श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 33 भाई रे गुरमुखि बूझै कोइ ॥ बिनु बूझे करम कमावणे जनमु पदारथु खोइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। खोइ = गवा लेते हैं।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जो कोई मनुष्य (सही जीवन जुगति) समझता है वह गुरु के द्वारा ही समझता है। (सही जीवन जुगति) समझने के बिना (निहित धार्मिक) कर्म करने से मनुष्य कीमती मानव जनम गवा लेता है।1। रहाउ। जिनी चाखिआ तिनी सादु पाइआ बिनु चाखे भरमि भुलाइ ॥ अम्रितु साचा नामु है कहणा कछू न जाइ ॥ पीवत हू परवाणु भइआ पूरै सबदि समाइ ॥२॥ पद्अर्थ: सादु = स्वाद। भरमि = भटकन में। भुलाइ = गलत रास्ते पड़ जाते हैं। कछू = कोई (स्वाद)। हू = ही। पीवत हू = पीते ही।2। अर्थ: परमात्मा का सदा स्थिर एक नाम आत्मिक जीवन देने वाला रस है। इसके स्वाद का वर्णन नहीं किया जा सकता। जिन्होंने ये अमृत चखा हैउन्होंने इसके स्वाद का आनन्द लिया है। (नाम अमृत का स्वाद) चखने के बिना मनुष्य माया की भटकन में पड़ कर गलत रास्ते पर पड़ जाता है। पूरे गुरु के शब्द में लीन हो के नाम अमृत पीते ही मनुष्य (प्रभु की हजूरी में) स्वीकार हो जाता है।2। आपे देइ त पाईऐ होरु करणा किछू न जाइ ॥ देवण वाले कै हथि दाति है गुरू दुआरै पाइ ॥ जेहा कीतोनु तेहा होआ जेहे करम कमाइ ॥३॥ पद्अर्थ: देइ = देता है, अगर दे। कै हथि = के हाथ में। गुरू दुआरै = गुरु के द्वारा। कीतोनु = उन कीतो, उस (प्रभु) ने किया। जेहे = उ+जेहे, उस जैसे।3। अर्थ: (नाम अमृत की दात) अगर परमात्मा खुद ही दे तो मिलती है। (अगर उसकी मेहर ना हो तो) और कोई चारा नहीं किया जा सकता। (नाम की दाति) देने वाले परमात्मा के अपने हाथ में यह दात है। (उसकी रजा के अनुसार) गुरु के दर से ही मिलती है। (परमात्मा ने जीव को) जिस तरह का बनाया, जीव वैसा ही बन गया। (फिर) वैसे ही कर्म जीव करता है। (उसकी रजा अनुसार ही जीव गुरु के दर पर आता है)।3। जतु सतु संजमु नामु है विणु नावै निरमलु न होइ ॥ पूरै भागि नामु मनि वसै सबदि मिलावा होइ ॥ नानक सहजे ही रंगि वरतदा हरि गुण पावै सोइ ॥४॥१७॥५०॥ पद्अर्थ: जतु = कामनाओं से बचने के उद्यम। सतु = ऊँचा आचरण। संजमु = इन्द्रियों को विकारों से रोकने का यत्न। विणु नावै = नाम (स्मरण) के बिना। मनि = मन में। सबदि = (गुरु के) शब्द द्वारा। सहजे = आत्मिक अडोलता में। रंगि = (प्रभु के) प्रेम में। वरतदा = जीवन व्यतीत करता है। सोइ = वही मनुष्य।4। अर्थ: (मनुष्य अपने जीवन को पवित्र करने के लिए जत सत संजम साधनाएं करता है, पर नाम स्मरण के बिना ये किसी काम के नहीं।) परमात्मा का नाम-अमृत ही जत है, नाम ही सत है और नाम ही संजम है। नाम के बिना मनुष्य पवित्र जीवन वाला नहीं हो सकता। बहुत किस्मत के साथ जिस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम आ बसता है, गुरु के शब्द द्वारा मनुष्य का प्रभु से मिलाप हो जाता है। हे नानक! (गुरु के शब्द की इनायत से) जो मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा के प्रेम रंग में जीवन व्यतीत करता है वह मनुष्य परमात्मा के गुण अपने अंदर बसा लेता है।4।17।50। सिरीरागु महला ३ ॥ कांइआ साधै उरध तपु करै विचहु हउमै न जाइ ॥ अधिआतम करम जे करे नामु न कब ही पाइ ॥ गुर कै सबदि जीवतु मरै हरि नामु वसै मनि आइ ॥१॥ पद्अर्थ: कांइआ = शरीर। साधै = साधता है, बस में रखने के यत्न करता है। उरध = उल्टा लटक के। अधिआतम कर्म-आत्मा संबंधी धार्मिक कर्म। आध्यात्म = आत्मा संबंधी। कब ही = कभी भी। जीवतु मरै = जीता हुआ मर जाए, दुनिया का कार्य-व्यवहार करता हुआ ही विकारों से बचा रहे। मनि = मन में।1। अर्थ: मानव शरीर को (ज्ञान-इंद्रिय को) अपने बस में रखने के कई प्रयत्न करता है। उल्टा लटक के तप करता है। (पर इस तरह) अंदर का अहम् दूर नहीं होता। अगर मनुष्य आत्मिक उन्नति संबंधी (ऐसे नियत धार्मिक) कर्म करता रहे, तो कभी भी वह परमात्मा का नाम प्राप्त नहीं कर सकता। जो मनुष्य गुरु के शब्द की सहायता से दुनिया की कृत कार करता हुआ ही विकारों से बचता है, उसके मन में प्रभु का नाम आ बसता है।1। सुणि मन मेरे भजु सतगुर सरणा ॥ गुर परसादी छुटीऐ बिखु भवजलु सबदि गुर तरणा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: भजु सरणा = शरण पड़ो। छुटीऐ = (माया के प्रभाव से) बचना है। बिखु = जहर, माया की जहरीला असर। भव जल = संसार समुंदर।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! (मेरी बात) सुन। सत्गुरू की शरण पड़। (माया के प्रभाव से) गुरु की कृपा से बचते हैं। ये जहर (भरा) संसार समुंदर गुरु के शब्द द्वारा ही तैर सकते हैं।1 रहाउ। त्रै गुण सभा धातु है दूजा भाउ विकारु ॥ पंडितु पड़ै बंधन मोह बाधा नह बूझै बिखिआ पिआरि ॥ सतगुरि मिलिऐ त्रिकुटी छूटै चउथै पदि मुकति दुआरु ॥२॥ पद्अर्थ: त्रै गुण = माया के तीन गुण = रजो गुण तमो गुण व सतो गुण। धातु = माया। दूजा भाउ = (प्रभु के बिना) और प्यार। बिखिआ पिआरि = माया के प्यार में। त्रिकुटी = माथे की लकीरें, अंदर का खिज। चउथे पद = उस आत्मिक दर्जे में जो माया के तीन गुणों से ऊपर है।2। अर्थ: तीन गुणों के अधीन रह कर काम करना, यह सारा माया का ही प्रभाव है। और माया का ही प्यार (मन में) विकार पैदा करता है। माया के बंधनों के मोह में फंसा हुआ पंडित (धर्म पुस्तकें) पढ़ता है, पर माया के प्यार में (फंसा रहने के कारण वह जीवन का सही रास्ता) नहीं समझ सकता। अगर सतिगुरु मिल जाए तो (माया मोह के कारण पैदा हुई अंदर की खिज) दूर हो जाती है। माया के तीन गुणों से ऊपर के आत्मिक दर्जे में (पहुँचने से) (माया के मोह से खलासी) का दरवाजा मिल जाता है।2। गुर ते मारगु पाईऐ चूकै मोहु गुबारु ॥ सबदि मरै ता उधरै पाए मोख दुआरु ॥ गुर परसादी मिलि रहै सचु नामु करतारु ॥३॥ पद्अर्थ: ते = से। मारगु = (जीवन का सही) रास्ता। गुबार = अंधेरा। सबदि = गुरु के शब्द से। उधरै = बच जाता है। मोख दुआरु = (विकारों से) बचने का रास्ता, मोक्ष द्वार। मिलि रहै = जुड़ा रहे।3। अर्थ: गुरु से जीवन का सही राह मिल जाता है। (मन में से) मोह का अंधेरा दूर हो जाता है। अगर मनुष्य गुरु के शब्द से जुड़ के माया के मोह से मर जाए तो (संसार समुंदर में डूबने से बच जाता है)। और विकारों से खलासी का राह मिल जाता है। गुरु की कृपा से ही मनुष्य (प्रभु चरणों में) जुड़ा रह सकता है और प्रभु का सदा स्थिर नाम प्राप्त कर सकता है।3। इहु मनूआ अति सबल है छडे न कितै उपाइ ॥ दूजै भाइ दुखु लाइदा बहुती देइ सजाइ ॥ नानक नामि लगे से उबरे हउमै सबदि गवाइ ॥४॥१८॥५१॥ पद्अर्थ: सबल = बलवान। कितै उपाइ = किसी भी तरह से। दूजै भाइ = माया के प्रेम में। देइ = देता है। सबदि = शब्द से। जलाइ = जला के।4। अर्थ: (नहीं तो) यह मन (तो) बड़ा बलवान है (गुरु की शरण के बिना और) किसी भी तरीके से ये (गलत रास्ते पड़ने से) हटता नहीं। माया के प्यार में फसा के (मनुष्य को) दुख चिपका लेता है, तथा बड़ी सजा देता है। हे नानक! जो लोग गुरु के शब्द से अहम् दूर करके परमात्मा के नाम में जुड़ते हैं वह (इसके पंजे से) बचते हैं।4।18।51। सिरीरागु महला ३ ॥ किरपा करे गुरु पाईऐ हरि नामो देइ द्रिड़ाइ ॥ बिनु गुर किनै न पाइओ बिरथा जनमु गवाइ ॥ मनमुख करम कमावणे दरगह मिलै सजाइ ॥१॥ पद्अर्थ: नामो = नामु। देइद्रिड़ाइ = हृदय में पक्का कर देता है। किनै = किसी ने भी।1। अर्थ: (जब परमात्मा) कृपा करता है (तो) गुरु मिलता है (गुरु मनुष्य के हृदय में) परमात्मा का नाम पक्का कर देता है। (कभी भी) किसी मनुष्य ने गुरु के बिना (परमात्मा को) नहीं प्राप्त किया। (जो मनुष्य गुरु की शरण नहीं आता वह) अपना मानव जन्म व्यर्थ गवा लेता है। अपने मन के पीछे चल के (नीयत धार्मिक) कर्म (भी) करने से प्रभु की दरगाह में सजा ही मिलती है।1। मन रे दूजा भाउ चुकाइ ॥ अंतरि तेरै हरि वसै गुर सेवा सुखु पाइ ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अंतरि तेरै = तेरे अंदर।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! (गुरु की शरण पड़ कर अपने अंदर से) माया का प्यार दूर कर। परमात्मा तेरे अंदर बसता है (फिर भी तू सुखी नहीं है) गुरु द्वारा बताई सेवा भक्ति करने से ही आत्मिक सुख की प्राप्ति होती है।1। रहाउ। सचु बाणी सचु सबदु है जा सचि धरे पिआरु ॥ हरि का नामु मनि वसै हउमै क्रोधु निवारि ॥ मनि निरमल नामु धिआईऐ ता पाए मोख दुआरु ॥२॥ पद्अर्थ: सचु = यथार्थ, ठीक। जा = जब। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। निवारि = दूर करके। मनि = मन में। धिआईऐ = स्मरण किया जा सकता है।2। अर्थ: जब मनुष्य सदा स्थिर प्रभु में प्यार जोड़ता है, तब उस को गुरु की वाणी गुरु का शब्द यर्थाथ प्रतीत होता है (गुरु के शब्द द्वारा अंदर से) अहम् व क्रोध दूर करके परमात्मा का नाम मनुष्य के मन में आ बसता है। परमात्मा का नाम पवित्र मन के द्वारा ही स्मरण किया जा सकता है (जब मनुष्य स्मरण करता है) तब विकारों से निजात की राह ढूँढ लेता है।2। हउमै विचि जगु बिनसदा मरि जमै आवै जाइ ॥ मनमुख सबदु न जाणनी जासनि पति गवाइ ॥ गुर सेवा नाउ पाईऐ सचे रहै समाइ ॥३॥ पद्अर्थ: बिनसदा = आत्मिक मौत मरता है। जाणनी = जानते। जासनि = जाएंगे। पति = इज्जत। सचे = सच ही, सदा स्थिर प्रभु में ही।3। अर्थ: जगत अहम् में फंस कर आत्मिक मौत सहता है और बारंबार पैदा होता मरता रहता है। अपने मन के पीछे चलने वाले लोग गुरु के शब्द (की कद्र) नहीं जानते। वह अपनी इज्जत गवा के ही (जगत में से) जाऐंगे। गुरु की बताई सेवा-भक्ति करने से परमात्मा का नाम प्राप्त होता है (जो मनुष्य गुरु की बताई सेवा करता है वह) सदा स्थिर परमात्मा में लीन रहता है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |