श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सुणिऐ सतु संतोखु गिआनु ॥
सुणिऐ अठसठि का इसनानु ॥
सुणिऐ पड़ि पड़ि पावहि मानु ॥
सुणिऐ लागै सहजि धिआनु ॥
नानक भगता सदा विगासु ॥
सुणिऐ दूख पाप का नासु ॥१०॥

पद्अर्थ: सतु संतोख = दान और संतोख।

सतु: इस शब्द के तीन अलग अलग रूप मिलते हैं: ‘सति’, ‘सतु’ और ‘सत’। इनके अर्थ समझने के लिए नीचे दिए गए प्रमाणों को ध्यान से पढ़िए;

अ. सतु संतोखु होवै अरदासि। ता सुणि सदि बहालै पासि।1। (रामकली म: १)

आ. जतु सतु संजमु सचु सुचीतु। नानक जोगी त्रिभवन मीतु।8।2। (रामकली म: १)

इ. सतीआ मनि संतोखु उपजै, देणै कै वीचारि। (आसा की वार म: १, पउड़ी ६)

ई. गुर का सबदु करि दीपको, इह सत की सेज बिछाइ री।3।16।118। (आसा म: १)

उ. सती पहरी सतु भला, बहीअै पड़िआ पासि। (माझ की वार, श्लोक म: २ पउड़ी १८)

इन उपरोक्त प्रमाणों के पहले अंक ‘अ’ में शब्द ‘सतु’, शब्द ‘संतोखु’ के साथ इस्तेमाल किया गया है। अंक ‘आ’ में ‘सतु’ शब्द ‘जतु’ के साथ आया है। अंक ‘उ’ में ‘सतु’ (सती) संस्कृत का ‘सप्त’ है, जिसका अर्थ है ‘सात की गिनती’।

शब्द ‘सतु’ संस्कृत के ‘अस’ धातु से बना हुआ है, जिसका अर्थ र्ह ‘हाथ से छोड़ना’। सो, ‘सतु’ का अर्थ है ‘दान’। अंक ‘इ’ में आसा दी वार वाले प्रमाण से साफ हो जाता है, जहाँ ‘सतीआ’ के अर्थ ‘दानी मनुष्यों’ है। ‘सती देइ संतोखी खाइ’ आम प्रचलत तुक है, जिसमें ‘सतीआ’ के अर्थ हैं ‘दानी’। ‘दानी’ और ‘संतोखी’ का अपने आप में बहुत गहरा सम्बन्ध है। ‘दानी’ वही हो सकता है जो ‘संतोखी’ भी है, वर्ना जो खुद त्रिष्णा का मारा हुआ हो, वह अपने हाथ से किसी और को क्या दे सकता है? गुरु साहिव इन दोनों गुणों को बहुत जगहों पर इकट्ठा प्रयोग करते हैं। इस तरह, अंक ‘अ’ में ‘सतु’ का अर्थ है ‘दान’, दानी स्वभाव।

शब्द ‘सतु’ का दूसरा अर्थ है “साफ सुथरा आचरण, पतिव्रता धर्म, स्त्रीव्रत धर्म’। इन अर्तों में इस शब्द का संबन्ध शब्द ‘जतु’ के साथ मेल सही खाता है। यो, अंक ‘आ’ में ‘सतु’ का अर्थ है: ‘स्वच्छ आचरण’।

अंक ‘इ’ में ‘सतु’ का अर्थ है ‘दान’। अंक ‘ई’ में सतु का अर्थ है फिर ’स्वच्छ आचरण’ है।

शब्द ‘सति’ भी संस्कृत की ‘अस’ धतु से बना हुआ है, जिसका अर्थ है ‘होना’। इसो, ‘सति’ का अर्थ है ‘अस्तित्व वाला, सत्य’।

जपुजी साहिब में ‘सतु’ और ‘सति’ वाली निम्न-लिखित तुकें हैं:

‘सतिनामु’ (मूल मंतर में)

सुणिअै, सतु संतोखु गिआनु। (पउड़ी १०)

असंख सती असंख दातार। (पउड़ी १७)

सति सुहाणु सदा मनि चाउ। (पउड़ी २१)

गावनि जती सती संतोखी गावहि वीर करारे।२७।

अठसठि = अड़सठ तीर्थ। पड़ि पड़ि = विद्या पढ़ के। पावहि = पाते हैं। सहजि = सहज अवस्था में। सहज = (सह+ज, सह = साथ, ज = जन्मा) पैदा हुआ, वह स्वभाव जो शुद्ध-स्वरूप आत्मा के साथ जन्मा है, शुद्ध-स्वरूप आत्मा का अपना असली धर्म, माया के तीनों गुणों को पार करके ऊपर की अवस्था, तुरिया अवस्था, शांति, अडोलता। धिआनु = ध्यान, तवज्जो। गिआनु = सारे जगत को प्रभु पिता का एक परिवार समझने की सूझ, प्रमात्मा से जान-पहिचान।

अर्थ: हे नानक! (अकाल पुरख के नाम में ध्यान जोड़ने वाले) भक्तजनों के हृदय में सदैव आनन्द बना रहता है। (क्योंकि) अकाल पुरख की महिमा सुनने से (मनुष्य के) दुखों व पापों का नाश हो जाता है। रब के नाम से जुड़ने से (हृदय में) दान (देने का स्वभाव) संतोष व प्रकाश प्रकट होता है, मानों अड़सठ तीर्तों का स्नान (ही) हो जाता है (अर्थात, अड़सठ तीर्तों का स्नान नाम जपने में ही आ जाते हैं)। जो आदर (मनुष्य विद्या) पढ़ के प्राप्त करते हैं वह भक्त जनों को अकाल-पुरख के नाम में जुड़ के ही मिल जाता है। नाम सुनने के सदका अडोलता में चित्त की तवज्जो टिक जाती है।10।

भाव: नाम में ध्यान जोड़ने से ही मन विशाल होता है, जरूरतमंदों की सेवा और संतोष वाला जीवन बनता है। नाम में डुबकी ही अड़सठ तीर्तों का स्नान है। जगत के किसी भी आदर-सत्कार की परवाह नहीं रह जाती, मन सहज अवस्था में,अडोलता में, मगन रहता है।10।

सुणिऐ सरा गुणा के गाह ॥ सुणिऐ सेख पीर पातिसाह ॥
सुणिऐ अंधे पावहि राहु ॥ सुणिऐ हाथ होवै असगाहु ॥
नानक भगता सदा विगासु ॥ सुणिऐ दूख पाप का नासु ॥११॥

पद्अर्थ: सरा गुणा के = गुणों के सरोवरों के, बेअंत गुणों के। गाह = सूझ वाले, वाकफियत वाले। राहु = रास्ता। असगाहु = गहरा समुंदर, संसार।

नोट: शब्द 'हाथ' ‘हाथ’ स्त्रीलिंग है, इस वास्ते एकवचन में भी इसके आखिर में (ु) मात्रा नहीं है। इसका अर्थ है ‘गहराई तक समझ’। पर जबपुलिंग हो तब इसका अर्थ है आदमी का अंग ‘हाथ’। जैसे;

हाथु पसारि सकै को जन कउ, बोलि न सकै अंदाजा।१। (बिलावल कबीर जी)

बहुवचन ‘हाथ’ का रूप स्त्रीलिंग ‘हाथ’ वाला ही है, जैसे कि;

हाथ देइ राखे परमेसरि, सगला दुरतु मिटाइआ।1।7।16। (गूजरी महला ५)

हाथ होवै = हाथ हो जाती है, गहराई का पता चल जाता है, असलिअत समझ आ जाती है।11।

अर्थ: हे नानक! (अकाल पुरख के नाम में ध्यान जोड़ने वाले) भक्तजनों के हृदय में सदा प्रसन्नता बनी रहती है, (क्योंकि) अकाल-पुरख का नाम सुनने से (मनुष्य के) दुखों व पापों का नाश हो जाता है। अकाल-पुरख के नाम में ध्यान जोड़ने से (साधरण मनुष्य) बेअंत गुणों की सूझ वाले हो जाते हैं, शेख, पीर व बादशाह की पदवी पा लेते हैं। ये नाम सुनने की ही बरकत है कि अंधे और ज्ञानहीन मनुष्य भी (अकाल-पुरख को मिलने का) रास्ता ढूँढ लेते हैं। अकाल-पुरख के नाम में जुड़नेके सदके इस संसार समुन्द्र की हकीकत की समझ आ जाती है।11।

भाव: ज्यों ज्यों ध्यान नाम में जुड़ता है, मनुष्य रूहानी गुणों के समुंदर में डुबकी लगाता है। संसार अथाह समुंदर है, जहाँ ईश्वर से बिछड़ा हुआ जीव अंधों की तरह हाथ पैर मारता है। पर, नाम के साथ जुड़ा हुआ जीव जीवन की सही राह ढूंढ लेता है।11।

नोट: नंबर 12 से 15 तक चार पउड़ियों का विषय वस्तु एक ही कड़ी में है।

मंने की गति कही न जाइ ॥ जे को कहै पिछै पछुताइ ॥
कागदि कलम न लिखणहारु ॥ मंने का बहि करनि वीचारु ॥
ऐसा नामु निरंजनु होइ ॥ जे को मंनि जाणै मनि कोइ ॥१२॥

पद्अर्थ: मंने की = मानने वाले की, यकीन कर लेने वाले की, पतीजे हुए की। गति = हालत, अवस्था। कहै = बताए, बयान करे। मंने का वीचारु = श्रद्धा धारण करने वाले की महानता का विचार। बहि करन = बैठ के करते हैं। ऐसा = ऐसा, इतना ऊँचा। होइ = है। मंनि = श्रद्धा धारण करके, लगन लगा के। मंनि जाणै = श्रद्धा रख के देखो, मान के देखो। मनि = मन में। कागदि = कागज़ पे। कलम = कलम से।

अर्थ: उस मनुष्य की (ऊँची) आत्मिक अवस्था बयान नहीं की जा सकती, जिसने (अकाल-पुरख के नाम को) मान लिया है, (भाव, जिसकी लगन नाम में लग गई है)। यदि कोई मनुष्य वर्णन करे भी, तो वह पीछे पछताता है (कि मैंने होछा प्रयत्न किया है)। (मनुष्य) मिल के नाम में पतीजी हुई आत्मिक अवस्था का अंदाजा लगाते हैं, पर कागज पर कलम से कोई मनुष्य लिखने में समर्थ नहीं है। अकाल-पुरख का नाम बहुत (ऊँचा) है और माया के प्रभाव से परे है, (इसमें जुड़ने वाला भी उच्च आत्मिक अवस्था वाला हो जाता है, पर ये बात तभी समझ में आतीं है) जब कोई मनुष्य अपने अंदर लगन लगा के झाँके।12।

भाव: प्रभु माया के प्रभाव से बेअंत ऊँचा है। उसके नाम में ध्यान जोड़ जोड़ के जिस मनुष्य के मन में उसकी लगन लग जाती है, उसकी भी आत्मा माया की मार से ऊपर हो जाती है। जिस मनुष्य की प्रभु से लगन लग जाए, उसकी आत्मिक उच्चता को ना तो कोई बयान कर सकता है, ना ही कोई लिख सकता है।12।

मंनै सुरति होवै मनि बुधि ॥ मंनै सगल भवण की सुधि ॥
मंनै मुहि चोटा ना खाइ ॥ मंनै जम कै साथि न जाइ ॥
ऐसा नामु निरंजनु होइ ॥ जे को मंनि जाणै मनि कोइ ॥१३॥

पद्अर्थ: मंनै = मानने से, यदि मान लें, अगर मन पतीज जाए, यदि प्रभु के नाम में लगन लग जाए। सुरति होवै = (ऊँची) सोच हो जाती है। मनि = मन में। बुधि = जागृति। सुधि = खबर, सोझी, सूझ। मुहि = मुँह पे। चोटा = चोटें। जम कै साथि = यमदूतों के साथ।13।

अर्थ: यदि मनुष्य के मन में प्रभु के नाम की लगन लग जाए, तो उसकी अक़्ल ऊँची हो जाती है, उसके मन में जागृति आ जाती है (भाव, माया में सोया मनुष्य जाग जाता है) सभी भवनों/लोकों की उसको समझ आ जाती है (कि हर जगह ईश्वर व्यापक है)। वह मनुष्य (संसार के विकारों की) चोटें मुँह पे नहीं खाता (अर्थात, सांसारिक विकार उस पर दबाव नहीं डाल सकते) और यमों से उसका वास्ता नहीं पड़ता (भाव, वह जन्म-मृत्यु के चक्कर में से बच जाता है)। अकाल-पुरख का नाम जो माया के प्रभाव से परे है इतना (ऊँचा) है (कि इस में जुड़ने वाला भी उच्च आत्मिक अवस्था वाला हो जाता है, पर ये बात तभी समझ में आती है) जब कोई मनुष्य अपने मन में हरि नाम की लगन पैदा कर ले।13।

भाव: प्रभु चरणों की प्रीत मानव-मन को रौशन कर देती है, सारे संसार में उसको प्रमात्मा ही दिखता है। उसको विकारों की चोटें नहीं पड़तीं और ना ही उसको मौत डरा सकती है।13।

मंनै मारगि ठाक न पाइ ॥ मंनै पति सिउ परगटु जाइ ॥
मंनै मगु न चलै पंथु ॥ मंनै धरम सेती सनबंधु ॥
ऐसा नामु निरंजनु होइ ॥ जे को मंनि जाणै मनि कोइ ॥१४॥

पद्अर्थ: मारगि = मार्ग में, राह में। ठाक = रोक। ठाक न पाइ = रुकावट नहीं पड़ती। पति सिउ = इज्जत के साथ। परगटु = प्रसिद्ध हो के।

मगु पंथु:

(प्र:) शब्द ‘मगु’ व ‘पंथु’ के आखिर में (ु) की मात्रा क्यों है?

(उ:) साधरण नियम के अनुसार तो यहाँ (ि) की मात्रा ही चाहिए, पर संस्कृत में एक नियम आम प्रचलित था कि यदि ‘लंबे समय’ या ‘लंबे मार्ग’ की जिकर हो, तो अधिकर्ण कारक की जगह कर्मकारक इस्तेमाल होता था। वही नियम प्राकृत द्वारा थोड़ा बहुत पुरानी पंजाबी में भी इस्तेमाल हुआ है; जैसे:

गावनि तुध नो पंडित पढ़नि रखीसर, ‘जुगु जुगु’ वेदा नाले। (पउड़ी २०)

‘जुगु जुगु’ भगत उपाइआ, पैज रखदा आइआ राम राजे।

सवणि वरसु अंम्रिति ‘जगु’ छाइआ जीउ। (गउड़ी माझ म: ४)

बावै ‘मारगु’ टेढा चलणा। सीधा छोडि अपूठा बुनना।3।29। (गउड़ी गुआरेरीमहला ५)

मगु = मार्ग, रास्ता (संस्कृत ‘मार्ग’ से प्राकृत शब्द ‘मग’ बना है)। पंथ = रास्ता। गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी में ये दोनों शब्द ‘मारग’ (जिसका प्राकृत रूप ‘मग’ है) और ‘पंथ’ एक ही अर्तों में इस्तेमाल हुए हैं; जैसे:

‘मारगि पंथ चले गुर सतिगुर संगि सिखा।’ (तुखारी छंत महला ४)

मुंध नैण भरेदी, गुण सारेदी, किउं प्रभ मिला पिआरे।

मारगु पंथु न जाणउ बिखड़ा, किउ पाईअै पिर पारे। (तुखारी महला १)

सेती = साथ। सनबंधु = साक, रिश्ता, मेल।

अर्थ: जिस मनुष्य का मन नाम में पतीज जाए तो जिंदगी के सफर में विकारों की कोई रोक नहीं पड़ती, वह (संसार से) शोभा कमा के इज्जत के साथ जाता है। उस मनुष्य का धर्म के साथ (सीधा) जोड़ बन जाता है, वह फिर (दुनिया के विभिन्न मजहबों के बताए) रास्तों पे नहीं चलता (भाव, उसके अंदर ये द्वंद नहीं रहता कि ये रास्ता ठीक है और ये गलत है)। अकाल पुरख का नाम जो माया के प्रभाव से परे है इतना (ऊंचा) है (कि इस में जुड़ने वाला भी उच्च आत्मिक अवस्था वाला हो जाता है) पर ये बात तभी समझ में आती है) जब कोई मनुष्य अपने मन में हरि नाम की लगन पैदा कर ले।14।

भाव: याद की बरकत से ज्यों ज्यों मनुष्य का प्यार प्रमात्मा से बनता है, इस स्मरण रूप धर्म से उसका इतना गहरा संबंध बन जाता है कि कोई भी रुकावट उसे सही निशाने से विचलित नहीं कर सकती। और इधर-उधर की पगडंडियां उसे पथ-भ्रष्ट नहीं कर सकतीं।

मंनै पावहि मोखु दुआरु ॥ मंनै परवारै साधारु ॥
मंनै तरै तारे गुरु सिख ॥ मंनै नानक भवहि न भिख ॥
ऐसा नामु निरंजनु होइ ॥ जे को मंनि जाणै मनि कोइ ॥१५॥

पद्अर्थ: पावहि = प्राप्त कर लेते हैं, ढूंढ लेते हैं। मोखु दुआरु = मुक्ति का द्वार, ‘झूठ’ से मुक्ति पाने का राह। परवारै = परिवार को। साधारु = आधार सहित करता है, (अकाल-पुरख की) टेक दृढ़ कराता है। तरै गुरु = गुरु खुद तैरता है। सिख = सिखों को।

जपु जी में शब्द ‘सिख’ नीचे लिखीं तुकों में आया है:

मति विचि रतन जवाहर माणिक, जे इक गुर की सिख सुणी। (पउड़ी ६)

मंनै तरै तारे गुरु सिख। (पउड़ी १५)

पहली तुक में ‘सिख’ स्त्रीलिंग है। इसका विशेषण ‘इक’ भी स्त्रील्रिग है। इसलिए एकवचन होते हुए भी (ु) की मात्रा नहीं लगाई गई। (ु) की मात्रा सिर्फ पुलिंग के लिए लगती है। दूसरी तुक में ‘सिख’ पुल्रिग बहुवचन है।

तारे सिख = सिखों को तारता है। भवहि न = दर-ब-दर नहीं भटकते, जरूरतों की खातिर दर-दर नहीं रुलते फिरते, हरेक की मुथाजगी नहीं करते फिरते।

अर्थ: यदि मन में प्रभु के नाम की लगन लग जाए तो (मनुष्य) ‘झूठ’ से छुटकारा पाने का रास्ता ढूँढ लेता है। (ऐसा मनुष्य) अपने परिवार को भी (अकाल-पुरख की) टेक दृढ़ करवाता है। नाम में मन पतीजने से ही, सत्गुरू (भी स्वयं संसार सागर से) पार लांघ जाता है और सिखों को पार कर देता है। नाम में मन जुड़ने से ही, हे नानक! मनुष्य हरेक की मुथाजगी नहीं करते फिरते। अकाल-पुरख का नाम, जो माया के प्रभाव से परे है, इतना (ऊंचा) है (कि इस में जुड़ने वाला भी उच्च जीवन वाला हो जाता है पर ये बात तभी समझ में आती है) जब कोई मनुष्य अपने मन में हरि नाम की लगन पैदा कर ले।15।

भाव: इस लगन की बरकत से वह सारे बंधन टूट जाते हैं जिन्होंने प्रभु से दूरी बना रखी थी। ऐसी लगन वाला आदमी केवल स्वयं ही नहीं बचता, अपने परिवार के जीवों को भी पिता परमेश्वर के साथ मिला लेता है। ये दात जिनको गुरु से मिलती है वो प्रभु दर से टूट के कहीं और नहीं भटकते।15।

नोट: पौड़ी 12 में शब्द दो जगह ‘मंने’ है, बाकी हर जगह ‘मंनै’ आया है। दोनों के अर्तों में फर्क है। नहिली तुक है;‘मंने की गति कही न जाइ’। इसी ही पउड़ी की चौथी तुक: ‘मंनै का बहि करनि वीचारु का जिक्र है। सो ‘मंने’ का भाव है, ‘माने हुए मनुष्य का’। बाकी सब जगह ‘मंनै’ है। जैसे पहिली चार पउड़ियों में ‘सुणिअै’ आया है। ‘सुणिअै’ का अर्थ है, ‘सुनने से, अगर सुन लें। तैसे ही ‘मंनै’ का अर्थ है ‘मान लेने से, अगर मन पतीज जाए’।

पंच परवाण पंच परधानु ॥ पंचे पावहि दरगहि मानु ॥
पंचे सोहहि दरि राजानु ॥ पंचा का गुरु एकु धिआनु ॥

पद्अर्थ: पंच = वे मनुष्य जिन्होंने नाम संना है और माना है, वो मनुष्य जिनकी तवज्जो नाम में जुड़ी है और जिनके अंदर प्रतीत आ गई है।

नोट: ये शब्द ‘पंच’ उनके लिए है जिनका जिकर पिछली 8 पउड़ियों में आया है।

परवाण = स्वीकार किया हुआ, स्वीकृत। परधान = ने, नायक। पंचे = पंच ही, संतजन ही। दरगह = अकाल-पुरख के दरबार में। मान = आदर, सम्मान। सोहहि = शोभनीय हैं, सुहाने लगते हैं। दरि = दर से, दरबार में। गुरु एकु = केवल गुरु ही। धिआनु = तवज्जो का निशाना।

अर्थ: जिस लोगों की तवज्जो नाम में जुड़ी रहती है और जिनके अंदर प्रभु के वास्ते लगन बन जाती है वही मनुष्य (यहां जगत में) मशहूर होते हैं और सभी के नायक होते हैं। अकाल-पुरख के दरबार में भी वही पंच जन मान सम्मान पाते हैं। राज-दरबारों में भी वह पंच जन ही शोभनीय हैं। इन पंच जनों की तवज्जो का निशाना केवल एक गुरु ही है (भाव, इनकी तवज्जो गुरु-शबद में ही रहती है, गुरु-शबद में जुड़े रहना ही इनका असल निशाना है)।

जे को कहै करै वीचारु ॥ करते कै करणै नाही सुमारु ॥

पद्अर्थ: कहै = बयान करे, कथन करे। वीचारु = कुदरत केलेखे का चिंतन/ विचार। करते के करणै = कर्तार की कुदरत का। सुमारु = हिसाब।

अर्थ: (पर गुरु-शबद में जुड़े रहने का ये नतीजा नहीं निकल सकता कि कोई मनुष्य प्रभु की रची सृष्टि का अंत पा सके) अकाल-पुरख की कुदरत का कोई लेखा नहीं (भाव, अंत नहीं पाया जा सकता), चाहे कोई भी कहि के देखे या विचार कर ले (प्रमात्मा व उसकी कुदरत का अंत ढूँढना मनुष्य की जिंदगी का उद्देश्य हो ही नहीं सकता)।

नोट: प्राचीन काल में बहुत से ऋषि-मुनि जंगलों में तप करते रहे, जिन्होंने उपनिशदें लिखीं। ये बहुत पुरानी धर्म पुस्तकें हैं। कईयों में ये विचार किया गया है कि जगत कब बना, क्यूँ बना, कैसे बना, कितना बड़ा है इत्यादिक। भक्ति करने गए ऋषि भक्ती की जगह एक ऐसे कार्य में लग गए जो मनुष्य की समझ से परे है। यहाँ सत्गुरू जी इस कमजोरी की तरफ इशारा करते हैं। ऐसे बेमतलब प्रयत्नों का ही ये फल था कि आम लोगों ने ये धारणा बना ली कि हमारी धरती को बैल नेउठाया हुआ है। ये मिसाल ले के गुरु जी इसका खण्डन करके कहते हैं कि कुदरत बेअंत है, तथा इसका रचनहार भी बेअंत है।

धौलु धरमु दइआ का पूतु ॥ संतोखु थापि रखिआ जिनि सूति ॥
जे को बुझै होवै सचिआरु ॥ धवलै उपरि केता भारु ॥
धरती होरु परै होरु होरु ॥ तिस ते भारु तलै कवणु जोरु ॥

पद्अर्थ: धौलु = बैल। दइआ का पूत = दया का पुत्र, धर्म दया से उत्पन्न होता है, भाव जिस हृदय में दया है वहाँ धर्म प्रफुल्लित होता है। संतोखु = संतोष को। थापि रखिआ = टिका के रखा, अस्तित्व में लाए हैं, पैदा किया है। जिनि = जिस (धर्म) ने। धर्म = अकाल-पुरख का नियम। सूति = सूत्र में, मर्यादा में। बुझै = समझ ले। सचिआरु = सत्य का प्रकाश होने योग्य। केता भारु = बेअंत वजन। धरती होरु = धरती के नीचे और बैल। परै = उससे भी नीचे। तिस ते = उस बैल पे। तलै = उस बैल के नीचे। कवणु जोरु = कौन सा सहारा।

अर्थ: (अकाल-पुरख का) धर्म रूपी अटल नियम ही बैल है (जो सृष्टि को कायम रख रहा है)। (ये धरम) दया का पुत्र है (भाव, अकाल-पुरख ने अपनी मेहर करके सृष्टि को टिकाए रखने के लिए ‘धरम’ रूप नियम बना दिया है)। इस धरम ने अपनी मर्यादा अनुसार संतोष को जन्म दिया है। यदि कोई मनुष्य (ऊपर दिए हुए विचारों को) समझ ले तो वह इस योग्य हो जाता है कि उसके अंदर अकाल-पुरख का प्रकाश हो जाए। (वरना, सोच के तो देखो कि) बैल पे धरती का कितना बेअंत भार है (वह बेचारा इतने भार को कैसे उठा सकता है?), (दूसरी बात ये भी है कि अगर धरती के नीचे बैल है, उस बैल को सहारा देने के लिए नीचे और धरती हुई, उस) धरती के और बैल, उसके नीचे (धरती के नीचे) और बैल, फिर और बैल, (इसी तरह आखिरी) बैल के भार का सहारा बनने के लिए और कौन सा आसरा होगा?

जीअ जाति रंगा के नाव ॥ सभना लिखिआ वुड़ी कलाम ॥
एहु लेखा लिखि जाणै कोइ ॥ लेखा लिखिआ केता होइ ॥
केता ताणु सुआलिहु रूपु ॥ केती दाति जाणै कौणु कूतु ॥
कीता पसाउ एको कवाउ ॥ तिस ते होए लख दरीआउ ॥

पद्अर्थ: जीअ = जीव जन्तु। के नाव = कई नामों के। वुड़ी = बहती, चलती। कलाम = कलम। वुड़ी कलाम = चलती कलम से, भाव, कलम को रोके बिना इक तार। लिखि जाणे = लिखना जानता है, लिखने की समझ है। कोइ = कोई एक आध। लेखा लिखिआ = लिखा हुआ लेखा, अगर ये लेखा लिखा जाए। केता होइ = कितना बड़ा हो जाए, बेअंत हो जाए। पसाउ = पसारा, संसार। कवाउ = वचन, हुक्म। तिस ते = उस हुक्म से। होए = बन गए। लख दरीआउ = लाखों दरिया लाखों नदीयां। सुआलिहु = सुंदर। कूतु = नाप, अंदाजा।

अर्थ: (सृष्टि में) कई जातियों के, कई किस्मों के और कई नामों के जीव हैं। इन सब का एक तार चलती कलम से (अकाल-पुरख की कुदरत का) लेखा लिखा गया है। (पर) कोई विरला मनुष्य ही ये लेखा लिखना जानता है। (भाव, परमात्मा की कुदरत का अंत कोई भी जीव नहीं पा सकता)। (यदि) लेखा लिख (भी लिया जाए, तो ये अंदाजा नहीं लग सकता कि लेखा) कितना बड़ा हो जाए। अकाल-पुरख का बेअंत बल है, बेअंत सुंदर रूप है, बेअंत उसकी दात है; इसका कौन अंदाजा लगा सकता है? (अकाल-पुरख ने) अपने हुक्म के अनुसार ही सारा संसार बना दिया, उसके हुक्म से ही (जिंदगी के) लाखों दरिया बन गए।

कुदरति कवण कहा वीचारु ॥ वारिआ न जावा एक वार ॥
जो तुधु भावै साई भली कार ॥ तू सदा सलामति निरंकार ॥१६॥

पद्अर्थ: कुदरति = ताकत, स्मर्था। कवण = कौन सी। कुदरति कवण = कौन सी स्मर्था? कहा = मैं कहूँ। कहा वीचारु = मैं विचार कर सकूँ। वारिआ न जावा = सदके नहीं जा सकता (भाव, मेरी क्या बिसात है/ स्मर्था है)। साई कार = वही काम। सलामति = स्थिर, अटल। निरंकार = हे हरि!

नोट: ‘कुदरति’ शब्द स्त्ररलिंग है। सो, ये ‘कुदरति’ का विशेषण है।

अर्थ: (सो) मेरी क्या ताकत है कि (करते की कुदरत की) विचार कर सकूँ? (हे अकाल-पुरख!) मैं तो आप पर एक बार भी सदके होने के काबिल नहीं हूँ (अर्थात मेरी हस्ती बहुत ही तुच्छ है)। हे निरंकार! तू सदा अटल रहने वाला है जो आपको अच्छा लगता है वही काम भला है (भाव तेरी रज़ा में रहना ही ठीक है)।16।

भाव: किस्मत वाले हैं वह मनुष्य जिन्होंने गुरु के बतलाए रास्ते को अपने जीवन का उद्देश्य बनाया है, जिन्होंने नाम में तवज्जो जोड़ी है और जिन्होंने परमात्मा के साथ प्यार का रिश्ता बांधा है। इस राह पे चल के प्रभु की रजा में रहना ही उन्हें भाता है। ये नाम स्मरण रूप ‘धर्म’ उनकी जिंदगी का सहारा बनता है, जिस करके वे संतोषी जीवन व्यतीत करते हैं।

पर गुरु के बताए हुए रास्ते पे चलने का नतीजा ये नहीं निकल सकता कि कोई मनुष्य प्रभु की रची हुई सृष्टि का अंत पा सके। इधर तो ज्यों ज्यों ज्यादा गहराई में जाओगे, त्यों त्यों ये सृष्टि और भी बेअंत लगेगी। दरअसल, ऐसे बेमतलब प्रयत्नों का ही ये फल था कि आम लोगों ने ये धारणा बना ली कि हमारी धरती को बैल ने उठाया हुआ है। प्रमात्मा और उसकी कुदरत का अंत ढूंढना मनुष्य की जिंदगी का लक्ष्य बन ही नहीं सकता।16।

असंख जप असंख भाउ ॥ असंख पूजा असंख तप ताउ ॥

पद्अर्थ: असंख = अनगिनत, बेअंत (जीव)। भाउ’ = प्यार। तप ताउ = तपों का तपना।

अर्थ: (अकाल-पुरख की रचना में) अनगिनत जीव तप करते हैं, बेअंत जीव (औरों के साथ) प्यार (का बरताव) कर रहे हैं। कई जीव पूजा कर रहे हैं। और अनगिनत जीव तप साधना कर रहे हैं।

असंख गरंथ मुखि वेद पाठ ॥ असंख जोग मनि रहहि उदास ॥

पद्अर्थ: मुखि = मुंह से। गरंथ वेद पाठ = वेदों व और धार्मिक पुस्तकों के पाठ। जोग = योग साधना करने वाले। मनि = मन में। उदास रहहि = उपराम रहते हैं।

अर्थ: बेअंत जीव वेदों व और धार्मिक पुस्तकोंके पाठ मुंह से कर रहे हैंयोग साधना करने वाले बेअंत मनुष्य अपने मन में (माया की ओर से) उपराम रहते हैं।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh