श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 36

सभु किछु सुणदा वेखदा किउ मुकरि पइआ जाइ ॥ पापो पापु कमावदे पापे पचहि पचाइ ॥ सो प्रभु नदरि न आवई मनमुखि बूझ न पाइ ॥ जिसु वेखाले सोई वेखै नानक गुरमुखि पाइ ॥४॥२३॥५६॥

पद्अर्थ: पापो पापु = पाप ही पाप। पचहि = खुआर होते हैं। पापे = पाप में ही। पाइ = (समझ) पाए, समझ हासिल करता है।4।

अर्थ: (हम जीव जो कुछ करते हैं अथवा बोलते, चितवते हैं) वह सब कुछ परमात्मा देखता सुनता है (इस वास्ते उसकी हजूरी में अपने किये व चितवे बुरे कर्मों से) मुकरा नहीं जा सकता। (इसी लिए) जो लोग (सारी उम्र) पाप ही पाप कमाते रहते हैं, वह (सदा) पाप में जलते-भुनते रहते हैं।

अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को (यह) समझ नहीं पड़ती, उन को वह (सब कुछ देखने सुनने वाला) परमात्मा नजर नहीं आता। (पर, किसी जीव के भी क्या बस?) हे नानक! जिस मनुष्य को परमात्मा अपना आप दिखाता है, वही (उस को) देख सकता है, उसी मनुष्य को गुरु की शरण पड़ कर ये समझ आती है।4।23।56।

स्रीरागु महला ३ ॥ बिनु गुर रोगु न तुटई हउमै पीड़ न जाइ ॥ गुर परसादी मनि वसै नामे रहै समाइ ॥ गुर सबदी हरि पाईऐ बिनु सबदै भरमि भुलाइ ॥१॥

पद्अर्थ: तुटई = टूटता। मनि = मन में। नामे = नाम में ही। भरमि = भटकन में। भुलाइ = भूला रहता है, वंचित रहता है।1।

अर्थ: गुरु (की शरण) के बगैर (जनम-मरन) का रोग दूर नहीं हो सकता, अहंकार की पीड़ा नहीं जाती। गुरु की कृपा से (जिस मनुष्य के) मन में (परमात्मा का नाम) बस जाता है वह नाम में ही टिका रहता है। गुरु के शब्द में जुड़ने से ही परमात्मा मिलता है। गुरु के शब्द के बिना मनुष्य भटक के (सही जीवन-राह से) वंचित हो जाते हैं।1।

मन रे निज घरि वासा होइ ॥ राम नामु सालाहि तू फिरि आवण जाणु न होइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: निज घरि = अपने घर में, अंतर आत्मे, प्रभु चरणों में। सालाहि = सिफित सलाह कर।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा के नाम की महिमा करता रह। प्रभु चरणों में मेरा निवास बना रहेगा, तथा दुबारा जन्म-मरन का चक्कर नहीं होगा।1। रहाउ।

हरि इको दाता वरतदा दूजा अवरु न कोइ ॥ सबदि सालाही मनि वसै सहजे ही सुखु होइ ॥ सभ नदरी अंदरि वेखदा जै भावै तै देइ ॥२॥

पद्अर्थ: वरतदा = इस्तेमाल कर रहा है, काम कर रहा है, स्मर्था वाला है। सबदि = (गुरु के) शब्द द्वारा। सालाही = अगर मैं सराहूँ। सहजे ही = आसानी से। सुखु = आत्मिक आनंद। नदरी अंदरि = मेहर की निगाह से। सभ = सारी सृष्टि। जै = जिस को। तै = उसको। देइ = देता है।2।

अर्थ: सभ दातें देने वाला सिर्फ परमात्मा ही सारी स्मर्था वाला है, उस जैसा और कोई नहीं है। अगर मैं गुरु के शब्द से उसकी महिमा करूँ, तो वह मन में आ बसता है और सहज ही आत्मिक आनंद बन जाता है। वह दातार हरि सारी सृष्टि को अपनी मेहर की निगाह से देखता है। जिसको उसकी मर्जी हो उसे ही (यह आत्मिक आनंद) देता है।2।

हउमै सभा गणत है गणतै नउ सुखु नाहि ॥ बिखु की कार कमावणी बिखु ही माहि समाहि ॥ बिनु नावै ठउरु न पाइनी जमपुरि दूख सहाहि ॥३॥

पद्अर्थ: गणत = चिन्ता। नउ = को। बिखु = जहर, विकारों का विष।

नोट: शब्द ‘बिखु’ स्त्रीलिंग है पर यह ‘ु’ की मात्रा आखिर में। संबंधक के साथ भी यह ‘ु’ कायम रहता है।

ठउर = जगह, शांति। पाइनी = पाते हैं। जमपुरि = यम की पुरी में। सहहि = सहते हैं।3।

अर्थ: (जहां) अहम् है (वहां) चिन्ता है। चिन्ता को सुख नहीं हो सकता। (अहम् के अधीन रह कर आत्मिक मौत लाने वाले विकारों के) जहर वाले काम करने से जीव उस जहर में ही, मगन रहते है। परमात्मा के नाम के बिना वह शांति वाली जगह प्राप्त नहीं कर सकते, और जम के दर पर दु: ख सहते रहते हैं।3।

जीउ पिंडु सभु तिस दा तिसै दा आधारु ॥ गुर परसादी बुझीऐ ता पाए मोख दुआरु ॥ नानक नामु सलाहि तूं अंतु न पारावारु ॥४॥२४॥५७॥

पद्अर्थ: जीउ = जीवात्मा। पिंड = शरीर। तिसु दा = उस (परमात्मा) का। आधारु = आसरा। परसादी = कृपा से। परसाद = प्रसाद, कृपा। बुझीऐ = समझ आती है। मोख दुआरु = (विकारों से) छूटने का द्वार। पारावारु = पार+उरवार, इस पार और उस पार का छोर।4।

अर्थ: जब, गुरु की कृपा से ये बात समझ आ जाती है कि ये जीवात्मा और ये शरीर सब कुछ उस परमात्मा का ही है। तथा परमात्मा का ही (सभ जीवों को) आसरा, सहारा है। तब जीव विकारों से निजात पाने का राह ढूंढ लेता है।

हे नानक! उस परमात्मा के नाम की महिमा करता रह जिसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। जिसकी स्मर्था का उरवार पार भी नहीं ढूंढा जा सकता।4।24।57।

सिरीरागु महला ३ ॥ तिना अनंदु सदा सुखु है जिना सचु नामु आधारु ॥ गुर सबदी सचु पाइआ दूख निवारणहारु ॥ सदा सदा साचे गुण गावहि साचै नाइ पिआरु ॥ किरपा करि कै आपणी दितोनु भगति भंडारु ॥१॥

पद्अर्थ: आधारु = आसरा। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। निवारणहारु = दूर करने की ताकत रखने वाला। गावहि = गाते हैं। नाइ = नाम में। दितोनु = दिता+उन, उस (प्रभु) ने दिया। भंडार = खजाना।1।

अर्थ: परमात्मा का सदा स्थिर नाम जिस मनुष्यों (की जिंदगी) का आसरा बनता है, उनको सदा आनंद मिलता है, सदा सुख मिलता है। (क्योंकि) गुरु के शब्द में जुड़ के उन्होंने वह सदा स्थिर परमात्मा पा लिया होता हैजो सारे दुख दूर करने की स्मर्था रखता है। वह मनुष्य सदा ही सदा स्थिर प्रभु के गुण गाते हैं, वह सदा स्थिर प्रभु के नाम से प्यार करते हैं।

परमात्मा ने अपनी कृपा करके उन्हें अपनी भक्ति का खजाना बख्श दिया है।1।

मन रे सदा अनंदु गुण गाइ ॥ सची बाणी हरि पाईऐ हरि सिउ रहै समाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सची बाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा में (जुड़ने से)। सिउ = साथ।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा के गुण गाता रह। (गुण गाने से) सदा खुशी बनी रहती है। सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की महिमा में जुड़ने से ही प्रभु मिलता है। (जो जीव महिमा करता है वह) परमात्मा की (याद में) लीन रहता है।1। रहाउ।

सची भगती मनु लालु थीआ रता सहजि सुभाइ ॥ गुर सबदी मनु मोहिआ कहणा कछू न जाइ ॥ जिहवा रती सबदि सचै अम्रितु पीवै रसि गुण गाइ ॥ गुरमुखि एहु रंगु पाईऐ जिस नो किरपा करे रजाइ ॥२॥

पद्अर्थ: थीआ = हो जाता है। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। रसि = रस से, प्रेम से। गाइ = गा के। गुरमुखि = गुरु के सन्मुखि हो के। रजाइ = रजा अनुसार।2।

अर्थ: सदा स्थिर प्रभु की भक्ति (के रंग) में जिस मनुष्य का रंग गाढ़ा रंगा जाता है, वह आत्मिक अडोलता में प्रभु प्रेम में मस्त रहता है। गुरु के शब्द में जुड़ के उस का मन (प्रभु चरणों में ऐसा) मस्त होता है कि उस (मस्ती) का बयान नहीं किया जा सकता। उसकी जीभ सदा स्थिर प्रभु की महिमा में रंगी जाती हैं, प्रेम से प्रभु के गुण गा के वह आत्मिक जीवन देने वाला रस पीता है। पर ये रंग गुरु की शरण पड़ने से ही मिलता है (वही मनुष्य प्राप्त करता है) जिस पर प्रभु अपनी रजा मुताबिक मेहर करता है।2।

संसा इहु संसारु है सुतिआ रैणि विहाइ ॥ इकि आपणै भाणै कढि लइअनु आपे लइओनु मिलाइ ॥ आपे ही आपि मनि वसिआ माइआ मोहु चुकाइ ॥ आपि वडाई दितीअनु गुरमुखि देइ बुझाइ ॥३॥

पद्अर्थ: स्ंसा = सहम। रैणि = (जिंदगी रूप) रात। इकि = कइ। जीव। कढि लइअनु = उस (प्रभु ने) निकाल लिए। लइओनु मिलाइ = उस ने मिला लिया। मनि = मन में। चुकाइ = दूर करके। दितीअनु = उस ने दी। देइ बुझाइ = समझा देता है।3।

अर्थ: जगत (का मोह) तौखले का मूल है। (मोह की नींद में) सोए हुए ही (जिंदगी रूपी) रात व्यतीत हो जाती है। कई (भाग्यशाली) जीवों को परमात्मा ने अपनी रजा में (जोड़ के इस मोह में से) निकाल लिया और खुद ही (अपने चरणों में) मिला लिया है। खुद ही (उनके अंदर से) माया का मोह दूर करके खुद ही उनके मन में आ बसा है। प्रभु ने खुद (ही) उनको इज्जत दी है। (भाग्यशाली लोगों को) परमात्मा गुरु की शरण में ला के (जीवन का सही राह) समझा देता है।3।

सभना का दाता एकु है भुलिआ लए समझाइ ॥ इकि आपे आपि खुआइअनु दूजै छडिअनु लाइ ॥ गुरमती हरि पाईऐ जोती जोति मिलाइ ॥ अनदिनु नामे रतिआ नानक नामि समाइ ॥४॥२५॥५८॥

पद्अर्थ: खुआइनु = उसने गवा दिये हैं। दूजे = और (प्रेम) में। छडिअनु लाइ = लगा छोड़े हैं उसने। जोति = तवज्जो, ध्यान। अनदिनु = प्रतिदिन। नामि = नाम में।4।

अर्थ: परमात्मा ही सभ जीवों को दातें देने वाला है। जीवन-राह से भटके हुओं को भी सूझ देता है। कई जीवों को उस प्रभु ने खुद ही अपने आप से दूर किया हुआ है और माया के मोह जाल में फंसा के रखा है।

गुरु की मति पर चलने से परमात्मा मिलता है (गुरु की मति पर चलके जीव) अपनी तवज्जो को परमात्मा की ज्योति में मिलाता है, और हे नानक! हर वक्त नाम के रंग में रंगे रह क रनाम में ही लीन रहता है।4।25।58।

सिरीरागु महला ३ ॥ गुणवंती सचु पाइआ त्रिसना तजि विकार ॥ गुर सबदी मनु रंगिआ रसना प्रेम पिआरि ॥ बिनु सतिगुर किनै न पाइओ करि वेखहु मनि वीचारि ॥ मनमुख मैलु न उतरै जिचरु गुर सबदि न करे पिआरु ॥१॥

पद्अर्थ: गुणवंती = गुणवान जीव-स्त्री। सचु = सदा स्थिर प्रभु। तजि = त्याग के। रसना = जीभ। पिआरि = प्यार में। मनि = मन में। करि वीचारि = विचार करके। सबदि = शब्द में।1।

अर्थ: (हृदय में) गुण धारण करने वाली जीव-सत्री ने तृष्णा आदि विकार छोड़ के सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा को ढूंढ लिया है। उस का मन गुरु के शब्द में रंगा गया है, उसकी जीभ प्रभु के प्रेम-प्यार में रंगी गई है।

(हे भाई!) अपने मन में विचार करके देख लो, सतिगुरु (की शरण) के बिना किसी ने भी परमात्मा को नहीं ढूंढा। (क्योंकि) अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य जब तक गुरु के शब्द से प्यार नहीं डालता, उस के मन के (विकारों की) मैल नहीं उतरती।1।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh