श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सिरीरागु महला ३ ॥ अम्रितु छोडि बिखिआ लोभाणे सेवा करहि विडाणी ॥ आपणा धरमु गवावहि बूझहि नाही अनदिनु दुखि विहाणी ॥ मनमुख अंध न चेतही डूबि मुए बिनु पाणी ॥१॥

पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मक जीवन देने वाला नाम रस। बिखिआ = माया। बिडाणी = बेगानी। धरमु = (मनुष्य जीवन के) फर्ज। अनदिनु = हर रोज। विहाणी = बीतती है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। अंध = (माया के मोह में) अंधे। चेतही = याद करते हैं।1।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले लोग आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस छोड़ के माया में मस्त रहते हैं। (और माया की खातिर) औरों की (सेवा खुशामद) करते फिरते हैं। (इस तरह वह) अपना (मनुष्य जनम का) फर्ज भुला बैठते हैं। (पर) समझते नहीं, और (उनकी उम्र) हर वक्त दुख में बीतती जाती है। (माया के मोह में) अंधे हुए मनमुख परमात्मा को नहीं याद करते। पानी के बिना ही डूब मरते हैं। (भाव, विकारों में गलतान हो के आत्मिक मौत मरते हैं और प्राप्त भी कुछ नहीं होता)।1।

मन रे सदा भजहु हरि सरणाई ॥ गुर का सबदु अंतरि वसै ता हरि विसरि न जाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भजहु = भागो, जाओ। अंतरि = हृदय में।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) मन! सदा परमात्मा की शरण पड़ा रह। (पर परमात्मा की शरण गुरु के शब्द द्वारा ही प्राप्त होती है) जब गुरु का शब्द हृदय में आ बसे, तब परमात्मा (हृदय में से) नहीं बिसरता।1। रहाउ।

इहु सरीरु माइआ का पुतला विचि हउमै दुसटी पाई ॥ आवणु जाणा जमणु मरणा मनमुखि पति गवाई ॥ सतगुरु सेवि सदा सुखु पाइआ जोती जोति मिलाई ॥२॥

पद्अर्थ: दुसटी = दुष्टता, बदी, नीचता। पति = इज्जत। मनमुखि = मनमुख ने।2।

अर्थ: मनमुख का ये शरीर माया का पुतला बना रहता है (भाव, मनमुख माया के हाथों में नाचता रहता है)। मनमुख के हृदय में अहम् भाव टिका रहता है और विकारों की बुराई टिकी रहती है। उसका जगत में आना-जाना पैदा होना मरना हमेशा बना रहता है। मनमुख ने (लोक परलोक में) आदर-सत्कार भी गवा लिया।

जिस ने सत्गुरू की बताई हुई सेवा की, उसने आत्मक आनन्द प्राप्त कर लिया। उसकी ज्योति प्रभु की ज्योति में मिली रहती है।2।

सतगुर की सेवा अति सुखाली जो इछे सो फलु पाए ॥ जतु सतु तपु पवितु सरीरा हरि हरि मंनि वसाए ॥ सदा अनंदि रहै दिनु राती मिलि प्रीतम सुखु पाए ॥३॥

पद्अर्थ: सुखाली = सुख+आलय, सुखों का घर, सुख देने वाली। जतु = विकारों की ओर से रोक। सतु = ऊँचा आचरण। तपु = सेवा। मंनि = मन में। अनंदि = आनंद में।3।

अर्थ: सतगुय की बताई हुई सेवा बहुत सुख देने वाली है (जो मनुष्य सेवा करता है वह) जो कुछ इच्छा करता है वही फल हासिल कर लेता है। गुरु की बताई सेवा ही जत सत तप (का मूल) है। (गुरमुख का) शरीर पवित्र हो जाता है। वह परमात्मा के नाम को अपने मन में बसा लेता है। गुरमुख दिन रात हर वक्त आत्मिक आनन्द में टिका रहता है, प्रीतम प्रभु को मिल के वह आत्मक सुख भोगता है।3।

जो सतगुर की सरणागती हउ तिन कै बलि जाउ ॥ दरि सचै सची वडिआई सहजे सचि समाउ ॥ नानक नदरी पाईऐ गुरमुखि मेलि मिलाउ ॥४॥१२॥४५॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। बलि जाउ = सदके जाता हूँ। दरि = दर पे। सची = सदा स्थिर रहने वाली। वडिआई = इज्जत। सहजे = सहज, आत्मक अडोलता से। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। समाउ = समाई, लीनता। मेलि = एकत्रता में। मिलाउ = मिलाप।4।

अर्थ: जो मनुष्य सत्गुरू की शरण पड़ते हैं, मैं उनसे कुर्बान जाता हूँ। उनको सदा स्थिर प्रभु के दर पे सदा ही आदर-सत्कार मिलता है। आत्मिक अडोलता की इनायत से उनको सदा स्थिर प्रभु में लीनता प्राप्त हो जाती है। हे नानक! ऐसे गुरमुखों की संगति में मिलाप परमात्मा की मेहर की नजर से ही मिलता है।4।12।45।

सिरीरागु महला ३ ॥ मनमुख करम कमावणे जिउ दोहागणि तनि सीगारु ॥ सेजै कंतु न आवई नित नित होइ खुआरु ॥ पिर का महलु न पावई ना दीसै घरु बारु ॥१॥

पद्अर्थ: करम = (धार्मिक) कर्म। दोहागण = दुभार्गिनी, दुर्भाग्यपूर्ण स्त्री, त्यागी हुई स्त्री। तनि = शरीर पे। न आवई = ना आए, नहीं आता। पावई = पाता है। बारु = दरवाजा।1।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य के (धार्मिक) कार्य करने यूँ हैं जैसे कोई त्यागी हुई स्त्री (अपने) शरीर का श्रृंगार करती है। उस का पति (उस की) सेज पर कभी नहीं आता, (वह व्यर्थ श्रृंगार करके) सदा खुआर होती है। (इस तरह मनमुख मनुष्य दिखावे के धार्मिक कामों से) प्रभु-पति की हजूरी प्राप्त नहीं कर सकता, उसे प्रभु का दर-घर नहीं दिखता।1।

भाई रे इक मनि नामु धिआइ ॥ संता संगति मिलि रहै जपि राम नामु सुखु पाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: इक मनि = एक मन से, एकाग्रता से। जपि = जप के।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! एकाग्र मन हो के परमात्मा का नाम स्मरण कर। जो मनुष्य साधु संगति में टिका रहता हैवह परमात्मा का नाम स्मरण करके सुख प्राप्त करता है।1। रहाउ।

गुरमुखि सदा सोहागणी पिरु राखिआ उर धारि ॥ मिठा बोलहि निवि चलहि सेजै रवै भतारु ॥ सोभावंती सोहागणी जिन गुर का हेतु अपारु ॥२॥

पद्अर्थ: सोहागणी = सौभाग्यनी, अच्छे भाग्यों वाली। उर धारि = हृदय में टिका के। भतारु = खसम। हेतु = प्यार। अपारु = बहुत, अथाह।2।

अर्थ: सदा गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य सुहागनों (की तरह) हैं, वे प्रभु पति को अपने हृदय में बसा के रखते हैं। वे (सभी से) मीठे बोल बोलते हैं। झुक के (अहम् भाव से हट के, गरीब स्वभाव में) चलते हैं, उनकी हृदय सेज को प्रभु-पति भोगता है। जिस मनुष्यों ने गुरु का अटूट प्यार (अपने हृदय में बसाया है) वह उन सुहागनों की तरह हैं जिन्होंने शोभा कमाई है।2।

पूरै भागि सतगुरु मिलै जा भागै का उदउ होइ ॥ अंतरहु दुखु भ्रमु कटीऐ सुखु परापति होइ ॥ गुर कै भाणै जो चलै दुखु न पावै कोइ ॥३॥

पद्अर्थ: उदउ = उदय, प्रगटावा। भ्रम = भटकना।3।

अर्थ: जब किसी मनुष्य के भाग्य जाग पड़ें, तो अति किस्मत से उसे सत्गुरू मिल जाता है। (गुरु के मिलने से) हृदय में से दुख काटा जाता है, भटकन दूर हो जाती है, आत्मिक आनन्द की प्राप्ति होती है। जो भी मनुष्य गुरु के हुक्म में है, वह कभी भी दुख नहीं पाता।3।

गुर के भाणे विचि अम्रितु है सहजे पावै कोइ ॥ जिना परापति तिन पीआ हउमै विचहु खोइ ॥ नानक गुरमुखि नामु धिआईऐ सचि मिलावा होइ ॥४॥१३॥४६॥

पद्अर्थ: सहजे = सहिज ही, आत्मिक अडोलता में। खेइ = नाश करके। सचि = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु।4।

अर्थ: गुरु की रजा में नाम-अमृत है (जो रजा में चलता है) वह आत्मिक अडोलता में टिक के अंम्रित पीता है। जिस मनुष्यों को अमृत मिल गया, उन्होंने अपने अंदर के अहंकार को दूर करके ही इसे पीया।

हे नानक! गुरु की शरण पड़ कर प्रभु का नाम स्मरणा चाहिए। (नाम जपने की इनायत से) सदा स्थिर प्रभु में मेल हो जाता है।4।13।46।

सिरीरागु महला ३ ॥ जा पिरु जाणै आपणा तनु मनु अगै धरेइ ॥ सोहागणी करम कमावदीआ सेई करम करेइ ॥ सहजे साचि मिलावड़ा साचु वडाई देइ ॥१॥

पद्अर्थ: जा = जब। पिरु जाणै = प्रभु-पति को जान लेती है, प्रभुपति के साथ गहरा अपनत्व बना लेती है। अगै धरेइ = हवाले कर देती है। सोहागणी = सुहाग भाग वालियां जीव स्त्रीयां, भक्त जन। सहजे = आत्मिक अडोलता में टिक के। साचि = सदा स्थिर प्रभु में। साचु = सदा स्थिर प्रभु।1।

अर्थ: जब (कोई जीव-स्त्री) प्रभु-पति को अपना समझ लेती है (भाव, प्रभु-पति के साथ याद कर करके गहरा अपनत्व डाल लेती है) तो वह अपना मन उस के हवाले कर देती है (भाव, अपने मन के पीछे चलना छोड़ देती है)। अपना शरीर भी हवाले कर देती है। (भाव, ज्ञान-इंद्रिय माया की ओर से हट जाती हैं)। वह जीव-स्त्री वही उद्यम करती है जो भक्त जन करते हैं। (इस तरह) आत्मक अडोलता में टिकने से सदा स्थिर प्रभु में उसका मिलाप हो जाता है, सदा स्थिर परमात्मा उसे (अपने घर में) आदर-सत्कार देता है।1।

भाई रे गुर बिनु भगति न होइ ॥ बिनु गुर भगति न पाईऐ जे लोचै सभु कोइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सभ कोइ = हरेक जीव।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ने के बिना परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती। अगर हरेक जीव भी (परमात्मा की भक्ति वास्ते) लालसा करे, तो भी गुरु की शरण के, बिना भक्ति (की दात) नहीं मिल सकती।1। रहाउ।

लख चउरासीह फेरु पइआ कामणि दूजै भाइ ॥ बिनु गुर नीद न आवई दुखी रैणि विहाइ ॥ बिनु सबदै पिरु न पाईऐ बिरथा जनमु गवाइ ॥२॥

पद्अर्थ: फेरु = फेरा, चक्कर, गेड़ा। कामणि = जीव-स्त्री। दूजै भाइ = माया के प्यार में। नीद = शान्ति। रैणि = (जिंदगी की) रात।2।

अर्थ: पर, जो जीव-स्त्री माया के प्यार में रहती है। उसे चौरासी लाख योनियों का फेरा भुगतना पड़ता है। गुरु की शरण पड़ने के बिना आत्मिक शान्ति प्राप्त नहीं होती। उसकी (जिंदगी की रात) दुखों में गुजरती है। गुरु के शब्द के बिना प्रभु-पति नहीं मिलता। (जो मनुष्य गुरु के शब्द से वंचित रहता है) वह अपना मानव जीवन व्यर्थ कर लेता है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh