श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आपि सुजाणु न भुलई सचा वड किरसाणु ॥ पहिला धरती साधि कै सचु नामु दे दाणु ॥ नउ निधि उपजै नामु एकु करमि पवै नीसाणु ॥२॥

पद्अर्थ: सुजाणु = सयाना, चतुर, सुजान। साधि कै = साफ कर के, तैयार करके। दे = देता है। दाणु = दाना, कण, बीज। करमि = बख्शिश द्वारा। नीसाणु = परवाना, राहदारी, पर्वानगी।2।

अर्थ: (किसान अपने रोजमर्रा के तजरबे से जानता है कि बीज बीजने से पहले धरती को कैसे तैयार करना है ता कि बढ़िया फसल हो, इसी तरह) सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा बड़ा किसान है, वह (बड़ा) सुजान किसान है, वह गलती नहीं करता (जिस हृदय-रूपी धरती में नाम-बीज बीजना होता है) वह उस हृदय-धरा को पहले अच्छी तरह से तैयार करता है फिर उसमें सच्चे नाम का बीज बोता है। वहाँ नाम उगता है, (मानों) नौ खजाने पैदा हो जाते हैं, प्रभु की मेहर से (उस हृदय में की मेहनत) स्वीकार हो जाती है।2।

गुर कउ जाणि न जाणई किआ तिसु चजु अचारु ॥ अंधुलै नामु विसारिआ मनमुखि अंध गुबारु ॥ आवणु जाणु न चुकई मरि जनमै होइ खुआरु ॥३॥

पद्अर्थ: जाणि = जानबूझ के। चजु अचारु = रवईआ। अंधुलै = अंधे ने। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला। अंधु गुबारु = वह अंधा जिसके सामने घुप अंधेरा ही है। न चुकई = खतम नहीं होता।3।

अर्थ: जो मनुष्य जानबूझ के गुरु (की प्रतिभा) को नहीं समझता उसका सारा जीवन ढंग व्यर्थ है, (आत्मिक रौशनी के पक्ष से अगर परखें तो) उस अंधे ने प्रभु का नाम बिसारा है, अपने मन के पीछे चलने वाले के (जीवन में) अंधकार ही अंधकार रहता है। उसका जन्म-मरण का चक्कर नहीं खतम होता, वह नित्य पैदा होता है मरता है, पैदा होता है, मरता है, और खुआर होता रहता है।3।

चंदनु मोलि अणाइआ कुंगू मांग संधूरु ॥ चोआ चंदनु बहु घणा पाना नालि कपूरु ॥ जे धन कंति न भावई त सभि अड्मबर कूड़ु ॥४॥

पद्अर्थ: मोलि = मूल्य दे के, खरीद के। अणाइआ = मंगाया। कुंगू = केसर। मांग = केसों के बीच बनाया हुआ चीर। चोआ = इत्र। धन = स्त्री। कंत न भावई = पति को अच्छी ना लगी। सभि = सारे।4।

अर्थ: (किसी स्त्री ने अपने पति को प्रसन्न करने के लिए अपने शारीरिक श्रृंगार के वास्ते) खरीद के चंदन मंगाया, केसर मंगाया, सिर के केसों को सुंदर बनाने के लिए मांग का सिंदूर मंगवाया, इत्र, चंदन व अन्य सुगन्धियां मंगवाईं, पान मंगवाए और कपूर मंगवाया, पर अगर वह स्त्री पति को (फिर भी) अच्छी ना लगी, तोउस के वह दिखावे के सारे उद्यम व्यर्थ हो गये, (आडंबर बनके रह गये)। (यही हाल जीव-स्त्री का है, पति-प्रभु दिखावे के धार्मिक कर्मों, उद्यमों से नहीं रीझता)।4।

सभि रस भोगण बादि हहि सभि सीगार विकार ॥ जब लगु सबदि न भेदीऐ किउ सोहै गुरदुआरि ॥ नानक धंनु सुहागणी जिन सह नालि पिआरु ॥५॥१३॥

पद्अर्थ: बादि = व्यर्थ। विकार = बेकार। धनु = धन्य, भाग्यशाली। सह नालि = खसम के साथ।5।

अर्थ: जब तक मनुष्य का मन गुरु के शब्द (तीर) से विच्छेदित नहीं होता, तब तक गुरु के दर पे शोभा नहीं मिलती, ऐसे मनुष्य के द्वारा बरते गये सारे सुंदर पदार्थ व्यर्थ चले जाते हैं (क्योंकि, पदार्तों को भोगने वाला शरीर तो आखिर में राख हो जाता है) सारी शारीरिक सजावटें भी बेकार हो जाती हैं। हे नानक! वही भाग्यशाली जीव-स्त्रीयां मुबारक हैं जिनका प्रभु-पति सेप्रेम बना रहता है।5।13।

सिरीरागु महला १ ॥ सुंञी देह डरावणी जा जीउ विचहु जाइ ॥ भाहि बलंदी विझवी धूउ न निकसिओ काइ ॥ पंचे रुंने दुखि भरे बिनसे दूजै भाइ ॥१॥

पद्अर्थ: सुञीं = अकेली, उजड़ी हुई। देह = काया,शरीर। जा = जब। जीउ = जिंद, जान, जीवात्मा। भाहि = आग (जीवन-सत्ता)। विझवी = बुझ गई। धूअ = धूआं, स्वास। पंचे = पांचों ज्ञान-इंद्रिय। दूजे भाइ = माया के मोह में।1।

अर्थ: जब जीवात्मा शरीर में से निकल जाती है तो ये शरीर उजड़ जाता है, इससे डर लगने लग पड़ता है। जो जीवन-अग्नि (पहले इसमें) जलती थी वह बुझ जाती है (जीवन सत्ता समाप्त हो जाती है)। कोई भी श्वास नहीं आता जाता। (आंख, कान आदि) जो पाँचों ज्ञान-इंद्रिय (पर तन, निंदा आदि) माया के मोह में नाश होते रहे, वह भी दुखी हो हो के रोए (भाव, नकारे हो हो के मजबूर हो गए)।1।

मूड़े रामु जपहु गुण सारि ॥ हउमै ममता मोहणी सभ मुठी अहंकारि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सारि = संभाल के, याद कर करके। सभ = सारी सृष्टि। मुठी = ठगी जा रही है। अहंकारि = अहंकार में।1। रहाउ।

अर्थ: हे मूर्ख जीव! (उस अंतिम दशा को सामने ला के) परमात्मा के गुण याद कर, प्रभु का नाम जप। सारी सृष्टि (गाफिल हो के) मोहनी माया की ममता में झूठे अहंकार में ठगी जा रही है।1। रहाउ।

जिनी नामु विसारिआ दूजी कारै लगि ॥ दुबिधा लागे पचि मुए अंतरि त्रिसना अगि ॥ गुरि राखे से उबरे होरि मुठी धंधै ठगि ॥२॥

पद्अर्थ: लगि = लग के। दुबिधा = दुचित्तापन, मेर तेर। पचि = खुआर हो के। मुए = आत्मिक जीवन गवा बैठे। गुरि = गुरु ने। उबरे = बच गए। मुठी = ठग ली। ठगि = ठग ने।2।

अर्थ: जिस लोगों ने और-और निरे दुनियावी कामों में लग के परमात्मा का नाम भुला दिया, वो सदा मेर-तेर में फंसे रहे, उनके अंदर तृष्णा की आग भड़कती रही, जिस में खिझ-जल के वो आत्मिक मौत मर गए। जिस की रक्षा गुरु ने की, वे तृष्णा की आग से बच गए। बाकी सभी को दुनिया के सारे ठगों ने ठग लिया।2।

मुई परीति पिआरु गइआ मुआ वैरु विरोधु ॥ धंधा थका हउ मुई ममता माइआ क्रोधु ॥ करमि मिलै सचु पाईऐ गुरमुखि सदा निरोधु ॥३॥

पद्अर्थ: मुई = खतम हो गई। हउ = अहंकार। ममता माइआ = माया की ममता, माया जोड़ने की लालसा। करमि = (प्रभु की) मेहर से। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। निरोधु = (विकारों से) रोक।3।

अर्थ: पर, जो गुरमुखि ज्ञान-इंद्रिय को सदा सयंम में रखता हैउसे प्रभु की कृपा से उस प्रभु का मिलाप हो जाता है, उसकी दुनियावी प्रीत खतम हो जाती है, उसका माया वाले पदार्तों से प्यार समाप्त हो जाता है। उसका किसी के साथ विरोध नहीं रह जाता। उसकी माया वाली दौड़-भाग खत्म हो जाती है, अहंकार मर जाता है, माया की ममता मर जाती है और क्रोध भी मरजाता है।3।

सची कारै सचु मिलै गुरमति पलै पाइ ॥ सो नरु जमै ना मरै ना आवै ना जाइ ॥ नानक दरि परधानु सो दरगहि पैधा जाइ ॥४॥१४॥

पद्अर्थ: कारै = काम में (लग के)। पलै पाइ = प्राप्ति हो जाए। दरि = (प्रभु के) दर पे। परधानु = जाना माना, आजाद। पैधा = सरोपा ले के, आदर ले के।4।

अर्थ: जो मनुष्य (स्मरण की) सदा टिके रहने वाले कर्म में लगा रहता है उसको सदा स्थिर प्रभु मिल जाता है, उसको गुरु की शिक्षा प्राप्त हो जाती है। वह मनुष्य बार बार मरता पैदा नहीं होता। वह जनम मरन के चक्रव्यूह से बच जाता है। हे नानक! वह मनुष्य प्रभु के दर पे आजाद होता है और वह प्रभु की हजूरी में सरोपा ले के जाता है।4।14।

सिरीरागु महल १ ॥ तनु जलि बलि माटी भइआ मनु माइआ मोहि मनूरु ॥ अउगण फिरि लागू भए कूरि वजावै तूरु ॥ बिनु सबदै भरमाईऐ दुबिधा डोबे पूरु ॥१॥

पद्अर्थ: मोहि = मोह में। मनूर = जला हुआ लोहा, लोहे की मैल, जंग लगा। फिरि = फिर भी। लागू = वैरी। कूरि = झूठ में (मस्त रह के)। तूर = बाजा (विकारों का)। भरमाईऐ = भटकनों में पड़ा रहता है। दुबिधा = दो चित्ता पन। पूर = सारा परिवार (सारे ज्ञानेन्द्रिये)।1।

अर्थ: (जिसने नाम नहीं स्मरण किया, उसका) शरीर (विकारों में ही) जल के मिट्टी हो जाता है (व्यर्थ चला जाता है)। उसका मन माया के मोह में फंस के (मानो) जला हुआ लोहा बन जाता है। फिर भी विकार उसकी खलासी नहीं करते, वह अभी भी झूठ में मस्त रह के (माया के मोह का) बाजा बजाता है। गुरु शब्द से वंचित रह के वह भटकता रहता है। दुबिधा उस मनुष्य के (ज्ञानंन्द्रियों के) सारे ही परिवार को (मोह के समुंदर में) डुबा देती है।1

मन रे सबदि तरहु चितु लाइ ॥ जिनि गुरमुखि नामु न बूझिआ मरि जनमै आवै जाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सबदि = (गुरु के) शब्द में। जिनि = जिस मनुष्य ने। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) मन! गुरु केशबद में चित्त जोड़ (और इस तरह संसार समुंदर के विकारों से) पार लांघ। जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा के नाम के साथ सांझ नहीं डाली, वह मरता है पैदा होता है, पैदा होता है मरता है।1। रहाउ।

तनु सूचा सो आखीऐ जिसु महि साचा नाउ ॥ भै सचि राती देहुरी जिहवा सचु सुआउ ॥ सची नदरि निहालीऐ बहुड़ि न पावै ताउ ॥२॥

पद्अर्थ: सूचा = स्वच्छ, पवित्र। भै = भय, निर्मल डर में, अदब में। सचि = सदा स्थिर प्रभु की याद में। राती = रति हुई, रंगी हुई। देहुरी = सुंदर देह। सचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम। सुआउ = स्वार्थ, उद्देश्य। निहालिऐ = देखा जाता है। न पावै ताउ = गरमी नहीं बर्दाश्त करता।2।

अर्थ: जो सुंदर शरीर परमात्मा के अदब-प्यार में परमात्मा की याद में रंगा रहता है, जिसकी जीभ को नाम जपना ही (अपने अस्तित्व का) असल उद्देश्य प्रतीत होता है, जिस शरीर में अडोल प्रभु का नाम टिका रहता है वही शरीर पवित्र कहला सकता है। जिस पे प्रभु के मेहर की नजर होती है, वह बार-बार (चौरासी के चक्कर की कुठाली में पड़ के) तपशनहीं सहता।2।

साचे ते पवना भइआ पवनै ते जलु होइ ॥ जल ते त्रिभवणु साजिआ घटि घटि जोति समोइ ॥ निरमलु मैला ना थीऐ सबदि रते पति होइ ॥३॥

पद्अर्थ: साचे ते = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा से। पवनै ते = पवन से। त्रिभवणु = सारा जगत (तीनों भवन)। साजिआ = रचा गया। समोइ = समाई हुई है। सबदि रते = गुर शब्द में रंगे रह के।3।

अर्थ: गुरु के शब्द में रंगे हुए को (लोक-परलोक) आदर मिलता है वह सदा पवित्र रहता है। उसे विकारों की मैल नहीं लगती। (उसे ये यकीन बना रहता है कि) परमात्मा से (सूक्ष्म तत्व) पवन बनी, पवन से जल अस्तित्व में आया, जल से ये सारा जगत रचा गया, (तथा, इस रचे संसार के) हरेक घट में परमात्मा की ज्योति समाई हुई है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh