श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सतिगुर विचि अम्रित नामु है अम्रितु कहै कहाइ ॥ गुरमती नामु निरमलुो निरमल नामु धिआइ ॥ अम्रित बाणी ततु है गुरमुखि वसै मनि आइ ॥ हिरदै कमलु परगासिआ जोती जोति मिलाइ ॥ नानक सतिगुरु तिन कउ मेलिओनु जिन धुरि मसतकि भागु लिखाइ ॥२५॥

पद्अर्थ: अंम्रित नाम = आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम। कहै = जपता है, उचारता है। कहाइ = जपाता है (औरों से)। निरमलुो = पवित्र। अंम्रित बाणी = आत्मिक जीवन देने वाली वाणी मैं। ततु = अस्लियत। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। मनि = मन में। परगासिआ = मिल जाता है। जोति = जिंद। मेलिओनु = उस (प्रभु) ने मिलाया है। धुरि = धुर दरगाह से। मसतकि = माथे पर। भागु = भाग्य, अच्छी किस्मत।25।

नोट: ‘निरमलुो’ में से अक्षर ‘ल’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द है ‘निरमलु’, यहां ‘निरमलो’ पढ़ना है।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा का) आत्मिक जीवन देने वाला नाम गुरु (के दिल) में बसता है, (गुरु स्वयं यह) अमृत नाम जपता है (व औरों से) जपाता है। गुरु की मति पर चलने से ही (यह) पवित्र नाम (प्राप्त होता है। गुरु की मति पर चल के ही मनुष्य यह) पवित्र-नाम जप (सकता है)।

हे भाई! (मनुष्य जीवन का) तत्व (हरि-नाम गुरु की) आत्मिक जीवन देने वाली वाणी से ही मिलता है, गुरु की शरण पड़ने से ही (हरि-नाम मनुष्य के) मन में आ बसता है (जिस मनुष्य के अंदर हरि-नाम आ बसता है, उसके) हृदय में कमल-फूल खिल उठता है, (उसकी) जिंद परमात्मा की ज्योति में मिली रहती है। पर, हे नानक! उस (परमात्मा) ने गुरु उन (मनुष्यों) को मिलाया, जिनके माथे पर (उसने) धुर-दरगाह से (ये) अच्छी किस्मत लिख दी।25।

अंदरि तिसना अगि है मनमुख भुख न जाइ ॥ मोहु कुट्मबु सभु कूड़ु है कूड़ि रहिआ लपटाइ ॥ अनदिनु चिंता चिंतवै चिंता बधा जाइ ॥ जमणु मरणु न चुकई हउमै करम कमाइ ॥ गुर सरणाई उबरै नानक लए छडाइ ॥२६॥

पद्अर्थ: मनमुख अंदरि = अपने मन के मुरीद मनुष्य के दिल में। अगि = आग। जाइ = दूर होती। कूड़ु = नाशवान पसारा। कूड़ि = नाशवान पसारे में। रहिआ लपटाइ = फसा रहता है। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। चिंतवै = सोचता रहता है। बधा = बँधा हुआ। जाइ = (जगत से) चल पड़ता है। न चुकई = नहीं खत्म होता। कमाइ = करता रहता है। उबरै = बचता है। नानक = हे नानक!।26।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के मुरीद मनुष्य के हृदय में तृष्णा की (आग जलती) रहती है, (उसके अंदर से माया की) भूख (कभी) दूर नहीं होती। हे भाई! (जगत का यह) मोह नाशवान पसारा है, (यह) परिवार (भी) नाशवान है, (पर, मन का मुरीद मनुष्य इस) नाशवान पसारे में (सदा) फसा रहता है, हर वक्त (माया के मोह की) सोचें सोचता रहता है, सोचों में बँधा हुआ (ही जगत से) चला जाता है, अहंकार के आसरे ही (सारे) काम करता रहता है (तभी तो उसका) जनम-मरण का चक्कर (कभी) खत्म नहीं होता। पर, हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर (वह मनुष्य भी मोह के जाल में से) बच निकलता है, गुरु (इस मोह-जाल में से) छुड़ा लेता है।26।

सतिगुर पुरखु हरि धिआइदा सतसंगति सतिगुर भाइ ॥ सतसंगति सतिगुर सेवदे हरि मेले गुरु मेलाइ ॥ एहु भउजलु जगतु संसारु है गुरु बोहिथु नामि तराइ ॥ गुरसिखी भाणा मंनिआ गुरु पूरा पारि लंघाइ ॥ गुरसिखां की हरि धूड़ि देहि हम पापी भी गति पांहि ॥ धुरि मसतकि हरि प्रभ लिखिआ गुर नानक मिलिआ आइ ॥ जमकंकर मारि बिदारिअनु हरि दरगह लए छडाइ ॥ गुरसिखा नो साबासि है हरि तुठा मेलि मिलाइ ॥२७॥

पद्अर्थ: सतिगुर भाइ = गुरु के प्यार में (टिक के)। सेवदे = शरण पड़ते हैं। भउजलु = संसार समुंदर। बोहिथ = जहाज। नामि = नाम से। तराइ = पार लंघा लेता है। गुरसिखी = गुरु के सिखों ने। भाणा = रज़ा, मर्जी। हरि = हे हरि! गति = उच्च आत्मिक अवस्था। पांहि = हम हासिल कर सकें। धुरि = धुर दरगाह से। मसतकि = माथे पर। गुर मिलिआ = गुरु को मिल गया। कंकर = किंकर, दास, सेवक। जम कंकर = जम के दास जमदूत (बहुवचन)। मारि = मार के। बिदारिअनु = (उस गुरु ने) खत्म कर दिए। नो = को। तुठा = प्रसन्न।27।

अर्थ: हे भाई! गुरु महापुरख साधु-संगत में गुरु के प्यार में टिक के परमात्मा का स्मरण करता रहता है। (जो मनुष्य) साधु-संगत में आ के गुरु की शरण पड़ते हैं, गुरु उनको परमात्मा में जोड़ देता है परमात्मा के साथ मिला देता है। (हे भाई! वैसे तो) यह जगत इस संसार में भयानक समुंदर है, पर गुरु-जहाज (शरण आए जीवों को) हरि-नाम में (जोड़ के इस समुंदर से) पार लंघा देता है। (जिस) गुरसिखों ने (गुरु का) हुक्म मान लिया, पूरा गुरु (उनको संसार-समुंदर से) पार लंघाता है।

हे हरि! हम जीवों को गुरसिखों के चरणों की धूल बख्श, ताकि हम विकारी जीव भी उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त कर सकें।

हे नानक! धुर-दरगाह से हरि-प्रभु का लिखा लेख (जिस मनुष्य के) माथे पर उघड़ पड़ता है वह मनुष्य गुरु को आ मिलता है। उस (गुरु) ने (सारे) जमदूत मार के खत्म कर दिए। (गुरु उसको) परमात्मा के दरगाह में सही स्वीकार करा लेता है।

हे भाई! गुरसिखों को (लोक-परलोक में) आदर-सत्कार मिलता है, प्रभु उन पर प्रसन्न हो के (उनको अपने साथ) मिला लेता है।27।

गुरि पूरै हरि नामु दिड़ाइआ जिनि विचहु भरमु चुकाइआ ॥ राम नामु हरि कीरति गाइ करि चानणु मगु देखाइआ ॥ हउमै मारि एक लिव लागी अंतरि नामु वसाइआ ॥ गुरमती जमु जोहि न सकै सचै नाइ समाइआ ॥ सभु आपे आपि वरतै करता जो भावै सो नाइ लाइआ ॥ जन नानकु नाउ लए तां जीवै बिनु नावै खिनु मरि जाइआ ॥२८॥

पद्अर्थ: गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। दिढ़ाइआ = (हृदय में) पक्का कर दिया। जिनि = जिस (गुरु) ने। विचहु = (जीव के) अंदर से। भरमु = भटकना। चुकाइआ = खत्म कर दिया। कीरति = महिमा। गाइ = (खुद) गा के। करि = पैदा कर के। मगु = रास्ता। मारि = मार के। लिव = तवज्जो, ध्यान। जोहि न सकै = ताक नहीं सकता। सचै नाइ = सदा कायम रहने वाले हरि नाम में। सभ = हर जगह। आपे = आप ही। वरतै = मौजूद है। जो भावै = जो जीव उसको अच्छा लगता है। नाइ = नाम में। नानकु नाउ लए = नानक हरि नाम लेता है। तां = तब। जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है। मरि जाइआ = आत्मिक मौत आई समझता है, मर जाता है।28।

अर्थ: हे भाई! (जिस) पूरे गुरु ने (जीव के अंदर सदा) परमात्मा का नाम पक्का किया है, जिस (पूरे गुरु) ने (जीव के) अंदर से भटकना (सदा) खत्म की है, (उस गुरु ने खुद) परमात्मा का नाम (स्मरण करके), परमात्मा की महिमा गा गा के (शरण आए मनुष्य के दिल में आत्मिक जीवन का) प्रकाश पैदा करके (उसको आत्मिक जीवन का सही) रास्ता (सदा) दिखाया है।

हे भाई! (पूरे गुरु से) अहंकार दूर करके (जिस मनुष्य के अंदर) एक परमात्मा की लगन लग गई, (उसने अपने) दिल में परमात्मा का नाम बसा लिया। गुरु की मति पर चलने के कारण जमराज भी (उस मनुष्य की ओर) ताक नहीं सकता, (वह मनुष्य) सदा-स्थिर हरि-नाम में (सदा) लीन रहता है। (उसको यह निश्चय बन जाता है कि) हर जगह कर्तार स्वयं ही स्वयं मौजूद है, जो मनुष्य उसको अच्छा लगने लगता है उसको अपने नाम में जोड़ लेता है।

हे भाई! दास नानक (भी जब परमात्मा का) नाम जपता है तब आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। भाई! परमात्मा के नाम के बिना तो जीव एक छिन में ही आत्मिक मौत सहेड़ लेता है।28।

मन अंतरि हउमै रोगु भ्रमि भूले हउमै साकत दुरजना ॥ नानक रोगु गवाइ मिलि सतिगुर साधू सजणा ॥२९॥

पद्अर्थ: भ्रमि = भटकना में। भूले = गलत रास्ते पर पड़े हुए हैं। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। दुरजन = दुराचारी मनुष्य, बुरे लोग। अंतरि = अंदर। गवाइ = दूर कर लेता है। मिलि = मिल के।29।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए दुराचारी मनुष्यों के मन में अहंकार का रोग (सदा टिका रहता है), इस अहंकार के कारण भटकना में पड़ कर वे (जीवन के) ग़लत रास्ते पड़े रहते हैं। हे नानक! (साकत मनुष्य भी) सज्जन साधु गुरु को मिल के (अहंकार का यह) रोग दूर कर लेता है।29।

गुरमती हरि हरि बोले ॥ हरि प्रेमि कसाई दिनसु राति हरि रती हरि रंगि चोले ॥ हरि जैसा पुरखु न लभई सभु देखिआ जगतु मै टोले ॥ गुर सतिगुरि नामु दिड़ाइआ मनु अनत न काहू डोले ॥ जन नानकु हरि का दासु है गुर सतिगुर के गुल गोले ॥३०॥

पद्अर्थ: गुरमती = गुरु की मति पर चल के। बोले = जपती रहती है। प्रेमि = प्रेम में। कसाई = खींची रहती है। हरि रंगि = हरि के (प्रेम-) रंग में। रती = रंगी हुई। चोले = (आत्मिक आनंद) पाती है। पुरखु = पति। न लभई = नहीं मिलता। टोलै = खोज के। सतिगुरि = सतिगुरु ने। दिढ़ाइआ = (दिल में) पक्का कर दिया। अनत = (अन्यत्र) और तरफ। अनत काहू = किसी भी और तरफ। गुल गोले = गोलों के गोलों का, दासों के दासों का।30।

अर्थ: हे भाई! (जो जीव-स्त्री) गुरु की मति पर चल कर (सदा) परमात्मा का नाम जपती रहती है, वह दिन-रात परमात्मा के प्यार में खिंची रहती है, परमात्मा (के नाम) में रति रहती है, वह परमात्मा के (प्रेम-) रंग में (आत्मिक आनंद) माणती रहती है।

हे भाई! मैंने सारा संसार तलाश के देख लिया है, परमात्मा जैसा पति (किसी और जगह) नहीं मिलता।

हे भाई! गुरु सतिगुरु ने (जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का) नाम पक्का कर दिया, (उसका) मन किसी भी और तरफ नहीं डोलता। हे भाई! दास नानक (भी) परमात्मा का दास है, गुरु सतिगुरु के दासों के दासों का दास है।30।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh