श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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दरसनि देखिऐ दइआ न होइ ॥ लए दिते विणु रहै न कोइ ॥ राजा निआउ करे हथि होइ ॥ कहै खुदाइ न मानै कोइ ॥३॥

पद्अर्थ: दरसनि = दर्शनों के द्वारा। दरसनि देखिऐ = दर्शन करने से, एक दूसरे को देख के। लए दिते विणु = माया लिए दिए बिना, रिश्वत के बग़ैर। निआउ = न्याय। हथि होइ = हाथ में हो, कुछ देने को पल्ले हो। कहै खुदाइ = अगर कोई रब का वास्ता डाले।3।

अर्थ: मनुष्य एक-दूसरे को देख के (अपना भाई जान के आपस में) प्यार की भावना नहीं ला रहे (क्योंकि संबंध ही माया का बन रहा है), रिश्वत लिए-दिए बिना नहीं रहता। (यहां तक कि) राजा भी (हाकम भी) तभी इन्साफ़ करता है अगर उसे देने के लिए (सवाली के) हाथ-पल्ले माया हो। अगर कोई निरा रब का वास्ता डाले तो उसकी पुकार कोई नहीं सुनता।3।

माणस मूरति नानकु नामु ॥ करणी कुता दरि फुरमानु ॥ गुर परसादि जाणै मिहमानु ॥ ता किछु दरगह पावै मानु ॥४॥४॥

पद्अर्थ: माणस मूरति = मनुष्य की शक्ल है। नानकु = नानक (कहता है)। नामु = नाम मात्र। करणी = करणी में, आचरण में। दरि = (मालिक के) दर पे। फुरमानु = हुक्म।4।

अर्थ: नानक (कहता है: देखने को ही) मनुष्य की शकल है, नाम-मात्र को ही मनुष्य है, पा आचरण में मनुष्य (वह) कुत्ता है जो (मालिक के) दर पर (रोटी की खातिर) हुक्म (मान रहा है)।

मनुष्य परमात्मा की हजूरी में तभी कुछ आदर-सत्कार ले सकता हैअगर गुरु की मेहर से (संसार में अपने आप को) मेहमान समझे (और माया से) इतनी पकड़ ना रखे।4।4।

आसा महला १ ॥ जेता सबदु सुरति धुनि तेती जेता रूपु काइआ तेरी ॥ तूं आपे रसना आपे बसना अवरु न दूजा कहउ माई ॥१॥

पद्अर्थ: जेता = जितना ही (ये सारा)। सबदु = आवाज, बोलना। सुरति = सुनना। धुनि = जीवन-लहर। धुनि तेती = तेती (तेरी) धुनि, ये सारी तेरी ही जीवन लहर है। रूपु = दिखता आकार। काइआ = शरीर। रसना = रस लेने वाला। आपे = खुद ही। बसना = जिंदगी। कहउ = कहूँ, मैं कह सकूँ। माई = हे माँ!।1।

अर्थ: (हे प्रभु!) (जगत में) ये जितना बोलना और सुनना है (जितनी ये बोलने और सुनने की क्रिया है), ये सारी तेरी जीवन-लौअ (के सदके) है, ये जितना दिखाई देता आकार है, ये सारा तेरा ही शरीर है (तेरे स्वै का विस्तार है)। (सारे जीवों में व्यापक हो के) तू खुद ही रस लेने वाला है, तू खुद ही (जीवों की) जिंदगी है।

हे माँ! परमात्मा के बिना और कोई दूसरी हस्ती नहीं है जिसके प्रथाय मैं कह सकूँ (कि ये हस्ती परमात्मा के बराबर की है)।1।

साहिबु मेरा एको है ॥ एको है भाई एको है ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: एको = एक ही, सिर्फ।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा ही हमारा एकमेव पति-मालिक है, बस! वही एक मालिक है, उस जैसा, और कोई नहीं है।1। रहाउ।

आपे मारे आपे छोडै आपे लेवै देइ ॥ आपे वेखै आपे विगसै आपे नदरि करेइ ॥२॥

पद्अर्थ: वेखै = संभाल करता है। विगसै = खुश होता है।2।

अर्थ: प्रभु खुद ही (सब जीवों को) मारता है खुद ही बचाता है, खुद ही (जिंद) ले लेता है खुद ही (जिंद) देता है। प्रभु स्वयं ही (सबकी) संभाल करता है, स्वयं ही (संभाल करके) खुश होता है, स्वयं ही (सब पर) मेहर की नजर करता है।2।

जो किछु करणा सो करि रहिआ अवरु न करणा जाई ॥ जैसा वरतै तैसो कहीऐ सभ तेरी वडिआई ॥३॥

पद्अर्थ: न करणा जाई = किया नहीं जा सकता। वरतै = काम काज चलाता है। तैसो कहीऐ = वैसा ही उसका नाम रखा जाता है।3।

अर्थ: (जगत में) जो कुछ घटित हो रहा है (प्रभु से आक़ी हो के किसी और जीव द्वारा) कुछ नहीं किया जा सकता। जैसी कार्यवाही प्रभु करता है, वैसा ही उसका नाम पड़ जाता है।

(हे प्रभु!) ये जो कुछ दिखाई दे रहा है तेरी ही बुजुर्गीयत (का प्रकाश) है।3।

कलि कलवाली माइआ मदु मीठा मनु मतवाला पीवतु रहै ॥ आपे रूप करे बहु भांतीं नानकु बपुड़ा एव कहै ॥४॥५॥

पद्अर्थ: कलि = विवाद वाला स्वभाव। कलवाली = कलालन, शराब बेचने वाली। मदु = शराब। मतवाला = मस्त। बहु भांती = कई किस्मों के। बपुड़ा = बिचारा, अजिज़। एव = इस तरह।4।

नोट: पहली तुक में ‘रूपु’ एकवचन है; दूसरी तुक में ‘रूप’ बहुवचन है।

अर्थ: जैसे एक शराब बेचने वाली है उसके पास शराब है; शराबी आ के रोज पीता रहता है वैसे ही जगत में विवाद वाला स्वभाव है (उसके असर तले) माया मीठी लग रही है, और जीवों का मन (माया में) मस्त हो रहा है; ऐ भांति-भांति के रूप भी प्रभु खुद ही बना रहा है (चाहे ये बात अलौकिक ही प्रतीत होती है; पर उस प्रभु को हर अच्छे-बुरे में व्यापक देख के) बिचारा नानक यही कह सकता है।4।5।

आसा महला १ ॥ वाजा मति पखावजु भाउ ॥ होइ अनंदु सदा मनि चाउ ॥ एहा भगति एहो तप ताउ ॥ इतु रंगि नाचहु रखि रखि पाउ ॥१॥

पद्अर्थ: मति = श्रेष्ठ बुद्धि। पखावजु = जोड़ी, तबला। भाउ = प्रेम। अनंद = आत्मिक सुख। मनि = मन में। भगति = रास पानी। तप ताउ = तपकरना, तपना।

(नोट: ‘ऐहा’ और ‘ऐहो’ का फर्क याद रखने वाला है। ‘ऐहा’ विशेषण, स्त्रीलिंग है, ‘इहो’ विशेषण पुलिंग है)।

इतु = इस में। इतु रंगि = इस रंग में, इस मौज में। रखि रखि पाउ = पैर रख रख के, जीवन-राह पर चल चल के।1।

अर्थ: जिस मनुष्य ने श्रेष्ठ बुद्धि को बाजा बनाया है, प्रभु के प्यार को तबला बनाया है (इन साजों के बजने से, श्रेष्ठ बुद्धि और प्रभु-प्रेम की इनायत से) उसके अंदर सदा आनंद बना रहता है, उसके मन में उत्साह रहता है। असल भक्ति यही है, और यही है महान तप। इस आत्मिक आनंद में टिके रहके सदैव जीवन-राह पर चलो। बस! यही नृत्य करो (रासों में नाच-नाच के उसको कृष्ण लीला समझना भुलेखा है)।1।

पूरे ताल जाणै सालाह ॥ होरु नचणा खुसीआ मन माह ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पूरे ताल = ताल पूरता है, ताल के साथ नाचता है। सालाह = परमात्मा की महिमा। मन माह = मन के उमाह, मन के चाव।1। रहाउ।

अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा की महिमा करनी जानता है वह (जीवन-नृत्य में) ताल में नाचता है (जीवन की सही राहों पर चलता है)। (रास आदि में कृष्ण मूर्ति के आगे ये) नाच और ही हैं निरी मन का परचावा मात्र हैं, मन के चाव हैं (ये भक्ति नहीं, ये तो मन के नचाए नाचना है)।1। रहाउ।

सतु संतोखु वजहि दुइ ताल ॥ पैरी वाजा सदा निहाल ॥ रागु नादु नही दूजा भाउ ॥ इतु रंगि नाचहु रखि रखि पाउ ॥२॥

पद्अर्थ: सतु = दान, सेवा। ताल = छैणे। पैरी वाजा = घुंघरू। निहाल = प्रसन्न। दूजा भाउ = प्रभु के बिना और का प्यार।2।

अर्थ: (लोगों की) सेवा, संतोख (वाला जीवन) - ये दोनों छेणैं बजें, सदा प्रसन्न मुद्रा में रहना- ये पैरों में घुंघरू (बजें); (प्रभु-प्रेम के बिना) कोई और लगन ना हो - ये (हर समय अंदर) राग व अलाप (होता रहे)। (हे भाई!) इस आत्मिक आनंद में टिको, इस जीवन-राह पर चलो। बस! ये नाच नाचो (भाव, इस तरह जीवन के आत्मिक हिलोरों का आनंद लो)।2।

भउ फेरी होवै मन चीति ॥ बहदिआ उठदिआ नीता नीति ॥ लेटणि लेटि जाणै तनु सुआहु ॥ इतु रंगि नाचहु रखि रखि पाउ ॥३॥

पद्अर्थ: फेरी = चक्कर, घूमना। चीति = चित्त में। नीता नीत = रोजाना, सदा ही। लेटणि = लेटनी, लेट के नाचना। लेटि = लेट के। सुआह = नाशवान (राख की तरह)।3।

अर्थ: उठते-बैठते सदा हर समय प्रभु का डर-अदब मन-चित्त में टिका रहे- नृत्य का ये चक्कर हो; अपने शरीर को मनुष्य नाशवान समझे- ये लेट के नृत्यकारी हो। (हे भाई!) इस आनंद में टिके रहो; ये जीवन जीओ। बस! ये नाच नाचो (ये आत्मिक हिलोरे लो)।3।

सिख सभा दीखिआ का भाउ ॥ गुरमुखि सुणणा साचा नाउ ॥ नानक आखणु वेरा वेर ॥ इतु रंगि नाचहु रखि रखि पैर ॥४॥६॥

पद्अर्थ: सिख सभा = सत्संग। दीखिआ = गुरु का उपदेश। भाउ = प्यार। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रह के। आखणु = (नाम) जपना। वेरा वेर = बार बार।4।

अर्थ: सत्संग में रहके गुरु के उपदेश का प्यार (अपने अंदर पैदा करना); गुरु के सन्मुख रहके परमात्मा का अटल नाम सुनते रहना; परमात्मा का नाम बरंबार जपना- इस रंग में, हे नानक! टिको, इस जीवन-राह पर पैर धरो। बस! ये नाच नाचो (ये जीवन आनंद लो)।4।6।

आसा महला १ ॥ पउणु उपाइ धरी सभ धरती जल अगनी का बंधु कीआ ॥ अंधुलै दहसिरि मूंडु कटाइआ रावणु मारि किआ वडा भइआ ॥१॥

पद्अर्थ: पउणु = हवा। उपाइ = उपाई, पैदा की। धरी = टिकाई। बंधु = मेल। दहसिरि = दस सिर वाले ने, रावण ने। अंधुलै = अंधे ने, मूर्ख ने। मूंडु = सिर। मारि = मार के। किआ वडा भइआ = कौन सा बड़ा हो गया, बड़ा नहीं हो गया।1।

अर्थ: परमात्मा ने हवा बनाई, सारी धरती की रचना की, आग व पानी का मेल किया (भाव, ये सारे विरोधी तत्व इकट्ठे करके जगत रचना की। रचनहार प्रभु की ये एक आश्चर्य भरी लीला है, जिससे दिखता है किवह बेअंत बड़ी ताकतों वाला है, पर उसकी ये महिमा भूल के निरा रावण को मारने में ही उसकी महानता समझनी भूल है)। अकल के अंधे रावण ने अपनी मौत को (मूर्खता में) दावत दी, परमात्मा (निरा उस मूर्ख) रावण को ही मार के बड़ा नहीं हो गया।1।

किआ उपमा तेरी आखी जाइ ॥ तूं सरबे पूरि रहिआ लिव लाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: उपमा = महिमा। लिव लाइ = व्यापक हो के।1। रहाउ।

अर्थ: (हे प्रभु!) तेरी महिमा बयान नहीं की जा सकती। तू सब जीवों में व्यापक है, मौजूद है।1। रहाउ।

जीअ उपाइ जुगति हथि कीनी काली नथि किआ वडा भइआ ॥ किसु तूं पुरखु जोरू कउण कहीऐ सरब निरंतरि रवि रहिआ ॥२॥

पद्अर्थ: हथि कीनी = अपने हाथ में रखी हुई है। नथि = नाथ के, बस में करके। किसु = किस (स्त्री) का? पुरखु = पति। जोरू कउणु = कौन तेरी स्त्री? निरंतरि = (निर+अंतरि) बिना दूरी के, एक रस।2।

अर्थ: (हे अकाल-पुरख!) सृष्टि के सारे जीव पैदा करके सब की जीवन जुगति तूने अपने हाथ में रखी हुई है, (सबको नाथा हुआ है) सिर्फ काली-नाग को नाथ के तू बड़ा नहीं हो गया। ना तू किसी खास स्त्री (स्त्री विशेष) का पति है, ना कोई स्त्री तेरी पत्नी है, तू सब जीवों के अंदर एक-रस मौजूद है।2।

नालि कुट्मबु साथि वरदाता ब्रहमा भालण स्रिसटि गइआ ॥ आगै अंतु न पाइओ ता का कंसु छेदि किआ वडा भइआ ॥३॥

पद्अर्थ: नालि = कमल फूल की नाली। कुटंबु = परिवार (कुटंबिनी = माँ, जननी)। साथि = साथ, पास। वरदाता = वर देने वाला, विष्णु। कंसु = राजा उग्रसेन का पुत्र, कृष्ण जी का मामा। इसे कृष्ण जी ने मार के पुनः उग्रसेन को सिंहासन पर बैठाया था।3।

अर्थ: (कहते हैं कि जो) ब्रहमा कमल की नाल में से पैदा हुआ था, विष्णु उसका हिमायती था, वह ब्रहमा परमात्मा का अंत तलाशने के लिए गया, (उस नालि में ही भटकता रहा) पर अंत ना मिल सका। (अकाल-पुरख बेअंत कुदरत का मालिक है) सिर्फ कंस को मार के वह कितना बड़ा बन गया? (ये तो उसके आगे एक साधारण सी बात है)।3।

रतन उपाइ धरे खीरु मथिआ होरि भखलाए जि असी कीआ ॥ कहै नानकु छपै किउ छपिआ एकी एकी वंडि दीआ ॥४॥७॥

पद्अर्थ: उपाइ धरे = पैदा किए। खीरु = समुंदर। मथिआ = मथा। (पुराणों की कथा है कि देवताओं और दैत्यों ने मिल के समुंदर मंथन किया था, उसमें से 14 रत्न निकले। बँटवारे के समय झगड़ा हो गया। विष्णु ने ये झगड़ा निपटाने के लिए मोहनी अवतार धारा और रत्न एक-एक करके बाँट दिए)। होरि = दैत्य और देवते। भखलाए = क्रोध में आकर बोलने लगे। जि = कि। अयी कीआ = हमने (रत्न समुंदर में से) निकाले हैं। एकी एकी = एक-एक करके।4।

अर्थ: (कहते हैं कि देवताओं और दैत्यों ने मिल के) समुंदर-मंथन किया और (उसमें से) चौदह रत्न निकाले, (बाँटने के समय दोनों धड़े) गुस्से में आ-आ के कहने लगे कि ये रत्न हमने निकाले हैं, हमने निकाले हैं (अपनी ओर से परमात्मा की महिमा बयान करने के लिए कहते हैं कि परमात्मा ने मोहनी अवतार धार के वह रत्न) एक-एक करके बाँट दिए, (पर) नानक कहता है (कि निरे ये रत्न बाँटने से परमात्मा की कौन सी महानता बन गई, उसकी महानता तो उसकी रची कुदरत में जगह-जगह दिखाई दे रही हैं) वह चाहे अपनी कुदरत में छुपा हुआ है, पर छुपा नहीं रह सकता (प्रत्यक्ष उसकी बेअंत कुदरत बता रही है किवह बहुत ताकतों का मालिक है)।4।7।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh