श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कोटि चंद्रमे करहि चराक ॥ सुर तेतीसउ जेवहि पाक ॥ नव ग्रह कोटि ठाढे दरबार ॥ धरम कोटि जा कै प्रतिहार ॥२॥

पद्अर्थ: चराक = चिराग़, दीए की रोशनी, रौशनी। सुर तेतीस = तैतिस करोड़ देवते। उजोवहि = खाते हैं। पाक = भोजन। ठाढे = खड़े हैं। प्रतिहार = दरबान।2।

अर्थ: (मैं उस प्रभु का जाचक हूँ) जिस के दर पर करोड़ों चँद्रमा रौशनी करते हैं, जिसके दर पर तैतीस करोड़ देवते भोजन करते हैं, करोड़ों ही नौ ग्रह जिसके दरबार में खड़े हुए हैं, और करोड़ों ही धर्म-राज जिसके दरबान हैं।2।

पवन कोटि चउबारे फिरहि ॥ बासक कोटि सेज बिसथरहि ॥ समुंद कोटि जा के पानीहार ॥ रोमावलि कोटि अठारह भार ॥३॥

पद्अर्थ: बासक = शेशनाग। बिसथरहि = बिछाते हैं। पानीहार = पानी भरने वाले। रोमावलि = रोमों की कतार, जिस्म के रोम। अठारह भार = सारी बनस्पति।3।

अर्थ: (मैं केवल उस प्रभु के दर का मँगता हूँ) जिसके चौबारे में करोड़ों हवाएं चलती हैं, करोड़ों शेषनाग जिसकी सेज बिछाते हैं, करोड़ों समुंदर जिसका पानी भरने वाले हैं, और बनस्पति के करोड़ों ही अठारह भार जिसके जिस्म के, मानो, रोम हैं।3।

कोटि कमेर भरहि भंडार ॥ कोटिक लखिमी करै सीगार ॥ कोटिक पाप पुंन बहु हिरहि ॥ इंद्र कोटि जा के सेवा करहि ॥४॥

पद्अर्थ: कमेर = धन का देवता। हिरहि = होरहि, ताक रहे हैं।4।

अर्थ: (मैं उस प्रभु से ही माँगता हूँ) जिसके खजाने करोड़ों ही कुबेर देवते भरते हैं, जिसके दर पर करोड़ों ही लक्षि्मयां श्रृंगार कर रही हैं, करोड़ों ही पाप और पुण्य जिसकी ओर ताक रहे हैं (कि हमें आज्ञा करें) और करोड़ों ही इन्द्र देवते जिसके दर पर सेवा कर रहे हैं।4।

छपन कोटि जा कै प्रतिहार ॥ नगरी नगरी खिअत अपार ॥ लट छूटी वरतै बिकराल ॥ कोटि कला खेलै गोपाल ॥५॥

पद्अर्थ: छपन कोटि = छप्पन करोड़। खिअत = चमक। लट छूटी = लटें खोल के। बिकराल = डरावनी (काली देवियाँ)। कला = शक्तियां।5।

अर्थ: (मैं केवल उस गोपाल का जाचक हूँ) जिसके दर पर छप्पन करोड़ बादल दरबान हैं, और जो जगह-जगह पर चमक रहे हैं; जिस गोपाल के दर पर करोड़ों शक्तियाँ खेल कर रही हैं, और करोड़ों ही कालिका (देवियां) केस खोल के भयानक रूप धार के जिसके दर पर मौजूद हैं।5।

कोटि जग जा कै दरबार ॥ गंध्रब कोटि करहि जैकार ॥ बिदिआ कोटि सभै गुन कहै ॥ तऊ पारब्रहम का अंतु न लहै ॥६॥

पद्अर्थ: गंध्रब = देवताओं के रागी।6।

अर्थ: (मैं उस प्रभु से ही माँगता हूँ) जिसके दरबार में करोड़ों ही यज्ञ हो रहे हैं, और करोड़ों गंधर्व जै-जैकार गा रहे हैं, करोड़ों ही विद्याएं जिसके बेअंत गुण बयान कर रही हैं, पर फिर भी परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पा सकती।6।

बावन कोटि जा कै रोमावली ॥ रावन सैना जह ते छली ॥ सहस कोटि बहु कहत पुरान ॥ दुरजोधन का मथिआ मानु ॥७॥

पद्अर्थ: बावन = बावन अवतार। जह ते = जिस श्री राम चंद्र से। सहस = हजारों। मथिआ = (जिस श्री कृष्ण जी ने) नाश किया।7।

अर्थ: (मैं उस प्रभु का जाचक हूँ) करोड़ों ही वामन अवतार जिसके शरीर के, मानो, रोम हैं, जिसके दर पर करोड़ों ही वह (श्री रामचंद्र जी) हैं जिससे रावण की सेना हारी थी; जिसके दर पर करोड़ों ही वह (कृष्ण जी) हैं जिसको भागवत पुराण बयान कर रहा है, और जिसने दुर्योधन का अहंकार तोड़ा था।7।

कंद्रप कोटि जा कै लवै न धरहि ॥ अंतर अंतरि मनसा हरहि ॥ कहि कबीर सुनि सारिगपान ॥ देहि अभै पदु मांगउ दान ॥८॥२॥१८॥२०॥

पद्अर्थ: कंद्रप = काम देवता। लवै न धरहि = (सुंदरता की) बराबरी नहीं कर सकते। अंतर अंतरि मनसा = लोगों के हृदयों की अंदरूनी वासना। अंतर = अंदर का, हृदय। अंतरि = अंदर। हरहि = (जो कामदेव) चुरा लेते हैं।8।

अर्थ: कबीर कहता है: (मैं उससे माँगता हूँ) जिसकी सुंदरता की बराबरी वह करोड़ों कामदेव भी नहीं कर सकते जो नित्य जीवों के हृदयों की अंदरूनी वासना चुराते रहते हैं; (और, मैं माँगता क्या हूँ? वह भी) सुन, हे धर्नुधारी प्रभु! मुझे वह आत्मिक अवस्था बख्श जहाँ मुझे कोई किसी (देवी-देवते) का डर ना रहे, (बस) मैं यही दान माँगता हूँ।8।2।18।20।

भैरउ बाणी नामदेउ जीउ की घरु १    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

रे जिहबा करउ सत खंड ॥ जामि न उचरसि स्री गोबिंद ॥१॥

पद्अर्थ: रे = हे भाई! सत = सौ। खंड = टुकड़े। करउ = मैं कर दूँ। जामि = जब।1।

अर्थ: हे भाई! अगर अब कभी मेरी जीभ प्रभु का नाम ना जपे तो मैं इसके सौ टुकड़े कर दूँ (भाव, मेरी जीभ इस तरह नाम के रंग में रंगी गई है कि मुझे अब यकीन है कि ये कभी नाम को नहीं बिसारेगी)।1।

रंगी ले जिहबा हरि कै नाइ ॥ सुरंग रंगीले हरि हरि धिआइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रंगी ले = मैंने रंग ली है। नाइ = नाम में सुरंग = सुंदर रंग से।1। रहाउ।

अर्थ: मैंने अपनी जीभ को परमात्मा के नाम में रंग लिया है, प्रभु का नाम स्मरण कर-कर के मैंने इसको सुंदर रंग में रंग लिया है।1। रहाउ।

मिथिआ जिहबा अवरें काम ॥ निरबाण पदु इकु हरि को नामु ॥२॥

अर्थ: अन्य आहरों में लगी हुई जीभ व्यर्थ है (क्योंकि) परमात्मा का नाम ही वासना-रहित अवस्था पैदा करता है (और-और आहर बल्कि वासना पैदा करते हैं)।2।

असंख कोटि अन पूजा करी ॥ एक न पूजसि नामै हरी ॥३॥

पद्अर्थ: अन पूजा = अन्य (देवताओं आदि की) पूजा। नामै = नाम के साथ।3।

अर्थ: अगर मैं करोड़ों असंखों अन्य (देवी-देवताओं की) पूजा करूँ, तो भी वह (सारी मिल के) परमात्मा के नाम की बराबरी नहीं कर सकते।3।

प्रणवै नामदेउ इहु करणा ॥ अनंत रूप तेरे नाराइणा ॥४॥१॥

पद्अर्थ: करणा = करने योग्य काम।4।

अर्थ: नामदेव विनती करता है: (मेरी जीभ के लिए) यही काम करने योग्य है (कि प्रभु के गुण गाए और कहे-) ‘हे नारायण! तेरे बेअंत रूप हैं’।4।1।

शब्द का भाव: केवल एक परमात्मा का नाम स्मरण करो। और करोड़ों देवताओं की पूजा प्रभु-याद की बराबरी नहीं कर सकती।

भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन इस शब्द के बारे में यूँ लिखते हैं: “उक्त रचना से ऐसा प्रकट होता है कि यह निर्गुण-स्वरूप व्यापक प्रभु की उपासना और भक्ति है। असल में है यह वेदांत मत।”

विरोधियों ने हर हाल में विरोध करने का फैसला किया हुआ लगता है।

पर धन पर दारा परहरी ॥ ता कै निकटि बसै नरहरी ॥१॥

पद्अर्थ: दारा = स्त्री। परहरी = त्याग दी है। निकटि = नजदीक। नरहरी = परमात्मा।1।

अर्थ: (नारायण का भजन करके) जिस मनुष्य ने पराए धन व पराई स्त्री का त्याग किया है, परमात्मा उसके अंग-संग बसता है।1।

जो न भजंते नाराइणा ॥ तिन का मै न करउ दरसना ॥१॥ रहाउ॥

अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा का भजन नहीं करते, मैं उनके दर्शन नहीं करता (भाव, मैं उनकी संगति में नहीं बैठता, मैं उनके साथ उठना-बैठना नहीं रखता)।1। रहाउ।

जिन कै भीतरि है अंतरा ॥ जैसे पसु तैसे ओइ नरा ॥२॥

पद्अर्थ: भीतरि = अंदर, मन में। अंतरा = (परमात्मा से) दूरी।2।

अर्थ: (पर) जिस मनुष्यों के अंदर परमात्मा से दूरी बनी हुई है वे मनुष्य पशुओं के समान ही हैं।2।

प्रणवति नामदेउ नाकहि बिना ॥ ना सोहै बतीस लखना ॥३॥२॥

पद्अर्थ: नाकहि बिना = नाक के बिना। बतीस लखना = बक्तिस लक्षणों वाले, वह मनुष्य जिसमें सुंदरता के बक्तिस ही लक्षण मिलते हों।3।

अर्थ: नामदेव विनती करता है: मनुष्य में सुंदरता के भले ही बक्तिस के बक्तिस ही लक्षण हों, पर अगर उसका नाक ना हो तो वह सुंदर नहीं लगता (वैसे, और सारे गुण हों, धन आदि भी हो, अगर नाम नहीं स्मरण करता तो किसी काम का नहीं)।3।2।

शब्द का भाव: स्मरण से टूटे हुए बंदे पशू के समान हैं। उनका संग नहीं करना चाहिए।

दूधु कटोरै गडवै पानी ॥ कपल गाइ नामै दुहि आनी ॥१॥

पद्अर्थ: कटोरै = कटोरे में। गडवै = लोटे में। कपल गाइ = गोरी गाय। दुहि = दुह के। आनी = ले आए।1।

अर्थ: (हे गोबिंद राय! तेरे सेवक) नामे (नामदेव) ने गोरी गाय दुही है, लोटे में पानी डाला है और कटोरे में दूध डाला है।1।

दूधु पीउ गोबिंदे राइ ॥ दूधु पीउ मेरो मनु पतीआइ ॥ नाही त घर को बापु रिसाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गोबिंदे राइ = हे प्रकाश रूप गोबिंद! पतीआइ = धीरज आ जाए। घर को बापु = (इस) घर का पिता, (इस शरीर रूप) घर का मालिक, मेरी आत्मा। रिसाइ = (सं: रिष् = to be injured) दुखी होगा (देखें गउड़ी वार कबीर जी ‘नातर खरा रिसै है राइ’)।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रकाश-रूप गोबिंद! दूध पी लो (ताकि) मेरे मन में ठंड पड़ जाए; (हे गोबिंद! तू अगर दूध) नहीं (पीएगा) तो मेरी आत्मा दुखी होगी।1। रहाउ।

सुोइन कटोरी अम्रित भरी ॥ लै नामै हरि आगै धरी ॥२॥

पद्अर्थ: सुोइन कटोरी = सोने की कटोरी, पवित्र हुआ हृदय। अम्रित = नाम अमृत। सुोइन...भरी = अमृत से भरपूर पवित्र हुआ हृदय।2।

नोट: ‘सुोइन’ में अक्षर ‘स’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘सोइन’, यहां ‘सुइन’ पढ़ना है) सोने की।

अर्थ: नाम-अमृत की भरी हुई पवित्र हृदय-रूप कटोरी नामे ने ले के (अपने) हरि के आगे रख दी है, (भाव, प्रभु की याद से निर्मल हुआ हृदय नामदेव ने अपने प्रभु के आगे खोल के रख दिया, नामदेव दिल की उमंगों से प्रभु के आगे अरदास करता है और कहता है कि मेरा दूध पी ले)।2।

एकु भगतु मेरे हिरदे बसै ॥ नामे देखि नराइनु हसै ॥३॥

पद्अर्थ: एकु भगत = अनन्य भक्त। देखि = देख के। हसै = हसता है, प्रसन्न होता है।3।

अर्थ: नामे को देख-देख के परमात्मा खुश होता है (और कहता है:) मेरा अनन्य भक्त सदा मेरे हृदय में बसता है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh