श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 16 सचु सरा गुड़ बाहरा जिसु विचि सचा नाउ ॥ सुणहि वखाणहि जेतड़े हउ तिन बलिहारै जाउ ॥ ता मनु खीवा जाणीऐ जा महली पाए थाउ ॥२॥ पद्अर्थ: सरा = शराब। गुड़ बाहरा = गुड़ डाले बिना बनाया हुआ। वखाणहि = उच्चारते हैं। जेतड़े = जो जो मनुष्य। हउ = मैं। खीवा = मस्त। महली = प्रमात्मा की हजूरी में।2। अर्थ: सदा की मस्ती कायम रखने वाली शराब गुड़ के बिना ही तैयार की जाती है। उस (शराब) में प्रभु का नाम होता है (प्रभु का नाम ही शराब है जो दुनिया से बेपरवाह कर देता है)। मैं उन लोगों से सदके हूँ जो प्रभु का नाम सुनते व उचारते है। मन को तभी मस्त हुआ जानों, जब ये प्रभु की याद में टिक जाए (और मन टिकता है नाम जपने की बरकत से)।2। नाउ नीरु चंगिआईआ सतु परमलु तनि वासु ॥ ता मुखु होवै उजला लख दाती इक दाति ॥ दूख तिसै पहि आखीअहि सूख जिसै ही पासि ॥३॥ पद्अर्थ: नाउ = प्रभु का नाम। नीरु = (स्नान के लिए) पानी। चंगिआईआ = प्रभु के गुण, महिमा। सतु = उच्च आचरण। परमलु = सुगंधि। तनि = तन पे, तन में। वासु = सुगंधि। उजला = रौशन, साफ सुथरा। आखीअहि = कहे जाते हैं।3। अर्थ: प्रमात्मा का नाम व महिमा बाकी सभी दातों से बेहतर दात है। महिमा से ही मनुष्य का मुँह सुंदर लगता है। प्रभु के नाम और महिमा ही (मुख उज्जवल) करने के लिए पानी है, और (महिमा की बरकत से बना हुआ) स्वच्छ आचरण शरीर पर लगाने वाली सुगंधि है। दुखों की निर्वर्ती और सुखों की प्राप्ति की अरजोई परमात्मा के आगे ही करनी चाहिए।3। सो किउ मनहु विसारीऐ जा के जीअ पराण ॥ तिसु विणु सभु अपवित्रु है जेता पैनणु खाणु ॥ होरि गलां सभि कूड़ीआ तुधु भावै परवाणु ॥४॥५॥ पद्अर्थ: मनहु = मन से। जीअ = जिंद, जीवात्मा। पराण = श्वास, सांस। जीअ पराण = जिंद जान। जेता = जितना भी, सारा ही। कूड़ीआ = झूठ में फसाने वालियां, जगत के मोह में फसाने वालियां। परवाणु = स्वीकार, निपुण, अच्छी, स्वीकार करने योग्य।4। अर्थ: जिस प्रभु की बख्शी हुई ये जिंदगी हैं, उसे कभी मन से भुलाना नहीं चाहिये। प्रभु को विसार के, खाने-पीने का सारा ही उद्यम मन को और-और मलीन करता है। (क्योंकि) और सारी बातें (मन को) नाशवान संसार के मोहपाश में फंसाती हैं। (हे प्रभु!) वही उद्यम ठीक है जो तेरे साथ प्रीत बनाता है।4।5। भाव: प्रभु की याद भुलाने से जगत का मोह आ दबोचता है। मोह अधीन हो के किये काम मन को और मलीन करते जाते हैं। प्रभु का नाम सबसे ऊँची बख्शिश है, ये एक ऐसा उल्लास पैदा करता हैजिसके सदका मनुष्य मोह से विरक्त रह के स्वच्छ आचरण वाला हो जाता है और प्रभु की हजूरी में आदर प्राप्त करता है।5। सिरी रागु महलु १॥ (नोट: यहाँ शब्द ‘महला’ की जगह शब्द ‘महलु’ है। यदि शब्द ‘महला’ का उच्चारण: महला करें, तो शब्द ‘महलु’ का उच्चारण ‘महल’ करना पड़ेगा;और ‘महला’ और ‘महलु’ के अर्थ में फर्क प्रत्यक्ष है। सो, ठीक उच्चारण शब्द ‘बहरा’ ‘गहला’ की तरह है। ज्यादा जानकारी के लिए पढ़ें पुस्तक ‘गुरबाणी व्याकरण’)। सिरीरागु महलु १ ॥ जालि मोहु घसि मसु करि मति कागदु करि सारु ॥ भाउ कलम करि चितु लेखारी गुर पुछि लिखु बीचारु ॥ लिखु नामु सालाह लिखु लिखु अंतु न पारावारु ॥१॥ पद्अर्थ: जालि = जला के। घसि = घसा के। मसु = स्याही। सारु = बढ़िया। भाउ = प्रेम। पुछि = पूछ के। पारावार = पार+उरवार, उसपार इसपार का छोर।1। नोट: शब्द ‘मसु’ स्त्रीलिंग है व सदा ु की मात्रा के साथ अंत होता है। अर्थ: (हे भाई! माया का) मोह जला के (उसको) घिसा के स्याही बना के (अपनी) अक्ल को सुंदर कागज़ बना। प्रेम को कलम, और अपने मन को लिखारी बना। गुरु की शिक्षा ले के (परमात्मा के गुणों की) विचार करनी लिख। प्रभु का नाम लिख, प्रभु की महिमा लिख, यह लिख कि प्रभु के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, इस पार उसपार का आखिरी छोर नहीं ढूँढा जा सकता।1। बाबा एहु लेखा लिखि जाणु ॥ जिथै लेखा मंगीऐ तिथै होइ सचा नीसाणु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: लिखि जाणु = लिखने का तरीका सीख। नीसाणु = राहदारी, परवाना।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! ऐसा लेखा लिखने की विधि सीख। जिस जगह (जिंदगी में किये कामों का) हिसाब मांगा जाता है, वहाँ ये लेखा सच्ची राहदारी बनता है।1। रहाउ। जिथै मिलहि वडिआईआ सद खुसीआ सद चाउ ॥ तिन मुखि टिके निकलहि जिन मनि सचा नाउ ॥ करमि मिलै ता पाईऐ नाही गली वाउ दुआउ ॥२॥ पद्अर्थ: मिलहि = मिलती हैं। सद = सदा। तिन मुखि = उन बंदों के मुँह पर। निकलहि = लगते हैं। मनि = मन में। करमि = (परमात्मा की) मेहर से। गली वाउ दुआउ = हवाई फजूल की बातों से।2। अर्थ: जो मनुष्यों के मन में (प्रभु का) सदा स्थिर नाम बसता है (लेखा मांगे जाने वाली जगह) उनके माथे पे टीके लगते है, उन्हें आदर मिलता है। उन्हें हमेशा के लिए खुशियां और आत्म हुलारे मिलते हैं। पर प्रभु का नाम प्रभु की मेहर से मिलता है, फजूल की हवाई बातों से नहीं।2। इकि आवहि इकि जाहि उठि रखीअहि नाव सलार ॥ इकि उपाए मंगते इकना वडे दरवार ॥ अगै गइआ जाणीऐ विणु नावै वेकार ॥३॥ पद्अर्थ: इकि = कई जीव। रखीअहि = रखे जाते हैं। नाव = नाम। सलार = सरदार। इकना = कईयों ने। अगै = प्रमात्मा की हजूरी में। जाणीऐ = पता लगता है। वेकार = व्यर्थ।3। नोट: ‘नाव’ है ‘नाउ’ का बहुवचन। अर्थ: (संसार में) बेअंत जीव आते हैं (और जीवन सफर खत्म करके यहाँ से) कूच कर जाते हैं, (कईयों के) सरदार (आदि बड़े बड़े नाम) रखे जाते हैं, कई (जगत में) भिखारी ही पैदा हुए, कईयों के बड़े बड़े दरबार लगते है। (पर दरबारों वाले सरदार हों या कंगाल हों) जीवन सफर खत्म करने पर समझ आता है कि प्रमात्मा के नाम स्मरण के बिना (ये सभ) जीवन व्यर्थ (गवां जाते हैं)।3। भै तेरै डरु अगला खपि खपि छिजै देह ॥ नाव जिना सुलतान खान होदे डिठे खेह ॥ नानक उठी चलिआ सभि कूड़े तुटे नेह ॥४॥६॥ पद्अर्थ: भै तेरे = तेरे से भय करने से, तुझसे दूर रहने से। अगला = बहुत। खपि = खप के खिझ के। देह = शरीर। उठी चलीआ = उठ चलने वाले, उठ चलने से। सभि कूड़े नेह = सारे झूठे मोह प्यार।4। अर्थ: हे नानक! (कह, हे प्रभु!) तुमसे दूर दूर रहने पर संसार का तौखला और सताता है। (इस तौखले में) खिझ खिझ के शरीर भी जर्जर होता जाता है। (तेरी याद के बग़ैर धन-सम्पदा का भी क्या गर्व?) जिनके नाम खान सुल्तान हैं सभी यहाँ मिट्टी में मिल जाते हैं (जगत से जाने के वक्त सारे झूठे मोह प्यार खत्म हो जाते हैं)।4।6। नोट: आखिरी अंक 6 बताता है कि ये छेवें शब्द की समाप्ति है। भाव: असली साथ निभाने वाला पदार्थ प्रभु का नाम है। जो प्रभु की मेहर से गुरु द्वारा मिलता है। सरदारियां और बादशाहियां यहीं धरी धराई रह जाती हैं, प्रभु की याद से वंचित रह कर इनका कोई मुल्य नहीं पड़ता। सारी जिंदगी ही व्यर्थ चली जाती है। इस लिए, जगत का मोह छोड़ के प्यार के साथ प्रभु की महिमा हृदय में बसाओ। सिरीरागु महला १ ॥ सभि रस मिठे मंनिऐ सुणिऐ सालोणे ॥ खट तुरसी मुखि बोलणा मारण नाद कीए ॥ छतीह अम्रित भाउ एकु जा कउ नदरि करेइ ॥१॥ पद्अर्थ: सभि = सारे। रस = स्वाद। मंनीऐ = अगर (मन) मान जाए। सुणिऐ = अगर सुन ले, यदि ध्यान जुड़ जाए। सालोणे = नमकीन। खट तुरसी = खट्टे तुर्श। मुखि = मुंह से। मारण = मसाले। नाद = रागु, कीरतन। भाउ = प्रेम।1। अर्थ: अगर मन प्रभु की याद में परच जाए, तो इसको (दुनिया के) सारे मीठे स्वाद वाले पदार्थ समझो। यदि ध्यान हरि के नाम में जुड़ने लग जाए, तो इसे नमकीन पदार्थ जानो। मुंह के साथ प्रभु का नाम उचारना खट्टे स्वाद वाले पदार्तों जैसा है। परमात्मा की महिमा का कीरतन मसाले (के समान) जानो। परमात्मा के साथ एक रस प्रेम छत्तीस किस्मों के स्वादिष्ट भोजन हैं। (पर यह उच्च दात उसीको मिलती है) जिस पे (प्रभु मेहर की) नज़र करता है।1। बाबा होरु खाणा खुसी खुआरु ॥ जितु खाधै तनु पीड़ीऐ मन महि चलहि विकार ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बाबा = हे भाई! खुआर = जलील। जितु = जिसके द्वारा। जितु खाधै = जिस (पदार्थ) के खाने से। पीड़ीऐ = पीड़ा होती है, मुश्किल होती है। चलहि = चल पड़ते हैं।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जिस पदार्तों के खाने से शरीर रोगी हो जाता है, और मन में (भी कई) बुरे ख्याल चल पड़ते हैं, उन पदार्तों को खाने से खुआर होते है।1। रहाउ। रता पैनणु मनु रता सुपेदी सतु दानु ॥ नीली सिआही कदा करणी पहिरणु पैर धिआनु ॥ कमरबंदु संतोख का धनु जोबनु तेरा नामु ॥२॥ पद्अर्थ: रता = रंगा हुआ। सुपेदी = सफेद कपड़ा। सतु = दान। नीली = नीली पोशाक। सिआही = मन की कालख। कदा करणी = काट देनी। पहिरणु = जामा, पहनने वाला चोगा। कमर बंद = कमर पर बांधने वाला कपड़ा।2। अर्थ: प्रभु प्रीत में मन रंगा जाए, ये लाल पोशाक (समान) है। दान-पुण्य करना (जरूरतमंदों की सेवा करनी) ये सफेद पोशाक समझो। अपने मन में से कालख़ काट देनी नीले रंग की पोशाक समझो। प्रभु चरणों का ध्यान चोगा है। हे प्रभु! संतोष को मैंने अपनी कमर का पटका (कमरबंद) बनाया है, तेरा नाम ही मेरा धन है मेरी जवानी है।2। बाबा होरु पैनणु खुसी खुआरु ॥ जितु पैधै तनु पीड़ीऐ मन महि चलहि विकार ॥१॥ रहाउ॥ अर्थ: हे भाई! जिस पहनने से शरीर दुखी हो, और मन में भी बुरे ख्याल चल पड़ें, ऐसे पहनने का शौक और चाव खुआर करते हैं।1। रहाउ। घोड़े पाखर सुइने साखति बूझणु तेरी वाट ॥ तरकस तीर कमाण सांग तेगबंद गुण धातु ॥ वाजा नेजा पति सिउ परगटु करमु तेरा मेरी जाति ॥३॥ पद्अर्थ: पाखर = काठी। साखत = दुमची। तेरी वाट = तेरे चरणों तक पहुँचने का रास्ता। तरकस = तीर रखने वाला थैला (भत्था)। सांग = बरछी। तेगबंद = तलवार का गातरा। धातु = दौड़ भाग, प्रयत्न। पति = इज्जत। करमु = बख्शिश।3। अर्थ: हे प्रभु! तेरे चरणों में जुड़ने का जीवन-राह समझना (मेरे वास्ते) सोने की दुमची वाले और (सुंदर) काठी वाले घोड़ों की सवारी (के बराबर) है। तेरी महिमा का उद्यम करना (मेरे वास्ते) भत्थे, तीर कमान, बरछी और तलवार के गातरे के समान है। (तेरे दर पे) इज्जत के साथ आजाद होना (मेरे वास्ते) वाजा व नेजा हैं। तेरी मेहर (की नजर) मेरे लिए ऊँचा कुल (जाति) है।3। बाबा होरु चड़णा खुसी खुआरु ॥ जितु चड़िऐ तनु पीड़ीऐ मन महि चलहि विकार ॥१॥ रहाउ॥ अर्थ: हे भाई! जिस घुडसवारी के करने से शरीर दुखी हो, मन में (अहंकार आदि के) कई विकार पैदा हो जाएं, वह घुड़सवारी और उसका चाव खुआर करता है।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |