श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 39 मन के बिकार मनहि तजै मनि चूकै मोहु अभिमानु ॥ आतम रामु पछाणिआ सहजे नामि समानु ॥ बिनु सतिगुर मुकति न पाईऐ मनमुखि फिरै दिवानु ॥ सबदु न चीनै कथनी बदनी करे बिखिआ माहि समानु ॥३॥ पद्अर्थ: मनहि = मन में से। तजै = छोड़ दे। मनि = मन मे। आतमु रामु = सर्व व्यापक प्रभु। सहजे = आत्मिक अडोलता द्वारा। समानु = लीनता, विलीन हो जाना। मुकति = विकारों से खलासी। दिवानु = दिवाना, पागल। चीनै = पहचानता। कथनी बदनी = (कोरी) बातें। बिखिआ = माया।3। अर्थ: जो मनुष्य अपने मन में से मन के विकार छोड़ देता है, जिसके मन में से माया का अहंकार दूर हो जाता है, वह सर्व व्यापक परमात्मा के साथ जान पहिचान बना लेता है। वह आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा के नाम में लीनता हासिल कर लेता है। (पर,) गुरु की शरण के बिना (विकारों से) छुटकारा नहीं मिल सकता। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (विकारों के पीछे) पागल हुआ फिरता है, वह गुरु के शब्द (की कद्र) को नहीं समझता। वह (जबानी-जबानी धार्मिक) बातें चाहे जितनी करता फिरे, पर माया के मोह में ही गरक रहता है।3। सभु किछु आपे आपि है दूजा अवरु न कोइ ॥ जिउ बोलाए तिउ बोलीऐ जा आपि बुलाए सोइ ॥ गुरमुखि बाणी ब्रहमु है सबदि मिलावा होइ ॥ नानक नामु समालि तू जितु सेविऐ सुखु होइ ॥४॥३०॥६३॥ पद्अर्थ: जा = जब। बुलाए = बोलने की प्रेरणा करता है, (जब वह) बुलवाए। सोइ = वह (प्रभु) ही। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। बाणी = महिमा से। ब्रहमु = परमात्मा। सबदि = (गुरु के) शब्द द्वारा। नानक = हे नानक! जितु = जिस के द्वारा। जितु सेवीऐ = जिसकी सेवा करने से, जिसका स्मरण करने से। सुखु = आत्मिक आनंद।4। अर्थ: (जीवों के भी क्या बस?) परमात्मा खुद ही सभ कुछ कराने वाला है, और कोई जीव दम नहीं मार सकता। (अपनी महिमा वह खुद ही करवाता है) जैसे परमात्मा बोलने की प्रेरणा करे वैसे ही जीव बोल सकता है। (जीव तब ही महिमा कर सकता है) जबवह परमात्मा खुद प्रेरता है। गुरु की शरण पड़ कर महिमा की वाणी में जुड़ने से प्रभु मिलता है, गुरु के शब्द के द्वारा (ही प्रभु से) मिलाप होता है। हे नानक! (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा के नाम को हृदय में संभाल, इस नाम के स्मरण से ही आत्मिक आनन्द प्राप्त होता है।4।30।63। सिरीरागु महला ३ ॥ जगि हउमै मैलु दुखु पाइआ मलु लागी दूजै भाइ ॥ मलु हउमै धोती किवै न उतरै जे सउ तीरथ नाइ ॥ बहु बिधि करम कमावदे दूणी मलु लागी आइ ॥ पड़िऐ मैलु न उतरै पूछहु गिआनीआ जाइ ॥१॥ पद्अर्थ: जगि = जगत ने, माया मोहे जीव ने। दूजे भाइ = माया के प्यार में। भाउ = प्यार। किवै = किसी तरीके के साथ भी। तीरथ = तीर्तों पर। नाइ = नाए, स्नान करे। बहु बिधि = कई किसमों के। करम = धार्मिक कर्म। आइ = आ कर। पढ़िऐ = (विद्या) पढ़ने से। जाइ = जा के। गिआनीआ = ज्ञानियों को, ज्ञान वालों को।1। अर्थ: जगत में अहम् की मैल (के कारण सदा) दुख (ही) सहना पड़ा है (क्योंकि) माया में प्यार के कारन जगत को (विकारों की) मैल चिपकी रहती है। अगर मनुष्य सौ तीर्तों पर भी स्नान करे तो भी (ऐसे) किसी तरीके से यह अहंकार की मैल धोने से (मन से) दूर नहीं होती। लोग कई किस्मों के (नियत) धार्मिक कर्म करते हैं। (इस तरह बल्कि पहले से) दुगनी (अहं की) मैल आ लगती है। (विद्या आदि) पढ़ने से भी यह मैल दूर नहीं होती, बेशक, पढ़े-लिखे लोगों को जा के पूछ लो (अर्थात, पढ़े हुए लोगों को विद्या का गुमान ही बना रहता है)।1। मन मेरे गुर सरणि आवै ता निरमलु होइ ॥ मनमुख हरि हरि करि थके मैलु न सकी धोइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! होइ = होता है। मनमुख = अपने मन की ओर मुंह रखने वाला।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! (जब मनुष्य) गुरु की शरण में आता है तब (ही) पवित्र होता है। अपने मन के पीछे चलने वाले लोग राम राम कह कह के थक जाते हैं (फिर भी अहम् की) मैल (उनसे) धोई नहीं जा सकती।1। रहाउ। मनि मैलै भगति न होवई नामु न पाइआ जाइ ॥ मनमुख मैले मैले मुए जासनि पति गवाइ ॥ गुर परसादी मनि वसै मलु हउमै जाइ समाइ ॥ जिउ अंधेरै दीपकु बालीऐ तिउ गुर गिआनि अगिआनु तजाइ ॥२॥ पद्अर्थ: मनि मैलै = मैलै मन से। होवई = हो। मुए = आत्मिक मौत मर जाते हैं। जासनि = जाएंगे। पति = इज्जत। मनि = मन में। जाइ = दूर हो जाती है। समाइ = लीन हो जाती है। दीपकु = दीया। गिआनि = ज्ञान से। तजाइ = दूर किया जाता है।2। अर्थ: अहम् की मैल से भरे हुए मन से परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती, (इस तरह) परमात्मा का नाम हासिल नहीं होता (हृदय में टिक नहीं सकता)। अपने मन के पीछे चलने वाले लोग सदा अहंकार के कारण मलीन मन रहते हैं, और आत्मिक मौत मरे रहते हैं, (वह दुनिया से) इज्जत गवा के ही जाएंगे। गुरु की कृपा से जिस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम बस जाता है, उस का अहंकार दूर हो जाता है, वह प्रभु चरणों में लीन रहता है। जैसे अगर अंधेरे में दिया जला दें (तो अंधेरा दूर हो जाता है) ऐसे ही गुरु की बख्शी हुई समझ की इनायत से (अहम्-रूप) बेसमझी (का अंधकार) दूर हो जाता है।2। हम कीआ हम करहगे हम मूरख गावार ॥ करणै वाला विसरिआ दूजै भाइ पिआरु ॥ माइआ जेवडु दुखु नही सभि भवि थके संसारु ॥ गुरमती सुखु पाईऐ सचु नामु उर धारि ॥३॥ पद्अर्थ: गवार = उजड्ड। सभि = सारे जीव। भवि = भटक भटक के। उर = हृदय।3। अर्थ: (यह काम) ‘हमने’ किया है, ‘हम’ ही कर सकते हैं। इस तरह “मैं मैं’ ‘हम हम’ कहने वाले लोग मूर्ख उजड्ड होते हैं उन्हें पैदा करने वाला परमात्मा भूला रहता है। वे सदा माया से ही प्यार डाल के रखते हैं। (दुनिया में) माया के मोह जितना (और कोई) दुख नहीं है। माया के मोह में फंस के सारे जीव (माया) की खातर भटक भटक के खपते रहते हैं। गुरु की मति पर चलने से सदा स्थ्रि प्रभु का नाम हृदय में टिका के ही आत्मिक आनन्द मिलता है।3। जिस नो मेले सो मिलै हउ तिसु बलिहारै जाउ ॥ ए मन भगती रतिआ सचु बाणी निज थाउ ॥ मनि रते जिहवा रती हरि गुण सचे गाउ ॥ नानक नामु न वीसरै सचे माहि समाउ ॥४॥३१॥६४॥ पद्अर्थ: जाउ = मैं जाता हूं। ए = हे! सचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम। निज = अपना, (जहां से कोई धक्का नहीं दे सकता)। मनि = मन में। सचे = सदा स्थिर प्रभु के। समाउ = समाई।4। अर्थ: (पर, जीवों के भी क्या बस?) जिस भाग्यशाली मनुष्य को प्रभु (अपने चरणों में) जोड़ता है, वही प्रभु को मिलता है। मैं ऐसे शख्स से कुर्बान जाता हूं। हे मन! (परमात्मा की कृपा) जो मनुष्य प्रभु की भक्ति (के रंग) में रंगे जाते हैं, प्रभु का सदा स्थिर नाम ही जिस की वाणी बन जाती है। उनको ‘अपना घर’ प्राप्त हो जाता है (अर्थात, वह सदा उस आत्मिक ठिकाने में टिके रहते हैं, जहां माया का मोह उन्हें धक्का नहीं दे सकता)। वह अपने मन में (परमात्मा के प्रेम रंग में) रंगे रहते हैं। उनकी जीभ नाम-रस में मस्त रहती है। वह सदा स्थिर प्रभु के गुण गाते रहते हैं। उनको, हे नानक! परमात्मा का नाम कभी नहीं भूलता, वह सदा स्थिर प्रभु में लीन रहते हैं।4।33।31।64। नोट: अंक33 गुरु नानक देव जी के सारे शबदों का जोड़ बताता है। अंक 31 गुरु अमरदास जी के सारे शबदों का। इस तरह कुल जोड़ 64 बना। नोट: यहां गुरु अमरदास जी के शब्द समाप्त हो गए हैं। सिरीरागु महला ४ घरु १ ॥ मै मनि तनि बिरहु अति अगला किउ प्रीतमु मिलै घरि आइ ॥ जा देखा प्रभु आपणा प्रभि देखिऐ दुखु जाइ ॥ जाइ पुछा तिन सजणा प्रभु कितु बिधि मिलै मिलाइ ॥१॥ पद्अर्थ: मै मनि = मुझे (अपने) मन में। बिरहु = बिछोड़े का दर्द। अगला = बहुत। किउ = कैसे? घरि = हृदय घर में। आइ = आ के। जा = जब। देखा = देखूं। प्रभि देखिऐ = प्रभु के दर्शनों के द्वारा। पुछा = पूछूं। कितु बिधि = किस तरीके से? कितु = किस के द्वारा।1। अर्थ: मेरे मन में, शरीर में (प्रीतम प्रभु के) बिछोड़े का भारी दर्द है। (मेरा मन तड़प रहा है कि) कैसे प्रीतम प्रभु मेरे हृदय घर में मुझे आ मिले। जब मैं प्यारे प्रभु के दर्शन करता हूँ प्रभु के दर्शन करने से मेरा (विछोड़े का) दुख दूर हो जाता है। (जिस सत्संगी सज्जनों ने प्रीतम प्रभु का दर्शन किया है) मैं उन सज्जनों को जा के पूछता हूँ कि प्रभु किस तरीके से मिलाए मिलता है।1। मेरे सतिगुरा मै तुझ बिनु अवरु न कोइ ॥ हम मूरख मुगध सरणागती करि किरपा मेले हरि सोइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अवरु = कोई और (सहारा)। मुगध = मूर्ख, अन्जान। सरणागती = शरण आए हुए। करि = कर के।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे सतिगुरु! तेरे बगैर मेरा और कोई (सहारा) नहीं है। हम जीव मूर्ख हैं, अन्जान है। (पर) तेरी शरण आए हैं (जो भाग्यशाली गुरु की शरण में आता है उस को) वह परमात्मा खुद मेहर करके (अपने चरणों में) मिला लेता है।1। रहाउ। सतिगुरु दाता हरि नाम का प्रभु आपि मिलावै सोइ ॥ सतिगुरि हरि प्रभु बुझिआ गुर जेवडु अवरु न कोइ ॥ हउ गुर सरणाई ढहि पवा करि दइआ मेले प्रभु सोइ ॥२॥ पद्अर्थ: सोइ = वह ही। सतिगुरि = सतगुर ने। जेवडु = जितना। पवा = पड़ूं।2। अर्थ: गुरु हरि नाम की दात देने वाला है (जिस को गुरु से यह दात मिलती है उस को) वह प्रभु अपने आप साथ मिला लेता है। गुरु ने हरि प्रभु के साथ गहरी सांझ डाली हुई है (इस वास्ते) गुरु जितनी (ऊँची आत्मिक अवस्था वाला) और कोई नहीं। (मेरी यही तमन्ना है कि) मैं गुरु की शरण, अहं भाव मिटा के आ पड़ूं। (गुरु की शरण पड़ने से ही) वह प्रभु मेहर करके अपने साथ मिला लेता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |