श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 28 इहु जनमु पदारथु पाइ कै हरि नामु न चेतै लिव लाइ ॥ पगि खिसिऐ रहणा नही आगै ठउरु न पाइ ॥ ओह वेला हथि न आवई अंति गइआ पछुताइ ॥ जिसु नदरि करे सो उबरै हरि सेती लिव लाइ ॥४॥ पद्अर्थ: पदारथु = कीमती चीज। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ के। पगि खिसिऐ = जब पैर खिसक गया। ठउरु = जगह, आसरा। हथि = हाथ में। आवई = आता है। अंति = आखिर। जिसु = जिस (मनुष्य) पर। ऊबरै = बच जाता है। सेती = साथ।4। अर्थ: यह कीमती मनुष्य जन्म हासिल करके भी (मूर्ख मनुष्य) तवज्जो जोड़ के परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करता; पर जब पैर फिसल गया (जब शरीर ढह पड़ा) यहाँ जगत में टिका नहीं रह सकेगा (नाम से वंचित रहने के कारण) आगे दरगाह में भी जगह नहीं मिलती। (मौत आने से) स्मरण का समय नहीं मिल सकता, आखिर (मूर्ख जीव) पछताता जाता है। जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की नजर करता है वह परमात्मा (के चरणों) में तवज्जो जोड़ के (माया के कुसंभ मोह से) बच जाता है।4। देखा देखी सभ करे मनमुखि बूझ न पाइ ॥ जिन गुरमुखि हिरदा सुधु है सेव पई तिन थाइ ॥ हरि गुण गावहि हरि नित पड़हि हरि गुण गाइ समाइ ॥ नानक तिन की बाणी सदा सचु है जि नामि रहे लिव लाइ ॥५॥४॥३७॥ पद्अर्थ: देखा देखी = और लोगों को करता देख के, दिखावे की खातिर। बूझ = समझ। पई थाइ = स्वीकार हो जाती है। समाइ = लीन हो के। बाणी सचु है = परमात्मा का नाम जपना ही (उनकी) वाणी है, सदा महिमा ही करते हैं।5। अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य सब कुछ दिखावे की खातिर करता है, उसे सही जीवन जीने की समझ नहीं आती। (पर) गुरु के सन्मुख हो के जिस मनुष्यों का हृदय पवित्र हो जाता है, उन की घाल-कमाई (प्रभु दर पे) स्वीकार हो जाती है। वह मनुष्य हरि के गुण गा के हरि के चरणों में लीन हो के नित्य हरि गुण गाते हैं, पढ़ते हैं। हे नानक! जो मनुष्य प्रभु के नाम में तवज्जो जोड़ के रखते हैं, सदा स्थिर प्रभु की महिमा ही उनकी जीभ पे सदा विराजमान रहती है।5।4।37। सिरीरागु महला ३ ॥ जिनी इक मनि नामु धिआइआ गुरमती वीचारि ॥ तिन के मुख सद उजले तितु सचै दरबारि ॥ ओइ अम्रितु पीवहि सदा सदा सचै नामि पिआरि ॥१॥ पद्अर्थ: मनि = मन से। इक मनि = एक मन से, एकाग्र हो के। वीचारि = (नाम को) विचार के, सोच मंडल में टिका के। सद = सदा। उजले = साफ,सुंदर। तितु = उस में। तितु सचै दरबारि = उस सदा स्थिर के दरबार में। ओइ = वह लोग (बहुवचन)। नामि पिआरि = नाम में प्यार से।1। अर्थ: जिस लोगों ने गुरु की मति के द्वारा (परमात्मा के नाम को अपने सोच मंडल में टिका के) नाम को एकाग्र चित्त हो के स्मरण किया है, वे सदा ही स्थिर रहने वाले प्रभु के दरबार में आजाद होते है। वह मनुष्य सदा स्थिर प्रभु के नाम में प्यार से सदा आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल पीते हैं।1। भाई रे गुरमुखि सदा पति होइ ॥ हरि हरि सदा धिआईऐ मलु हउमै कढै धोइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। पति = इज्जत। धोइ = धो के।1। रहाउ। अर्थ: अर्थ- हे भाई! गुरु की शरण पड़ने से इज्जत मिलती है। (गुरु की शरण पड़ के) परमात्मा का नाम सदा स्मरणा चाहिए। (गुरु मनुष्य के मन में से) अहंकार की मैल धो के निकाल देता है।1। रहाउ। मनमुख नामु न जाणनी विणु नावै पति जाइ ॥ सबदै सादु न आइओ लागे दूजै भाइ ॥ विसटा के कीड़े पवहि विचि विसटा से विसटा माहि समाइ ॥२॥ पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। जाणनी = जानते। विणु = बगैर, बिना। विणु नावै = नाम के बिना। जाइ = चली जाती है। सबदै सादु = शब्द का स्वाद। भाइ = प्यार में। भाउ = प्यार। विसटा = गंद, विष्टा। समाइ = समा के रच के।2। अर्थ: (पर) अपने मन के पीछे चलने वाले लोग परमात्मा के नाम के साथ रिश्ता नहीं जोड़ पाते, और नाम के बग़ैर उनका आदर सत्कार जाता रहता है। उन्हें सत्गुरू के शब्द का आनन्द नहीं आता। (इस वास्ते) वह (प्रभु को विसार के) किसी और प्यार में मस्त रहते हैं। वह लोग (विकारों के) गंद में लीन रह कर गंदगी के कीड़े की तरह (विकारों के) गंद में ही पड़े रहते हैं।2। तिन का जनमु सफलु है जो चलहि सतगुर भाइ ॥ कुलु उधारहि आपणा धंनु जणेदी माइ ॥ हरि हरि नामु धिआईऐ जिस नउ किरपा करे रजाइ ॥३॥ पद्अर्थ: सफलु = कामयाब। भाइ = प्रेम में, अनुसार। कुलु = खानदान। धंनु = भाग्यशाली। जणेदी माइ = पैदा करने वाली माँ। धिआइऐ = स्मरणा चाहिए। नउ = को। रजाइ = मर्जी से।3। अर्थ: जो मनुष्य गुरु के प्रेम में जीवन व्यतीत करते हैं उनका जीवन कामयाब हो जाता है, वह अपना सारा खानदान (ही विकारों से) बचा लेते हैं, उनको पैदा करने वाली माँ शोभा कमाती है। (इस वास्ते, हे भाई!) परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए। (पर वही मनुष्य नाम स्मरण करता है) जिस पर परमात्मा अपनी रजा अनुसार मेहर करता है।3। जिनी गुरमुखि नामु धिआइआ विचहु आपु गवाइ ॥ ओइ अंदरहु बाहरहु निरमले सचे सचि समाइ ॥ नानक आए से परवाणु हहि जिन गुरमती हरि धिआइ ॥४॥५॥३८॥ पद्अर्थ: आपु = स्वैभाव, अहम्। गवाइ = दूर कर के। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। समाइ = लीन हो के। परवाणु = स्वीकार। हहि = हैं (‘है’ का बहुवचन)।4। अर्थ: जिस लोगों ने गुरु की शरण पड़ के अपने अंदर से अहम् भाव दूर कर के परमात्मा का नाम स्मरण किया है, वह लोग सदा स्थिर प्रभु में लीन हो के उसी का रूप बन के अंदर-बाहर से पवित्र हो जाते हैं। (भाव, उनका आत्मिक जीवन पवित्र हो जाता है, और वे खलकत के साथ भी प्यार-व्यवहार ठीक रखते हैं)। हे नानक! जगत में आए (पैदा हुए) वही लोग स्वीकार हैं जिन्होंने गुरु की मति ले के परमात्मा का नाम स्मरण किया है।4।5।38। सिरीरागु महला ३ ॥ हरि भगता हरि धनु रासि है गुर पूछि करहि वापारु ॥ हरि नामु सलाहनि सदा सदा वखरु हरि नामु अधारु ॥ गुरि पूरै हरि नामु द्रिड़ाइआ हरि भगता अतुटु भंडारु ॥१॥ पद्अर्थ: हरि धनु = परमातमा (के नाम रूपी) धन। रासि = संपत्ति, धन-दौलत, पूंजी। गुर पूछि = गुरु की शिक्षा ले के। सालाहनि = सराहना करते हैं। वखरु = सौदा। अधारु = आसरा। गुरि = गुरु के। अतुटु = ना खत्म होने वाला। भण्डार = खजाना।1। अर्थ: परमात्मा की भक्ति करने वाले बंदों के पास परमात्मा का नाम ही धन है नाम ही संपत्ति है, वह अपने गुरु की शिक्षा ले के (नाम का ही) व्यापार करते हैं। भक्तजन सदा परमात्मा का नाम की ही सराहना करते हैं। परमात्मा का नाम का व्यापार ही उनके जीवन का आसरा है। पूरे सत्गुरू ने परमात्मा का नामउनके हृदय में पक्का कर दिया है। परमात्मा का नाम ही उनके लिए ना समाप्त होने वाला खजाना है।1! भाई रे इसु मन कउ समझाइ ॥ ए मन आलसु किआ करहि गुरमुखि नामु धिआइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कउ = को। ए मन! = हे मन! गुरमुखि = गुरु की शरण पड़के।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (अपने) इस मन को समझा (और कह) हे मन! क्यूँ आलस करता है? गुरु की शरण पड़ के (परमात्मा का) नाम सिर।1। रहाउ। हरि भगति हरि का पिआरु है जे गुरमुखि करे बीचारु ॥ पाखंडि भगति न होवई दुबिधा बोलु खुआरु ॥ सो जनु रलाइआ ना रलै जिसु अंतरि बिबेक बीचारु ॥२॥ पद्अर्थ: पाखंडि = पाखण्ड से, दिखावे से। होवई = होए होती, होना। दुबिधा = दु-किस्मा। दुबिधा बोल = दुचित्ती बोल, पाखण्डी वचन। बिबेक = परख। बिबेक विचार = परख करने की सोच।2। अर्थ: अगर मनुष्य गुरु की शरण में पड़ के (गुरु की दी हुई शिक्षा की) विचार करते रहे तो उसके अंदर प्रमात्मा की भक्ति बस जाती है। परमात्मा का प्यार टिक जाता है। पर पाखण्ड करने से भक्ति नहीं हो सकती। पाखण्ड का बोल खुआर ही करता है। जिस मनुष्य के अंदर (खरे-खोटे) परखने की सूझ पैदा हो जाती है, वह मनुष्य (पाखण्डियों में) मिलाने से मिल नही सकता।2। सो सेवकु हरि आखीऐ जो हरि राखै उरि धारि ॥ मनु तनु सउपे आगै धरे हउमै विचहु मारि ॥ धनु गुरमुखि सो परवाणु है जि कदे न आवै हारि ॥३॥ पद्अर्थ: उरि = हृदय। धारि = टिका के। सउपे = सौंप के, भेटा करके। विचहु = (अपने) अंदर से। धनु = भाग्यशाली। जे = जो।3। नोट: शब्द ‘जि’ और ‘जे’ में फर्क याद रखने योग्य है। अर्थ: वही मनुष्य परमात्मा का सेवक कहा जा सकता है, जो परमात्मा को (की याद) अपने हृदय में टिकाई रखता है। जो अपने अंदर से अहम् दूर करके अपना मन अपना शरीर परमात्मा के हवाले कर देता है, परमात्मा के आगे रख देता है। जो मनुष्य (विकारों से टक्कर व मानव जनम की बाजी) कभी हार के नहीं आता, गुरु के सन्मुख हुआ वह मनुष्य भाग्यशाली है वह (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार होता है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |