श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सभ किछु आपे आपि है हउमै विचि कहनु न जाइ ॥ गुर कै सबदि पछाणीऐ दुखु हउमै विचहु गवाइ ॥ सतगुरु सेवनि आपणा हउ तिन कै लागउ पाइ ॥ नानक दरि सचै सचिआर हहि हउ तिन बलिहारै जाउ ॥४॥२१॥५४॥

पद्अर्थ: कहनु न जाइ = कहा नहीं जा सकता। सबदि = शब्द से। लागउ = मैं लगता हूँ। हहि = हैं। दरि = दर से।4।

अर्थ: (जीवों के भी क्या बस?) परमात्मा खुद ही सब कुछ करने के समर्थ है। (वैसे) अहम् में फसे हुए द्वारा (यह सच्चाई) नहीं बयान की जा सकती (भाव, अहंकार में फंसे जीव को यह समझ नहीं आती कि परमात्मा खुद ही सब कुछ करने योग्य है)। गुरु के शब्द की इनायत से अपने अंदर अहंकार का दुख दूर करके ये समझ आती है।

जो लोग अपने गुरु की सेवा करते हैं (भाव, गुरु के बताए राह पर चलते हैं), मैं उनके चरण छूता हूँ। हे नानक! (कह) मैं उन लोगों से कुर्बान जाता हूँ, जो सदा स्थिर प्रभु के दर पे स्वीकार होते हैं।4।21।54।

सिरीरागु महला ३ ॥ जे वेला वखतु वीचारीऐ ता कितु वेला भगति होइ ॥ अनदिनु नामे रतिआ सचे सची सोइ ॥ इकु तिलु पिआरा विसरै भगति किनेही होइ ॥ मनु तनु सीतलु साच सिउ सासु न बिरथा कोइ ॥१॥

पद्अर्थ: कितु = किस में? कितु वेला = किस समय? अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। नामे = नाम में ही। सोइ = शोभा। सची = सदा स्थिर रहने वाली। किनेही = कैसी? साचु सिउ = सदा स्थिर प्रभु के साथ। सासु = स्वास।1।

नोट: शब्द ‘कितु’ शब्द ‘किस’ का अधिकरण कारक एकवचन है।

अर्थ: अगर (भक्ति करने के लिए) कोई खास बेला, खास वक्त नियत करना विचारते रहें, तो किसी वक्त भी भक्ति नहीं हो सकती। हर समय ही परमात्मा के नाम रंग में रंगे रह के सदा स्थिर प्रभु का रूप हो जाना है तभी सदा स्थिर रहने वाली शोभा मिलती है। वह कैसी भक्ति हुई अगर एक छिन भर भी प्यारा परमात्मा बिसर जाए? अगर एक श्वास भी परमात्मा की याद से खाली ना जाए तो सदा स्थिर प्रभु के साथ जुड़ा मन शांत हो जाता है, शरीर भी शांत हो जाता है।1।

मेरे मन हरि का नामु धिआइ ॥ साची भगति ता थीऐ जा हरि वसै मनि आइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ता = तब। थीऐ = हो सकती है। जा = जब। मनि = मन में।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम स्मरण कर। सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की भक्ति तभी हो सकती है जब (नाम जपने की इनायत से) परमात्मा मनुष्य के मन में आ बसे।1। रहाउ।

सहजे खेती राहीऐ सचु नामु बीजु पाइ ॥ खेती जमी अगली मनूआ रजा सहजि सुभाइ ॥ गुर का सबदु अम्रितु है जितु पीतै तिख जाइ ॥ इहु मनु साचा सचि रता सचे रहिआ समाइ ॥२॥

पद्अर्थ: सहजे = आत्मिक अडोलता में। राहीऐ = बीजनी चाहिए। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। पाइ = डाल के, बीज के। अगली = बहुत, अधिक। सुभाइ = प्रेम में (टिक के)। जितु = जिसके द्वारा। जितु पीतै = जिस के पीने से। तिख = प्यास। सचि = सदा स्थिर प्रभु में।2।

नोट: ‘जितु’ शब्द ‘जित’ का अधिकरण कारक एकवचन।

अर्थ: अगर आत्मिक अडोलता में टिक के प्रभु का सदा स्थिर नाम बीज बीज के (आत्मिक जीवन की) फसल बीजें; तो यह फसल बहुत उगती है। इस फसल को बीजने वाले मनुष्य का मन आत्मिक अडोलता व प्रेम में जुड़ के (तृष्णा की ओर से) तृप्त हो जाता है। सतिगुरु का शब्द ऐसा अंमृत है (आत्मिक जीवन देने वाला जल है) जिसके पीने से (माया की) तृष्णा दूर हो जाती है। (नाम अंमृत पीने वाले मनुष्य का) यह मन अडोल हो जाता है। सदा स्थिर प्रभु में रंगा जाता है। और सदा स्थिर प्रभु की याद में ही लीन रहता है।2।

आखणु वेखणु बोलणा सबदे रहिआ समाइ ॥ बाणी वजी चहु जुगी सचो सचु सुणाइ ॥ हउमै मेरा रहि गइआ सचै लइआ मिलाइ ॥ तिन कउ महलु हदूरि है जो सचि रहे लिव लाइ ॥३॥

पद्अर्थ: सबदे = शब्द मेंही, महिमा की वाणी में ही। वजी = मशहूर हो गई। चहु जुगी = चारों युगों में, सदा के लिए। सचो सचु = सत्य ही सत्य, सदा स्थिर प्रभु का नाम ही। रहि गइआ = समाप्त हो गया। सचै = सदा स्थिर प्रभु ने। महलु = टिकाना।3।

अर्थ: जिस मनुष्यों का कहना, देखना और बोलना (प्रभु की महिमा वाले) शब्द में ही लीन रहता है (भाव, जो लोग सदा महिमा में ही मगन रहते हैं) व हर तरफ परमात्मा को ही देखते हैं। सदा स्थिर प्रभु का नाम ही (और लोगों को) सुना सुना के उनकी शोभा (सारे संसार में) सदा के लिए कायम हो जाती है। सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा उनको अपनी याद में जोड़े रखता है। इस वास्ते उनका अहम् समाप्त हो जाता है उनकी अपनत्व दूर हो जाती है।

जो लोग सदा स्थिर रहने वाले प्रभु में लगन लगा के रखते हैं, उनको प्रभु की हजूरी में जगह मिलती है।3।

नदरी नामु धिआईऐ विणु करमा पाइआ न जाइ ॥ पूरै भागि सतसंगति लहै सतगुरु भेटै जिसु आइ ॥ अनदिनु नामे रतिआ दुखु बिखिआ विचहु जाइ ॥ नानक सबदि मिलावड़ा नामे नामि समाइ ॥४॥२२॥५५॥

पद्अर्थ: नदरी = (परमात्मा के मेहर की) निगाह से। करम = बख्शिश। विणु करमा = परमात्मा की मेहर के बिना। भेटे जिसु = जिसको मिलता है। आइ = आ के। बिखिआ = माया का मोह रूप दुख। सबदि = गुरु के शब्द से। नामे नामि = नाम में ही।4।

अर्थ: परमात्मा के मेहर की नजर से ही परमात्मा का नाम स्मरण किया जा सकता है। परमात्मा की मेहर के बिना वह मिल नहीं सकता। जिस मनुष्य की बड़िया किस्मत से साधु-संगत मिल जाती है, जिस को गुरु आ के मिलता है (इसकी इनायत से) हर वक्त प्रभु के नाम (रंग) में रंगे रहने के कारण उस मनुष्य के अंदर माया (के मोह) का दुख दूर हो जाता है।

हे नानक! गुरु के शब्द द्वारा (परमात्मा से) मिलाप होता है (जिस मनुष्य को गुरु का शब्द प्राप्त हो जाता है वह) परमात्मा के नाम में ही लीन रहता है।4।22।55।

सिरीरागु महला ३ ॥ आपणा भउ तिन पाइओनु जिन गुर का सबदु बीचारि ॥ सतसंगती सदा मिलि रहे सचे के गुण सारि ॥ दुबिधा मैलु चुकाईअनु हरि राखिआ उर धारि ॥ सची बाणी सचु मनि सचे नालि पिआरु ॥१॥

पद्अर्थ: पाइओनु = पाया+उन, उस परमात्मा ने पाया। भउ = डर अदब। तिन = उनके (हृदय में)। सचे के = सदा स्थिर प्रभु के। सारि = (हृदय में) संभाल के। दुबिधा = दु किस्मापन, मेर तेर, डावांडोल हालत। चुकाइअनु = चुकाई+उन उस पमात्मा ने चुका दिया/दूर कर दिया। उर धारि = हृदय में धार के। सचु = सदा स्थिर प्रभु। मनि = मन में।1।

अर्थ: उस परमात्मा ने अपना डर-अदब उन लोगों के हृदय में डाल दिया है, जिन्होंने गुरु के शब्द को अपने सोच-मण्डल में टिकाया है। वह लोग सदा स्थिर प्रभु के गुणों को (अपने हृदय में) सम्भाल के साधु-संगत में मिल के रहते हैं।

उस (परमात्मा) ने खुद उन लोगों की दुबिधा की मैल दूर कर कर दी है, वह लोग परमात्मा के नाम को अपने हृदय में टिका के रखते हैं। सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी एनके मन में बसती है। सदा स्थिर प्रभु खुद उनके मन में बसता है, उन लोगों का सदा स्थिर प्रभु से प्यार हो जाता है।1।

मन मेरे हउमै मैलु भर नालि ॥ हरि निरमलु सदा सोहणा सबदि सवारणहारु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भरनालि = भरनाल में, समुंदर में, संसार समुंदर में (देखें भाई गुरदास जी की वार 26, पौड़ी 8)। सबदि = गुरु के शब्द में (जोड़ के)। सवारणहार = सवांरने के समर्थ।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! संसार समुंदर में अहम् की मैल (प्रबल) है। परमात्मा (इस) मैल के बगैर है और (इस वास्ते) सदा सुंदर है। (वह निर्मल परमात्मा जीवों को गुरु के) शब्द में जोड़ के सुंदर बनाने के समरथ है (हे मन! तू भी गुरु के शब्द में जुड़)।1। रहाउ।

सचै सबदि मनु मोहिआ प्रभि आपे लए मिलाइ ॥ अनदिनु नामे रतिआ जोती जोति समाइ ॥ जोती हू प्रभु जापदा बिनु सतगुर बूझ न पाइ ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ सतगुरु भेटिआ तिन आइ ॥२॥

पद्अर्थ: सचै सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी में। प्रभि = प्रभु ने। अनदिनु = हर रोज। जोती = परमात्मा की ज्योति में। हू = से ही। जोती हू = अंदर के प्रकाश से ही। जापदा = प्रतीत होता, दिखता है। बूझ = समझ। भेटिआ = मिला।2।

अर्थ: जिस मनुष्यों का मन सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में मस्त रहता है, उनको सदा स्थिर प्रभु ने स्वयं ही (अपने चरणों में) जोड़ लिया है। हर वक्त प्रभु के नाम में रंगे रहने के कारण उनकी ज्योति प्रभु की ज्योति में लीन रहती है। परमात्मा उस अंदरूनी ज्योति के द्वारा ही दिखाई देता है। पर गुरु के बिना उस ज्योति (प्रकाश) की समझ नहीं पड़तीऔर गुरु उन लोगों को आ के मिलता है जिनके भाग्य में धुर (प्रभु की दरगाह) से ही लेख लिखे हों।2।

विणु नावै सभ डुमणी दूजै भाइ खुआइ ॥ तिसु बिनु घड़ी न जीवदी दुखी रैणि विहाइ ॥ भरमि भुलाणा अंधुला फिरि फिरि आवै जाइ ॥ नदरि करे प्रभु आपणी आपे लए मिलाइ ॥३॥

पद्अर्थ: डुमणी = दु+मनी, दुबिधा में फंसी हुई। दूजे भाइ = और प्यार में। खुआइ = वंचित रह जाना, कुराहे पड़ जाना। तिसु बिन = उस (नाम) के बिना। जीवदी = आत्मिक जीवन प्राप्त करती। रैणि = (जिंदगी की) रात। दुखी = दुखों में। अंधुला = (माया के मोह में) अंधा।3।

प्रभु आपे लए मिलाइ: (नोट: देखें दूसरे बंद में “प्रभि आपे लए मिलाइ॥ ” इनके अर्तों में व्याकर्णक फर्कों के ध्यान रखने की जरूरत है।)।

अर्थ: सारा ही संसार परमात्मा के नाम के बिना दुबिधा में फंसा रहता है, और माया के प्यार में (पड़ के सही जीवन-राह से) वंचित रह जाता है। उस (प्रभु नाम) के बिनां एक घड़ी भर भी आत्मिक जीवन नहीं जी सकते, दुखों में ही जिंदगी की रात बीत जाती है।

माया के मोह में अंधा हुआ जीव भटकनों में पड़ कर जीवन-राह से भटक जाता है और बार बार पैदा होता रहता है। जब प्रभु मेहर की निगाह करता है, तब, खुद ही (उसको अपने चरणों में) जोड़ लेता है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh