श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गुरि पिआरै हरि सेविआ गुरु धंनु गुरु धंनो ॥ गुरि हरि मारगु दसिआ गुर पुंनु वड पुंनो ॥९॥

पद्अर्थ: गुरि पिआरै = प्यारे गुरु के द्वारा। धंनु = धन्य, सराहनीय। गुरि = गुरु ने। मारगु = रास्ता। गुर पुंनु = गुरु का उपकार।9।

अर्थ: हे भाई! गुरु सराहनीय है, गुरु सराहना के योग्य है, प्यारे गुरु के द्वारा (ही) मैंने परमात्मा की सेवा-भक्ति आरम्भ की है। मुझे गुरु ने (ही) परमात्मा (के मिलाप) का रास्ता बताया है। गुरु का (मेरे पर ये) उपकार है, बड़ा उपकार है।9।

जो गुरसिख गुरु सेवदे से पुंन पराणी ॥ जनु नानकु तिन कउ वारिआ सदा सदा कुरबाणी ॥१०॥

पद्अर्थ: गुरसिख = गुरु के सिख। पुंन = (विशेषण) पवित्र, भाग्यशाली। से पराणी = वह लोग।10।

अर्थ: हे भाई! गुरु के जो सिख गुरु की (बताई) सेवा करते हैं, वे भाग्यशाली हो गए हैं। दास नानक उनसे सदके जाता है, सदा ही कुर्बान जाता है।10।

गुरमुखि सखी सहेलीआ से आपि हरि भाईआ ॥ हरि दरगह पैनाईआ हरि आपि गलि लाईआ ॥११॥

पद्अर्थ: सखी = सखियां, सहेलियां। से = वह सखियां। भाईआ = भाई, अच्छी लगीं। पैनाईआ = आदर मिला, उन्हें सिरोपा मिला। गलि = गले से। लाईआ = लगाई।11।

अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर (परस्पर प्रेम से रहने वाली सत्संगी) सहेलियाँ (ऐसी हो जाती हैं कि) वह अपने आप प्रभु को प्यारी लगने लगती हैं। परमात्मा की हजूरी में उन्हें आदर मिलता है, परमात्मा ने उन्हें स्वयं अपने गले से (सदा के लिए) लगा लिया है।11।

जो गुरमुखि नामु धिआइदे तिन दरसनु दीजै ॥ हम तिन के चरण पखालदे धूड़ि घोलि घोलि पीजै ॥१२॥

पद्अर्थ: दीजै = कृपा करके दे। पखालदे = धोते हैं। घोलि = घोल के।12।

अर्थ: हे प्रभु! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (तेरा) नाम स्मरण करते हैं, उनके दर्शन मुझे बख्श। मैं उनके चरण धोता रहूँ, और, उनके चरणों की धूल घोल-घोल के पीता रहूँ।12।

पान सुपारी खातीआ मुखि बीड़ीआ लाईआ ॥ हरि हरि कदे न चेतिओ जमि पकड़ि चलाईआ ॥१३॥

पद्अर्थ: खातीआ = खाती। मुखि = मुँह में। बीड़ीआ = बीड़ी, बीड़े, पानों के बीड़े। जमि = जम ने, मौत ने। पकड़ि = पकड़ के।13।

अर्थ: हे भाई! जो जीव-सि्त्रयाँ पान-सुपारी आदि खाती रहती हैं, मुँह में पान चबाती रहती हैं (भाव, सदा पदार्थों के भोग में मस्त हैं), और जिन्होंने परमात्मा का नाम कभी नहीं स्मरण किया, उनको मौत (के चक्कर) ने पकड़ के (सदा के लिए) आगे लगा लिया (अर्थात, वे चौरासी के चक्करों में पड़ गई)।13।

जिन हरि नामा हरि चेतिआ हिरदै उरि धारे ॥ तिन जमु नेड़ि न आवई गुरसिख गुर पिआरे ॥१४॥

पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। उरि = हृदय में। धारे = धार के। जमु = मौत, मौत का डर। आवई = आता।14।

अर्थ: हे भाई! जिन्होंने अपने मन में हृदय में टिका के परमात्मा का नाम स्मरण किया, उन गुरु के प्यारे गुरसिखों के नजदीक मौत (का डर) नहीं आता।14।

हरि का नामु निधानु है कोई गुरमुखि जाणै ॥ नानक जिन सतिगुरु भेटिआ रंगि रलीआ माणै ॥१५॥

पद्अर्थ: निधानु = खजाना। कोई = कोई विरला। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य। भेटिआ = मिल गया। रंगि = प्रेम रंग में। माणै = माणता है। नानक = हे नानक!।15।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम खजाना है, कोई विरला मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (नाम से) सांझ डालता है। हे नानक! (कह:) जिस मनुष्यों को गुरु मिल जाता है, वह (हरेक मनुष्य) हरि-नाम के प्रेम में जुड़ के आत्मिक आनंद का सुख लेता है।15।

सतिगुरु दाता आखीऐ तुसि करे पसाओ ॥ हउ गुर विटहु सद वारिआ जिनि दितड़ा नाओ ॥१६॥

पद्अर्थ: दाता = (नाम की दाति) देने वाला। आखीऐ = कहना चाहिए। तुसि = प्रसन्न हो के। पसाओ = प्रसादि, कृपा। हउ = मैं। विटहु = से। वारिआ = कुर्बान। जिनि = जिस (गुरु) ने। नाओ = नाम।16।

अर्थ: हे भाई! गुरु को (ही नाम की दाति) देने वाला कहना चाहिए। गुरु प्रसन्न हो के (नाम देने की) कृपा करता है। मैं (तो) सदा गुरु से (ही) कुर्बान जाता हूँ, जिसने (मुझे) परमात्मा का नाम दिया है।16।

सो धंनु गुरू साबासि है हरि देइ सनेहा ॥ हउ वेखि वेखि गुरू विगसिआ गुर सतिगुर देहा ॥१७॥

पद्अर्थ: धंनु = सराहनीय। देइ = देता है। सनेहा = उपदेश। वेखि = देख के। विगसिआ = खिल पड़ा हूँ। गुर देहा = गुरु की देह।17।

अर्थ: हे भाई! वह गुरु सराहनीय है, उस गुरु की प्रशन्सा करनी चाहिए, जो परमात्मा का नाम जपने का उपदेश देता है। मैं (तो) गुरु को देख-देख के गुरु का (सुंदर) शरीर देख के खिल रहा हूँ।17।

गुर रसना अम्रितु बोलदी हरि नामि सुहावी ॥ जिन सुणि सिखा गुरु मंनिआ तिना भुख सभ जावी ॥१८॥

पद्अर्थ: रसना = जीभ। अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम। नामि = नाम से। सुहावी = सुंदर। जिन = जिनका। सिखा = सिखों ने। जावी = दूर हो जाती है।18।

(‘जिनि’ और ‘जिन’ में फर्क नोट करें)

अर्थ: हे भाई! गुरु की जीभ आत्मिक जीवन देने वाली हरि-नाम उचारती है, हरि-नाम (उच्चारण के कारण) सुंदर लगती है। जिस सिखों ने (गुरु का उपदेश) सुन के गुरु पर यकीन किया है, उनकी (माया की) सारी भूख दूर हो गई है।18।

हरि का मारगु आखीऐ कहु कितु बिधि जाईऐ ॥ हरि हरि तेरा नामु है हरि खरचु लै जाईऐ ॥१९॥

पद्अर्थ: मारगु = रास्ता। कहु = कहो। कितु बिधि = किस तरीके से?।19।

अर्थ: हे भाई! (हरि-नाम जपना ही) परमात्मा (के मिलाप) का रास्ता कहा जाता है। हे भाई! बताओ, किस ढंग से (इस रास्ते पर) चला जा सकता है? हे प्रभु! तेरा नाम ही (रास्ते का) खर्च है, ये खर्च ही पल्ले बाँध के (इस रास्ते पर) चलना चाहिए।19।

जिन गुरमुखि हरि आराधिआ से साह वड दाणे ॥ हउ सतिगुर कउ सद वारिआ गुर बचनि समाणे ॥२०॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। से = वह (बहुवचन)। साह = शाह। दाणे = सियाणे, दानशमंद। सद = सदा। गुर बचनि = गुरु के वचन के द्वारा।20।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जपा है वे बड़े समझदार शाह बन गए हैं। मैं सदा गुरु से कुर्बान जाता हूँ, गुरु के वचन के द्वारा (परमात्मा के नाम में) लीन हुआ जा सकता है।20।

तू ठाकुरु तू साहिबो तूहै मेरा मीरा ॥ तुधु भावै तेरी बंदगी तू गुणी गहीरा ॥२१॥

पद्अर्थ: साहिबो = साहिब, मालिक। मीरा = सरदार, पातशाह। तुधु = तुझे। गुणी = गुणों का मालिक। गहीरा = गहरे जिगरे वाला।21।

अर्थ: हे प्रभु! तू मेरा मालिक है। तू मेरा साहिब है, तू ही मेरा पातशाह है। अगर तू पसंद आए, तो ही तेरी भक्ति की जा सकती है। तू गुणों का खजाना है, तू गहरे जिगरे वाला है।21।

आपे हरि इक रंगु है आपे बहु रंगी ॥ जो तिसु भावै नानका साई गल चंगी ॥२२॥२॥

पद्अर्थ: आपे = आप ही। इक रंगु = एक स्वरूप वाला। बहु रंगी = अनेक स्वरूपों वाला।22।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा आप ही (निर्गुण स्वरूप में) एक मात्र हस्ती है, और, आप ही (सर्गुण स्वरूप में) अनेक रूपों वाला है। जो बात उसे अच्छी लगती है, वही बात जीवों के भले के लिए होती है।22।2।

तिलंग महला ९ काफी    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

चेतना है तउ चेत लै निसि दिनि मै प्रानी ॥ छिनु छिनु अउध बिहातु है फूटै घट जिउ पानी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: तउ = तो। निसि = रात। दिनि मै = दिन में। निस दिन महि = रात दिन में, रात दिन एक करके। प्रानी = हे मनुष्य! अउधु = उम्र। बिहातु है = बीतती जा रही है। जिउ = जैसे। फूटै = टूटे हुए घड़े में से।1।

अर्थ: हे मनुष्य! अगर तूने परमात्मा का नाम स्मरणा है, तो दिन-रात एक करके स्मरणा शुरू कर दे, (क्योंकि) जैसे चटके हुए घड़े में से पानी (धीरे-धीरे निकलता रहता है, वैसे ही) एक-एक छिन करके उम्र बीतती जा रही है।1। रहाउ।

हरि गुन काहि न गावही मूरख अगिआना ॥ झूठै लालचि लागि कै नहि मरनु पछाना ॥१॥

पद्अर्थ: काहि = क्यों? गावही = तू गाता है। मूरख = हे मूर्ख! अगिआना = हे ज्ञान हीन! ललचि = लालच में। लागि कै = फस के। मरनु = मौत।1।

अर्थ: ओह, बेवकूफ! ओह, समझ से बाहर! तुम परमेश्वर की स्तुति के गीत क्यों नहीं गाते हो? झूठे प्रलोभन का लालच में फंस कर मौत तुझे याद नहीं है।1।

अजहू कछु बिगरिओ नही जो प्रभ गुन गावै ॥ कहु नानक तिह भजन ते निरभै पदु पावै ॥२॥१॥

नोट: काफी एक रागिनी का नाम है। इन शबदों को तिलंग और काफी दोनों मिश्रित रागों में गाना है।

पद्अर्थ: अजहू = अभी भी। जो = अगर। गावै = गाने शुरू कर दे। कहु = कह। नानक = हे नानक! तिह भजन ते = उस परमात्मा के भजन से। तिह = उस। ते = से। निरभै पदु = वह आत्मिक दर्जा जहाँ कोई डर छू नहीं सकता। पावै = प्राप्त कर लेता है।2।

अर्थ: हे मूर्ख! हे बेसमझ! तू परमात्मा की महिमा के गीत गाने आरम्भ कर दे (भले ही स्मरण के बग़ैर कितनी ही उम्र बीत चुकी हो) फिर भी कोई नुकसान नहीं होता, (क्योंकि) उस परमात्मा के भजन की इनायत से मनुष्य वह आत्मिक दर्जा प्राप्त कर लेता है, जहाँ कोई डर छू नहीं सकता।2।1।

तिलंग महला ९ ॥ जाग लेहु रे मना जाग लेहु कहा गाफल सोइआ ॥ जो तनु उपजिआ संग ही सो भी संगि न होइआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जाग लेहु = होश कर, सचेत हो। कहा = क्यों? गाफल = बेफिक्र। संग ही = संगि ही, साथ ही। संगि = साथ। रहाउ।

नोट: ‘संग ही’ में से ‘संगि’ की ‘गि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: हे मन! होश कर, होश कर! तू क्यों (माया के मोह में) बेपरवाह हो के सो रहा है? (देख) जो (ये) शरीर (मनुष्य के साथ) ही पैदा होता है; ये भी (आखिर) साथ नहीं जाता।1। रहाउ।

मात पिता सुत बंध जन हितु जा सिउ कीना ॥ जीउ छूटिओ जब देह ते डारि अगनि मै दीना ॥१॥

पद्अर्थ: सुत = पुत्र। बंध जन = रिश्तेदार। हितु = प्यार। जा सिउ = जिस से। जीउ = जिंद। छूटिओ = निकल जाती है। देह ते = शरीर में से। ते = से। डारि दीना = डाल दिया, फेंक दिया। अगनि महि = आग में।1।

अर्थ: हे मन! (देख,) माता, पिता, पुत्र, रिश्तेदार- जिनसे मनुष्य (सारी उम्र) प्यार करता रहता है, जब जीवात्मा शरीर से अलग होती है, तब (वह सारे रिश्तेदार, उसके शरीर को) आग में डाल देते हैं।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh