श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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इहु मनु साचि संतोखिआ नदरि करे तिसु माहि ॥ पंच भूत सचि भै रते जोति सची मन माहि ॥ नानक अउगण वीसरे गुरि राखे पति ताहि ॥४॥१५॥

पद्अर्थ: पंच भूत = पाँचों तत्व, सारा शरीर। गुरि = गुरु ने। ताहि = उसकी।4।

अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य की गुरु ने रक्षा की, उसको (लोक-परलोक) में इज्जत मिली। विकार उस से परे हट गये, उसका मन अडोल प्रभु में टिक के संतोष की धारणी हो जाता है। उस पे प्रभु की मेहर की नजर बनी रहती है। उसका सारा शरीर प्रभु की याद में प्रभु के अदब में रंगा रहता है। सदा स्थिर प्रभु की ज्योति सदा उसके मन में टिकी रहती है।4।15।

सिरीरागु महला १ ॥ नानक बेड़ी सच की तरीऐ गुर वीचारि ॥ इकि आवहि इकि जावही पूरि भरे अहंकारि ॥ मनहठि मती बूडीऐ गुरमुखि सचु सु तारि ॥१॥

पद्अर्थ: नानक = हे नानक! सच = सदा स्थिर प्रभु का नाम स्मरण। गुर वीचारि = गुरु की बताई विचार के द्वारा, गुरु के बताए उपदेश का आसरा ले के। इकि = अनेक जीव। पूर = बेअंत जीव (भरी हुई नाव के सारे मुसाफिरों के समूह को ‘पूर’ कहते हैं)। भरे अहंकारि = अहंकार से भरे हुए, अहंकारी। मन हठि = मन के हठ में। मन हठि मती = हठ बुद्धि से, अपनी अक्ल के हठ पे चलने से। गुरमुखि = वह मनुष्य जो गुरु का आसरा लेता है। तारि = तैरा लेता है,तैराना।1।

अर्थ: हे नानक! (संसार एक अथाह समुंदर है) अगर गुरु की शिक्षा पर चल के नाम जपने की किश्ती बना लें तो (इस संसार समुंदर से) पार हो सकते हैं। पर अनेक ही अहंकारी जीव है (जो अपनी ही अक्ल पे गर्व में रहके कुराहे पड़ के) पैदा होते हैं और मरते हैं (जनम मरन के चक्रव्यूह में फंसे रहते हैं) अपनी अक्ल के हठ पर चलने से (संसार समुंदर के विकारों में) मनुष्य डूबता ही है। जो मनुष्य गुरु की राह पर चलता है उस को परमात्मा पार लंघा लेता है।1।

गुर बिनु किउ तरीऐ सुखु होइ ॥ जिउ भावै तिउ राखु तू मै अवरु न दूजा कोइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: किउ तरीऐ = नहीं तैरा जा सकता।1। रहाउ।

अर्थ: गुरु की शरण के बिना ना ही (इस संसार समुंदर से) पार लांघ सकते है, ना ही आत्मिक आनंद ही मिलता है। (इस वास्ते, हे मन! प्रभु दर पे अरदास कर और कह: हे प्रभु!) जैसे भी हो सके तू मुझे (गुरु की शरण में) रख, (इस संसार सागर से पार लंघाने के वास्ते) मुझे कोई और (आसरा) नहीं सूझता।1। रहाउ।

आगै देखउ डउ जलै पाछै हरिओ अंगूरु ॥ जिस ते उपजै तिस ते बिनसै घटि घटि सचु भरपूरि ॥ आपे मेलि मिलावही साचै महलि हदूरि ॥२॥

पद्अर्थ: आगै = सामने की ओर। डउ = जंगल की आग। डउ जले = मसाणों की आग जल रही है,बेअंत जीव मर रहे हैं। हरिओ अंगूर = हरे नए नए कोमल पौधे, नवजन्मा बच्चा। जिस ते = जिस परमात्मा से। सचु = सदा-स्थिर प्रभु। मिलावही = (हे प्रभु!) तू मिला लेता है। महलि = महल में।2।

अर्थ: (जगत एक जंगल के समान है जिस में आगे आगे तो आग लगी हुई है जो पले पलाए बड़े बड़े वृक्षों को जलाती जा रही है; और पीछे पीछे नये नये कोमल पौधे उगते जा रहे हैं), पीछे पीछे नये कोमल बच्चे पैदा होते आ रहे हैं। जिस परमात्मा से यह जगत पैदा होता जाता है, उसी के (हुक्म) अनुसार नाश भी होता रहता है। और, सदा स्थिर प्रभु हरेक शरीर में प्रचुर लबलब भरपूर है। हे प्रभु! तू खुद ही जीवों को अपने चरणों में जोड़ता है, तू खुद ही अपने सदा स्थिर महल में हजूरी में रखता है।2।

साहि साहि तुझु समला कदे न विसारेउ ॥ जिउ जिउ साहबु मनि वसै गुरमुखि अम्रितु पेउ ॥ मनु तनु तेरा तू धणी गरबु निवारि समेउ ॥३॥

पद्अर्थ: साहि = साँस से। साहि साहि = हरेक साँस से। संमला = संमलां, मैं याद करूँ। मनि = मन में। पेउ = पीऊँ, मैं पीऊँ। धणी = मालिक, खसम। गरबु = अहंकार। निवारि = दूर करके। समेउ = समा जाऊँ, लीन रहूँ।3।

अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) मैं हरेक साँस के साथ तुझे याद करता रहूँ, तुझे कभी भी ना भुलाऊँ। (हे भाई! अगर मालिक प्रभु की मेहर हो तो) गुरु की शरण पड़ के (वह) ज्यों-ज्यों मालिक (मेरे) मन में बसता जाए, और मैं आत्मिक जीवन देने वाला (उसका) नाम-जल पीता रहूँ। (हे प्रभु! मेरा) मन (मेरा) तन, तेरा ही दिया हुआ है, तू ही मेरा मालिक है। (मेहर कर, मैं अपने अंदर से) अहंकार दूर करके (तेरी याद में) लीन रहूँ।3।

जिनि एहु जगतु उपाइआ त्रिभवणु करि आकारु ॥ गुरमुखि चानणु जाणीऐ मनमुखि मुगधु गुबारु ॥ घटि घटि जोति निरंतरी बूझै गुरमति सारु ॥४॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (प्रभु) ने। त्रिभवणु = तीनों भवन। आकारु = दिखता जगत। चानणु = ज्योति-रूप प्रभु। मुगधु = मूर्ख। गुबार = अंधेरा। निरंतरि = (निर+अंतर निर = बगैर, अंतर = दूरी), दूरी के बिना, एकरस। सारु = असलीयत।4।

अर्थ: जिस (ज्योति-स्वरूप प्रभु) ने यह जगत पैदा किया है, ये त्रिभवणी स्वरूप बनाया है, गुरु की शरण पड़ने से उस ज्योति से सांझ बनाई जा सकती है (उससे संपर्क साधा जा सकता है)। पर अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को ये ज्याति नहीं दिखती, उसे तो आत्मिक अंधकार ही अंधकार है। (यद्यपि) ईश्वरीय-ज्योति हरेक शरीर में एकरस व्यापक है, (पर) गुरु के मार्ग दर्शन से ही (गुरु की मति लेने से ये) असलियत समझी जा सकती है।4।

गुरमुखि जिनी जाणिआ तिन कीचै साबासि ॥ सचे सेती रलि मिले सचे गुण परगासि ॥ नानक नामि संतोखीआ जीउ पिंडु प्रभ पासि ॥५॥१६॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के द्वारा, गुरु की शरण पड़ के। कीचै = की जाती है, मिलती है। सेती = नाल। सचे गुण = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु के गुण। नामि = नाम में (जुड़ के)। संतोखीआ = आत्मिक शांति प्राप्त होती है। जीउ = जीवात्मा। पिंड = शरीर। प्रभ पासि = प्रभु के हवाले करते (हैं)।5।

अर्थ: जो मनुष्यों ने गुरु की शरण पड़ के सर्व-व्यापी ज्योति से सांझ बना ली, उन्हें साबाश मिलती है। वे सदा स्थिर प्रभु के साथ ऐक-मेक हो जाते हैं, सदा स्थिर प्रभु के गुण उनमें अंकुरित हो उठते हैं। हे नानक! नाम में जुड़ के वे मनुष्य आत्मिक शांति का आनंद लेते हैं, वे अपनी जीवात्मा अपना शरीर प्रभु के हवालेकिए रहते हैं।5।16।

सिरीरागु महला १ ॥ सुणि मन मित्र पिआरिआ मिलु वेला है एह ॥ जब लगु जोबनि सासु है तब लगु इहु तनु देह ॥ बिनु गुण कामि न आवई ढहि ढेरी तनु खेह ॥१॥

पद्अर्थ: जोबनि = जवानी में। जब लग = जब तक। देह = शरीर। आवई = आए, आता। ढहि = गिर के। ढेरी खेह = राख/मिट्टी की ढेरी।1।

अर्थ: हे प्यारे मित्र मन! (मेरा उपदेश) सुन। परमात्मा को मिल, (मिलने का) यही (मानव जन्म) ही समय है। जब तक जवानी में (हूँ, और) सांस चल रही है, तब तक ये शरीर काम दे रहा है। यदि प्रभु के गुण अपने अंदर ना बसाए, तो ये शरीर किस काम का? ये तो आखिर गिर के मिट्टी की ढेरी ही हो जाएगा।1।

मेरे मन लै लाहा घरि जाहि ॥ गुरमुखि नामु सलाहीऐ हउमै निवरी भाहि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: लाहा = लाभ। लै = लेकर। घरि = (अपने) घर में। निवरी = निरर्विति, दूर हो जाएगी। भाहि = आग।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! (यहाँ से आत्मिक) लाभ कमा के (अपने परलोक) घर में जा। गुरु की शरण पड़ कर (यहाँ) प्रभु का नाम सलाहना चाहिए। नाम की इनायत से अहंकार की आग अंदर से मिट जाती है (आग ये कि मैं बड़ा हूँ, मैं बड़ा बन जाऊँ- बुझ जाती है)।1। रहाउ।

सुणि सुणि गंढणु गंढीऐ लिखि पड़ि बुझहि भारु ॥ त्रिसना अहिनिसि अगली हउमै रोगु विकारु ॥ ओहु वेपरवाहु अतोलवा गुरमति कीमति सारु ॥२॥

पद्अर्थ: सुणि = सुन के। गंढणु गंढीऐ = गाँठे बाँधनी, व्यर्थ के प्रयत्न करने, लोगों को रिझाने वाला उद्यम करना। लिखि = लिख के। बुझहि = विचारते है। भारु = पुस्तकों का भार, बहुत पुस्तकें। अहि = दिन। निसि = रात। अगली = बहुत। अतोलवा = जो तौला ना जा सके। जिसके बराबर ना ढूँढा जा सके। सारु = संभाल, समझ के। कीमति = कद्र।2।

अर्थ: (पढ़े-लिखे लोग) बेअंत पुस्तकें लिख लिख के पढ़-पढ़ के विचारते हैं, (ज्ञान की बातें) सुन-सुन के लोगों की नजरों में विचारवान (दिखने का) व्यर्थ प्रयत्न करते हैं। परअंदर से दिन रात त्रिष्णा व्याप रही है। अहम् रोग, अहंकार के विकार अंदर (कायम) है। (दूसरी तरफ) वह परमात्मा (इस थोथी ज्ञान चातुर्य की) परवाह नहीं करता, (हमारे ज्ञान) उस को तौल भी नहीं सकते। (इसलिए) गुरु की मति ले के उस की कद्र समझ।2।

लख सिआणप जे करी लख सिउ प्रीति मिलापु ॥ बिनु संगति साध न ध्रापीआ बिनु नावै दूख संतापु ॥ हरि जपि जीअरे छुटीऐ गुरमुखि चीनै आपु ॥३॥

पद्अर्थ: करी = करना, मैं करूँ। सिउ = साथ। ध्रापीआ = भूख मिटती, तसल्ली होती। बिनु नावै = प्रभु का नाम जपने के बिना। संताप = कष्ट। जीअ रे! = हे जीवात्मा! चीनै = पहचानता है। आपु = खुद को।3।

अर्थ: यदि मैं लाख चतुराईआं करूँ, अगर मैं लाखों लोगों के साथ प्रीत करूँ, मिलाप पैदा करूँ, गुरु की संगत के बिना अंदर की तृष्णा खतम नहीं होती। प्रभु का नाम जपे बिना दुख-कष्ट बना ही रहता है। हे मेरी जीवात्मा! परमात्मा का नाम जप के ही (इस तृष्णा से) मुक्ति मिल सकती है। (क्यूँकि) जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ करनाम जपता है, वह अपने असल को पहचान लेता है।3।

तनु मनु गुर पहि वेचिआ मनु दीआ सिरु नालि ॥ त्रिभवणु खोजि ढंढोलिआ गुरमुखि खोजि निहालि ॥ सतगुरि मेलि मिलाइआ नानक सो प्रभु नालि ॥४॥१७॥

पद्अर्थ: पाहि = पास। वेचिआ = (नाम के बदले) हवाले कर दिया। नालि = भी। खोजि = खोज के। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। निहालि = निहालना, देख लिया। सतिगुरि = सतिगुरु ने। मेलि = (अपने चरणों में) मिला के।4।

अर्थ: जिस मनुष्य ने (नाम के बदले) अपना तन और अपना मनगुरू के हवाले कर दिया, जिसने मन हवाले किया और सिर भी हवाले कर दिया, उसने गुरु के द्वारा खोज करके उस प्रभु को (अपने अंदर ही) देख लिया, जिसको ढूँढने के लिए सारा जहान तलाश लिया था। हे नानक! शरण आए को गुरु ने अपने चरणों में जोड़ के प्रभु से मिला दिया, और वह प्रभु (अपने अंदर) अंग-संग ही दिखा दिया।4।17।

सिरीरागु महला १ ॥ मरणै की चिंता नही जीवण की नही आस ॥ तू सरब जीआ प्रतिपालही लेखै सास गिरास ॥ अंतरि गुरमुखि तू वसहि जिउ भावै तिउ निरजासि ॥१॥

पद्अर्थ: सास = साँस। गिरास = ग्रास, खाना खाते मुंह में डाला जाने वाला कौर। निरजासु = देखता है, संभाल करता है।1।

अर्थ: (जो मनुष्य गुरु के संमुख रहता है, नाम जपने की बरकत से उसको) मौत का डर नहीं रहता, और-और लम्बी उम्र की वो आकांक्षाएं नहीं बनाता, (उसे यकीन होता है कि हे प्रभु!) तू सारे जीवों की पालना करता है, जीवों के हरेक स्वास हरेक ग्रास तेरे हिसाब में (तेरी नजर में) है। (हे प्रभु!) गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के अंदर तू प्रगट हो जाता है, (उसको ये यकीन बना रहता है कि) जैसे तेरी रजा है तैसे ही तू (सभ की) संभाल करता है।1।

जीअरे राम जपत मनु मानु ॥ अंतरि लागी जलि बुझी पाइआ गुरमुखि गिआनु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जीअ रे = हे (मेरी) जीवात्मा! मानु = मनाओ। जलि = जलन। गिआनु = जान पहिचान, सांझ।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरी) जीवात्मा! (ऐसा उद्यम कर कि) प्रमात्मा का नाम स्मरण करते स्मरण करते मन (स्मरण में) पसीज जाए। गुरु की शरण पड़ के (स्मरण के द्वारा) जिस मनुष्य ने परमात्मा के साथ गहरी सांझ बना ली है, उसके अंदर की तृष्णा की जलन बुझ जाती है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh