श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 29 करमि मिलै ता पाईऐ विणु करमै पाइआ न जाइ ॥ लख चउरासीह तरसदे जिसु मेले सो मिलै हरि आइ ॥ नानक गुरमुखि हरि पाइआ सदा हरि नामि समाइ ॥४॥६॥३९॥ पद्अर्थ: करमि = (प्रभु की) कृपा से। विणु करमै = मेहर के बिना।4। अर्थ: परमात्मा (मनुष्य को) अपनी मेहर से ही मिले तो मिलता है। मेहर के बगैर वह प्राप्त नहीं हो सकता। चौरासी लाख जूनियों के जीव (परमात्मा का मिलने के लिए) तरसते हैं। पर वही जीव परमात्मा से मिल सकता है जिस को वह खुद (अपने साथ) मिलाता है। हे नानक! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह परमात्मा को ढूँढ लेता है। वह सदा परमात्मा के नाम में लीन रहता है।4।6।39। सिरीरागु महला ३ ॥ सुख सागरु हरि नामु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥ अनदिनु नामु धिआईऐ सहजे नामि समाइ ॥ अंदरु रचै हरि सच सिउ रसना हरि गुण गाइ ॥१॥ पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। गुरमुखि = गुरु की तरफ मुंह करने से। अनदिनु = हर रोज। धिआईऐ = स्मरणा चाहिए। सहजे = आत्मिक अडोलता में (टिक के)। समाइ = लीन हो के। अंदरु = हृदय। नोट: शब्द ‘अंदरु’ संज्ञा है, जबकि ‘अंदरि’ संबंधक है। रसना = जीभ। गाइ = गा के।1। अर्थ: परमात्मा का नाम सुखों का समुंदर है, पर यह मिलता है गुरु की शरण पड़ने से। प्रभु नाम से आत्मिक अडोलता में लीन हो के हर वक्त परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए। जीभ से हरि के गुण गा के हृदय सदा स्थिर प्रभु के साथ एक-मेक हो जाता है।1। भाई रे जगु दुखीआ दूजै भाइ ॥ गुर सरणाई सुखु लहहि अनदिनु नामु धिआइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: दूजै भाइ = परमात्मा के बगैर और किसी के प्यार में। लहहि = प्राप्त करेगा।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा को भुला के माया आदि) और प्यार में पड़ के जगत दुखी हो रहा है। तू गुरु की शरण पड़ के हर रोज परमात्मा का नाम स्मरण कर; (इस तरह) सुख प्राप्त करेगा।1। रहाउ। साचे मैलु न लागई मनु निरमलु हरि धिआइ ॥ गुरमुखि सबदु पछाणीऐ हरि अम्रित नामि समाइ ॥ गुर गिआनु प्रचंडु बलाइआ अगिआनु अंधेरा जाइ ॥२॥ पद्अर्थ: लागई = लगता है। धिआइ = स्मरण करके। सबदु पछाणीऐ = महिमा की वाणी से सांझ डालनी चाहिए। नामि = नाम में। प्रचंडु = तेज। बलाइआ = जगाया।2। अर्थ: सदा स्थिर परमात्मा को (विकारों की) मैल नहीं लग सकती। (उस) परमात्मा का नाम स्मरण करने से (नाम-जपने वाले मनुष्य का) मन (भी) पवित्र हो जाता है। गुरु की शरण पड़ के परमात्मा की महिमा की वाणी के साथ गहरी सांझ डालनी चाहिए। (जो ये सांझ डालता है वह) आत्मिक जीवन देने वाले हरि नाम में लीन हो जाता है (जिस मनुष्य ने अपने अंदर) गुरु का ज्ञान अच्छी तरह रौशन कर लिया है (उसके अंदर से) अज्ञानता का अंधेरा दूर हो जाता है।2। मनमुख मैले मलु भरे हउमै त्रिसना विकारु ॥ बिनु सबदै मैलु न उतरै मरि जमहि होइ खुआरु ॥ धातुर बाजी पलचि रहे ना उरवारु न पारु ॥३॥ पद्अर्थ: मर जंमहि = (आत्मिक मौत) मर के (बार बार) पैदा होते हैं। होइ = हो के। विकारु = रोग। धातुर = नासवंत। बाजी = खेल। पलचि रहे = फस रहे हैं। उरवारु = इधर का छोर।3। अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले लोग मलीन मन रहते हैं, विकारों की मैल के साथ लिबड़े रहते हैं। उनके अंदर अहम् की लालच का रोग टिका रहता है। यह मैल गुरु के शब्द के बिना नहीं उतरती। (शब्द के बिना) आत्मिक मौत में खुआर हो के जन्म-मरण के चक्कर में पड़े रहते हैं। वह इस नाशवान जगत खेल में फंसे रहते हैं। इसमें से उनका ना इस पार का ना ही उस पार की प्राप्ति होती है।3। गुरमुखि जप तप संजमी हरि कै नामि पिआरु ॥ गुरमुखि सदा धिआईऐ एकु नामु करतारु ॥ नानक नामु धिआईऐ सभना जीआ का आधारु ॥४॥७॥४०॥ पद्अर्थ: जप तप संजमी = जपी, तपी, संजमी, स्मरण करने वाले, सेवा करने वाले। मन को विकारों से रोकने वाले। आधारु = आसरा।4। अर्थ: जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता हैवह स्मरण करता है वह सेवा करता है वह अपने आपको विकारों से बचा के रखता है। वह परमात्मा के नाम में प्यार पाता है। (हे भाई!) गुरु की शरण पड़ कर सदा ही कर्तार के नाम को स्मरणा चाहिए। हे नानक! परमात्मा का नाम (ही) स्मरणा चाहिए, (परमात्मा का नाम) सभ जीवों (की जिंदगी) का आसरा है।4।7।40। नोट:
स्रीरागु महला ३ ॥ मनमुखु मोहि विआपिआ बैरागु उदासी न होइ ॥ सबदु न चीनै सदा दुखु हरि दरगहि पति खोइ ॥ हउमै गुरमुखि खोईऐ नामि रते सुखु होइ ॥१॥ पद्अर्थ: मनमुखु = अपने मन की ओर मुँह रखने वाला। विआपिआ = फसा हुआ। उदासी = उपरामता। चीनै = पहचानता है। पति = इज्जत। खोइ = गवा लेता है। खोइऐ = नाश की जाती है।1। अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य माया के मोह में फंसा ही रहता है। (उसके अंदर) ना परमात्मा की लगन पैदा होती है ना ही माया की तरफ से उपरामता। वह मनुष्य गुरु के शब्द को नहीं विचारता, (इस वास्ते उसको) सदा दुख घेर के रखते हैं। परमात्मा की दरगाह में भी वह अपनी इज्जत गवा लेता है। पर, गुरु की बताई राह में चलने से अहम् दूर हो जाता है, नाम में रंग जाता है और सुख प्राप्त होता है।1। मेरे मन अहिनिसि पूरि रही नित आसा ॥ सतगुरु सेवि मोहु परजलै घर ही माहि उदासा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अहि = दिन। निसि = रात। सेवि = सेवा करके। परजलै = प्रज्वलित, अच्छी तरह जलना।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! (तेरे अंदर तो) दिन रात सदा (माया की) आस भरी रहती है। (हे मन!) सतिगुरु की बतायी हुई सेवा कर (तभी माया का) मोह अच्छी तरह जल सकता है। (तभी) गृहस्थ में रहते हुए ही (माया से) उपराम हो सकते हैं।1। रहाउ। गुरमुखि करम कमावै बिगसै हरि बैरागु अनंदु ॥ अहिनिसि भगति करे दिनु राती हउमै मारि निचंदु ॥ वडै भागि सतसंगति पाई हरि पाइआ सहजि अनंदु ॥२॥ पद्अर्थ: बिगसै = खिला हुआ। हरि बैरागु = परमात्मा का प्रेम। निचंदु = निचिंत, बेफिक्र। सहजि = आत्मिक अडोलता में।2। अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (गुरु के बताए हुये) कर्म करता है व (भीतर से) आनन्दित रहता है। (क्योंकि उसके अंदर) परमात्मा का प्रेम है और आत्मिक सुख है। वह दिन रात हर समय परमात्मा की भक्ति करता है। (अपने अंदर से) अहम् को दूर करके वह बेफिक्र रहता है। बड़ी किस्मत से उसको साधु-संगत प्राप्त हो जाती है, जहां उसको परमात्मा का मिलाप हो जाता है, और वह आत्मिक अडोलता में (टिका हुआ) सुख भोगता है।2। सो साधू बैरागी सोई हिरदै नामु वसाए ॥ अंतरि लागि न तामसु मूले विचहु आपु गवाए ॥ नामु निधानु सतगुरू दिखालिआ हरि रसु पीआ अघाए ॥३॥ पद्अर्थ: बैरागी = विरक्त। न लागि = नहीं लगती। तामसु = (विकारों की) कालख। मूले = बिल्कुल। आपु = स्वै भाव, अहम्। निधानु = खजाना। अघाए = पेट भर के, तृप्त हो के।3। अर्थ: वह मनुष्य (असल) साधु है वही बैरागी हैजो अपने हृदय में प्रभु का नाम बसाता है। उसके अंदर विकारों की कालिख कभी भी असर नहीं करती, वह अपने अंदर से अहम् भाव गवा के रखता है। सतिगुरु ने उसको परमात्मा का नाम खजाना (उसके अंदर ही) दिखा दिया होता है और वह नाम-रस पूरी तृप्ति से पीता है।3। जिनि किनै पाइआ साधसंगती पूरै भागि बैरागि ॥ मनमुख फिरहि न जाणहि सतगुरु हउमै अंदरि लागि ॥ नानक सबदि रते हरि नामि रंगाए बिनु भै केही लागि ॥४॥८॥४१॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। जिनि मिनै = जिस किसी ने। बैरागि = प्रेम में (टिक के)। लागि = लगी रहती है। लागि = पाह।4। अर्थ: परमात्मा को जिस किसी ने ढूंढा है साधु संगति में ही बड़ी किस्मत से प्रभु-प्रेम में जुड़ के ढूंढा है। पर अपने मन के पीछे चलने वाले लोग (बाहर जंगलों आदि में) घूमते फिरते हैं। वे सत्गुरू की (वडियाई को, बड़ेपन को) नहीं समझते, उनके अंदर अहम् (की मैल) लगी रहती है। हे नानक! जो मनुष्य गुरु के शब्द में रंगे गये हैं वे परमात्मा नाम-रंग में रंगे जाते हैं (पर, पाह के बिना पक्का रंग नहीं चढ़ता, और नाम-रंग में रंगे जाने के वास्ते प्रभु के) भय-अदब के बिना पाह नहीं मिल सकती।4।8।41। सिरीरागु महला ३ ॥ घर ही सउदा पाईऐ अंतरि सभ वथु होइ ॥ खिनु खिनु नामु समालीऐ गुरमुखि पावै कोइ ॥ नामु निधानु अखुटु है वडभागि परापति होइ ॥१॥ पद्अर्थ: घर ही = घर में ही। वथु = वस्तु, चीज, पदार्थ। समालीऐ = स्मरणा चाहिए। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। निधानु = खजाना। अखुटु = ना खत्म होने वाला।1। अर्थ: (परमात्मा का नाम रूप) सारा (उत्तम) पदार्थ (मनुष्य के) हृदय में ही है। (गुरु की शरण पड़ने से) ये सौदा हृदय में से ही मिल जाता है। (गुरु की शरण पड़ के) स्वास स्वास परमात्मा नाम स्मरणा चाहिए। जो कोई नाम प्राप्त करता है गुरु के द्वारा ही प्राप्त करता है। जिसे बड़ी किस्मत से ये खजाना मिलता है (उससे कभी खत्म नहीं होता) (क्योंकि) नाम खजाना कभी खत्म होने वाला नहीं है।1। मेरे मन तजि निंदा हउमै अहंकारु ॥ हरि जीउ सदा धिआइ तू गुरमुखि एकंकारु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! तजि = त्याग। एकंकारु = एक व्यापक प्रभु को।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! निंदा करनी छोड़ दे, (अपने अंदर से) अहम् दूर कर। गुरु की शरण पड़ कर तू सर्व-व्यापक परमात्मा को स्मरण करता रह।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |