श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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हउ हउ करती जगु फिरी ना धनु स्मपै नालि ॥ अंधी नामु न चेतई सभ बाधी जमकालि ॥ सतगुरि मिलिऐ धनु पाइआ हरि नामा रिदै समालि ॥३॥

पद्अर्थ: हउ हउ करती = ममता जाल में फंसी हुई। संपै = धन पदार्थ। जमकालि = जम के काल ने, आत्मिक मौत ने। सतिगुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। रिदै = हृदय।3।

अर्थ: (संसार आम तौर पर) ममता-जाल में फंसा हुआ (माया की खातिर) ढूंढता फिरता है। पर (एकत्र किया गया) धन पदार्थ किसी के साथ नहीं जाता। (माया के मोह में) अंधा हुआ संसार परमात्मा का नाम नहीं स्मरण करता और (स्मरण हीन जगत को) आत्मिक मौत ने अपने बंधनों में बांधा हुआ है। अगर गुरु मिल जाए तो हरि नाम धन प्राप्त हो जाता है (गुरु की शरण पड़ के जीव) परमात्मा का नाम अपने हृदय में संभाल के रखता है।3।

नामि रते से निरमले गुर कै सहजि सुभाइ ॥ मनु तनु राता रंग सिउ रसना रसन रसाइ ॥ नानक रंगु न उतरै जो हरि धुरि छोडिआ लाइ ॥४॥१४॥४७॥

पद्अर्थ: नामि = नाम में। गुरु कै = गुरु के शब्द से। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। रसना = जीभ। रसन रसाइ = नाम रस में रसी जाती है। धुरि = धुर से ही अपने हुक्म में।4।

अर्थ: गुरु के शब्द की इनायत से जो मनुष्य परमात्मा के नाम (-रंग) में रंगे जाते हैं वह पवित्र (जीवन वाले) हो जाते हैं। वह आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं, वह प्रभु-प्रेम में जुड़े रहते हैं। उनका मन, उनका शरीर प्रभु के प्रेम-रंग से रंगा जाता है। उनकी जीभ नाम रस में रसी रहती है। हे नानक! जिन्हें परमात्मा धुर से ही अपनी रजा से नाम-रंग चढ़ा देता है, उनका वह रंग कभी उतरता नहीं।4।14।47।

सिरीरागु महला ३ ॥ गुरमुखि क्रिपा करे भगति कीजै बिनु गुर भगति न होई ॥ आपै आपु मिलाए बूझै ता निरमलु होवै सोई ॥ हरि जीउ साचा साची बाणी सबदि मिलावा होई ॥१॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु द्वारा। कीजै = की जा सकती है। आपै = (गुरु के) स्वयं में। आपु = अपने आप को। साचा = सदा स्थिर। बाणी = महिमा। सबदि = महिमा की वाणी में (जुड़ने से)।1।

अर्थ: अगर परमात्मा गुरु के द्वारा (जीव पर) कृपा करे तो (जीव द्वारा) भक्ति की जा सकती है। (गुरु की शरण पड़े) बगैर परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती। जो मनुष्य अपने आप को (गुरु के) अस्तित्व में जोड़ दे (इस भेद को) समझ ले, तो वह पवित्र जीवन वाला हो जाता है। परमात्मा सदा स्थिर रहने वाला है, (उसकी महिमा भी सदा स्थिर रहने वाली है) महिमा की वाणी के द्वारा ही उससे मिलाप हो सकता है।1।

भाई रे भगतिहीणु काहे जगि आइआ ॥ पूरे गुर की सेव न कीनी बिरथा जनमु गवाइआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जगि = जगत में। काहे आइआ = आने का कोई लाभ नहीं हुआ।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति से वंचित रहा, उसे जगत में आने का कोई लाभ नहीं हुआ। जिस मनुष्य ने पूरे गुरु की बताई सेवा ना की, उसने मानुख जन्म व्यर्थ गवा लिया।1। रहाउ।

आपे जगजीवनु सुखदाता आपे बखसि मिलाए ॥ जीअ जंत ए किआ वेचारे किआ को आखि सुणाए ॥ गुरमुखि आपे देइ वडाई आपे सेव कराए ॥२॥

पद्अर्थ: जग जीवन = जगत की जीवन, जीवों की जिंदगी का सहारा। बखसि = बख्शिश करके। आपे = (प्रभु) खुद ही।2।

नोट: शब्द ‘बखस’ और ‘बखसि’ में फर्क याद रखने योग्य है।

अर्थ: परमात्मा स्वयं ही जगत के जीवों की जिन्दगी का सहारा है, स्वयं ही (जीवों को) सुख देने वाला है, स्वयं ही मेहर करके (जीवों को) अपने साथ जोड़ता है। (अगर वह खुद मेहर ना करे तो उसके चरणों में जुड़ने के वास्ते) विचारे जीव बिल्कुल अस्मर्थ है। (प्रभु की मेहर के बिना) ना कोई जीव (उसकी कीर्ति) कह सकता है ना ही सुना सकता है। परमात्मा स्वयं ही गुरु के द्वारा (अपने नाम की बड़ाई) देता है, और स्वयं अपनी सेवा भक्ति कराता है।2।

देखि कुट्मबु मोहि लोभाणा चलदिआ नालि न जाई ॥ सतगुरु सेवि गुण निधानु पाइआ तिस दी कीम न पाई ॥ हरि प्रभु सखा मीतु प्रभु मेरा अंते होइ सखाई ॥३॥

पद्अर्थ: देखि = देख के। मोहि = मोह में। गुण निधान = गुणों का खजाना, प्रभु। तिस दी = उस मनुष्य (आत्मिक उच्चता) की। कीम = कीमत। सखा = साथी, मित्र। सखाई = सहाई।3।

अर्थ: जीव अपने परिवार को देख के इस के मोह में फंस जाता है। (पर, परिवार का कोई साथी) जगत से चलने के वक्त जीव के साथ नहीं जाता। जिस मनुष्य ने गुरु की बताई सेवा करके गुणों के खजाने परमात्मा को ढूंढ लिया, उस की (आत्मिक उच्चता की) कीमत नहीं पड़ सकती। परमात्मा उस मनुष्य का दोस्त बन जाता है मित्र बन जाता है, अंत समय भी उसका साथी बनता है।3।

आपणै मनि चिति कहै कहाए बिनु गुर आपु न जाई ॥ हरि जीउ दाता भगति वछलु है करि किरपा मंनि वसाई ॥ नानक सोभा सुरति देइ प्रभु आपे गुरमुखि दे वडिआई ॥४॥१५॥४८॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। आपु = स्वै भाव, अहम्। भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। मंनि = मन में। सुरति = समझ।4।

अर्थ: अपने मन में अपने चित्त में जीव बेशक कहता रहे, दूसरों से भी कहलवाता फिरे (कि मेरे अंदर अहंकार नहीं है) पर यह अहम् अहंकार गुरु की शरण पड़े बगैर दूर नहीं हो सकता। जो प्रभु सब जीवों को दातें देने वाला है तथा भक्ति से प्यार करता है वह कृपा करके खुद ही (अपनी भक्ती जीव के) हृदय में बसाता है। हे नानक! प्रभु स्वयं ही (अपनी भक्ति की) तवज्जो बख्शता है व शोभा बख्शता है। स्वयं ही गुरु की शरण में डाल के (अपने दर पे उसे) आदर सत्कार देता है।4।15।48।

सिरीरागु महला ३ ॥ धनु जननी जिनि जाइआ धंनु पिता परधानु ॥ सतगुरु सेवि सुखु पाइआ विचहु गइआ गुमानु ॥ दरि सेवनि संत जन खड़े पाइनि गुणी निधानु ॥१॥

पद्अर्थ: धनु = (धन्य) भाग्य वाली। जननी = मां। जिनि = जिस (मां) ने। जाइआ = जनम दिया। धंनु = (धन्य) भाग्य वाला। सेवि = सेव कर, शरण ले के। दरि = (गुरु के) दर पे। सेवनि = सेवा करते हैं। खड़े = सावधान हो के। पाइनि = पाते हैं। गुणी निधानु = गुणों का खजाना, प्रभु।1।

अर्थ: वह माँ भाग्यशाली है जिस ने (गुरु को) जन्म दिया। (गुरु का) पिता भी भाग्यवान है (और मनुष्य जाति में) श्रेष्ठ है। सतिगुरु की शरण लेने से आत्मिक आनन्द प्राप्त होता है (जो मनुष्य गुरु की शरण में आता है उसके) अंदर से अहंकार दूर हो जाता है। (जो) संतजन (गुरु के) दर पर सावधान हो के सेवा करते हैं, वे गुणों के खजाने परमात्मा को मिल लेते हैं।1।

मेरे मन गुर मुखि धिआइ हरि सोइ ॥ गुर का सबदु मनि वसै मनु तनु निरमलु होइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। सोइ = वह। मलि = मन में।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! गुरु की शरण पड़ के उस परमात्मा को स्मरण कर। (जिस मनुष्य के) मन में गुरु का शब्द बस जाता है उस का मन पवित्र हो जाता है। उसका शरीर पवित्र हो जाता है। (अर्थात्, ज्ञान-इंद्रिय विकारों से हट जाती हैं।)।1। रहाउ।

करि किरपा घरि आइआ आपे मिलिआ आइ ॥ गुर सबदी सालाहीऐ रंगे सहजि सुभाइ ॥ सचै सचि समाइआ मिलि रहै न विछुड़ि जाइ ॥२॥

पद्अर्थ: करि = कर के। घरि = हृदय रूपी घर में। आपे = स्वयं ही। सालाहीऐ = सलाहा जा सकता है। रंगे = रंग देता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। सचै = सदा स्थिर प्रभु में ही, सत्य ही।2।

अर्थ: (गुरु की शरण पड़ने से ही) परमात्मा (जीव के) हृदय घर में आकर प्रगट होता है, स्वयं ही आ के मिलता है। गुरु के शब्द द्वारा ही परमात्मा की महिमा की जा सकती है (जो मनुष्य महिमा करता है उसको प्रभु) आत्मिक अडोलता में व (अपने) प्रेम में रंग देता है। (गुरु की शरण पड़ के) मनुष्य सदा स्थिर प्रभु में ही लीन रहता है, सदैव प्रभु चरणों में विलीन रहता है, कभी विछुड़ता नहीं।2।

जो किछु करणा सु करि रहिआ अवरु न करणा जाइ ॥ चिरी विछुंने मेलिअनु सतगुर पंनै पाइ ॥ आपे कार कराइसी अवरु न करणा जाइ ॥३॥

पद्अर्थ: मेलिअनु = उस (प्रभु) ने मिलाए हैं। सतगुर पंनै = गुरु के पन्ने में, गुरु के लेखे में, गुरु के साथ (लग के)। कराइसी = कराएगा।3।

अर्थ: (परमात्मा की रजा ही ऐसी है कि उसको मिलने के वास्ते जीव सत्गुरू की शरण पड़े, इस रजा का उलंघन नहीं हो सकता) वह परमात्मा वही कुछ कर रहा है जो उसकी रजा है। (उस रजा के उलट) और कुछ किया ही नहीं जा सकता। सत्गुरू के साथ लग के परमात्मा ने चिरों से बिछुड़े जीवों को अपने चरणों में मिला लिया है। प्रभु स्वयं ही (गुरु की शरण पड़ने वाला) कर्म (जीवों से) करवाता है, इसके उलट नहीं चला जा सकता।3।

मनु तनु रता रंग सिउ हउमै तजि विकार ॥ अहिनिसि हिरदै रवि रहै निरभउ नामु निरंकार ॥ नानक आपि मिलाइअनु पूरै सबदि अपार ॥४॥१६॥४९॥

पद्अर्थ: तजि = छोड़ के। अहि = दिन। निसि = रात। निरभउ = भय दूर करने वाला। मिलाइअनु = उस (प्रभु) ने मिलाए हैं। सबदि = गुरु के शब्द द्वारा।4।

अर्थ: (गुरु की शरण पड़ के ही) अहम् का विकार दूर करके मनुष्य का मन और शरीर भी परमात्मा के प्रेम रंग से रंगा जाता है। (अगर जीव गुरु की शरण पड़े तो) आकार-रहित परमात्मा का निर्भैता देने वाला नाम दिन रात उसके हृदय में टिका रहता है।

हे नानक! बेअंत पूर्ण प्रभु ने गुरु के शब्द के द्वारा स्वयं जीवों को (अपने चरणों में) मिलाया है।4।16।49।

सिरीरागु महला ३ ॥ गोविदु गुणी निधानु है अंतु न पाइआ जाइ ॥ कथनी बदनी न पाईऐ हउमै विचहु जाइ ॥ सतगुरि मिलिऐ सद भै रचै आपि वसै मनि आइ ॥१॥

पद्अर्थ: गोविदु = धरती के जीवों के दिलों की जानने वाला परमात्मा। निधानु = खजाना। कथनी = (सिर्फ) कहने मात्र से। बदनी = (वद् बोलना) बोलने से। सतिगुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। सद = सदा। भै = डर में, अदब में। रचै = रच जाए, एकमेक हो जाए। मनि = मन में।1।

अर्थ: परमात्मा सभ गुणों का खजाना है। (उसके गुणों का) आखिरी छोर ढूंढा नहीं जा सकता। सिर्फ यही कहने से कथन करने से (कि मैंने परमात्मा को ढूंढ लिया है) परमात्मा को प्राप्त नहीं किया जा सकता। (परमात्मा तभी मिलता है यदि) मनुष्य के अंदर से अहम् खत्म हो जाए। गुरु के मिलने से मनुष्य का हृदय सदा परमत्मा के डर-अदब में भीगा रहता है। (और इस तरह) परमात्मा स्वयं मनुष्य के हृदय में आ बसता है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh