श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गावनि तुधनो पंडित पड़नि रखीसुर जुगु जुगु वेदा नाले ॥
गावनि तुधनो मोहणीआ मनु मोहनि सुरगु मछु पइआले ॥

पद्अर्थ: पढ़नि = पढ़ते हैं। रखीसर = (ऋषि ईसर) महाऋषि। जुग जुग = हरेक युग में, सदैव। वेदा नाले = वेदों समेत। मोहणीआं = सुंदर स्त्रीयां। मनु मोहनि = जो मन को मोह लेती हैं। मछ = मात लोक में। पइआले = पाताल में।

अर्थ: (हे प्रभु!) पण्डित और महाऋिषी जो (वेदों को) पढ़ते हैं। वेदों समेत तेरा ही यश गा रहे हैं। सुंदर स्त्रीयां जो (अपनी सुंदरता के साथ मनुष्य के) मन को मोह लेतीं हैं, तुझे गा रही हैं (भाव, तेरी सुंदरता का प्रकाश कर रही हैं)। स्वर्ग, मात लोक व पाताल लोक में (अर्थात, हर जगह के सारे ही जीव जन्तु) तेरी ही स्तुति के गीत गा रहे हैं।

गावनि तुधनो रतन उपाए तेरे अठसठि तीरथ नाले ॥
गावनि तुधनो जोध महाबल सूरा गावनि तुधनो खाणी चारे ॥
गावनि तुधनो खंड मंडल ब्रहमंडा करि करि रखे तेरे धारे ॥

पद्अर्थ: उपाए तेरे = तेरे पैदा किये हुए। अठसठि = अड़सठ की गिनती। तीरथ नाले = तीर्तों समेत। जोध = योद्धे। महाबल = महाबली। सूरा = शूरवीर,सूरमे। खाणी चारे = चारों खाणीआं, उत्पत्ति के चारों तरीके = अण्डज, जेरज, सेतज व उत्भुज। खाणी = खान, जिसकी खुदायी करके बीच में से धातुऐं, रतन आदि पदार्थ निकाले जाते हैं। (‘खन’ = ‘खुदायी करना’) पुरातन समय से ये ख्याल चला आ रहा है कि जगत के सारे जीव चार खाणियों से पैदा हुए हैं: अण्डा, जिउर (जेरज), पसीना व पानी की मदद से धरती में से अपने आप उग पड़ना। ‘चारे खाणी’ का यहाँ भाव है कि चारों ही खानों के जीव जन्तु, सारी रचना। खण्ड = टुकड़ा, ब्रहिमण्ड का टुकड़ा, भाव हरेक धरती। मण्डल = चक्कर, ब्रहिमण्ड का एक चक्कर, जिसमें एक सुरज, एक चंद्रमां व धरती आदिक गिने जाते हैं। वरभंडा = सारी सृष्टि। करि करि = बना के, रच के। धारे = धारित किए हुए, टिकाए हुए।

अर्थ: (हे निरंकार!) तेरे पैदा किए हुए रतन अढ़सठ तीर्तों समेत तुझे ही गा रहे हैं। महाबली योद्धे व शूरवीर (तेरा दिया बल दिखा के) भी तेरी ही (ताकत की) सिफतिकर रहे हैं। चारों खानों के जीव-जन्तु तुझे गा रहे हैं। सारी सृष्टि, सृष्टि के सारे खण्ड और चक्कर, जो तूने पैदा करके टिका रखे हैं, तुझे ही गाते हैं।

सेई तुधनो गावनि जो तुधु भावनि रते तेरे भगत रसाले ॥
होरि केते तुधनो गावनि से मै चिति न आवनि नानकु किआ बीचारे ॥

पद्अर्थ: सेई = वही जीव। तुधु भावनि = तुझे अच्छे लगते हैं। रते = रंगे हुए, प्रेम में मस्त। रसाले = रस+आलय, रस का घर, रसिए। होरि केते = अनेक और जीव। मै चिति = मेरे चित्त में। मै चिति न आवनि = मेरे चित्त में नहीं आते, मुझसे गिने नहीं जा सकते, मेरे विचारों से परे हैं। किआ बिचारे = क्या विचार कर सकते हैं?

नोट: शब्द ‘होरि’ है ‘होर’ का बहुवचन है।

अर्थ: (हे प्रभु!) असल में तो वही बंदे तेरी महिमा करते हैं (भाव, उनकी ही महिमा सफल है) जो तेरे प्रेम में रंगे हुए हैं और तेरे रसिए भक्त हैं। वही बंदे तुझे प्यारे लगते हैं। अनेक और जीव तेरी बड़ाई कर रहे हैं, जो मुझसे गिने भी नहीं जा सकते। (भला, इस गिनती के बारे में) नानक क्या विचार कर सकता है? (नानक यह विचार करने के लायक नहीं हैं)।

सोई सोई सदा सचु साहिबु साचा साची नाई ॥
है भी होसी जाइ न जासी रचना जिनि रचाई ॥

पद्अर्थ: सचु = स्थिर रहने वाला, अटल। नाई = वडियाई, महानता।

अरबी शब्द ‘स्ना’। इस अरबी शब्द के पंजाबी में दो पाठ हैं: स्नाई, नाई।

‘जो किछु होइआ सभु किछु तुझ ते, तेरी सभ असनाई’, इसी तरह संस्कृत के शब्दों से;

स्थान – असथान, थान

स्नान – असनान, न्हान

स्तंभ – असथंभ, थंभ

स्नेह – असनेह, नेह

स्थिर – असथिर, थिर

स्थल – असथल, तल

(देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)

नोट: शब्द ‘साचा’ पुलिंग है और ‘साहिब’ का विशेषण है। शब्द ‘साची’ सत्रीलिंग है और ‘नाई’ का विशेषण है। इस तुक के पाठ में विरामों का ध्यान रखना है।

होसी = होवेगा, स्थिर रहेगा। जाइ न = पैदा नहीं होता। न जासी = ना ही मरेगा। जिनि = जिस (प्रभु) ने। रचाई = पैदा की है।

अर्थ: जिस (प्रभु) ने यह सृष्टि पैदा की है, वह इस वक्त मौजूद है तथा सदाकायम रहने वाला है। वह मालिक प्रभु सदा कायम रहने वाला है। उसकी महानता भी सदा कायम रहने वाली है।

रंगी रंगी भाती करि करि जिनसी माइआ जिनि उपाई ॥
करि करि देखै कीता आपणा जिउ तिस दी वडिआई ॥

पद्अर्थ: रंगी रंगी = रंगों रंगों की, कई रंगों की। भाती = कई किस्मों की। करि करि = पैदा कर के। जिनसी = कई जिन्सों की। जिनि = जिस अकाल-पुरख ने। उपाई = पैदा की। करि करि = पैदा करके। देखै = संभाल करता है। कीता आपणा = अपना रचा हुआ जगत। जिउ = जैसे। वडिआई = रज़ा।

अर्थ: जिस अकाल-पुरख ने कई रंगों, किस्मों, जिनसों की माया रच दी है, वह जैसे उसकी रज़ा है, जगत को पैदा करके अपने पैदा किये हुए की संभाल कर रहा है।

जो तिसु भावै सोई करसी फिरि हुकमु न करणा जाई ॥
सो पातिसाहु साहा पतिसाहिबु नानक रहणु रजाई ॥१॥

पद्अर्थ: तिसु भावै = उसको अच्छा लगता है। करसी = करेगा। न करणा जाई = नहीं किया जा सकता। साहा पति साहिबु = शाहों का बादशाह मालिक। रहणु = रहना (फबदा है), रहना फबता है। रजाई = अकाल-पुरख की रजा में।

अर्थ: जो कुछ अकाल-पुरख को भाता है, वह वही करता है। कोई भी जीव अकाल-पुरख को आगे से हैंकड़ नहीं दिखा सकता (उसे ये नहीं कह सकता कि “तू एैसे कर, एैसे ना कर”)। अकाल-पुरख बादशाह है, बादशाहों का भी बादशाह है। हे नानक! (जीवों का) उसकी रजा में रहना (ही फबता है)।1।

नोट: पवन, पानी, बैसंतर (अग्नि) आदिक अचेतन पदार्थ भी प्रभु की महिमा कर रहे हैं। इस का भाव ये है कि उसके पैदा किये हुए सारे तत्व भी उसी की रज़ा में चल रहे हैं। रज़ा में चलना ही उसकी महिमा करना है। (1430पन्ने वाली बीड़, पंना 9)

आसा महला १ ॥ सुणि वडा आखै सभु कोइ ॥ केवडु वडा डीठा होइ ॥ कीमति पाइ न कहिआ जाइ ॥ कहणै वाले तेरे रहे समाइ ॥१॥

पद्अर्थ: सुणि = सुन के। सभु कोइ = हरेक जीव। केवडु = कितना। डीठा = देखने से ही। होइ = (बयान) हो सकता है, कहा जा सकता है। कीमति = मुल्य, बराबर की चीज। कीमति पाइ न = मुल्य नहीं पाया जा सकता, उसके बराबर की कोई हस्ती नहीं बताई जा सकती। रहे समाइ = लीन हो जाते हैं।।।

अर्थ: हरेक जीव (औरों से) सिर्फ सुन के (ही) कह देता है कि (हे प्रभु!) तू बड़ा है। पर तू कितना बड़ा है (कितना बेअंत है) - ये बात सिर्फ तेरे दर्शन करके ही बताई जा सकती है। (तेरा दर्शन करके ही बताया जा सकता है कि तू कितना बेअंत है)। तेरे बराबर का और कोई नहीं कहा जा सकता, तेरे स्वरूप का बयान नहीं किया जा सकता। तेरी वडियाई कहने वाले (तेरा गुणगान करने वाले) बल्कि (स्वै को भुला के) तेरे में (ही) लीन हो जाते हैं।1।

वडे मेरे साहिबा गहिर ग्मभीरा गुणी गहीरा ॥ कोइ न जाणै तेरा केता केवडु चीरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गहिर = हे गहिरे! गंभीरा = हे बड़ जिगरे वाले! गुणी गहीरा = हे गहिरे गुणों वाले! हे बेअंत गुणों के मालिक! चीरा = पाट, चौड़ाई, विस्थार।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे बड़े मालिक! तू (मानों, एक) गहरा (समुंदर) है, तू बड़े जिगरे वाला है, तू बेअंत गुणों वाला है। कोई भी जीव नहीं जानता कि तेरा कितना बड़ा विस्तार है।1। रहाउ।

सभि सुरती मिलि सुरति कमाई ॥ सभ कीमति मिलि कीमति पाई ॥ गिआनी धिआनी गुर गुरहाई ॥ कहणु न जाई तेरी तिलु वडिआई ॥२॥

पद्अर्थ: सभि मिलि = सभी ने मिल के, सभी ने एक दूसरे की सहायता लेकर। सुरती = तवज्जो, ध्यान। सुरती सुरति कमाई = बारंबार समाधी लगाई। सभ कीमति....पाई = सभने मिल के कीमत लगाई। गिआनी = विचारवान, ऊँची समझ वाले। धिआनी = ध्यान जोड़ने वाले। गुर = वडे। गुर हाई = गुरभाई, बड़ों के भाई, ऐसे और कोई बड़े। गुर गुरहाई = कई बड़े बड़े प्रसिद्ध (ये शब्द ‘गुर गुरहाई’ शब्द ‘गिआनी धिआनी’ का विशेषण है)। तिलु = तिल जितना भी।2।

अर्थ: (तू कितना बड़ा है, ये ढूँढने के लिए) समाधियां लगाने वाले कई बड़े-बड़े प्रसिद्ध योगियों ने ध्यान जोड़ने के यत्न किये, बारंबार प्रयत्न किये। बड़े-बड़े प्रसिद्ध (शास्त्र-वेक्ताओं) विचारवानों ने आपस में एक दूसरे की सहायता ले कर, तेरे बराबर की कोई हस्ती तलाशने की कोशिश की, पर तेरी महानता का एक तिल जितना हिस्सा भी नहीं बता सके।2।

सभि सत सभि तप सभि चंगिआईआ ॥ सिधा पुरखा कीआ वडिआईआ ॥ तुधु विणु सिधी किनै न पाईआ ॥ करमि मिलै नाही ठाकि रहाईआ ॥३॥

पद्अर्थ: सभि सत = सारे भले काम। तप = कष्ट, मुश्किलें। चंगिआईआं = अच्छे गुण। सिध = जीवन वाले सफल मनुष्य। सिधी = सफलता, कामयाबी। करमि = (तेरी) मेहर से, बख्शिश से। ठाकि = वर्ज के, रोक के।3।

अर्थ: (विचारवान क्या और सिद्ध योगी क्या? तेरी वडियाई का अंदाजा तो कोई भी नहीं लगा सका, पर विचारवानों के) सारे भले काम, सारे तप व सारे अच्छे गुण, सिद्ध लोगों की (रिद्धियां-सिद्धियां आदिक) बड़े-बड़े काम - ये कामयाबी किसी को भी तेरी मदद के बिना हासिल नहीं हुई। (जिस किसी को सिद्धी प्राप्त हुई है) तेरी मेहर से प्राप्त हुई है। एवं, कोई और उस प्राप्ती के राह में बाधा नहीं डाल सका।3।

आखण वाला किआ वेचारा ॥ सिफती भरे तेरे भंडारा ॥ जिसु तू देहि तिसै किआ चारा ॥ नानक सचु सवारणहारा ॥४॥२॥

पद्अर्थ: सिफती = सिफतों से, गुणों से। चारा = जोर, तदबीर, प्रयत्न।4।

अर्थ: (हे प्रभु!) तेरे गुणों के (मानों) खजाने भरे हुए हैं। जीव की क्या बिसात है कि इन गुणों को बयान कर सके? जिसको तुम महिमा करने की दात बख्शते हो; उसकी राह में रुकावटें डालने में किसी का जोर नहीं चल सकता, (क्योंकि) हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तू सदा ही कायम रहने वाला प्रभु उस (भाग्यशाली) को संवारने वाला (स्वयं) ही है।4।2।

आसा महला १ ॥ आखा जीवा विसरै मरि जाउ ॥ आखणि अउखा साचा नाउ ॥ साचे नाम की लागै भूख ॥ उतु भूखै खाइ चलीअहि दूख ॥१॥

पद्अर्थ: आखा = कहूँ, (जब) मैं (हरि नाम) उचारता हूँ। जीवा = जीता हूँ, मैं जीअ जाता हूँ, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो जाता है। मरि जाउ = मैं मर जाता हूँ, (विकारों के कारण) मेरा आत्मिक जीवन समाप्त हो जाता है, मेरी आत्मिक मौत हो जाती है। साचा = सदा कायम रहने वाला। उतु = (शब्द ‘उस’ का कर्णकारक। ‘जिस’ से ‘जितु’)। उतु भूखै = उस भूख के कारण। खाइ = (नाम भोजन) खा के। चलिअहि = दूर हो जाते हैं।1।

अर्थ: (ज्यों ज्यों) मैं (प्रमात्मा का) नाम स्मरण करता हूँ, त्यों त्यों मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है। (पर जब मुझे प्रभु का नाम) भूल जाता है, मेरी आत्मिक मौत हो जाती है। (ये मालूम होते हुए भी) सदा कायम रहने वाले प्रमात्मा का नाम स्मरणा मुश्किल (काम लगता है)। (जिस मनुष्य के अंदर) सदा रहने वाले प्रभु के नाम जपने की चाहत पैदा हो जाती है उस ललक की बरकत से (हरि नाम भोजन) खा के उसके सारे दुख दूर हो जाते हैं।1।

सो किउ विसरै मेरी माइ ॥ साचा साहिबु साचै नाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: माइ = हे मां! नाइ = नाम के द्वारा। साचै नाइ = सदा कायम रहने वाले हरि नाम के द्वारा, ज्यों ज्यों सदा स्थिर रहने वाले हरि नाम को स्मरण करें। किउ विसरे = कभी ना विसरे।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरी माँ (प्रार्थना कर कि) वह प्रमात्मा मुझे कभी भी ना भूले। ज्यों ज्यों उस सदा कायम रहने वाले प्रभु का नाम स्मरण करते हैं, त्यों त्यों वह सदा कायम रहने वाला मालिक (मन में आ बसता है)।1। रहाउ।

साचे नाम की तिलु वडिआई ॥ आखि थके कीमति नही पाई ॥ जे सभि मिलि कै आखण पाहि ॥ वडा न होवै घाटि न जाइ ॥२॥

पद्अर्थ: तिलु = रत्ती भर भी। आखि = कह के, बयान करके। सभि = सारे जीव। आखणि पाहि = कहने का यत्न करे।2।

अर्थ: सदा कायम रहने वाले प्रभु के नाम की रत्ती जितनी भी महिमा बयान करके (सारे जीव) थक गये हैं (बयान नहीं कर सकते)। कोई भी नहीं बता सकता कि प्रमात्मा के बराबर की कौन सी हस्ती है। यदि (जगत के) सारे ही जीव मिल के (प्रभु की वडियाई) बयान करने का प्रयत्न करें, तो वह प्रभु (अपने असल से) बड़ा नहीं हो जाता, और (यदि कोई उसकी वडियाई ना भी करे), तो वह (पहले से) कम नहीं हो जाता। (उसे अपनी शोभा का लालच नहीं)।2।

ना ओहु मरै न होवै सोगु ॥ देदा रहै न चूकै भोगु ॥ गुणु एहो होरु नाही कोइ ॥ ना को होआ ना को होइ ॥३॥

पद्अर्थ: सोगु = अफसोस। देदा = देता। न चूकै = समाप्त नहीं होता। भोगु = उपयोग करना। गुण एहो = यही खूबी। को = कोई (और)। होआ = हुआ है। ना होइ = ना ही होगा।3।

अर्थ: वह प्रभु कभी मरता नहीं, ना ही (उसके खातिर) उसे शोक होता है। वह सदा (जीवों को रिजक देता है उसकी दी हुई दातों का कभी अंत नहीं होता है) (उसकी दातें बाँटने से कभी खत्म नहीं होतीं)। उसकी सबसे बड़ी खूबी ये है कि और काई भी उस जैसा नहीं है, (उस जैसा अभी तक) ना कोई हुआ है, ना ही कभी होगा।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh