श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सरम खंड की बाणी रूपु ॥ तिथै घाड़ति घड़ीऐ बहुतु अनूपु ॥

पद्अर्थ: सरम = श्रम, उद्यम, मेहनत। सरम खण्ड की = उद्यम अवस्था में। बाणी = बनावट। रूप = सुंदरता। तिथै = इस मेहनत वाली अवस्था में। बहुत अनूप = (मन) बहुत सुंदर।

अर्थ: श्रम अवस्था की बनावट सुंदरता है (भाव, इस अवस्था में आ के मन दिनों दिन खूबसूरत बनना शुरू हो जाता है)। इस अवस्था में (नई) घाढ़त के कारण मन बहुत सुंदर घढ़ा जाता है।

ता कीआ गला कथीआ ना जाहि ॥ जे को कहै पिछै पछुताइ ॥

पद्अर्थ: ता कीआ = उस अवस्था की। कथीआ न जाहि = कही नहीं जा सकतीं। को = कोई मनुष्य। कहै = कहे, ब्यान करे। पिछै = बताने के बाद। पछुताइ = पछताए, पछताता है (क्योंकि वह ब्यान करने से अस्मर्थ रहता है)।

अर्थ: उस अवस्था की बातें ब्यान नहीं की जा सकतीं। यदि कोई मनुष्य बयान करता है, तो बाद में पछताता है (क्योंकि वह बयान करने से अस्मर्थ रहता है)।

तिथै घड़ीऐ सुरति मति मनि बुधि ॥ तिथै घड़ीऐ सुरा सिधा की सुधि ॥३६॥

पद्अर्थ: तिथै = उस श्रम खण्ड में। घड़ीऐ = घड़ी जाती है। मनि बुधि = मन में जागृति। सुरा की सुधि = देवताओं जैसी सूझ। सिधा की सुधि = सिद्धों वाली समझ।

अर्थ: उस मेहनत वाली अवस्था में मनुष्य की तवज्जो और मति घढ़ी जाती है, (भाव, श्रुति और मति ऊँची हो जाती है) और मन में जागृति पैदा हो जाती है। श्रम खण्ड में देवताओं और सिद्धों वाली बुद्धि (मनुष्य के भीतर) बन जाती है।36।

भाव: ज्ञान अवस्था की बरकत सेज्यों ज्यों सारा जगत एक सांझा परिवार दिखाई देने लगता है, जीव खलकत की सेवा की मेहनत (श्रम) की बीड़ा सिर पे उठाता है, मन की पहली तंगदिली हट के विशालता व उदारता की घाड़त में मन नए सिरे से सुंदर सा घड़ा जाता है, मन में एक नई जागृति आती है, अक़्ल ऊँची होने लगती है।36।

करम खंड की बाणी जोरु ॥ तिथै होरु न कोई होरु ॥
तिथै जोध महाबल सूर ॥ तिन महि रामु रहिआ भरपूर ॥

पद्अर्थ: करम = बख्शिश। बाणी = बनावट। जोरु = बल, ताकत। होरु = अकाल-पुरख के बिना कोई दूसरा। होरु न कोई होरु = अकाल-पुरख के बिना दूसरा बिल्कुल ही कोई नहीं है। जोध = योद्धे। महाबल = बड़े बल वाले। सूर = सूरमे। तिन महि = उन में। रामु = अकाल-पुरख। रहिआ भरपूर = नाको नाक भरा हुआ है, रोम रोम में बस रहा है।

अर्थ: बख्शिश, रहिमत वाली अवस्था की बनावट बल है, (भाव, जब मनुष्य पर अकाल-पुरख की मेहर की नज़र होती है, तो उसके अंदर ऐसा बल पैदा होता है कि विषय-विकार उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते), क्योंकि उस अवस्था में (मनुष्य के अंदर) अकाल-पुरख के बिना और कोई दूसरा बिल्कुल नहीं रहता। उस अवस्था में (जो मनुष्य हैं वह) योद्धे, महांबली व सूरमें हैं, उन के रोम रोम में अकाल-पुरख बस रहा है।

तिथै सीतो सीता महिमा माहि ॥ ता के रूप न कथने जाहि ॥
ना ओहि मरहि न ठागे जाहि ॥ जिन कै रामु वसै मन माहि ॥

पद्अर्थ: सीतो सीता = पूर्ण तौर पर सिला हुआ।

(नोट: यहां एक ही शब्द ‘सीता’ दूसरी बार प्रयोग किया गया है। इसी तरह इस ख्याल पे खास ज्यादा जार दिया गया है। एसे ही वाक्यांश और भी हैं, जैसे:

नानकु अंतु न अंतु।     {पउड़ी ३५}

तिथै होरु न कोई होरु।     {पउड़ी ३७}

जे को कथै त अंत न अंत।   {पउड़ी ३७})

महिमा = (अकाल-पुरख की) महिमा, वडियाई। माहि = बीच में। ता के = उन मनुष्यों के। रूप = सुंदर रूप। न कथने जाहि = कथन नहीं किए जा सकते। ओहि = वे लोग। ना मरहि = आत्मिक मौत नहीं मरते। ना ठागै जाहि = ना ही ठगे जा सकते है (माया उन को ठग नहीं सकती)।

अर्थ: उस (बख्शिश) अवस्था में पहुँचे हुए मनुष्य का मन पूरी तरह से अकाल-पुरख की वडिआईमें परोया रहता है, (उनके शरीर ऐसे कंचन सी चमक वाले हो जाते हैं कि) उनके सुंदर रूप का वर्णननहीं किया जा सकता। (उनके मुख पर नूर ही नूर लिशकारे मारता है)। (इस अवस्था में) मन में अकाल-पुरख बसता है, वे आत्मिक मौत नहीं मरतेऔर माया उनको ठग नहीं सकती।

तिथै भगत वसहि के लोअ ॥ करहि अनंदु सचा मनि सोइ ॥

पद्अर्थ: वसहि = बसते हैं। लोअ = लोक, भवन। के लोअ = कई भवनों के (देखें पउड़ी 34 में ‘के रंग’)। करहि अनंदु = आनन्द करते हैं, सदा खुश रहते हैं। सचा सोइ = वह सच्चा हरि। मनि = (उनके) मन में है।

अर्थ: उस अवस्था में कई भवनों के भक्तजन बसते हैं, जो सदा प्रसन्न रहते हैं, (क्योंकि) वह सच्चा अकाल पुरख उनके मन में (मौजूद) है।

सच खंडि वसै निरंकारु ॥ करि करि वेखै नदरि निहाल ॥

पद्अर्थ: सचि = सच में। सचि खंडि = सचखण्ड में। करि करि = सृष्टि रच के। नदरि निहाल = निहाल करने वाली नजर से। वेखै = देखता है, संभाल करता है।

अर्थ: सच खंड में (भाव, अकाल-पुरख के साथ एकरूप होने वाली अवस्था में) मनुष्य के अंदर वह अकाल-पुरख खुद ही बसता है, जो सृष्टि को रच रच के मेहर की नजर से उसकी संभाल करता है।

तिथै खंड मंडल वरभंड ॥ जे को कथै त अंत न अंत ॥
तिथै लोअ लोअ आकार ॥ जिव जिव हुकमु तिवै तिव कार ॥
वेखै विगसै करि वीचारु ॥ नानक कथना करड़ा सारु ॥३७॥

पद्अर्थ: वरभंड = ब्रह्मिण्ड। को = कोई मनुष्य। कथै = बताने लगे, बयान करे। त अंत न अंत = इन खण्डों मण्डलों तथा ब्रह्मिण्डों के अंत नहीं पाये जा सकते। लोअ लोअ = कई लोक, कई भवन। विगसै = विगसता है, खुश होता है। करि वीचारु = वीचार करके। कथना = कथन करना, बयान करना। सारु = इस शब्द को समझने के लिए उदाहरण के तौर पे नीचे लिखे प्रमाण दिए जा रहे हैं:

• पहिरा अगनि हिवै घरु बाधा भोजन सारु कराई।१। (पउड़ी१९,माझ की वार)

• तूँ सागरो रतनागरो हउ सार न जाणा तेरी राम। (सूही छंत महला ५)

लाहा भगति सु सारु गुरमुखि पाईऐ।     (माझ की वार पउड़ी १५)

धनु वडभागी नानका, जिन गुरमुखि हरि रसु सारि।१। (कानड़े की वार)

इन ऊपर दिए प्रमाणों का निर्णय इस प्रकार है:

‘सारु’ संज्ञा है, पुलिंग व स्त्रीलिंग।

‘सारु’ पुलिंग का अर्थ है: ‘लोहा’ या ‘तत्व’

‘सार’ स्त्रीलिंग का अर्थ है: ‘सूझ, खबर’।

जैसे प्रमाण नं: 1 और 2 में।

‘सार’ विशेषण है, जैसे प्रमाण नं: 3 में, यहाँ इसका अर्थ है: ‘श्रेष्ठ’।

‘सारि’ क्रिया है, जिस का अर्थ है: ‘खबर लेनी’, ‘याद करना’। जैसे प्रमाण नं: 4 में।

सारु = लोहा। करड़ा सारु = सख्त जैसे लोहा है।

अर्थ: उस अवस्था में (भाव, अकाल-पुरख के साथ एकरूप होने वाली अवस्था में) मनुष्य को बेअंत खण्ड, मण्डल व बेअंत ब्रह्मिण्ड (दिखाई देते हैं, इतने बेअंत कि) यदि कोई मनुष्य उनका कथन करने लगे, तो उसकी कमी नहीं पड़ सकती,कभी ना खत्म होने वाला सिलसिला। उस अवस्था में बेअंत भवन तथा आकार दिखाई देते हैं (जिस सभी में) उसी तरह कार-व्यवहार चल रहा है जिस तरह अकाल-पुरख का हुक्म होता है (भाव, इस अवस्था में पहुँच के मनुष्य को हर जगह अकाल-पुरख की रजा वर्तती दिखती है)। (उसको प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि) अकाल-पुरख विचार करके (सभ जीवों की) संभाल करता है और खुश होता है। हे नानक! इस अवस्था का कथन करना बहुत मुश्किल है (भाव, ये अवस्था बयान नहीं हो सकती, अनुभव ही की जा सकती है बस!)।37।

भाव: परमात्मा के साथ एक-रूप हो चुकने वाली आत्मिक अवस्था में पहुँचे जीव के ऊपर प्रमात्मा की रहिमत का दरवाजा खुलता है, उसको सब अपने ही अपने नजर आते हैं, हर तरफ प्रभु ही नज़र आता है। ऐसे मनुष्य की तवज्जो हमेशा प्रभु की महिमा में जुड़ी रहती है। अब माया इसे ठग नहीं सकती। आत्मा बलवान हो जाती है, प्रभु से दूरी पैदा नहीं हो सकती। अब उसे प्रत्यक्ष प्रतीत होने लगता है कि बेअंत कुदरत रच के ईश्वर सभी को अपनी मर्जी से चला रहा है, तथा सब पे मिहर की नज़र कर रहा है।37।

जतु पाहारा धीरजु सुनिआरु ॥ अहरणि मति वेदु हथीआरु ॥

पद्अर्थ: जतु = अपनी शारीरिक इन्द्रियों को विकारों से रोक के रखना। पाहारा = सुनियारे की दुकान। सुनिआरु = सोनार। अहिरण = सोना ढालने वाला आधार। मति = अक्ल, बुद्धि। वेदु = ज्ञान। हथिआर = हथौड़ा।

नोट: शब्द ‘वेद’ नीचे लिखी तुकों में जपुजी साहिब में प्रयोग में आया है:

गुरमुखि नादं, गुरमुखि वेदं, गुरमुखि रहिआ समाई।   (पउड़ी ५)

सुणिऐ सासत सिंम्रिति वेद।           (पउड़ी ९)

असंख गरंथ मुखि वेद पाठ।           (पउड़ी (१७)

ओड़क ओड़क भालि थके, वेद कहनि इक वात।     (पउड़ी २२)

आखहि वेद पाठ पुराण।             (पउड़ी २६)

गावनि पंडित पढ़नि रखीसर, जुग जुग वेदा नाले।   (पउड़ी २७)

पउड़ी नं 5 वाली तुक के बिना बाकी सब पउड़ियों में शब्द ‘वेद’ बहुवचन में है और हिन्दू मत की धर्म पुस्तकों ‘वेदों’ की ओर इशारा है। पर पउड़ी नं: 5 में ‘वेदं’ एकवचन है और अर्थ है: ‘ज्ञान’। पर ये जरूरी नहीं है कि जहाँ जहाँ शब्द ‘वेद’ एकवचन में आया है, वहाँ उसके अर्थ ‘ज्ञान’ ही हों। बहुत शब्द ऐसे हैं, जहाँ ‘वेद’ एकवचन होते हुए भी हिन्दू मत की धर्म पुस्तक वेद ही है। पर प्रकरण को विचारना भी जरूरी है।

इस पउड़ी में ‘जतु’, ‘धीरज’, ‘मति’, ‘भउ’, ‘तपताउ’, और ‘भाउ’ भाव-वाचक शब्द आए हैं, इस वास्ते शब्द ‘वेद’ भी उनके साथ मिलता जुलता (‘ज्ञान’ अर्थ) भाव-वाचक ही हो सकता है।

अर्थ: (यदि) जत-रूप दुकान (हो), धैर्य सोनार बने, मनुष्य की अपनी बुद्धि अहिरण हो, (उस मति अहिरण पर) ज्ञान का हथौड़ा (चोट करे)।

भउ खला अगनि तप ताउ ॥
भांडा भाउ अम्रितु तितु ढालि ॥ घड़ीऐ सबदु सची टकसाल ॥

भउ: ‘भउ’ शब्द को यहाँ ध्यान से विचारने की जरूरत है।

‘जपुजी’ साहिब में ये शब्द दो बार आया है, मूलमंत्र में ‘निरभउ’ और पउड़ी नं: 38 में ‘भउ’।

संस्कृत का शब्द ‘भय’ है। पर सत्गुरू जी इसको ‘भउ’ लिखते हैं। आर्या समाज जैसी पढ़ी-लिखी श्रेणी के मुखी स्वामी दयानंद इस भउ शब्द को सामने रख के, अपनी विद्या के आधार पे, गुरु नानक साहिब को अनपढ़ लिख गए हैं। संस्कृत विद्या की जानकारी के आधार पर वे लिखते हैं कि गुरु नानक साहिब अगर संस्कृत जानते होते तो ‘भय’ को ‘भउ’ ना लिखते।

इस पुस्तक का इस विषय के साथ कोई संबंध नहीं कि गुरु नानक साहिब की संस्कृत विद्या का सबूत दिया जाए, क्योंकि इस बात की तो जरूरत ही नहीं थी कि गुरु नानक साहिब अपने समय के जीवों को संस्कृत बोली में उपदेश देते या संस्कृत की धार्मिक पुस्तकों का उपदेश दृढ़ करवाते। अकाल-पुरख की ओर से वे जो संदेश ले के आए थे, वह उन्होंने उस बोली में सुनाना था और सुनाया, जो इस समय इस देश के लोगों में प्रचलित थी।

बोली हमेशा बदलती आई है। वेदों की संस्कृत बदल के और हो गई। संस्कृत बदल के प्राकृत बन गई। प्राकृत से पंजाबी बनती गई। गुरु नानक साहिब के समय की पंजाबी भी अब ना रही, बदल गई है। इस वास्ते स्वामी दयानंद गुरु नानक साहिब की शान में दुखदाई शब्द लिखने की जगह अगर ये देखते कि देश की बोली उस समय कौन सी थी तो यह भूल ना करते।

संस्कृत, प्राकृत और पंजाबी के शब्दों की खोज के आधार पे बेअंत शब्द पेश किए जा सकते हैं, जहाँ ये प्रत्यक्ष रूप से साबित हो जाता हैकि कैसे संस्कृत शब्द बदल कर पंजाबी में नया रूप धारण करते गए।

नोट: इस विचार को विस्थार से समझने के लिए पढ़िए मेरी पुस्तक “गुरबाणी के इतिहास बारे” के पन्ना 43 से 61 तक।

पद्अर्थ: भउ = अकाल-पुरख का डर। खला = खलां, धौंकनी, फूकनी (जिससे सोनारे फूक मार के आग सुलगाते हैं)। भाउ = प्रेम। अंम्रितु = अमृत: अकाल-पुरख का अमर करने वाला नाम। तितु = उस बरतन में। घढ़ीऐ = घढ़ा जाता है। घढ़ीऐ शबद = शब्द ढाला जाता है। सची टकसाल = ऊपर वर्णित सच्ची टकसाल में।

नोट: जत, धीरज (धैर्य), मति, ज्ञान, भय (भउ), तपताउ और भाउ (भाव, भावना) की मिश्रित सच्ची टकसाल में गुर-शब्द की मोहर घढ़ी जाती है, (भाव, जिस ऊँची आत्मिक अवस्था में कोई शब्द गुरु जी ने उचारा है, सिख को भी वह शब्द उसी अवस्था में ले पहुँचता है), (झूठ की दीवार तोड़ देता है) यदि जत धीरज आदि वाला जीवन बन जाएं टकसाल; वह जगह जहाँ सरकारी रुपए सिक्के घढ़े जाते हैं।

अर्थ: (यदि) अकाल-पुरख का डर धौंकनी (हो), मेहनत आग (हो), प्रेम कुठाली हो, तो (हे भाई!) उस (कुठाली) में अकाल-पुरख का अमृत साथ गलाओ, (क्योंकि ऐसी ही) सच्ची टकसाल में (गुरु का) शब्द घढ़ा जा सकता है।

जिन कउ नदरि करमु तिन कार ॥ नानक नदरी नदरि निहाल ॥३८॥

पद्अर्थ: जिन कउ = जो मनुष्यों पर। नदरि = मेहर की नज़र। करमु = बख्शिश। तिन कार = उन मनुष्यों की ही ये कार (कार्यशैली/कार्य-व्यवहार) है (भाव, वे मनुष्य जो ऊपर बताई गई टकसाल तैयार करके शब्द की घाढ़त घढ़ते हैं)। निहाल = प्रसन्न, खुश, आनन्द। नदरी = मिहर की नजर करने वाला प्रभु।

अर्थ: ये कार्य-व्यवहार उन्हीं मनुष्यों का ही है, जिस पे मेहर की नजर होती है। हे नानक! वे मनुष्य अकाल-पुरख की कृपा-दृष्टि से निहाल हो जाते हैं।38

भाव: पर ऐसी उच्च आत्मिक अवस्था तभी बन सकती है जब आचरण पवित्र हो, दूसरों के आक्रामक रुख को बर्दाश्त करने का हौसला हो, ऊँची व विशाल समझ हो, प्रभु का भय हृदय में बना रहे, सेवा की मेहनत कमाई की जाए, ख़ालक व ख़लक का प्यार दिल में हो। ये जत, धैर्य, मति, ज्ञान, भय, मेहनत और प्रेम के गुणएक सच्ची टकसाल है जिसमें गुर-शब्द की मोहर घढ़ी जाती है (भाव, जिस ऊँची आत्मिक अवस्था में कोई शब्द सत्गुरू जी ने उचारा है, ऊपर बताए जीवन-शैली वाले सिख को भी वह शब्द उसी आत्मिक अवस्था में ले पहुँचता है)।38।

नोट: वाणी ‘जपु’ की कुल 38 पउड़ियां हैं, जो यहाँ समाप्त हुई हैं। पहले श्लाक में मंगलाचरण के तौर पर सत्गुरू जी ने अपने ईष्ट का स्वरूप बयान किया था। अगले आखिरी श्लोक में सारी वाणी ‘जपु’ का सिद्धांत बताया है।

सलोकु ॥
पवणु गुरू पाणी पिता माता धरति महतु ॥
दिवसु राति दुइ दाई दाइआ खेलै सगल जगतु ॥

पद्अर्थ: पवणु = हवा, स्वास, प्राण। महतु = बड़ी, विशाल। दिवसु = दिन। दुइ = दोनों। दिवसु दाइआ = दिन खिलावा है। राति दाई = रात खिलावी है। सगल = सारा।

अर्थ: प्राण (शरीर में इस प्रकार हैं जैसे) गुरु (जीवों की आत्मा के लिए) है। पानी (सभी जीवों का) पिता है और धरती (सबकी) बड़ी माँ है। दिन और रात दोनों खेल खिलाने वाला और खिलाने वाली हैं, सारा संसार खेल रहा है (भाव, संसार के सारे जीव रात को सोने में और दिन के कार्य-व्यवहार में परखे जा रहे हैं)

चंगिआईआ बुरिआईआ वाचै धरमु हदूरि ॥
करमी आपो आपणी के नेड़ै के दूरि ॥

पद्अर्थ: वाचै = परखता है, लिखे हुए को पढ़ता है। हदूरि = अकाल-पुरख की हजूरी में, अकाल-पुरख के दर पर। करमी = कर्मों अनुसार। के = कई जीव। नेड़ै = अकाल-पुरख के नज़दीक।

अर्थ: धर्मराज अकाल पुरख की हज़ूरी में (जीवों के किये हुए) सही कामों को विचारता है। अपने-अपने (इन किए हुये) कर्मों के अनुसार कई जीव अकाल-पुरख के नज़दीक हो जाते हैं और कई अकाल-पुरख से दूर रह जाते हैं।

जिनी नामु धिआइआ गए मसकति घालि ॥
नानक ते मुख उजले केती छुटी नालि ॥१॥

पद्अर्थ: जिनी = जो मनुष्यों ने। ते = वे मनुष्य। धिआइआ = ध्यान किया है, स्मरण किया है। मसकति = मुशक्कत, मेहनत। घालि = सफल करके। मुख उजले = उज्जवल चेहरे वाले। केती = कई जीव। छुटी = मुक्त हो गई, माया के बंधनों से रहित हो गई। नालि = उन (गुरमुखों) की संगत में।

अर्थ: हे नानक! जो मनुष्यों ने अकाल-पुरख का नाम स्मरण किया है, वे अपनी मेहनत सफल कर गये हैं। (अकाल-पुरख के दर पर) वे उज्जवल मुख वाले हैं और (और भी) कई जीव, उनकी संगत में (रह के) (‘कूड़ की पालि’ गिरा के माया के बंधनों से) आज़ाद हो गए हैं।1।

भाव: यह जगत एक रंग-भूमि है, जिस में जीव खिलाड़ी अपना अपना खेल खेल रहे हैं। हर एक जीव के खेल की परख पड़ताल बड़े ध्यान से की जा रही है। जो सिर्फ माया की खेल ही खेल गए, वो प्रभु से दूरी बनाते गए। पर जिन्होंने नाम जपने की खेल खेली, वे अपनी मेहनत सफल कर गये तथा और भी कई जीवों को इस सच्चे मार्ग पर डालते हुए स्वयं भी ईश्वर की हज़ूरी में सुर्ख़-रू हुए।

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सो दरु रागु आसा महला १
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सो दरु तेरा केहा सो घरु केहा जितु बहि सरब समाले ॥
वाजे तेरे नाद अनेक असंखा केते तेरे वावणहारे ॥
केते तेरे राग परी सिउ कहीअहि केते तेरे गावणहारे ॥

पद्अर्थ: केहा = कैसा? , आश्चर्य भरा। दरु = दरवाजा। जितु = जहाँ। बहि = बैठ के। सरब = सारे जीवों को। समाले = तूने संभाल की है, तू संभाल कर रहा है। नाद = आवाजें, शब्द, राग। वावणहारे = बजाने वाले। परी = राग परी, रागनियां। सिउ = समेत। परी सिउ = रागनियों समेत। कहिअहि = कहे जाते हैं।

अर्थ: (हे प्रभु!) तेरा वह घर और (उस घर का) वह दरवाजा बड़ा ही आश्चर्य भरा है जहाँ बैठ के तू सारे जीवों की संभाल कर रहा है। (तेरी इस रची हुई कुदरत में) अनेक और अनगिनत वाजे (संगीत-यंत्र) और राग हैं; बेअंत ही जीव (इन बाजों को) बजाने वाले हैं। रागनियों समेत बेअंत ही रागों के नाम लिए जाते हैं। अनेक ही जीव (इन राग रागनियों के द्वारा तुझे) गाने वाले हैं (तेरी तारीफ के गीत गा रहे हैं)।

गावनि तुधनो पवणु पाणी बैसंतरु गावै राजा धरमु दुआरे ॥
गावनि तुधनो चितु गुपतु लिखि जाणनि लिखि लिखि धरमु बीचारे ॥

पद्अर्थ: गावनि = गाते हैं। तुध नो = तुझे। बैसंतरु = आग। गावै = गाता है। राजा धरमु = धर्मराज। दुआरे = तेरे दर पे (हे निरंकार!)। चितु गुपतु = प्राचीन हिन्दू ख्याल चला आ रहा है कि ये दोनों व्यक्ति चित्र और गुप्त सारे जीवों के किए हुए अच्छे-बुरे कर्मों का लेखा लिखते रहते हैं। लिखि जाणहि = लिखना जानते हैं। धरमु = धर्म राज। लिखि लिखि = लिख लिख के, अर्थात, जो कुछ वह चित्रगुप्त लिखते रहते हैं।

नोट: ‘गावै’ एकवचन है, ‘गावनि’ बहुवचन।

अर्थ: (हे निरंकार!) पवन, पानी, अग्नि (आदि तत्व) तेरा गुण गान कर रहे हैं (तेरी मर्जी में चल रहे हैं)। धर्मराज तेरे दर पे (खड़ा होकर) तेरी स्तुति कर रहा है। वह चित्रगुप्त भी जो (जीवों के अच्छे-बुरे कर्मों के लेखे) लिखने जानते हैं और जिनके लिखे हुए को धर्मराज विचारता है, तेरी महानताओं का गुणगान कर रहे हैं।

गावनि तुधनो ईसरु ब्रहमा देवी सोहनि तेरे सदा सवारे ॥
गावनि तुधनो इंद्र इंद्रासणि बैठे देवतिआ दरि नाले ॥

पद्अर्थ: ईसरु = शिव। बरमा = ब्रह्मा। देवी = देवियां। सोहनि = सुशोभित होते हैं, सुंदर लगते हैं। सवारे = तेरे द्वारा सवाँरे हुए। इंद = इंद्र देवते। इदासणि = (इंद-आसणि) इंद्र के आसन पर। देवतिआं नाले = देवताओं के समेत।

अर्थ: (हे अकाल पुरख!) अनेक देवियां, शिव व ब्रह्मा, जो तेरे संवारे हुए हैं सदा (तेरे दर पे) शोभायमान होकर तुझे गा रहे हैं (तेरे गुण गा रहे हैं)। कई इंद्र देवते अपने तख्त पे बिराजमान देवताओं समेत तुझे गा रहे हैं (तेरी महिमा के गीत गा रहे हैं)।

गावनि तुधनो सिध समाधी अंदरि गावनि तुधनो साध बीचारे ॥
गावनि तुधनो जती सती संतोखी गावनि तुधनो वीर करारे ॥

पद्अर्थ: समाधी अंदरि = समाधि में लीन हो के। सिध = योग साधनाओं में लगे हुए योगी, वह व्यक्ति जो मनुष्य श्रेणी से ऊपर और देवताओं से नीचे। ये सिध पवित्रता के पुँज थे और आठों प्रकार की सिद्धियों के मालिक समझे जाते हैं। बिचारे = विचारि, विचार के। सती = दानी, दान करने वाले। वीर करारे = तगड़े शूरवीर।

अर्थ: (हे प्रभु!) सिद्ध लोग समाधियां लगा के तुझे गा रहे हैं। साधु जन (तेरे गुणों का) चिंतन कर कर के तुझे सालाह रहे हैं। जती, दानी और संतोषी पुरष भी तेरा गुणगान कर रहे हैं और (बेअंत) महाबली योद्धे तेरी ही वडिआईयां कर रहे हैं।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh