श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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असंख भगत गुण गिआन वीचार ॥ असंख सती असंख दातार ॥

पद्अर्थ: गुण विचारु = अकाल-पुरख के गुणों का ख्याल। गिआन वीचारु = (अकाल-पुरख के) ज्ञान का विचार। सती = सत धर्म वाले मनुष्य। दातार = दातें देने वाले, बख्शिश करने वाले।

अर्थ: (अकाल-पुरख की कुदरत में) अनगिनत भक्त हैं, जो अकाल-पुरख के गुणों और ज्ञान की विचार कर रहे है, अनेक ही दानी व दाते हैं।

असंख सूर मुह भख सार ॥ असंख मोनि लिव लाइ तार ॥

पद्अर्थ: सूर = सूरमे, वीर, योद्धे। मुह = मुंहों पे। भखसार = सार भक्षण वाले,शास्त्रों के वार सहिने वाले। मोनि = चुप रहने वाले। लिव लाइ तार = लगन की तार लगा के, निरंतर चिंतन, एक रस तवज्जो जोड़ के।

अर्थ: (अकाल-पुरख की रचना में) बेअंत शूरवीर हैं जो अपने मुँह पे (भाव, सनमुख हो के) शास्त्रों के वार सहन करते हैं, अनेक मौनी हैं, जो निरंतर बिर्ती जोड़ के बैठे हैं।

कुदरति कवण कहा वीचारु ॥ वारिआ न जावा एक वार ॥
जो तुधु भावै साई भली कार ॥ तू सदा सलामति निरंकार ॥१७॥

अर्थ: मेरी क्या ताकत है कि मैं करते की कुदरत की विचार कर सकूँ? (हे अकाल-पुरख!) मैं तो आप पर एक बार भी सदके होने के लायक नहीं हूँ (भाव मेंरी हस्ती बहुत तुच्छ है)। हे निरंकार! तू सदा अटल रहने वाला है, जो तुझे ठीक लगता है वही काम भला है (भाव, तेरी रजा में रहना ही ठीक है)।17।

प्रभु की सारी कुदरत का अंत ढूंढना तो कहीं रहा, जगत में जो तुम उसके बंदों की ही गिनती करने लगो जो जप, तप, पूजा, धार्मिक पुस्तकों का पाठ, योग, समाधि आदिक काम करते चले आ रहे हैं, तो ये लेखा ही ना खत्म होने योग्य है।17।

असंख मूरख अंध घोर ॥ असंख चोर हरामखोर ॥
असंख अमर करि जाहि जोर ॥

पद्अर्थ: मूरख अंध घोर = महामूर्ख, पहले दर्जे का मूर्ख। हरामखोर = पराया माल खाने वाले। अमर = हुक्म। जोर = धक्के से, जबरदस्ती। करि जाहि = कर के (अंत में इस संसार से) चले जाते हैं

अर्थ: (निरंकार की रची हुई सृष्टि में) अनेक ही महामूर्ख हैं, अनेको ही चोर हैं, जो पराया माल (चुरा चुरा के) इस्तेमाल कर रहे हैं और अनेक ही ऐसे मनुष्य भी हैं जो (दूसरों पे) हुक्म चला के ज़ोर जबरदस्ती कर करके (अंत में इस संसार से) चले जाते हैं।

असंख गलवढ हतिआ कमाहि ॥ असंख पापी पापु करि जाहि ॥

पद्अर्थ: गलवढ = गला काटने वाले, कातिल, खूनी। हतिआ कमाहि = दूसरों का गला काटते हैं। पापु करि जाहि = पाप कमा के अंत को संसार से चले जाते हैं।

अर्थ: अनेक ही खूनी मनुष्य लोगों का गला काट रहे हैं और अनेक ही पापी मनुष्य पाप कमा के (आखिर) इस दुनिया से चले जाते हैं।

असंख कूड़िआर कूड़े फिराहि ॥ असंख मलेछ मलु भखि खाहि ॥

पद्अर्थ: कूड़िआर = वह मनुष्य जिनके हृदय में झूठ के ठिकाने बने हुए हैं, झूठे स्वभाव वाले। कूड़े = झूठ में ही। फिराहि = फिरते हैं, परविर्त हैं, मशगूल हैं। मलेछ = मलीन बुद्धि वाले, खोटी मति वाले मनुष्य। खाहि = खाते हैं। भखि खाहि = भूखों की तरह बेसब्री से खाना। (‘भख’ और ‘खाहि’ दोनों ही संस्कृत की धातु हैं, दोनों का अर्थ है ‘खाना’। तीसरी पउड़ी में भी एक ऐसी ही ‘खाही खाहि’ क्रिया आ चुकी है)।

अर्थ: अनेकां ही झूठ बोलने वाले स्वभावके मनुष्य झूठ में ही लिप्त रहते हैं और अनेक ही खोटी बुद्धि वाले मनुष्य मल (अभक्ष) ही खाए जा रहे हैं।

असंख निंदक सिरि करहि भारु ॥ नानकु नीचु कहै वीचारु ॥

पद्अर्थ: सिरि = अपने सिर ऊपर। सिरि करहि भारु = अपने सिर पे भार उठाते हैं।

नानक नीचु: इस तुक में शब्द ‘नानक’ कर्ताकारक हैऔर पुलिंग है। शब्द ‘नीचु’ विशेषण है और पुलिंग है। वैसे भी शब्द ‘नानक’ के साथ इस्तेमाल किया गया है। इस तरह ‘नीचु’ शब्द ‘नानक’ का विशेषण है। सत्गुरू जी स्वयं को ‘नीच’ कहते हैं, ये गरीबी भाव और भी बहुत जगह आया है; जैसे:

• मै कीता न जाता हरामखोर। हउ किआ मुहु देसा दुसटु चोरु।

• नानकु नीचु कहै बीचारु। धाणक रूपि रहा करतार।4।29। (सिरी राग महला१)

• जुग जुग साचा है भी होसी। कउणु न मूआ कउणु न मरसी।

• नानकु नीचु कहै बेनंती, दरि देखहु लिव लाई हे।16।2। (सिरीराग महला १, सोहले)

• कथनी करउ न आवै ओरु। गुरु पूछ देखिआ नाही दरु होरु।

• दुख सुखु भाणे तिसै रजाइ। नानकु नीचु कहै लिव लाइ।8।4। (गउड़ी महला १)

नानकु नीचु = नीच नानक, नानक विचारा, गरीब नानक।

अर्थ: अनेक ही निंदक (निंदा कर के) अपने सिर ऊपर (निंदा का) भार उठा रहे हैं। (हे निरंकार!) अनेक और जीव कई और कुकर्मों में फसे होंगे, मेरी क्या ताकत है कि तेरी कुदरत का पूरा विचार कर सकूँ? नानक विचारा (तो) ये (उपरोक्त तुच्छ सी) विचार पेश करता है।

वारिआ न जावा एक वार ॥
जो तुधु भावै साई भली कार ॥ तू सदा सलामति निरंकार ॥१८॥

अर्थ: (हे अकाल-पुरख!) मैं तो आप पर एक बार भी सदके होने के लायक नहीं हूँ (भाव, मैं तेरी बेअंत कुदरत का पूरा विचार करने के लायक नहीं हूँ)। हे निरंकार! तू सदा अटल रहने वाला है, जो तुझे ठीक लगता है वही काम भला है (भाव, तेरी रजा में रहना ही ठीक है; तेरी स्तुति करते रहें हम जीवों के लिए यही भली बात है कि तेरी रज़ा में रहें)।

भाव: प्रभु की सारी कुदरत का अंत ढूंढना तो कहां रहा, जगत में जो तुम सिर्फ चोर, लुटेरे, ठग, निंदक आदि बंदों का ही हिसाब लगाने लगो तो इनका भी कोई अंत नहीं। जब से जगत बना है, बेअंत जीव विकारों में ग्रसे चले आ रहे हैं।18।

असंख नाव असंख थाव ॥ अगम अगम असंख लोअ ॥
असंख कहहि सिरि भारु होइ ॥

पद्अर्थ: नाव = (कुदरत के अनेक जीवों और बेअंत पदार्तों के) नाम। अगंम = जिस तक (किसी की) पहुँच ना हो सके। लोअ = लोक, भवण। असंख लोअ = अनेक ही भवण। कहहि = कहते हैं (जो मनुष्य)। सिरि = उनके सिर पे। होइ = होता है।

अर्थ: (कुदरत के अनेक जीवों व अन्य बेअंत पदार्तों के) असंखों ही नाम हैं। असंखों ही (उनके) स्थान-ठिकाने हैं। (कुदरत में) असंखों ही भवण हैं जिस तक मनुष्य की पहुँच नहीं हो सकती। (पर, यदि मनुष्य कुदरत का लेखा करने के वास्ते शब्द) असंख (भी) कहते हैं, (उनके) सिर पे भार ही होता है (भाव, वो भी भूल करते हैं, ‘असंख’ शब्द भी प्रयाप्त नहीं है)।

अखरी नामु अखरी सालाह ॥ अखरी गिआनु गीत गुण गाह ॥
अखरी लिखणु बोलणु बाणि ॥ अखरा सिरि संजोगु वखाणि ॥
जिनि एहि लिखे तिसु सिरि नाहि ॥ जिव फुरमाए तिव तिव पाहि ॥

पद्अर्थ: अखरी = अक्षरों के द्वारा। सालाह = सिफति, स्तुति। गुण गाह = गुणों के गाहने वाले, गुणों के ग्राहक, गुणों के वाकफ़। बाणि लिखणु = वाणी का लिखना। बाणि = वाणी, बोली। बाणि बोलणु = वाणी (बोली) का बोलना। अखरा सिरि = अक्षरों के द्वारा ही। संजोगु = भाग्यों का लेख। वखाणि = बयान किया जा सकता है, बताया जा सकता है। जिनि = जिस अकाल-पुरख ने। एहि = संजोग के ये अक्षर। तिसु सिरि = उस अकाल-पुरख के माथे पे। नाहि = (कोई लेख) नहीं हैं। जिव = जिस तरह। फ़रमाए = अकाल-पुरख हुक्म करता है। तिव तिव = उसी तरह। पाहि = (जीव) पा लेते हैं, भोगते हैं।

अर्थ: (हलांकि, अकाल-पुरख की कुदरत का लेखा करने के लिए शब्द ‘असंख’ तो कहां रहा, कोई भी शब्द काफी नहीं है, पर) अकाल-पुरख का नाम भी अक्षरों द्वारा ही (लिया जा सकता है), उसकी स्तुति भी अक्षरों द्वारा ही की जा सकती है। अकाल-पुरख का ज्ञान भी अक्षरों द्वारा ही (विचारा जा सकता है)। अक्षरों के द्वारा ही असके गीत और गुणों से वाकिफ हो सकते हैं। बोली का लिखना और बोलना भी अक्षरों के द्वारा ही संभव है। (इस लिए शब्द ‘असंख’ इस्तेमाल किया गया है, वैसे) जिस अकाल-पुरख ने (जीवों के संजोग के) ये अक्षर लिखे हैं, उसके स्वयं के सिर पर कोई लेख नहीं है (भाव, कोई मनुष्य उस अकाल-पुरख का लेखा नहीं कर सकता)। जैसे जैसे वह अकाल-पुरख हुक्म करता है वैसे ही (जीव अपने संजोग) भोगते हैं।

जेता कीता तेता नाउ ॥ विणु नावै नाही को थाउ ॥

पद्अर्थ: जेता = जितना। कीता = पैदा किया हुआ संसार। जेता कीता = यह सारा संसार जो अकाल-पुरख ने पैदा किया है। तेता = वह सारा, उतना ही। नाउ = नाम, रूप, सरूप।

नोट: अंग्रेजी में दो शब्द हैं: Substance और property. इसी तरह संस्कृत में हैं ‘नाम’ तथा ‘गुण’ या ‘मूर्ति’ तथा ‘गुण’। सो, ‘नाम’ (सरूप) Substance है तथा गुण Property है। जब किसी जीव का या किसी पदार्थ का ‘नाम’ रखते हैं, इसका भाव ये होता है कि उसका स्वरूप (शकल) नीयत करते हैं। जब भी वो नाम लेते हैं, वह हस्ती आँखों के आगे आ जाती है। विणु नावै = ‘नाम’ से बिना, नाम से विहीन।

अर्थ: ये सारा संसार, जो अकाल-पुरख ने बनाया है, ये उसका स्वरूप है (‘इह विसु संसारु तुम देखदे, इहु हरि का रूपु है, हरि रूपु नदरी आइआ’)। कोई भी जगह अकाल-पुरख के स्वरूप से खाली नहीं है, (भाव, जो भी जगह या पदार्थ देखें वही अकाल-पुरख का स्वरूप दिखाई देता है, सृष्टि का जर्रा-जर्रा ईश्वर का ही स्वरूप है)।

नोट: उस पउड़ी में आरम्भ में ही वर्णन है कादर की इस कुदरत में अनेक ही जीव-जंतु, अनेक ही जातियों के, रंगों के और अनेक ही नामों वाले हैं। इतने हैं कि इनकी गिनती के लिए शब्द ‘असंख’ का इस्तेमाल भी भूल है। पर जितनी भी यह रचना है, ये सारी अकाल-पुरख का स्वरूप है, कोई भी जगह ऐसी नहीं जहाँ अकाल-पुरख का स्वरूप नहीं। जिधर भी देखें, अकाल-पुरख का अस्तित्व ही आँखों के सामने नजर आता है।

कुदरति कवण कहा वीचारु ॥ वारिआ न जावा एक वार ॥
जो तुधु भावै साई भली कार ॥ तू सदा सलामति निरंकार ॥१९॥

अर्थ: मेरी क्या ताकत है कि मैं कुदरत का विचार कर सकूँ? (हे अकाल-पुरख!) मैं तो तेरे ऊपर एक बार भी सदके होने के लायक नहीं हूँ। (भाव, मेरी हस्ती तो बहुत तुच्छ है)। हे निरंकार! तू सदैव स्थिर रहने वाला है, जो तुझे ठीक लगता है वही काम भला है, (भाव, तेरी रज़ा में रहना ही हम जीवों के लाभदायक है)।19।

नोट: ‘कुदरति कवण’ शब्द ‘वीचारु’ पुलिंग है। अगर शब्द ‘कवण’ इसका विशेषण होता, तो ये भी पुलिंग होता और इसका रूप ‘कवणु’ हो जाता। ‘कुदरति’ स्त्रीलिंग है। सो शब्द ‘कवण’ कुदरति’ का विशेषण है। इस शब्द ‘कवण’ के पुलिंग व स्त्रीलिंग रूप को समझने के लिए देखिए पउड़ी नंबर २१:

कवण सु वेला, वखतु कवणु, कवण थिति, कवण वारु॥
कवणि सि रुती, माहु कवणु, जितु होआ आकारु॥21।

पउड़ी नंबर 16,17 और 19 में ‘कुदरति कवण कहा वीचारु’ तुक आई है। पर पउड़ी नं: 18 में इस तुक की जगह तुक ‘नानकु नीचु कहै वीचारु’ इस्तेमाल की गई है। इन दोनों को आमने-सामने रख के विचार करें, तो भी यही अर्थ निकलते हैं कि ‘मेरी क्या ताकत है? मैं विचारा नानक क्या विचार कर सकता हूँ? ’

शब्द ‘कुदरति’ ‘समरथा’ के अर्थ में श्री गुरु ग्रंथ साहिब में और जगह भी आया है, जैसे कि:

• जे तू मीर महापति साहिबु, कुदरति कउण हमारी।
चारे कुंट सलामु करहिगे, घरि घरि सिफति तुमारी।7।1।8। (बसंत हिण्डोलु महला१)

• जिउ बोलावहि तिउ बोलहि सुआमी, कुदरति कवन हमारी।
साध संगि नानक जसु गाइओ, जो प्रभ की अति पिआरी।8।1।8। (गूजरी महला ५)

भाव: भला, कितनी धरतियों और कितने जीवों की प्रभु ने रचना की है? मनुष्यों की किसी भी बोली में भी कोई ऐसा शब्द नहीं है जो ये लेखा कर सके।

बोली भी ईश्वर की ओर से एक दात मिली है, पर ये मिली है महिमा करने के लिए। ये संभव नहीं है कि उसके द्वारा मनुष्य प्रभु का अंत पा जाए। देखिए! बेअंत है उसकी कुदरत और इस में जिधर भी देखें वह स्वयं ही स्वयं मौजूद है। कौन अंदाज़ा लगा सकता है कि वह कितना बड़ा है और उसकी कितनी बड़ी रचना है?।19।

भरीऐ हथु पैरु तनु देह ॥ पाणी धोतै उतरसु खेह ॥

पद्अर्थ: भरीऐ = अगर भर जाए, यदि गंदा हो जाए, अगर मैला हो जाए। तनु = शरीर। देह = शरीर। पाणी धोते = पानी से धोने से। उतरसु = उतर जाती है। खेह = मिट्टी, धूल, मैल।

अर्थ: अगर हाथ या पैर या शरीर मैला हो जाए, तो पानी से धोने से वह मैल उतर जाती है।

मूत पलीती कपड़ु होइ ॥ दे साबूणु लईऐ ओहु धोइ ॥

पद्अर्थ: पलीती = गंदे। मूत पलीती = मूत्र से गंदे हुए। कपड़ = कपड़ा। दे साबूणु = साबुन लगा के। लईऐ = लगाते हैं। ओह = वह गंदा हुआ कपड़ा। लईऐ धोइ = धो लेते हैं।

अर्थ: अगर (कोई) कपड़ा मूत्र से गंदा हो जाए, तो साबुन लगा के उसको धो लेते हैं।

भरीऐ मति पापा कै संगि ॥ ओहु धोपै नावै कै रंगि ॥

पद्अर्थ: भरीऐ = अगर भर जाए, यदि मलीन हो जाए। मति = बुद्धि। पापा कै संगि = पापों से। ओह = वह पाप। धोपै = धुलता है, धोया जा सकता है। रंगि = प्यार से। नावै कै रंगि = अकाल-पुरख के नाम के प्रेम से।

अर्थ: (पर) यदि (मनुष्य की) बुद्धि पापों से मलीन हो जाए, तो वह पाप अकाल-पुरख के नाम में प्यार करने से ही धोया जा सकता है।

पुंनी पापी आखणु नाहि ॥ करि करि करणा लिखि लै जाहु ॥
आपे बीजि आपे ही खाहु ॥ नानक हुकमी आवहु जाहु ॥२०॥

पद्अर्थ: आखणु = नाम, वचन। नाहि = नहीं है। करि करि करणा = (अपने-अपने) कर्म करके, जैसे जैसे कर्म करोगे। लिखि = लिख के (वैसा ही लेख) लिख के, (वैसे ही संस्कारों के) लेख, (उसी तरह के संस्कार) अपने मन में अंकुरित करके। लै जाहु = (अपने साथ) ले जाओगे, अपने मन में परो लोगे। आपे = स्वयं ही। बीजि = बीज के। हुकमी = अकाल-पुरख के हुक्म में। आवहु जाहु = आओगे जाओगे, जन्म मरण में पड़े रहोगे।

अर्थ: हे नानक! ‘पुनी’ या ‘पापी’ निरे नाम नहीं हैं (भाव, निरे कहने की बातें नहीं है, सच-मुच ही) जिस तरह के कर्म तू करेगा वैसे ही संस्कार अपने अंदर अंकुरित करके साथ ले कर अंकुरित करके ले कर जाएगा। जो कुछ तू खुद बीजेगा, उसका फल स्वयं ही खाएगा। (अपने बीजे मुताबिक) अकाल पुरख के हुक्म में जनम मरण के चक्कर में पड़ा रहेगा।20।

नोट: शब्द ‘आखणु’ को ध्यान से विचारना जरूरी है। जपु जी साहिब में ये शब्द नीचे लिखीं तुकों में आया है;

पुंनी पापी आखणु नाहि।   (पउड़ी 20)

नानक आखणि सभ को आखै, इक दू इकु सिआणा।   (पउड़ी 21)

जे को खाइकु आखणि पाहि।   (पउड़ी 25)

केते आखहि आखणि पाहि।   (पउड़ी 26)

आखणि जोरु चुपै नहि जोरु।   (पउड़ी 33)

इस शब्द ‘आखणु’ के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए कुछ और प्रमाण नीचे दिए जा रहे हैं;

आखणु आखि न रजिआ, सुनणि न रजे कंन।2।19।   (माझ की वार)

आखणि आखहि केतड़े, गुर बिनु बूझन होइ।3।13   (माझ की वार)

उपरोक्त प्रमाणों से ये स्पष्ट हो जाता है कि ‘आखणु’ संज्ञा है और ‘आखणि’ क्रियाहै। संज्ञा ‘आखणु’ का अर्थ है: नाम, कहना, मुंह- जैसे प्रमाण नं: 1और 6 में। प्रमाण नं: 2,3,4,5 और 7 में ‘आखणि’ क्रिया है।

नोट: पहिली पउड़ी में एक तुक आई है, ‘हुकमि रजाई चलणा, नानक लिखिआ नालि’। दूसरी पौड़ी में जिक्र आया है, ‘हुकमी उतमु नीचु हुकमि लिखि दुख सुख पाईअहि’। अब इस पौड़ी में ऊपर की तुकों वाला ख्याल बिल्कुल स्पष्ट किया गया है। सारी सृष्टि अकाल-पुरख के खास नियमों में चल रही है। इन नियमों का नाम सत्गुरू जी ने ‘हुक्म’ रखा है। वह नियम ये हैं कि मनुष्य जिस तरह के कर्म करता है, वैसा ही फल प्राप्त करता है। उसके अपने धुर अंदर वैसे ही अच्छे-बुरे संस्कार बन जाते हैं और उन्हीं के अनुसार जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है। या, अकाल-पुरख की रजा में चल के अपना जनम सवार लेता है।

भाव: माया के प्रभाव के कारण मनुष्य विकारों में पड़ जाता है, और इसकी मति मैली हो जाती है। ये मैल इसको शुद्ध-स्वरूप प्रमात्मा से विछोड़ के रखती है, और जीव दुखी रहता है। नाम नाम जपना ही एकमात्र उपाय है जिससे मन की यह मैल धुल सकती है (सो, स्मरण तो विकारों की मैल धो के मन को प्रभु के साथ मेल करवाने के लिए है, प्रभु और उसकी रचना का अंत पाने के लिए जीव को समर्थ नहीं बना सकता)।20।

तीरथु तपु दइआ दतु दानु ॥ जे को पावै तिल का मानु ॥

पद्अर्थ: जे को पावै = यदि कोई मनुष्य प्राप्त करे, अगर किसी मनुष्य को मिल भी जाए, तो। तिल का = तिल मात्र, रति मात्र। मानु = आदर, बड़प्पन। दतु = दिया हुआ।

अर्थ: तीर्तों, यात्राएं, तपों की साधना, (जीवों पे) दया करनी, दिया हुआ दान- (इन कर्मों के बदले) अगर किसी मनुष्य को कोई आदर-सत्कार मिल भी जाए, तो वह नाम मात्र ही है।

सुणिआ मंनिआ मनि कीता भाउ ॥ अंतरगति तीरथि मलि नाउ ॥

पद्अर्थ: सुणिआ = (जिस मनुष्य ने) अकाल पुरख का नाम सुन लिया है। मंनिआ = (जिसका मन उस नाम को सुन के) मान गया है, पतीज गया है। मनि = मन में। भाउ कीता = (जिसने) प्रेम किया है। अंतरगति = अंदर की। तीरथि = तीर्थ पे। अंतरगति तीरथि = अंदर के तीर्थ में। मलि = मलमल के अच्छी तरह। नाउ = स्नान (किया है)।

अर्थ: (पर जिस मनुष्य ने अकाल-पुरख के नाम में) तवज्जो जोड़ी है, (जिस का मन नाम में) पतीज गया है, (और जिसने अपने मन) में (अकाल-पुरख का) प्यार पैदा किया है, उस मनुष्य ने (मानों) अपने भीतर के तीर्थ में मलमल के स्नान कर लिया है (भाव, उस मनुष्य ने अपने अंदर बस रहे अकाल-पुरख में जुड़ के अच्छी तरह अपने मन की मैल उतार ली है)।

सभि गुण तेरे मै नाही कोइ ॥ विणु गुण कीते भगति न होइ ॥
सुअसति आथि बाणी बरमाउ ॥ सति सुहाणु सदा मनि चाउ ॥

पद्अर्थ: सभि = सारे। मै नाही कोइ = मैं कोई नहीं हूँ, मेरा अपना कोई (गुण) नहीं है। विणु गुणु कीते = गुण पैदा किये बिना, अगर तू गुण पैदा ना करे, अगर तू अपने गुण मेरे में पैदा ना करे। न होइ = नहीं हो सकती। सुअसति = जै हो तेरी, तू सदा अटल रहे (भाव, मैं तेरा ही आसरा लेता हूँ)। बरमाउ = ब्रह्मा। सति = सदा स्थिर। सुहाणु = सुंदर, सोहना, सुबहान। मनि चाउ = मन में चाव/खिड़ाव।

अर्थ: (हे अकाल-पुरख!) अगर तू (स्वयं खुद) गुण (मेरे में) पैदा ना करें तो मुझसे तेरी भक्ति नहीं हो सकती। मेरी कोई बिसात नहीं है (कि मैं तेरे गुण गा सकूँ)। ये सब तेरी ही महानता है। (हे निरंकार!) तेरी सदा जै हो! तू स्वयं ही माया है। तू स्वयं ही वाणी है, तू सवयं ही ब्रह्मा है। (भाव, इस सृष्टि को बनाने वाली माया, वाणी या ब्रह्मा तुझसे अलग हस्ती वाले नहीं हैं, जो लोगों ने माने हुए हैं), तू सदा स्थिर हैं, सुंदर है, तेरा मन हमेशा प्रसन्नता से भरा हुआ है (तू ही जगत को रचने वाला है, तुम्ही को पता है कि इसे तुमने कब बनाया)।

कवणु सु वेला वखतु कवणु कवण थिति कवणु वारु ॥
कवणि सि रुती माहु कवणु जितु होआ आकारु ॥

पद्अर्थ: वेला = समय। वखतु = समय, वेला।

वार: शब्द ‘वार’ दो रूपों में इस्तेमाल किया गया है: ‘वार’ और ‘वारु’। ‘वार’ स्त्रीलिंग है, जिसका अर्थ है ‘बारी’। ‘वारु’ पुलिंग है, जिसका अर्थ है ‘दिन’।

• जपुजी साहिब में ये शब्द नीचे दी गई तुकों में आया है;

• सोचै सोचि न होवई, जे सोची लख वार।१।

• वारिआ न जावा एक वार।१६।

• जो किछु पाइआ सु एका वार।३१।

• कवणु सु वेला, वखतु कवणु थिति, कवणु वारु।२१।

• राती रुती थिती वार।३४।

प्रमाण नं: 1,2 और 3 में ‘वार’ स्त्रीलिंग है। नंबर 4 में ‘वारु’ पुलिंग एकवचन है और नं: 5 में ‘वार’ पुलिंग बहुवचन है।

जब ये शब्द (ि) मात्रा के साथ आता है, तो ‘क्रिया’ होता है, जैसे: ‘वारि वारउ अनिक डारिउ, सुख प्रिअ सुहाग पलक राति।१। रहाउ।३।४२। (कानड़ा म: ५)।

यहां वारि’ का अर्थ है ‘सदके करना’।

थिति वार = चंद्रमां की चाल से थितियां/तिथियां गिनी जाती हैं, जैसे = एकम, दूज, तीज आदिक और सूर्य से दिन रात व वार, सोम मंगल आदिक। कवणि सि रुती = कौन सी वह ऋतुएं हैं। माह = महीना। कवणु = कौन सा। जितु = जिस में, जिस समय। होआ = अस्तित्व में आया, पैदा हुआ, बना। आकारु = ये दिखने वाला संसार।

अर्थ: वह कौन सा वक्त व समय था, कौन सी तिथि थी, कौन सा दिन था, कौन सी ऋतुऐं थीं और वह कौन सा महीना था, जब ये संसार बना था?

वेल न पाईआ पंडती जि होवै लेखु पुराणु ॥
वखतु न पाइओ कादीआ जि लिखनि लेखु कुराणु ॥

पद्अर्थ: वेल = समय। पाइआ = पाई, ढूँढी। वेल न पाईआ = समय ना मिला।

(नोट: ‘वेला’ पुलिंग है और ‘वेल’ स्त्रीलिंग है)।

पंडती = पण्डितों ने। जि = नहीं तो। होवै = होता, बना होता। लेखु = मज़मून। लेखु पुराणु = पुराणु रूप लेख, इस लेख वाला पुराण (भाव, जैसे और कई पुराण बने हैं, इस लेख का भी एक पुराण बना होता)। वखतु = समय, जब जगत बना। न पाइओ = नहीं मिला। कादीआं = काजियों ने। जि = नहीं तो। लिखनि = (काज़ी) लिख देते। लेखु कुराणु = कुरान जैसा लेख (भाव, जैसे काज़ियों ने मुहम्मद साहिब की उच्चारित आयतें एकत्र करके कुरान लिख दी थीं, वैसे ही वे संसार के बनने का समय का लेख भी लिख देते)।

नोट: अरबी के अक्षर ज़ुआद, ज़ुइ और ज़े का उच्चारण अक्षर ‘द’ से होता है। शब्द ‘कागज़’ का ‘कागद’, ‘नज़र’ का ‘नदरि’ और ‘हज़ूर’ का ‘हदूरि’ उच्चारण है। इसी तरह ‘काज़ी’ का ‘कादी’ उच्चारण भी है।

नोट: इस पौड़ी में इस्तेमाल हुए शब्द ‘वखतु’, ‘पाइओ’ और ‘कादीआ’ के अर्तों को तोड़-मरोड़ के कादियानी मुसलमानों द्वारा अंजान सिखों को गुमराह किया जा रहा है कि यहाँ गुरु नानक देव जी ने पेशीन-गोई करके सिखों को हिदायत की हुई है कि नगर कादियां में प्रगट होने वाले पैग़ंबर को तुम लोग कोई वख्त (मुसीबत) ना डालना।

हमने यहां किसी बहस में नहीं पड़ना और किसी को गुमराह भी नहीं करना। शब्दों की बनावट और अर्तों की ओर ही ध्यान दिलाना है। शब्द ‘कादीआं’ पद्अर्थ में समझाया जा चुका है। लफ्ज़ ‘वखतु’, अरबी का लफ्ज़ ‘वकत’ (वक्त) है। हिंदुओं का ज़िकर करते हुए हिंदका लफ्ज़ ‘वेला’ (बेला) उपयोग किया है। मुसलमानों के ज़िकर में मुसलमानी लफ्ज़ ‘वकत’ का पंजाबी ‘वखतु’ इस्तेमाल हुआ है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में जहां कहीं भी ये लफ्ज़ आया है, इसका अर्थ सदा समय ही है। जैसे;

‘जे वेला वखतु वीचारीऐ, तां कितु वेलै भगति होइ।’
‘इकना वखत खुआईअहि, इकना पूजा जाइ।’

शब्द ‘पाइओ’ हुकमी भविष्यत काल नहीं है, जैसे कि कादियानी कहते हैं। ये शब्द भूतकाल में है। इस किस्म का भूतकाल गुरबाणी में अनेक जगहों पर आया है, जैसे;

आपीनै आपु ‘साजिओ’, आपीनै ‘रचिओ’ ‘नाउं’।

बिनु सतिगुर किनै न ‘पाइओ’, बिनु सतिगुर किनै न पाइआ।

हुकमी भविष्यत का रूप है ‘सदिअहु’, ‘करिअहु’ (रामकली ‘सदु’)। पाठक लफ्जों के जोड़ों का खास ख्याल रखें। ‘पाइओ’ भूतकाल है, इसका हुकमी भविष्यत ‘पाइअहु’ (उच्चारण: पायहु) हो सकता है।

अर्थ: (कब ये संसार बना?) उस समय का पण्डितों को भी पता ना लगा, नहीं तो (इस मसले पे भी) एक पुराण लिखा होता। उस समय के काज़ियों को भी ख़बर ना लगी वर्ना वे भी लिख देते जैसे उन्होंने (आयतें इकट्ठी करके) कुरान (लिखी थी)।

थिति वारु ना जोगी जाणै रुति माहु ना कोई ॥
जा करता सिरठी कउ साजे आपे जाणै सोई ॥

पद्अर्थ: जा करता = जो कर्तार। सिरठी कउ = जगत को। साजै = पैदा करता है, बनाता है। आपे सोई = वह खुद ही।

अर्थ: (जब जगत बना था तब) कौन सी तिथि थी, (कौन सा) दिन वार था, ये बात कोई जोगी भी नहीं जानता। कोई मनुष्य नहीं (बता सकता) कि तब कौन सी ऋतु थी और कौन सा महीना था। जो निर्माता इस जगत को पैदा करता है, वह स्वयं ही जानता है (कि जगत कब रचा)।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh