श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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केतीआ तेरीआ कुदरती केवड तेरी दाति ॥ केते तेरे जीअ जंत सिफति करहि दिनु राति ॥ केते तेरे रूप रंग केते जाति अजाति ॥३॥

पद्अर्थ: कुदरती = कुदरतें। दाति = दातें। केते = बेअंत। जाति अजाति = ऊँची जातियों व नीच जाति के जीव।3।

अर्थ: हे प्रभु! तेरी बेअंत ताकतें हैं, तेरी बेअंत बख्शिशें हैं। बेअंत जीव दिन रात तेरी तारीफ कर रहे हैं। तेरे बेअंत ही रूप-रंग हैं, तेरे पैदा किये बेअंत जीव हैं, जो कोई ऊँची व कोई नीच जातियों में हैं।3।

सचु मिलै सचु ऊपजै सच महि साचि समाइ ॥ सुरति होवै पति ऊगवै गुरबचनी भउ खाइ ॥ नानक सचा पातिसाहु आपे लए मिलाइ ॥४॥१०॥

पद्अर्थ: साचि = सच द्वारा, स्मरण से। सच महि = सदा स्थिर प्रभु में। भउ खाइ = दुनिया वाला सहम डर खत्म कर लेता है।4।

अर्थ: हे नानक! यदि मनुष्य स्मरण करते हुए अडोल प्रभु में लीन रहे, तो उसे प्रमात्मा मिल जाता है। परमात्मा (उसके हृदय में) प्रगट हो जाता है, उसकी तवज्जो (प्रभु चरणों में) जुड़ी रहती है, (प्रभु के दर पर) उसे आदर मिलता है, गुरु के वचन पर चल के वह संसारिक डर खत्म कर लेता है, तथा सदा स्थिर रहने वाला अडोल प्रभु-पातशाह उसको स्वयं ही अपने चरणों में जोड़ लेता है।4।10।

सिरीरागु महला १ ॥ भली सरी जि उबरी हउमै मुई घराहु ॥ दूत लगे फिरि चाकरी सतिगुर का वेसाहु ॥ कलप तिआगी बादि है सचा वेपरवाहु ॥१॥

पद्अर्थ: सरी = फब गई। उबरी = बच गई। घराहु = घर से, हृदय में से। दूत = विकार। वेसाहु = भरोसा, दिलासा। कलप = कल्पना। बादि = व्यर्थ।1।

अर्थ: (मेरे वास्ते बहुत) अच्छा हुआ कि मेरी जिंद विकारों से बच गई, मेरे हृदय में से अहम् मर गया। मुझे अपने गुरु का थापड़ा (पीठ पे शाबाशी भरा हाथ) मिला, और विकार (मुझे खुआर करने की बजाए) उल्टे मेरे बस में हो गये। अडोल बेपरवाह प्रभु (मुझे मिल गया), मैंने (माया मोह की) व्यर्थ की कल्पना छोड़ दी।1।

मन रे सचु मिलै भउ जाइ ॥ भै बिनु निरभउ किउ थीऐ गुरमुखि सबदि समाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु। भै बिनु = (निरमल) बगैर डर के।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) मन! जब वह अडोल प्रभु मिल जाता है, तो दुनिया का डर सहम दूर हो जाता है। जब तक प्रमात्मा का भय अदब मन में ना हो, मनुष्य दुनिया के डरों से बच नहीं सकता। (और परमात्मा का भय-अदब तब ही पैदा होता है जब जीव) गुरु के द्वारा शब्द से जुड़ता है।1। रहाउ।

केता आखणु आखीऐ आखणि तोटि न होइ ॥ मंगण वाले केतड़े दाता एको सोइ ॥ जिस के जीअ पराण है मनि वसिऐ सुखु होइ ॥२॥

पद्अर्थ: केता आखणु आखीऐ = (दुनिया वाली) मांग कितनी ही मांगते हैं। मनि वसिऐ = यदि मन में बस जाए।2।

अर्थ: मनुष्य दुनिया वाली मांग कितनी ही मांगता रहता है, मांगें मांगने में कमी होती ही नहीं (भाव, दुनियावी मांगें खत्म नहीं होतीं) (फिर) बेअंत जीव हैं मांगे मांगने वाले, और देने वाला सिर्फ एक परमात्मा है (पर इस मांगने में सुख भी नहीं है)। जिस परमात्मा ने जिंद प्राण सुख दिये हुए हैं, यदि वह मन में बस जाए, तब ही सुख होता है।2।

जगु सुपना बाजी बनी खिन महि खेलु खेलाइ ॥ संजोगी मिलि एकसे विजोगी उठि जाइ ॥ जो तिसु भाणा सो थीऐ अवरु न करणा जाइ ॥३॥

पद्अर्थ: बाजी = खेल। खेलु खेलाइ = खेल खिला देता है, खेल खत्म कर देता है। एकसे = इकट्टे हो जाते हैं। जाइ = चला जाता है।3।

अर्थ: जगत (मानों) सपना है, जगत एक खेल बना हुआ है। जीव एक छिन में (जिंदगी की) खेल खेल के चला जाता है। (प्रभु की) संजोग-सत्य से प्राणी मिल के इकट्टे होते हैं। विजोग-सत्य अनुसार जीव (यहां से) उठ के चले जाते हैं। जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है, वही होता है (उसके उलट) और कुछ नहीं किया जा सकता।3।

गुरमुखि वसतु वेसाहीऐ सचु वखरु सचु रासि ॥ जिनी सचु वणंजिआ गुर पूरे साबासि ॥ नानक वसतु पछाणसी सचु सउदा जिसु पासि ॥४॥११॥

पद्अर्थ: वेसाहीऐ = काम काज में खचित रखते हैं। वखरु = सौदा। रासि = पूंजी, राशि। साबासि = प्रसंन्नता, आदर। पछाणसी = पहचानता है, कद्र पाता है।4।

अर्थ: सदा स्थिर रहने वाले प्रभु का नाम ही असल सौदा है और पूंजी है (जिसके व्यापार के लिए जीव यहां आया है)। ये सौदा गुरु के द्वारा ही खरीदा जा सकता है। जिस लोगों ने यह सौदा खरीदा है उनको पूरे गुरु की शाबाशी मिलती है। हे नानक! जिस के पास यह सच्चा सौदा होता है, इस वस्तु की कद्र भी वही जानता है।4।11।

नोट: देखें इसी लड़ी के शब्द 6 पे वहां भी शीर्षक ‘महला’ के बजाए ‘महलु’ ही है।

सिरीरागु महलु १ ॥ धातु मिलै फुनि धातु कउ सिफती सिफति समाइ ॥ लालु गुलालु गहबरा सचा रंगु चड़ाउ ॥ सचु मिलै संतोखीआ हरि जपि एकै भाइ ॥१॥

पद्अर्थ: फुनि = पुनः , दुबारा। धातु = सोना आदि धातु से बना हुआ गहना। सिफती = सिफतों के मालिक परमात्मा। गुलालु = लाल फूल। गहबरा = गाढ़ा। सचा = सदा टिका रहने वाला, पक्का। भाइ = भाव में, प्रेम में। एकै भाइ = एकरस प्रेम में।1।

अर्थ: प्रभु की महिमा करके गुणों के मालिक प्रभु में मनुष्य इस तरह लीन हो जाता है, जैसे (सोना आदि धातु का बना हुआ जेवर ढल के) मुड़ (उसी) धातु के साथ एकरूप हो जाता है। (महिमा की इनायत से) मनुष्य पर गाढ़ा लाल रंग चढ़ जाता है (मनुष्य का चेहरा चमक उठता है)। पर वह अडोल प्रभु उन संतोखी जीवन वालों को ही मिलता है जो परमेश्वर की महिमा करते करते उस एक के प्रेम में ही (मगन रहते) हैं।1।

भाई रे संत जना की रेणु ॥ संत सभा गुरु पाईऐ मुकति पदारथु धेणु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रेणु = चरण-धूल। धेणु = धेनु, गाय। मुकति = विकारों से मुक्ति, खलासी।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (अगर प्रभु का दर्शन करना है तो) संत जनों के चरणों की धूल बनो। संत जनों की सभा में (सत्संग में) गुरु मिलता है जो विकारों से बचा लेता है।1। रहाउ।

ऊचउ थानु सुहावणा ऊपरि महलु मुरारि ॥ सचु करणी दे पाईऐ दरु घरु महलु पिआरि ॥ गुरमुखि मनु समझाईऐ आतम रामु बीचारि ॥२॥

पद्अर्थ: मुरारि = परमात्मा। करणी = आचरण। दरु घरु = प्रभु का दर, प्रभु का घर। पिआरि = प्यार से। आतम रामु = सब की आत्मा में व्यापक प्रभु। बीचारि = विचार के। आतमु रामु बीचारि = सर्व व्यापी प्रभु (के गुणों) को विचार के।2।

अर्थ: परमात्मा (के रहने) का सुंदर स्थल ऊँचा है, उस का महल (सब से) ऊपर है। उस का दर उसका घर महल प्यार से मिलता है। टिके हुए (अच्छे) आचरण से उसे ढूँढना है (पर ऊँचा आचरण भी कोई आसान खेल नहीं, मन विकारों की ओर ही प्रेरता रहता है, तथा) मन को गुरु के द्वारा सीधे रास्ते लगाना, सर्व-व्यापी प्रभु के गुणों की विचार से समझाना है।2।

त्रिबिधि करम कमाईअहि आस अंदेसा होइ ॥ किउ गुर बिनु त्रिकुटी छुटसी सहजि मिलिऐ सुखु होइ ॥ निज घरि महलु पछाणीऐ नदरि करे मलु धोइ ॥३॥

पद्अर्थ: त्रिबिधि = तीन किस्मों के, माया के तीन गुण (रजो, सतो व तमो) वाले। कमाईअहि = कमाये जाते हैं, किए जाते हैं। अंदेसा = सहसा,शंका। त्रिकुटी = (त्रि = तीन, कुटी = टेढ़ी लकीर), तीन टेढ़ी लकीरें, तियौड़ी, खिझ। सहजि मिलिऐ = अगर अडोल अवस्था में टिके रहें। निज घरि = अपने घर में, अडोल अवस्था में जब मन बाहर भटकने से हट जाता है।3।

अर्थ: (दुनियां में आम तौर पे) माया के तीन गुणों के अधीन रह के ही कर्म किए जाते हैं, जिस करके आशाओं व शंकाओं का चक्र बना रहता है। (इनके कारण मन भी अशांत रहता है) ये अशांति गुरु की शरण पड़े बिना नहीं हटती। (गुरु के द्वारा ही अडोलता पैदा होती है), अडोलता में टिके रह के ही आत्मिक आनन्द मिलता है। जब प्रभु मेहर की नजर करता है, मनुष्य (अपने मन की) मैल साफ करता है (और मन भटकने से हट जाता है) और अडोलता में परमात्मा के ठिकाने को (अपने अंदर ही) पहचान लेता है।3।

बिनु गुर मैलु न उतरै बिनु हरि किउ घर वासु ॥ एको सबदु वीचारीऐ अवर तिआगै आस ॥ नानक देखि दिखाईऐ हउ सद बलिहारै जासु ॥४॥१२॥

पद्अर्थ: घर वासु = घर का बसेवा, अडोल अवस्था, वे हालात जब मन बाहर भटकने से रुक जाता है। एको = एक राज़क प्रभु का। देखि = देख के। दिखाईऐ = दिखाया जा सकता है। जासु = जाता है।4।

अर्थ: गुरु के बगैर मन की मैल नहीं धुलती। परमात्मा में जुड़े बिना मानसिक अडोलता नही मिलती। (हे भाई!) (रिजक देने वाले) एक प्रभु की ही महिमा विचारनी चाहिए। (जो महिमा करता है वह) और-और आशाएं त्याग देता है। हे नानक! (कह:) जो गुरु स्वयं प्रभु के दर्शन करके मुझे दर्शन करवाता है, मैं उससे सदा सदके जाता हूँ।4।12।

सिरीरागु महला १ ॥ ध्रिगु जीवणु दोहागणी मुठी दूजै भाइ ॥ कलर केरी कंध जिउ अहिनिसि किरि ढहि पाइ ॥ बिनु सबदै सुखु ना थीऐ पिर बिनु दूखु न जाइ ॥१॥

पद्अर्थ: ध्रिगु = धिक्कार के लायक। दोहागणी = बुरे भाग्य वाली, पति से विछुड़ी हुई। मुठी = ठगी हुई। दूजै भाइ = (प्रभु के बिना) किसी और के प्रेम में। केरी = की। अहि = दिन। निसि = रात। किरि = किर के, झड़ना।1।

अर्थ: जो भाग्यहीन जीव-स्त्री (प्रभु-पति के बिना माया आदि) और दूसरे प्यार में ठगी रहती है उसका जीना धिक्कार ही है। जैसे कल्लर की दीवार (धीरे-धीरे) झर-झर के नष्ट होती है, वैसे ही उसका आत्मिक जीवन भी दिन रात (माया के मोह में) धीरे धीरे क्षय हो जाता है। (सुख की खातिर वह दौड़-भाग करती है, पर) गुरु की शरण के बिना सुख नहीं मिल सकता (माया का मोह तो बल्कि दुख ही दुख पैदा करता है, और) प्रभु-पति को मिले बिना मानसिक दुख दूर नहीं होता।1।

मुंधे पिर बिनु किआ सीगारु ॥ दरि घरि ढोई न लहै दरगह झूठु खुआरु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मुंधे = हे मूर्ख! ढोई = आसरा, सहारा।1। रहाउ।

अर्थ: हे मूर्ख जीव-स्त्री! अगर पति ना मिले तो श्रृंगार करने का कोई लाभ नहीं होता। (अगर जीव-स्त्री प्रेम से वंचित रह के ही धार्मिक उद्यम कर्म आदि किये जा रही है, पर उसके अंदर माया मोह प्रबल है) वह प्रभु के दर पर प्रभु के घर में आसरा नहीं ले सकती, (क्योंकि) झूठ (भाव, माया का मोह) प्रभु की हजूरी में दुरकारा ही जाता है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh