पुरख के गुण। वापारीए = अकाल-पुरख के गुणों का व्यापार करने वाले। भंडार = खजाने। आवहि = जो मनुष्य (इस व्यापार के लिए) आते हैं। लै जाहि = (ये सौदा खरीद के) ले जाते हैं। भाइ = भाउ में, प्रेम में। समाहि = (अकाल-पुरख में) लीन हैं।

अर्थ: (अकाल-पुरख के) गुण अमोलक हैं (उसके गुणों का मुल्य नहीं पड़ सकता, अमुल्य हैं), (इन गुणों के) व्यापार करने भी अमुल्य हैं। उन मनुष्यों का भी मुल्य नहीं पड़ सकता, जो (अकाल-पुरख के गुणों का) व्यापार करते हैं, (गुणों के) खजाने (भी) अमुल्य हैं। उन मनुष्यों का मूल्य नहीं पड़ सकता, जो (इस व्यापार के लिए जगत में) आते हैं। वो भी अति भाग्यशाली हैं, जो (ये सौदा खरीद के) ले जाते हैं। जो मनुष्य अकाल-पुरख के प्रेम में हैं और जो मनुष्य उस अकाल-पुरख में लीन हुये हुए हैं वह भी अमुल्य हैं।

अमुलु धरमु अमुलु दीबाणु ॥ अमुलु तुलु अमुलु परवाणु ॥
अमुलु बखसीस अमुलु नीसाणु ॥ अमुलु करमु अमुलु फुरमाणु ॥

पद्अर्थ: धरमु = नियम, कानून। दीबाणु = कचहरी, दीवान, राज दरबार। तुलु = तुला, तकड़ी। परवाणु = प्रमाण, तोलने वाला बाँट। बखसीस = रहमत, दया। नीसाणु = अकाल-पुरख की रहमत का निशान। करमु = रहिमत, बख्शिश। फुरमाणु = हुक्म। अमुलु = अंदाजों से परे।

अर्थ: अकाल-पुरख का कानून और उसका राज दरबार अनमोल हैं। वह तराजू भी अनमोल है और वह बाँट भी अनमोल है (जिससे वह जीवों के अच्छे-बुरे कर्मों को तौलता है)। उसकी रहिमत व रहिमत के निशान भी अमोलक हैं। अकाल-पुरख की बख्शिश तथा हुक्म भी मुल्यों से परे हैं। (किसी का भी अंदाजा नहीं लग सकता)।

अमुलो अमुलु आखिआ न जाइ ॥ आखि आखि रहे लिव लाइ ॥

पद्अर्थ: अमुलो अमुलु = अमुल्य ही अमुल्य, किसी भी अंदाज से परे। आखि आखि = अंदाजा लगा लगा के। रहे = रह गए हैं, थक गए हैं। लिव लाइ = ध्यान जोड़ के, चिंतन कर के।

अर्थ: अकाल-पुरख सभ अंदाजों से परे है, उसका कोई अंदाजा नहीं लग सकता। जो मनुष्य ध्यान लगा लगा के अकाल-पुरख का अंदाजा लगाते हैं, वह (अंत को) रह जाते हैं।

आखहि वेद पाठ पुराण ॥ आखहि पड़े करहि वखिआण ॥
आखहि बरमे आखहि इंद ॥ आखहि गोपी तै गोविंद ॥

पद्अर्थ: आखहि = कह रहे हैं, वर्णन करते हैं। वेद पाठ = वेदों के पाठ, वेद मंत्र। पड़े = पढ़े हुए मनुष्य, विद्वान। करहि वखिआण = व्याख्यान करते हैं, उपदेश करते हैं, और लोगों को सुनाते हैं। बरमें = कई ब्रह्मा। इंद = इंद्र देवते। तै = और। गोविंद = कई कान्हे।

अर्थ: वेद मंत्र व पुराण अकाल-पुरख का अंदाजा लगा लेते हैं। विद्वान लोग भी, जो (और लोगों को) उपदेश करते है, (अकाल-पुरख का) बयान करते हैं। कई ब्रह्मा, कई इंद्र, गोपियां और कई कान्हें अकाल-पुरख का अंदाजा लगा रहे हैं।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh