श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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असथिरु जो मानिओ देह सो तउ तेरउ होइ है खेह ॥ किउ न हरि को नामु लेहि मूरख निलाज रे ॥१॥

पद्अर्थ: असथिरु = सदा कायम रहने वाला। जो देह = जो शरीर। मानिओ = तू माने बैठा है। तउ = तो। होइ है = हो जाएगा। खेहि = मिट्टी, राख। को = का। किउ न लेहि = तू क्यों नहीं जपता? (लेहि)। मूरख निलाज रे = हे मूर्ख! हे बेशर्म!।1।

अर्थ: हे मूर्ख! हे बे-शर्म! जिस (अपने) शरीर को तू सदा कायम रहने वाला समझे बैठा है, तेरा वह (शरीर) तो (अवश्य) राख हो जाएगा। (फिर) तू क्यों परमात्मा का नाम नहीं जपता?।1।

राम भगति हीए आनि छाडि दे तै मन को मानु ॥ नानक जन इह बखानि जग महि बिराजु रे ॥२॥४॥

पद्अर्थ: हीए = हृदय में। आनि = ला रख। तै = तू। को = का। मानु = अहंकार। इहै = यह ही। बखानि = कहता है। महि = में। बिराजु = रोशन हो, अच्छा जीवन जीउ।2।

अर्थ: दास नानक (तुझे बार-बार) यही बात कहता है कि (अपने) मन का अहंकार छोड़ दे, परमात्मा की भक्ति (अपने) हृदय में बसा ले। इस तरह का सदाचारी जीवन जी।2।4।


ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

सलोक सहसक्रिती महला १ ॥ पड़्हि पुस्तक संधिआ बादं ॥ सिल पूजसि बगुल समाधं ॥ मुखि झूठु बिभूखन सारं ॥ त्रैपाल तिहाल बिचारं ॥ गलि माला तिलक लिलाटं ॥ दुइ धोती बसत्र कपाटं ॥ जो जानसि ब्रहमं करमं ॥ सभ फोकट निसचै करमं ॥ कहु नानक निसचौ ध्यिावै ॥ बिनु सतिगुर बाट न पावै ॥१॥

पद्अर्थ: पुस्तक = वेद शास्त्र आदि धर्म पुस्तकें। बादं = चर्चा (वाद)। सिल = पत्थर की मूर्ति। बिभूखण = विभूषण, आभूषण, गहने। सारं = श्रेष्ट। त्रैपाल = तीन पालों वाली, गायत्री मंत्र। तिहाल = त्रिह काल, तीन समय। लिलाटं = माथे पर। बहमं करमं = परमात्मा की भक्ति का कर्म। निसचै = जरूर, यकीनन। निसचौ = श्रद्धा धार के। बाट = रास्ता। संधिआ = (The morning, noon and evening prayer of a Brahmin) ब्राहमण की तीन वक्त की पूजा पाठ। गलि = गले में। कपाट = कपाल, खोपरी, सिर।

अर्थ: पंडित (वेद आदि धार्मिक) पुस्तकें पढ़ के संध्या करता है, और (औरों के साथ) चर्चा करता है, मूर्ति पूजता है और बगुले की तरह समाधि लगाता है; मुँह से झूठ बोलता है (पर उस झूठ को) बड़े सुंदर गहनों की तरह सुंदर करके दिखलाता है; (हर रोज) तीनों वक्त गायत्री मंत्र को विचारता है; गले में माला रखता है, माथे पर तिलक लगाता है; सदा दो धोतियां (अपने पास) रखता है, और (संधिया करते वक्त) सिर पर एक वस्त्र रख लेता है।

पर, जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति का काम जानता हो, तब निष्चय करके जान लो कि उसके लिए ये सारे काम फोके हैं। हे नानक! कह: (मनुष्य) श्रद्धा धार के परमात्मा को स्मरण करे (केवल यही रास्ता लाभदायक है, पर) ये रास्ता सतिगुरु के बिना नहीं मिलता।1।

भाव: श्रद्धा रख के परमात्मा की भक्ति करनी ही जीवन का सही रास्ता है, यह रास्ता गुरु से ही मिलता है। दिखावे के धार्मिक कर्म आत्मिक जीवन सुंदर नहीं बना सकते।

निहफलं तस्य जनमस्य जावद ब्रहम न बिंदते ॥ सागरं संसारस्य गुर परसादी तरहि के ॥ करण कारण समरथु है कहु नानक बीचारि ॥ कारणु करते वसि है जिनि कल रखी धारि ॥२॥

पद्अर्थ: तस्य = उस (मनुष्य) का। जावद = (यावत्) जब तक। ब्रहम = परमात्मा (को)। न बिंदते = नहीं जानता (विद् = to know)। सागरं = समुंदर। तरहि = तैरते हैं। के = कई लोग (कद्ध = pronoun, plural)। करण कारण = जगत का मूल। वसि = वश में। जिनि = जिस परमात्मा ने। कल = कला, सक्तिआ। रखी धारि = धार रखी, टिका रखी है। कारणु = सबब। निहफलं = निष्फल, व्यर्थ। संसारस्य = संसार का।

अर्थ: जब तक मनुष्य परमात्मा के साथ सांझ नहीं डालता, तब तक उसका (मनुष्य) जनम व्यर्थ है। (जो मनुष्य) गुरु की कृपा से (परमात्मा के साथ सांझ डालते हैं, वे) अनेक ही संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं। हे नानक! (परमात्मा का नाम बार-बार) कह, (परमात्मा के नाम की) विचार कर, (वह) जगत का मूल (परमात्मा) सब ताकतों का मालिक है। जिस प्रभु ने (जगत में अपनी) सत्ता टिका रखी है, उस कर्तार के इख्तियार में ही (हरेक) सबब है।2।

भाव: परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालने से ही मनुष्य-जन्म सफल होता है। गुरु की शरण पड़ कर जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, वे दुनिया के विकारों से बचे रहते हैं। विकारों से बचा के रखने की सामर्थ्य परमात्मा के नाम में ही है।

जोग सबदं गिआन सबदं बेद सबदं त ब्राहमणह ॥ ख्यत्री सबदं सूर सबदं सूद्र सबदं परा क्रितह ॥ सरब सबदं त एक सबदं जे को जानसि भेउ ॥ नानक ता को दासु है सोई निरंजन देउ ॥३॥

पद्अर्थ: सबदं = धरम। सबदं ब्राहमणह = ब्राहमण: , ब्राहमण का धर्मं। सूर = सूरमे। परा क्रितह = पराकृत: , दूसरों की सेवा करनी। सरब सबदं = सारे धर्मों का धर्म, सबसे श्रेष्ठ धर्म। एक सबदं = एक प्रभु का (स्मरण-रूप) धर्म। भेउ = भेद। निरंजन देउ = माया रहित प्रभु का रूप। ता को = उसका। को = कोई (की ऽ पि)। जानसि = (जानाति) जानता है। निरंजन = (निर्+अंजन। अंजन = कालख, मोह की कालिख) वह परमात्मा जिस पर माया के मोह की कालिख असर नहीं कर सकती।

अर्थ: (वर्ण-भेद का भेदभाव डालने वाले कहते हैं कि) जोग का धर्म ज्ञान प्राप्त करना है (ब्रहम की विचार करना है;) ब्राहमण का धर्म वेदों की विचार है; क्षत्रियों का धर्म शूरवीरों वाले काम करना है और शूद्रों का धर्म दूसरों की सेवा करनी है।

पर सबसे श्रेष्ठ धर्म यह है कि परमात्मा का स्मरण किया जाए। अगर कोई मनुष्य इस भेद को समझ ले, नानक उस मनुष्य का दास है, वह मनुष्य परमात्मा का रूप हो जाता है।

भाव: परमात्मा का नाम स्मरणा मानव-जीवन का असली फर्ज है, और, ये फर्ज हरेक मनुष्य के लिए सांझा है चाहे मनुष्य कैसी भी वर्ण का हो। स्मरण करने वाला मनुष्य परमात्मा का ही रूप हो जाता है।

एक क्रिस्नं त सरब देवा देव देवा त आतमह ॥ आतमं स्री बास्वदेवस्य जे कोई जानसि भेव ॥ नानक ता को दासु है सोई निरंजन देव ॥४॥

पद्अर्थ: एक क्रिस्नं = (कृष्ण = The Supreme Spirit) एक परमात्मा। सरब देव आतमा = सारे देवताओं की आत्मा। देवा देव आतमा = देवताओं के देवताओं की आत्मा। त = भी। बास्वदेवस्य = वासुदेवस्य, वासुदेव का, परमात्मा का। बास्वदेवस्य आतम = प्रभु की आत्मा। निरंजन = (निर्+अंजन। अंजन = कालख, मोह की कालिख) वह परमात्मा जिस पर माया के मोह की कालिख असर नहीं। को = का।

अर्थ: एक परमात्मा ही सारे देवताओं की आत्मा है, देवताओं के देवों की भी आत्मा है। जो मनुष्य प्रभु की आत्मा का भेद जान लेता है, नानक उस मनुष्य का दास है, वह मनुष्य परमात्मा का रूप है।4।

भाव: परमात्मा ही सारे देवताओं का देवता है, उसके साथ ही गहरी सांझ बनानी चाहिए।


महला ५ दे सहसक्रिती (संस्कृत का प्राक्रित–रूप) सलोकों का भाव

सलोक वार भाव:

मनुष्य के साथ सदा का साथ करने वाला सिर्फ परमात्मा का भजन ही है। कितने भी प्यारे रिश्तेदार हों किसी का भी साथ सदा के लिए नहीं हो सकता। माया भी यहीं धरी रह जाती है।

जो मनुष्य साधु-संगत में प्यार बनाते हैं, उनकी जिंदगी आत्मिक आनंद में बीतती है।

अजीब खेल बनी हुई है! ज्यों-ज्यों बुढ़ापा बढ़ता है त्यों-त्यों मनुष्य के अंदर माया का मोह भी बढ़ता जाता है। मनुष्य माया के मोह के कूएँ में गिरा रहता है। परमात्मा की कृपा ही इस कूएँ में से निकालती है।

इस शरीर की क्या पायां? पर आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित मनुष्य इसको सदा कायम रहने वाला मिथ बैठता है और परमात्मा को भुला देता है।

परमात्मा के दर पर पड़े रहने पर ही जीवन की सही समझ पड़ती है।

जिसका रखवाला परमात्मा स्वयं बने, उसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता।

पर, धुर-दरगाह से जिसकी चिट्ठी फटी हुई आ जाती है, वह अपनी रखवाली के भले ही जितने प्रयत्न करता फिरे, थोड़ा सा ही बहाना उसकी चोग सदा के लिए समाप्त कर देता है।

जो मनुष्य गुरु के शब्द को प्यार करके परमात्मा की महिमा करते हैंउनको परमात्मा हर जगह बसता दिखता है।

ये सारा जगत दिखाई देता जगत नाशवान है। सिर्फ विधाता परमात्मा ही अविनाशी है, और उसका स्मरण करने वाले बँदों का आत्मिक जीवन अटल रहता है।

जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, वह उसका नाम स्मरण करता है। नाम की इनायत से उसका जीवन ऐसा बन जाता है कि वह विकारों से सदा संकोच करता है, पर नेकी भलाई करने में थोड़ी सी भी ढील नहीं करता।

माया कई रंगों-रूपों में मनुष्य पर अपना प्रभाव डालती है। जो मनुष्य परमात्मा की शरण आता है, उस पर माया का जोर नहीं चल सकता।

जगत में दिखाई देती हरेक चीज़ का अंत भी है। सिर्फ परमात्मा ही मनुष्य के साथ निभ सकता है, और, यह स्मरण साधु-संगत के आसरे किया जा सकता है।

जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है, उसको सही जीवन की सूझ आ जाती है, उसका मन काबू में रहता है, और, वह सदा परमात्मा के दीदार में मस्त रहता है।

सबसे श्रेष्ठ विद्या है परमात्मा की याद। जिस मनुष्यों पर परमात्मा की कृपा होती है वे परमात्मा से सदा नाम-जपने की दाति माँगते रहते हैं।

परमात्मा का नाम जपने की इनायत से मनुष्य के अंदर ये निष्चय बन जाता है कि दया का समुंदर परमात्मा ही सबकी पालना करने वाला है।

परमात्मा की मेहर से जिस मनुष्य को साधु-संगत प्राप्त होती है वह माया की खातिर भटकने से बच जाता है वह विकारों में फसने से बच जाता है।

कोई बड़े से बड़े कठिन तप भी मनुष्य को माया के मोह से नहीं बचा सकते। प्राणों का आसरा सिर्फ गुरु-शब्द ही हो सकता है जो साधु-संगत में मिलता है।

परमात्मा के नाम का स्मरण पिछले किए हुए सारे कुकर्मों के संस्कारों का नाश कर देता है।

नाम जपने की इनायत से सही जीवन की विधि आ जाती है, मनुष्य का आचरण सुच्चा बन जाता है।

गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के दर से माँगी हरेक मुराद पूरी हो जाती है। परमात्मा सब दातें देने वाला है, देने के समर्थ है।

सर्व-व्यापक परमात्मा सबके दिलों की जानने वाला है, निआसरों को आसरा देने वाला है। उसके दर से उसकी भक्ति की दाति माँगते रहना चाहिए।

जिस पर परमात्मा मेहर करे वह उसका नाम स्मरण करता है। अपने उद्यम से मनुष्य भक्ति नहीं कर सकता।

जो मनुष्य सब दातें देने वाला परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं, वे इन नाशवान पदार्थों के मोह से बचे रहते हैं।

जगत में मल्कियतों और मौज-मेलों के कारण जो मनुष्य जीवन के अल्टे राह पर पड़ जाते हैं उनको अनेक जूनियों के दुख सहने पड़ते हैं।

जो मनुष्य परमात्मा की याद भुला देते हैं, वे शारीरिक तौर पर नरोऐ होते हुए भी अनेक आत्मिक रोग सहेड़ लेते हैं।

जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम जपने की आदत पड़ जाती है वह इसके बिना नहीं रह सकता।

जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है; दूसरों द्वारा अति सहना उसका स्वभाव बन जाता है।

परमात्मा का नाम स्मरण करने वाले मनुष्य पर किसी के द्वारा की गई कोई निरादरी अपना असर नहीं डाल सकती, कोई दुख-कष्ट अपना प्रभाव नहीं डाल सकता।

विनम्रता, स्मरण, शब्द की ओट -जिस मनुष्य के पास हर वक्त ये हथियार हैं, कामादिक विकार उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते।

जो मनुष्य परमात्मा का नाम स्मरण करता है वह परिवार के मोह में नहीं फसता।

साधु-संगत में टिक के मूर्ख मनुष्य भी सयाना बन जाता है क्योंकि वहाँ वह जीवन का सही रास्ता पा लेता है।

परमात्मा का नाम जपने से और हृदय में प्रभु-प्यार टिकाने से मनुष्य मोहनी माया के प्रभाव से बचा रहता है।

जो मनुष्य गुरु के बताए हुए रास्ते पर नहीं चलता, वह विकारों में लिप्त हुआ रहता है और चारों तरफ से उसे फिटकारें ही पड़ती हैं।

साधु-संगत का आसरा ले के जो मनुष्य सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता है, विकार उसके नजदीक नहीं फटक सकते।

दुनिया के पदार्थ मिलने मुश्किल बात नहीं परमात्मा का नाम कहीं सौभाग्य से मिलता है। मिलता है ये साधु-संगत में से; तब, जब परमात्मा स्वयं मेहर करे।

जो मनुष्य परमात्मा के हर जगह दर्शन करने लग जाए, उस पर विकार अपना प्रभाव नहीं डाल सकते।

जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम का सहारा मिल जाता है, वह जनम मरण के चक्करों में से निकल जाता है, आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटकती, दुनिया के कोई डर-सहम उस पर असर नहीं डाल सकते।

जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है उसको शांति-स्वभाव बख्शता है उसको पवित्र जीवन बख्शता है।

साधु-संगत ही एक ऐसी जगह है जहाँ मनुष्य को आत्मिक शांति हासिल होती है।

असली साधु वह मनुष्य है, सर्व-व्यापक परमात्मा के नाम की इनायत से जिस की आत्मिक अवस्था ऐसी बन जाती है कि उसके अंदर से मेर-तेर मिट जाती है परमात्मा की महिमा ही उसकी जिंदगी का सहारा बन जाती है माया और कामादिक विकार उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते।

दुनिया के भोगों के साथ-साथ दुनिया में अनेक सहम भी हैं जो परमात्मा के नाम से टूटने पर मनुष्य पर अपना प्रभाव डाले रखते हैं।

माया अनेक ढंगों से मनुष्य पर अपना प्रभाव डालती रहती है। जो मनुष्य साधु-संगत का आसरा ले के परमात्मा का भजन करता है वह उससे बचा रहता है।

परमात्मा ही सब जीवों को दातें देता है और देने के योग्य है। उसी का आसरा लेना चाहिए।

जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है वह साधु-संगत का आसरा ले के उसका नाम जपता है। यही है मनुष्य जीवन का उद्देश्य। नाम-जपने की बख्शिश से मनुष्य का जीवन पलट जाता है।

मोह जगत के सारे जीवों पर प्रभावी है इसकी मार से वही बचते हैं जो जगत के मालिक परमात्मा का आसरा लेते हैं परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं।

मनुष्य उच्च जाति के हों अथवा नीच जाति के, कामदेव सबको अपने काबू में कर लेता है। इसकी मार से वही बचता है जो साधु-संगत में टिक के परमात्मा का आसरा लेता है।

बली क्रोध के वश में आ के मनुष्य कई झगड़े खड़े कर लेता है, और अपना जीवन दुखी बना लेता है। इसकी मार से बचने के लिए परमात्मा की शरण ही एक-मात्र उपाय है।

लोभ के असर तले मनुष्य शर्म-हया छोड़ के अयोग्य करतूतें करने लग जाता है। परमात्मा के ही दर पर अरदासें कर के इससे बचा जा सकता है।

परमात्मा ही एक ऐसा हकीम है जो अहंकार के रोग से जीवों को बचाता है। अहंकार के वश हो के जीव अनेक वैरी सहेड़ लेता है।

हर वक्त परमात्मा का नाम ही स्मरणा चाहिए। वही संसारी जीवों के दुख नाश करने के समर्थ है।

संसार-समुंदर में से जिंदगी की बेड़ी सही-सलामत पार लंघाने का एक-मात्र तरीका है: साधु-संगत में रह के परमात्मा की महिमा की जाए।

परमात्मा ही मनुष्य के शरीर की जीवात्मा की हरेक तरह से रक्षा करने वाला है। जो मनुष्य उसकी भक्ति करते हैं उनके साथ वह प्यार करता है।

संसार, समुंदर की तरह है। इसमें अनेक विकारों की लहरें उठ रही हैं। जो मनुष्य परमात्मा का आसरा लेता है उसके आत्मिक जीवन को ये विकार तबाह नहीं कर सकते।

परमात्मा की भक्ति ही इन्सानी जिंदगी के सफर के लिए समतल रास्ता है। यह दाति साधु-संगत में से मिलती है।

जो मनुष्य साधु-संगत के द्वारा परमात्मा का आसरा ले के नाम स्मरण करता है वह मोह अहंकार आदि सारे बलवान विकारों का मुकाबला करने के योग्य हो जाता है।

निरे धार्मिक चिन्ह धारण करके भक्ति से वंचित रह के अपने आप को धर्मी कहलवाने वाला मनुष्य धर्मी नहीं है।

परमात्मा, भक्ति करने वालों के दिल में बसता है।

मनुष्य इस संसार-समुंदर के अनेक ही विकारों के घेरे में फसा रहता है। साधु-संगत का आसरा ले के जो मनुष्य परमात्मा का भजन करता है वही इनसे बचता है। पर यह दाति मिलती है परमात्मा की अपनी मेहर से।

जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, वह साधु-संगत में आ के उसका नाम स्मरण करता है।

भला मनुष्य वह है जो अंदर से भी भला है और बाहर से भी भला है। अंदर खोट रख के भलाई का दिखावा करने वाला मनुष्य भला नहीं है।

माया का मोह बहुत प्रबल है। बुढ़ापा आ के मौत सिर पर आवाज़ दे रही होती है, फिर भी मनुष्य परिवार के मोह में फसा रहता है। इस मोह से परमात्मा की याद ही बचाती है।

जीभ से परमात्मा का नाम जपना था, पर ये मनुष्य को चस्कों में ही उलझाए रखती है।

परमात्मा को भुला के दूसरों पर ज्यादतियां करने वाले अहंकारी मनुष्य से भला परमात्मा का नाम स्मरण करने वाला अति-गरीब मनुष्य है। अहंकारी का जीवन व्यर्थ जाता है, वह सदा ही ऐसे कर्म करता है कि उसे धिक्कारें पड़ती हैं।

जिस मनुष्य पर गुरु परमात्मा मेहर करता है, नाम-जपने की इनायत से उसका आत्मिक जीवन बहुत ऊँचा हो जाता है, विकारों का अंधेरा उसके नजदीक नहीं फटकता, उसकी जिंदगी गुणों से भरपूर हो जाती है।

परमात्मा का नाम स्मरण करने वाला मनुष्य ही ऊँची जाति का है उसकी संगति में और लोग भी कुकर्मों से बच जाते हैं। माया के मोह में फसा हुआ (ऊँची जाति का भी) मनुष्य व्यर्थ जीवन गवा लेता है।

अपने प्राणों की खातिर औरों का नुकसान करके पराया धन बरतने वाले मनुष्य की जिंदगी बुरे कर्मों की गंदगी में ही गुजरती है।

जो मनुष्य परमात्मा की याद में जुड़ा रहता है वह विकारों से बच जाता है, उसकी संगति करने वाले मनुष्य भी विकारों के पँजे में से निकल जाते हैं।

लड़ी-वार भाव:

(1 से 15) . मनुष्य के साथ सदा साथ निभने वाला साथी सिर्फ परमात्मा का नाम ही है। पर, आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित मनुष्य माया के मोह के कूएं में गिरा रहता है, और, असल साथी को भुलाए रखता है। माया कई रंगों-रूपों में मनुष्य पर अपना प्रभाव डालती है। जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर होती है उसको सही आत्मिक जीवन की सूझ आ जाती है, वह साधु-संगत की ओट ले के नाम स्मरण करता है।

(16 से 25) अपने उद्यम से मनुष्य भक्ति नहीं कर सकता। पिछले किए कर्मों के संस्कार उसी ही तरफ प्रेरते हैं। कोई बड़े से बड़े कठिन तप भी मनुष्य को माया के मोह से बचा नहीं सकते। जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, वह साधु-संगत की शरण ले के महिमा में जुड़ता है, और, इस तरह उसके पिछले किए सारे कुकर्मों के संस्कार मिट जाते हैं। शारीरिक तौर पर नरोए होते हुए भी अगर मनुष्य परमात्मा की याद भुलाता है, तो वह अनेक आत्मिक रोग सहेड़ी रखता है।

(26 से 44) परमात्मा के नाम जपने की इनायत से मनुष्य के अंदर ऊँचे आत्मिक गुण पैदा हो जाते हैं। किसी के द्वारा हुई कोई भी निरादरी उस पर असर नहीं डाल सकती, कोई विकार उसके नजदीक नहीं आ सकता, उसकी सहनशक्ति इतनी असीम हो जाती है कि दूसरों की ज्यादती सहने की उसे आदत पड़ जाती है।

ये दाति मिलती है साधु-संगत में से, और, मिलती है परमात्मा की मेहर से।

(45 से 55) काम क्रोध लोभ मोह अहंकार आदि विकार इतने बली हैं कि मनुष्य अपने प्रयासों से इनका मुकाबला नहीं कर सकता। इनकी मार से बच के संसार-समुंदर में से जिंदगी की बेड़ी सही-सलामत पार लंघाने का एक-मात्र तरीका है -साधु-संगत में रह के परमात्मा की महिमा। यही इन्सानी जिंदगी के सफर के लिए जीवन का समतल रास्ता है। पर ये मिलता है परमात्मा की अपनी मेहर से।

(56 से 67) निरे धार्मिक चिन्ह मनुष्य को विकारों का मुकाबला करने-योग्य नहीं बना सकते। अंदर खोट रख के भलाई का दिखावा मनुष्य को भला नहीं बना सकता। माया का मोह बहुत प्रबल है, इससे परमात्मा की याद ही बचाती है।

परमात्मा को भुला के दूसरों पर ज्यादती करने वाले अहंकारी मनुष्य से स्मरण करने वाला अति-गरीब व्यक्ति अच्छा है, वह ही ऊँची जाति वाला है, उसकी संगति में और लोग भी कुकर्मों से बच जाते हैं।

मुख्य भाव:

माया का मोह बहुत प्रबल है, इसके असर तले रह के मनुष्य विकारों में फस जाता है। विकारों से बचे रहने का एक-मात्र तरीका है: साधु-संगत में टिक के परमात्मा की महिमा करते रहना। ये दाति मिलती है परमात्मा की अपनी मेहर से।

नोट: ‘सहसक्रिती’ शब्द ‘संस’ का प्राक्रित–रूप है, जैसे शब्द ‘संशय का प्राक्रित रूप ‘सहसा’ है। सो, ये शलोक जिस का शीर्षक है ‘सहस क्रिती’ संस्कृत के नहीं हैं। शब्द ‘सहस–क्रिती’ शब्द संस्कृत का प्राक्रित रूप है। ये सारे शलोक प्राक्रित बोली के हैं।

पाठकों की सहूलत के लिए शब्दों के असल संस्कृत–रूप भी पदअर्थों में दे दिए गए हैं।


सलोक सहसक्रिती महला ५
ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥

कतंच माता कतंच पिता कतंच बनिता बिनोद सुतह ॥ कतंच भ्रात मीत हित बंधव कतंच मोह कुट्मब्यते ॥ कतंच चपल मोहनी रूपं पेखंते तिआगं करोति ॥ रहंत संग भगवान सिमरण नानक लबध्यं अचुत तनह ॥१॥

पद्अर्थ: कतं = कहाँ? च = और। बनिता = वनिता, स्त्री। बिनोद = आनंद, लाड प्यार। सुतह = (सुत:) पुत्र। हित = हितू, हितैषी। बंधव = रिश्तेदार। चपल = चंचल। पेखंते = देखते ही। करोति = करती है। रहंत = रहता है। लबध्यं = ढूँढ सकते हैं। अचुत = अविनाशी प्रभु (अच्युत)। तनह = (तन:) पुत्र। अचुत तनह = अविनाशी प्रभु के पुत्र, संत जन।

अर्थ: कहाँ रह जाती है माँ, और कहाँ रह जाता है पिता? और कहाँ रह जाते हैं स्त्री-पुत्रों के लाड-प्यार? कहाँ रह जाते हैं भाई मित्र और सन्बंधी? और कहाँ रह जाता है परिवार का मोह? कहाँ जाती है मन को मोहने वाली ये चंचल माया देखते-देखते ही छोड़ जाती है।

हे नानक! (मनुष्य के) साथ (सदा) रहता है भगवान का भजन (ही), और यह भजन मिलता है संत जनों से।1।

भाव: मनुष्य के साथ सदा का साथ करने वाला सिर्फ परमात्मा का भजन ही है। कितने भी प्यारे रिश्तेदार हों, किसी का भी साथ सदा के लिए नहीं हो सकता। माया भी यहीं धरी रह जाती है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh