श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु भैरउ महला १ घरु १ चउपदे

ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

तुझ ते बाहरि किछू न होइ ॥ तू करि करि देखहि जाणहि सोइ ॥१॥

पद्अर्थ: तुझ ते बाहरि = तेरी मर्जी के उलट। देखहि = तू संभाल करता है। जाणहि सोइ = तू ही उस (अपने किए) को समझता है।1।

अर्थ: (जगत में) कोई भी काम तेरी मर्जी के विरुद्ध नहीं हो रहा। तू स्वयं ही सब कुछ कर-कर के संभाल करता है तू आप ही (अपने किए को) समझता है।1।

किआ कहीऐ किछु कही न जाइ ॥ जो किछु अहै सभ तेरी रजाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अहै = है, हो रहा है। रजाइ = मर्जी, हुक्म, मर्यादा।1। रहाउ।

अर्थ: (हे प्रभु! जगत में) जो कुछ हो रहा है सब तेरी मर्जी के मुताबिक हो रहा है (चाहे वह जीवों के लिए सुख है चाहे दुख है। अगर जीवों को कोई कष्ट मिल रहा है, तो भी उसके विरुद्ध रोस के रूप में) हम जीव क्या कह सकते हैं? (हमें तेरी रज़ा की समझ नहीं है, इसलिए हम जीवों से) कोई गिला किया नहीं जा सकता (कोई गिला फबता नहीं है)।1। रहाउ।

जो किछु करणा सु तेरै पासि ॥ किसु आगै कीचै अरदासि ॥२॥

पद्अर्थ: कीचै = की जाए।2।

अर्थ: (अगर तेरी रजा में कोई ऐसी घटना घटित हो जो हम जीवों को दुखदाई लगे, तब भी तेरे बिना) किसी और के आगे आरजू नहीं की जा सकती, सो हम जीवों ने जो भी कोई तरला करना है (फरियाद करनी है) तेरे पास ही करना है।2।

आखणु सुनणा तेरी बाणी ॥ तू आपे जाणहि सरब विडाणी ॥३॥

पद्अर्थ: बाणी = महिमा। विडाण = आश्चर्यजनक करिश्मे। विडाणी = आश्चर्यजनक करिश्मे करने वाला। सरब विडाणी = हे आश्चर्य भरे करिश्मे करने वाले!।3।

अर्थ: हे सारे आश्चर्यजनक करिश्मे करने वाले प्रभु! तू स्वयं ही (अपने किए हुए कामों के राज़) समझता है (हम जीवों को) यही फबता है कि हम तेरी महिमा ही करें और सुनें।3।

करे कराए जाणै आपि ॥ नानक देखै थापि उथापि ॥४॥१॥

पद्अर्थ: थापि = बना के, पैदा करके। उथापि = गिरा के।4।

अर्थ: हे नानक! जगत को रच के भी और विनाश कर के भी प्रभु स्वयं ही संभाल करता है। प्रभु स्वयं ही सब कुछ करता है स्वयं ही (जीवों से) करवाता है और स्वयं ही (सारे भेद को) समझता है (कि क्यों यह कुछ कर और करा रहा है)।4।1।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु भैरउ महला १ घरु २ ॥

गुर कै सबदि तरे मुनि केते इंद्रादिक ब्रहमादि तरे ॥ सनक सनंदन तपसी जन केते गुर परसादी पारि परे ॥१॥

पद्अर्थ: सबदि = शब्द से। कै सबदि = के शब्द से। मुनि = मौनधारी साधु, सदा चुप धार के रखने वाले। केते = कितने ही, बेअंत। इंद्रादिक = इन्द्र आदि, इन्द्र और उस जैसे और। ब्रहमादि = ब्रहमा आदि, ब्रहमा व उस जैसे और। सनक, सनंदन = ब्रहमा के पुत्र। पारि परे = (भवजल से) पार लांघ गए।1।

अर्थ: इन्द्र, ब्रहमा और उन जैसे अन्य अनेक समाधियाँ लगाने वाले साधु गुरु शब्द में जुड़ के ही (संसार-समुंदर से) पार लांघते रहे, (ब्रहमा के पुत्र) सनक सनंदन व अन्य अनेक तपी साधुगण गुरु की मेहर से ही भवजल से पार हुए।1।

भवजलु बिनु सबदै किउ तरीऐ ॥ नाम बिना जगु रोगि बिआपिआ दुबिधा डुबि डुबि मरीऐ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भवजलु = संसार समुंदर। किउ तरीऐ = कैसे तैरा जाए? नहीं तैरा जा सकता। रोगि = रोग में, दुबिधा के रोग में। बिआपिआ = ग्रसा हुआ, फसा हुआ। दुबिधा = दो किस्मा पन, मेरे तेर। डुबि = डूब के। डुबि डुबि = बार बार डूब के। मरीऐ = आत्मिक मौत सहेड़ लेता है।1। रहाउ।

अर्थ: गुरु के शब्द (की अगुवाई) के बिना संसार-समुंदर से पार नहीं लांघा जा सकता, (क्योंकि) परमात्मा के नाम से वंचित रहके जगत (मेर-तेर के भेद-भाव के) रोग में फसा रहता है, और मेर-तेर (के गहरे पानियों) में बार-बार डूब के (गोते खा-खा के आखिर) आत्मिक मौत सहेड़ लेता है।1। रहाउ।

गुरु देवा गुरु अलख अभेवा त्रिभवण सोझी गुर की सेवा ॥ आपे दाति करी गुरि दातै पाइआ अलख अभेवा ॥२॥

पद्अर्थ: देवा = प्रकाश रूप, रोशनी का श्रोत। अभेवा = जिसका भेद ना पड़ सके। गुरि = गुरु ने। दातै = दाते ने।2।

अर्थ: गुरु (आत्मिक जीवन के) प्रकाश का श्रोत है, गुरु अलख अभेव परमात्मा (का रूप) है, (गुरु के बताए हुए रास्ते पर चलने से ही) गुरु की बताई हुई कार कमाने से ही तीनों भवनों (में व्यापक प्रभु) की समझ आती है। नाम की दाति देने वाले गुरु ने जिस मनुष्य को स्वयं (नाम की) दाति दी, उसको अलख-अभेव प्रभु मिल गया।2।

मनु राजा मनु मन ते मानिआ मनसा मनहि समाई ॥ मनु जोगी मनु बिनसि बिओगी मनु समझै गुण गाई ॥३॥

पद्अर्थ: राजा = बलवान हाकम, इन्द्रियों का मालिक, इन्द्रियों पर काबू पा सकने वाला। मन ते = मन से, मन (के मायावी फुरनों) से। मानिआ = मान गया, मना हो गया। मनसा = मन की वासना। मनहि = मनि ही, मन में ही। जोगी = प्रभु चरणों में मिला हुआ। बिनसि = बिनस के, मर के, स्वै भाव से समाप्त हो के। बिओगी = बिरही, प्रेमी। गाई = गाए, गाता है।3।

अर्थ: (गुरु की मेहर से) जो मन अपनी शारीरिक इन्द्रियों पर काबू पाने के लायक हो गया; वह मन मायावी फुरनों के पीछे दौड़-भाग बँद करनी मान गया, उस मन की वासना उसके अपने ही अंदर लीन हो गई। (गुरु की मेहर से वह) मन प्रभु-चरणों का मिलापी हो गया, वह मन स्वैभाव से समाप्त हो के प्रभु (-दीदार) का प्रेमी हो गया, वह मन ऊँची समझ वाला हो गया, और प्रभु की महिमा करने लग पड़ा।3।

गुर ते मनु मारिआ सबदु वीचारिआ ते विरले संसारा ॥ नानक साहिबु भरिपुरि लीणा साच सबदि निसतारा ॥४॥१॥२॥

पद्अर्थ: गुर ते = गुरु से, गुरु से उपदेश ले के। ते = वह लोग। भरिपुरि = सारे जगत में नाकोनाक भरा हुआ। लीण = सारे जगत में व्यापक। सबदि = शब्द में जुड़ा हुआ।4।

अर्थ: (पर,) हे नानक! जगत में वह विरले बंदे हैं जिन्होंने गुरु की शरण पड़ कर अपना मन वश में किया है और गुरु के शब्द को अपने अंदर बसाया है (जिन्होंने यह पदवी पा ली है), उनको मालिक प्रभु सारे जगत में (नाको-नाक) व्यापक दिखाई दे जाता है, गुरु के सच्चे शब्द की इनायत से (संसार-समुंदर के मेर-तेर के गहरे पानी में से) वे पार लांघ जाते हैं।4।1।2।

नोट: ‘घरु २’ का यह पहला शब्द है। अंक १ का यही भाव है।

भैरउ महला १ ॥ नैनी द्रिसटि नही तनु हीना जरि जीतिआ सिरि कालो ॥ रूपु रंगु रहसु नही साचा किउ छोडै जम जालो ॥१॥

पद्अर्थ: नैनी = आँखों में। द्रिसटि = देखने की शक्ति। हीना = कमजोर। जरि = जर ने, बुढ़ापे ने। सिरि = सिर पर। कालो = काल, मौत। रहसु = खिलना, प्रसन्नता। साचा = सदा कायम रहने वाला, रूहानी। जम जाले = जम का जाल, जम की फाही।1।

अर्थ: हे प्राणी! तेरी आँखों में देखने की (पूरी) ताकत नहीं रही, तेरा शरीर कमजोर हो गया है, बुढ़ापे ने तुझे जीत लिया है (बुढ़ापे ने तुझे मात दे दी है)। तेरे सिर पर अब मौत कूक रही है। ना तेरा ईश्वरीय-रूप बना, ना तुझे ईश्वरीय रंग चढ़ा, ना तेरे अंदर ईश्वरीय आनंद आया, (बता) जमका जाल तुझे कैसे छोड़ेगा?।1।

प्राणी हरि जपि जनमु गइओ ॥ साच सबद बिनु कबहु न छूटसि बिरथा जनमु भइओ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जनमु = मनुष्य का जनम। गइओ = लांघता जा रहा है। न छूटसि = तू (जम जाल से) मुक्ति नहीं पा सकेगा।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्राणी! परमात्मा का स्मरण कर। जिंदगी बीतती जा रही है। परमात्मा की महिमा से वंचित रह के (माया के मोह से, जम के जाल से) तू कभी बचा नहीं रह सकेगा। तेरी जिंदगी व्यर्थ चली जाएगी।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh