श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 34 सबदि मंनिऐ गुरु पाईऐ विचहु आपु गवाइ ॥ अनदिनु भगति करे सदा साचे की लिव लाइ ॥ नामु पदारथु मनि वसिआ नानक सहजि समाइ ॥४॥१९॥५२॥ पद्अर्थ: सबदि मंनिऐ = अगर गुरु के शब्द में श्रद्धा बन जाए। आपु = स्वै भाव। अनदिनु = हर रोज। मनि = मन में। सहजि = आत्मिक अडोलता में।4। अर्थ: अगर गुरु के शब्द में श्रद्धा बन जाए तो गुरु मिल जाता है (जो मनुष्य गुरु के शब्द में श्रद्धा बनाता है वह अपने) अंदर से अहम् दूर कर लेता है। वह हर वक्त सदा स्थिर प्रभु के चरणों में तवज्जो जोड़ के सदा उसकी भक्ति करता है। हे नानक! उस के मन में परमात्मा का अमुल्य नाम आ बसता है। वह आत्मिक अडोलता में भी टिका रहता है।4।19।52। सिरीरागु महला ३ ॥ जिनी पुरखी सतगुरु न सेविओ से दुखीए जुग चारि ॥ घरि होदा पुरखु न पछाणिआ अभिमानि मुठे अहंकारि ॥ सतगुरू किआ फिटकिआ मंगि थके संसारि ॥ सचा सबदु न सेविओ सभि काज सवारणहारु ॥१॥ पद्अर्थ: पुरखी = पुरखों ने, पुरुषों ने। सेविओ = सेवा की। जुग चारि = चारों युगों में। नोट: ‘चारि’ और ‘चार’ में फर्क स्मरणीय है: ‘वडिआईआ चारि’, चार = सुंदर। घरि = हृदय घर में। होदा = बसता। पुरखु = परमात्मा। अभिमानि = अभिमान में। मुठे = ठगे गए, लूटे गए। फिटकिआ = फिटे हुए, दुत्कारे हुए। सतिगुरू किआ फिटकिआ = गुरु द्वारा दुत्कारे हुए। संसारि = संसार में। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। सभि काज = सारे कार्य।1। नोट: ‘काज’ बहुवचन है। अर्थ: जिस लोगों ने गुरु की बताई हुई सेवा नहीं की, वह चारों युगों में दुखी रहते हैं। (अर्थात, युग चाहे कोई भी हो गुरु की शरण के बिना दुख है)। वो मनुष्य हृदय घर में बसते परमात्मा को नहीं पहिचान सकते, वह अहंकार में अभिमान में (फंसे रहके आत्मिक जीवन की राशि पूंजी) लुटा बैठते हैं। गुरु द्वारा बेमुख मनुष्य जगत में मांगते फिरते है। (माया खातिर भटकते फिरते हैं)। वह बंदे उस अटल गुर शब्द को नहीं स्मरण करते जो सारे कार्य सवारने में समर्थ है।1। मन मेरे सदा हरि वेखु हदूरि ॥ जनम मरन दुखु परहरै सबदि रहिआ भरपूरि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हदूरि = हाजर नाजर, अंग संग। परहरै = दूर करता है। सबदि = शब्द में, महिमा की वाणी में।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा को सदा (अपने) अंग संग देख। परमात्मा (जीवों का) जन्म-मरन का दूख दूर कर देता है। वह गुरु के शब्द में भरपूर बस रहा है (इस वास्ते, हे मन! गुरु का शब्द अपने अंदर धारण कर)।1। रहाउ। सचु सलाहनि से सचे सचा नामु अधारु ॥ सची कार कमावणी सचे नालि पिआरु ॥ सचा साहु वरतदा कोइ न मेटणहारु ॥ मनमुख महलु न पाइनी कूड़ि मुठे कूड़िआर ॥२॥ पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर प्रभु। सलाहनि = सलाते हैं। अधारु = आसरा। सची = सदा स्थिर रहने वाली। वरतदा = (जिसका हुक्म) चलता है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। पाइनी = पाते हैं। कूड़ि = झूठ में, झूठ से। कूड़िआर = झूठ के व्यापारी, नाशवान चीजों के व्यापारी।2। अर्थ: जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभु की महिमा करते हैं वह उस सदा स्थिर का ही रूप हो जाते हैं। परमात्मा का सदा स्थिर नाम उनकी (जिंदगी का) आसरा बन जाता है। जिन्होंने नाम जपने की ये सदा स्थिर रहने वाली कार की है, उनका प्यार सदा स्थिर प्रभु से बन जाता है। परमात्मा ही सदा स्थिर रहने वाला शाह है, (जिसका हुक्म जगत में) चल रहा है। कोई भी जीव उसके हुक्म की उलंघना नहीं कर सकता। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य परमात्मा का दर घर नहीं ढूंढ सकता। नाशवान जगत के व्यापारी झूठे मोह में ही (आत्मिक जीवन की राशि पूंजी) ठगा बैठते हैं।2। हउमै करता जगु मुआ गुर बिनु घोर अंधारु ॥ माइआ मोहि विसारिआ सुखदाता दातारु ॥ सतगुरु सेवहि ता उबरहि सचु रखहि उर धारि ॥ किरपा ते हरि पाईऐ सचि सबदि वीचारि ॥३॥ पद्अर्थ: मुआ = आत्मिक मौत सहता है। घोर अंधारु = घोर अंधकार। मोहि = मोह में (फस के)। सेवहि = (अगर) सेवा करते हैं। उर धारि = हृदय में टिका के। ते = से, साथ। सचि सबदि = सदा स्थिर शब्द के द्वारा।3। अर्थ: जगत ‘मैं मैं’ करता ही (भाव, मैं बड़ा हूं, मैं बड़ा हूं- इस अहंकार में) जीव आत्मिक मौत ले लेता है। गुरु की शरण से वंचित रह कर (उसके जीवन में) घोर अंधकार (बना रहता) है। माया के मोह में फंस के (इस ने) सुखदायक और सभ दातें देने वाले परमात्मा को विसार दिया है। जब जीव गुरु की बताई हुई सेवा करते हैं, तब (माया के मोह के घोर अंधेरे में) बच जाते हैं तथा सदा स्थिर प्रभु को अपने दिल में बसा के रखते हैं। प्रभु अपनी मेहर से ही मिलता है। (स्मरण से ही) सदा स्थिर गुरु-शब्द के द्वारा (उस के गुणों की) विचार की जा सकती है।3। सतगुरु सेवि मनु निरमला हउमै तजि विकार ॥ आपु छोडि जीवत मरै गुर कै सबदि वीचार ॥ धंधा धावत रहि गए लागा साचि पिआरु ॥ सचि रते मुख उजले तितु साचै दरबारि ॥४॥ पद्अर्थ: सेवि = सेवा करके। तजि = त्याग के। आपु = स्वै भाव। मरै = विकारों से हट जाता है। धंधा = संसारक झमेले। धावत = दौड़ भाग करनी। साचि = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु में। उजले = निर्मल। मुख उजल = उज्जवल मुंहवाले, सुर्ख-रू।4। अर्थ: गुरु द्वारा बताई सेवा करके अहम् से पैदा होने वाले विकार छोड़ के (मनुष्य का) मन पवित्र हो जाता है। गुरु के शब्द द्वारा (प्रभु के गुणों के) विचार (हृदय में टिका के), और स्वै-भाव दूर करके मनुष्य दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ विकारों से बचा रहता है। जिस मनुष्यों का सदा स्थिर प्रभु (के चरणों में) प्यार बन जाता है, वह मोह के झमेलों की भटकनों से बच जाते हैं। सदा स्थिर प्रभु के रंग में रंगे हुए लोग सदा स्थिर प्रभु के दरबार में आजाद हो जाते हैं।4। सतगुरु पुरखु न मंनिओ सबदि न लगो पिआरु ॥ इसनानु दानु जेता करहि दूजै भाइ खुआरु ॥ हरि जीउ आपणी क्रिपा करे ता लागै नाम पिआरु ॥ नानक नामु समालि तू गुर कै हेति अपारि ॥५॥२०॥५३॥ पद्अर्थ: मंनिओ = माना, श्रद्धा बनाई। जेता = जितना। दूजै भाइ = (प्रभु के बिनो) और प्यार में। समालि = सम्भाल के रख। अपारि हेति = अटूट प्रेम से।5। अर्थ: जिस लोगों ने सतगुरू को (अपने जीवन का रहिबर) नहीं माना, जिस का गुरु-शब्द में प्यार नहीं बना, वे जितना भी (तीर्थ) स्नान करते हैं, जितना भी दान-पुण्य करते हैं, माया के प्यार के कारण वह सारा उन्हें खुआर ही करता है। जब परमात्मा खुद अपनी मेहर करे, तब ही जीव का उसके नाम से प्यार बनता है। हे नानक! गुरु के अटुट प्रेम की इनायत सेतू परमात्मा का नाम (अपने हृदय में) सम्भाल के रख।5।20।43। सिरीरागु महला ३ ॥ किसु हउ सेवी किआ जपु करी सतगुर पूछउ जाइ ॥ सतगुर का भाणा मंनि लई विचहु आपु गवाइ ॥ एहा सेवा चाकरी नामु वसै मनि आइ ॥ नामै ही ते सुखु पाईऐ सचै सबदि सुहाइ ॥१॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। सेवी = मैं सेवा करूँ। करी = मैं करूँ। जाइ = जा के। पूछउ = मैं पूछता हूँ। मंनि लई = मैं मान लूँ। आपु = स्वै भाव। मनि = मन में। सुहाइ = सुहाना लगता है।1। अर्थ: जब मैं अपने गुरु से पूछता हूँ कि (विकारों से बचनेके लिए) मैं किस की सेवा करूँ और कौन सा जप करूँ। (तो गुरु की ओर से उपदेश मिलता है कि) मैं अपने अंदर के अहंकार को दूर करके गुरु का हुक्म मानूं। (गुरु का हुक्म मानना ही एक) ऐसी सेवा है एैसी चाकरी है (जिसकी इनायत से परमात्मा का) नाम मन में आ बसता है। परमात्मा के नाम से ही आत्मिक आनन्द मिलता है, और परमात्मा की महिमा की वाणी से ही आत्मिक जीवन खूबसूरत बन जाता है।1। मन मेरे अनदिनु जागु हरि चेति ॥ आपणी खेती रखि लै कूंज पड़ैगी खेति ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज। जागु = (माया के हमले से) सुचेत हो। चेति = स्मरण कर। खेति = खेत में। खेती = फसल, आत्मिक जीवन। कूँज = (भाव) वृद्ध अवस्था।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! हर वक्त (विकारों के हमले से) सुचेत रह और परमात्मा का नाम स्मरण कर। इस तरह अपने आत्मिक जीवन की फसल (इन विकारों से) बचा ले। अंत को तेरे उम्र के खेत में कूँज आ पड़ेगी (भाव, वृद्ध अवस्था आ पहुँचेगी)।1। रहाउ। मन कीआ इछा पूरीआ सबदि रहिआ भरपूरि ॥ भै भाइ भगति करहि दिनु राती हरि जीउ वेखै सदा हदूरि ॥ सचै सबदि सदा मनु राता भ्रमु गइआ सरीरहु दूरि ॥ निरमलु साहिबु पाइआ साचा गुणी गहीरु ॥२॥ पद्अर्थ: इछा = इच्छाएं, भावनियां। सबदि = शब्द में (जुड़ के)। भै = अदब में (रह के)। भाइ = प्रेम में। हदूरि = हाजर नाजर। भ्रमु = भटकन। सरीरहु = शरीर में से। गुणी गहीर = गुणों का खजाना।2। अर्थ: जो लोग परमात्मा के अदब व प्रेम में रह के उसकी भक्ति दिन रात करते हैं, उनके मन की इच्छाएं पूरी हो जाती हैं (अर्थात, मन कामना रहित हो जाता है)। गुरु के शब्द की इनायत से उनको परमात्मा हर जगह व्यापक दिखता है (उन्हें यकीन बन जाता है कि) परमात्मा हर जगह हाजर-नाजर (हो के सभ जीवों की) संभाल करता है। उनका मन सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी में रंगा रहता है। भटकन उनके शरीर में से बिल्कुल ही खत्म हो जाती है। वह सदा स्थिर रहने वाले गुणों के खजाने पवित्र स्वरूपमालक प्रभु को मिल जाते हैं।2। जो जागे से उबरे सूते गए मुहाइ ॥ सचा सबदु न पछाणिओ सुपना गइआ विहाइ ॥ सुंञे घर का पाहुणा जिउ आइआ तिउ जाइ ॥ मनमुख जनमु बिरथा गइआ किआ मुहु देसी जाइ ॥३॥ पद्अर्थ: गए मुहाए = (आत्मिक जीवन) लुटा के (यहां से) गए। विहाइ गइआ = बीत गया। पाहुणा = मेहमान। जाइ = जा के।3। अर्थ: जो लोग (माया के हमलों से) सुचेत रहते हैं, वह (विकारों से) बच जाते हैं। जो (माया की) नींद में सो जाते हैं, वे आत्मिक जीवन की राशि पूंजी लुटा जाते हैं। वो सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी की सार नहीं जानते। उनकी जिंदगी सुपने की तरह (व्यर्थ) बीत जाती है। वह जगत से ठीक उसी तरह खाली हाथ चले जाते हैं जैसे किसी सूने घर से कोई मेहमान आ के चला जाता है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य का जीवन व्यर्थ बीत जाता है। वह यहां से जा के आगे क्या मुँह दिखाएगा? (भाव, प्रभु की हाजिरी में शर्मिन्दा ही होएगा)।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |