श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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राइसा पिआरे का राइसा जितु सदा सुखु होई ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राइसा = (राइसो) जीवन कथा, प्रसंग, महिमा की बातें। जितु = जिस (राइसो) के द्वारा। रहाउ।

अर्थ: हे प्यारे (भाई!) परमात्मा की महिमा करनी चाहिए, क्योंकि इसके द्वारा ही सदा आत्मिक आनंद मिलता है। रहाउ।

जिनि रंगि कंतु न राविआ सा पछो रे ताणी ॥ हाथ पछोड़ै सिरु धुणै जब रैणि विहाणी ॥२॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (जीव-स्त्री) ने। रंगि = प्रेम में। राविआ = माणा, स्मरण किया। सा = वह जीव-स्त्री। रे = हे भाई! पछोताणी = पछताती है। हाथ पछोड़ै = हाथ मलती है। सिरु धुणै = सिर मारती है। रैणि = रात। विहाणी = बीत जाती है।2।

अर्थ: हे भाई! जिस जीव-स्त्री ने प्रेम से पति-प्रभु का स्मरण नहीं किया, वह आखिर को पछताती है। जब उसकी जिंदगी की रात बीत जाती है तब वह अपने हाथ मलती है, सिर मारती है।2।

पछोतावा ना मिलै जब चूकैगी सारी ॥ ता फिरि पिआरा रावीऐ जब आवैगी वारी ॥३॥

पद्अर्थ: चुकैगी = बीत जाएगी, खत्म हो जाएगी। सारी = सारी उम्र रात। रावीऐ = स्मरण किया जा सकता है। जब = जब। वारी = मनुष्य जन्म की बारी।3।

अर्थ: (पर) जब जिंदगी की सारी रात समाप्त हो जाएगी, तब पछतावा करने से कुछ हासिल नहीं होता। उस प्यारे प्रभु को फिर तभी स्मरण किया जा सकता है, जब (फिर कभी) मानव जीवन की बारी मिलेगी।3।

कंतु लीआ सोहागणी मै ते वधवी एह ॥ से गुण मुझै न आवनी कै जी दोसु धरेह ॥४॥

पद्अर्थ: कंतु = पति प्रभु। सोहागणी = सौभाग्यवती। मै ते = मेरे से। ते = से। वधवी = अच्छी। मुझै = मेरे अंदर, मुझे। आवनी = आते हैं, पैदा होते हैं। कै = किस पे? धरेह = धरूँ, रखूँ।4।

अर्थ: जिस अच्छे भाग्यों वाली (जीव-स्त्रीयों) ने प्रभु-पति का मिलाप हासिल कर लिया है, वह मुझसे अच्छी हैं, (जो गुण उनके अंदर हैं) वह गुण मेरे अंदर पैदा नहीं होते, (इस वास्ते) मैं किस को दोष दूँ (कि मुझे प्रभु-पति नहीं मिलता)?।4।

जिनी सखी सहु राविआ तिन पूछउगी जाए ॥ पाइ लगउ बेनती करउ लेउगी पंथु बताए ॥५॥

पद्अर्थ: जिनी सखी = जिस सहेलियों ने। सहु = पति प्रभु। राविआ = स्मरण किया। जाए = जा के। पाइ = पैरों पर। लगउ = मैं लगूँगी। करउ = मैं करूँगी। पंथु = रास्ता। बताए लेउगी = पूछ लूँगी।5।

अर्थ: (अब) मैं उन सहेलियों को जा के पूछूंगी, जिन्होंने प्रभु-पति का मिलाप प्राप्त कर लिया है। मैं उनके चरणों में लगूँगी, मैं उनके आगे विनती करूँगी, (और उनसे प्रभु-पति के मिलाप का) रास्ता पूछ लूँगी।5।

हुकमु पछाणै नानका भउ चंदनु लावै ॥ गुण कामण कामणि करै तउ पिआरे कउ पावै ॥६॥

पद्अर्थ: भउ = डर अदब। कामण = टूणे, जादू। कामणि = स्त्री। तउ = तब।6।

अर्थ: हे नानक! जब (जीव-स्त्री प्रभु-पति की) रजा को समझ लेती है, जब उसके डर-अदब को (जिंद के लिए सुगंधि बनाती है, जैसे शरीर पर कोई स्त्री) चंदन लगाती है, जब स्त्री (पति को वश में करने के लिए आत्मिक) गुणों के टूणे बनाती है, तब वह प्रभु प्यारे का मिलाप हासिल कर लेती है।6।

जो दिलि मिलिआ सु मिलि रहिआ मिलिआ कहीऐ रे सोई ॥ जे बहुतेरा लोचीऐ बाती मेलु न होई ॥७॥

पद्अर्थ: दिलि = दिल में। रे = हे भाई! सोई = वही मनुष्य। लोचीऐ = तमन्ना करें। बाती = बातों से। मेलु = मिलाप।7।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य अपने दिल के माध्यम से (परमात्मा के चरणों में) मिला है, वह सदा प्रभु से मिला रहता है, वही मनुष्य (प्रभु-चरणों में) मिला हुआ कहा जा सकता है। सिर्फ बातों से (प्रभु के साथ) मिलाप नहीं हो सकता, चाहे कितनी ही चाहत करते रहें।7।

धातु मिलै फुनि धातु कउ लिव लिवै कउ धावै ॥ गुर परसादी जाणीऐ तउ अनभउ पावै ॥८॥

पद्अर्थ: धातु = (सोना आदि) धातु। फुनि = दोबारा (गल के)। कउ = को। लिव = लगन, प्यार। लिवै कउ = प्यार को ही। धावै = दौड़ता है। परसादी = कृपा से ही। जाणीऐ = समझ आती है। तउ = तब। अनभउ = भय रहित प्रभु।8।

अर्थ: हे भाई! (जैसे सोना आदि) धातु (कुठाली में गल के) फिर (और) (सोने-) धातु से मिल जाती है, (इसी तरह) प्यार प्यार की तरफ दौड़ता है (आकर्षित होता है)। जब गुरु की कृपा से ये सूझ पड़ती है, तब मनुष्य डर रहित प्रभु को मिल जाता है।8।

पाना वाड़ी होइ घरि खरु सार न जाणै ॥ रसीआ होवै मुसक का तब फूलु पछाणै ॥९॥

पद्अर्थ: पना वाड़ी = पानों की क्यारी। घरि = घर में। खरु = गधा, मूर्ख मन। सार = कद्र। रसीआ = प्रेमी। मुसक = मुश्क, सुगंधि, कस्तूरी। पछाणै = सांझ डालता है।9।

अर्थ: हे भाई! पानों की क्यारी (हृदय) घर में लगी हुई है, पर गधा (मूर्ख मन इसकी) कद्र नहीं जानता। जब मनुष्य सुगंधि का प्रेमी बन जाता है, तब फूलों से प्यार पाता है।9।

अपिउ पीवै जो नानका भ्रमु भ्रमि समावै ॥ सहजे सहजे मिलि रहै अमरा पदु पावै ॥१०॥१॥

पद्अर्थ: अपिउ = अंमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। भ्रमु = भटकना। भ्रमि = भटकना में। सहजे = आत्मिक अडोलता में। अमर = मौत से रहित। अमरा पदु = वह दर्जा जहाँ आत्मिक मौत नहीं पहुँचती।10।

अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीता है, उस (के मन) की भटकना अंदर-अंदर से समाप्त हो जाती है। वह सदा आत्मिक अडोलता में टिका रहता है, वह मनुष्य वह आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है जहाँ आत्मिक मौत नजदीक नहीं फटकती।10।1।

नोट: इस वाणी के आरम्भ में कोई शीर्षक नहीं है, पर ये ‘अष्टपदी’ ही है। वैसे, साधारण नियम के अनुसार ‘अष्टपदीयां’ तब ही दर्ज होती हैं, जब महला ९ के शब्द भी दर्ज हो चुकते हैं। इस राग में महला ९ के शब्द अभी आगे आने हैं।

तिलंग महला ४ ॥ हरि कीआ कथा कहाणीआ गुरि मीति सुणाईआ ॥ बलिहारी गुर आपणे गुर कउ बलि जाईआ ॥१॥

पद्अर्थ: कीआ = की। कथा कहाणीआ = महिमा की बातें। गुरि = गुरु ने। मीति = मित्र ने। कउ = को, से। बलि जाईआ = मैं सदके जाता हूँ।1।

अर्थ: हे गुरसिख! मित्र गुरु ने (मुझे) परमात्मा की महिमा की बातें सुनाई हैं। मैं अपने गुरु से बार-बार सदके कुर्बान जाता हूँ।1।

आइ मिलु गुरसिख आइ मिलु तू मेरे गुरू के पिआरे ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: आइ = आ के। गुरसिख = हे गुरु के सिख!। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे गुरु के प्यारे सिख! मुझे आ के मिल, मुझे आ के मिल। रहाउ।

हरि के गुण हरि भावदे से गुरू ते पाए ॥ जिन गुर का भाणा मंनिआ तिन घुमि घुमि जाए ॥२॥

पद्अर्थ: भावदे = अच्छे लगते हैं। से = वह गुण (बहुवचन)। ते = से। भाणा = रजा। घुमि घुमि जाए = मैं बार बार सदके जाता हूँ।2।

अर्थ: हे गुरसिख! परमात्मा के गुण (गाने) परमात्मा को पसंद आते हैं। मैंने वह गुण (गाने) गुरु से सीखे हैं। मैं उन (भाग्यशालियों से) बार-बार कुर्बान जाता हूँ, जिन्होंने गुरु के हुक्म को (मीठा समझ के) माना है।2।

जिन सतिगुरु पिआरा देखिआ तिन कउ हउ वारी ॥ जिन गुर की कीती चाकरी तिन सद बलिहारी ॥३॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। वारी = कुर्बान। चाकरी = सेवा। सद = सदा।3।

अर्थ: हे गुरसिख! मैं उनके सदके जाता हूँ, जिस प्यारों ने गुरु का दर्शन किया है, जिन्होंने गुरु की (बताई) सेवा की है।3।

हरि हरि तेरा नामु है दुख मेटणहारा ॥ गुर सेवा ते पाईऐ गुरमुखि निसतारा ॥४॥

पद्अर्थ: हरि = हे हरि! ते = से। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। निसतारा = पार उतारा।4।

अर्थ: हे हरि! तेरा नाम सारे दुख दूर करने के समर्थ है, (पर यह नाम) गुरु की शरण पड़ने से ही मिलता है। गुरु के सन्मुख रहने से ही (संसार-समुंदर से) पार लांघा जा सकता है।4।

जो हरि नामु धिआइदे ते जन परवाना ॥ तिन विटहु नानकु वारिआ सदा सदा कुरबाना ॥५॥

पद्अर्थ: ते = वह (बहुवचन)। परवाना = स्वीकार, मंजूर। विटहु = से।5।

अर्थ: हे गुरसिख! जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, वे मनुष्य (परमात्मा की हजूरी में) स्वीकार हो जाते हैं। नानक उन मनुष्यों से कुर्बान जाता है, सदा सदके जाता है।5।

सा हरि तेरी उसतति है जो हरि प्रभ भावै ॥ जो गुरमुखि पिआरा सेवदे तिन हरि फलु पावै ॥६॥

पद्अर्थ: सा = वह (स्त्रीलिंग)। हरि प्रभ = हे हरि प्रभु! भावै = (तुझे) अच्छी लगती है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। पावै = देता है।6।

अर्थ: हे हरि! हे प्रभु! वही महिमा तेरी महिमा कही जा सकती है जो तुझे पसंद आ जाती है। (हे भाई!) जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के प्यारे प्रभु की सेवा-भक्ति करते हैं, उनको प्रभु (सुख-) फल देता है।6।

जिना हरि सेती पिरहड़ी तिना जीअ प्रभ नाले ॥ ओइ जपि जपि पिआरा जीवदे हरि नामु समाले ॥७॥

पद्अर्थ: सेती = से। पिरहड़ी = प्रेम। तिना जीअ = उनके दिल। जीअ = जीव। ओइ = वह लोग। जपि = जप के। जीवदे = आत्मिक जीवन हासिल करते हैं। समाले = हृदय में संभाल के।7।

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! जिस लोगों का परमात्मा से प्यार पड़ जाता है, उनके दिल (सदा) प्रभु (के चरणों के) साथ ही (जुड़े रहते) हैं। वह मनुष्य प्यारे प्रभु को स्मरण कर-कर के, प्रभु का नाम हृदय में संभाल के आत्मिक जीवन हासिल करते हैं।7।

जिन गुरमुखि पिआरा सेविआ तिन कउ घुमि जाइआ ॥ ओइ आपि छुटे परवार सिउ सभु जगतु छडाइआ ॥८॥

पद्अर्थ: कउ = को। घुमि जाइआ = मैं सदके जाता हूँ। सिउ = समेत। सभु = सारा।8।

अर्थ: हे भाई! मैं उन मनुष्यों से सदके जाता हूँ, जिन्होंने गुरु की शरण पड़ कर प्यारे प्रभु की सेवा भक्ति की है। वह मनुष्य स्वयं (अपने) परिवार समेत (संसार-समुंदर के विकारों से) बच गए, उन्होंने सारा संसार भी बचा लिया है।8।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh