श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 40 मनहठि किनै न पाइआ करि उपाव थके सभु कोइ ॥ सहस सिआणप करि रहे मनि कोरै रंगु न होइ ॥ कूड़ि कपटि किनै न पाइओ जो बीजै खावै सोइ ॥३॥ पद्अर्थ: मन हठि = मन के हठ से। उपाव = कई उपाय। सभु कोइ = हरेक जीव। मनि कोरे = कोरे मन से। कूड़ि = माया के मोह में (फंसे रह के)। कपटि = ठगी से।3। अर्थ: मन के हठ से (किए तप आदि के साधनों से) कभी किसी ने परमात्मा को नहीं ढूढा। (ऐसे) उपाय करके सभ थक ही जाते हैं। (तप आदि वाली) हजारों होशियारियां (जो लोग) करते हैं (उनका मन प्रभु प्रेम की ओर से कोरा ही रहता है, तथा) अगर मन (प्रभु प्रेम से) कोरा ही रहे तो नाम रंग नहीं चढ़ता। माया के मोह में फंसे रह के (बाहर से हठ कर्मों की) ठगी से कभी किसी ने परमात्मा को नहीं पाया। (यह पक्का नियम है कि) जो कुछ कोई बीजता है वही कुछ वो खाता है।3। सभना तेरी आस प्रभु सभ जीअ तेरे तूं रासि ॥ प्रभ तुधहु खाली को नही दरि गुरमुखा नो साबासि ॥ बिखु भउजल डुबदे कढि लै जन नानक की अरदासि ॥४॥१॥६५॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! रासि = राशि, पूंजी, संपत्ति। दरि = (तेरे) दर पे। साबासि = आदर। बिखु = (विकारों का) विष। भउजल = संसार समुंदर।4। अर्थ: हे प्रभु! (संसार समुंदर से बचने के वास्ते) सभ जीवों को तेरी (सहायता की) आस है, सभ जीव तेरे ही (पैदा किए हुए) हैं, तू ही (सभ जीवों की आत्मिक) राशि पूंजी है। हे प्रभु! तेरे दर से कोई खाली नहीं मुड़ता। गुरु शरण में पड़ने वाले लोगों को तेरे दर पे आदर मान मिलता हैं। हे प्रभु! तेरे दास नानक की तेरे आगे अरजोई है कि तू संसार समुंदर के (विकारों के) जहर में डूबते हुए जीवों को निकाल ले।4।1।65। सिरीरागु महला ४ ॥ नामु मिलै मनु त्रिपतीऐ बिनु नामै ध्रिगु जीवासु ॥ कोई गुरमुखि सजणु जे मिलै मै दसे प्रभु गुणतासु ॥ हउ तिसु विटहु चउ खंनीऐ मै नाम करे परगासु ॥१॥ पद्अर्थ: त्रिपतीऐ = तृप्त हो जाता है, माया की तृष्णा से तृप्त हो जाता है। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। जीवसु = जीवन+आशय, जीवन मनारथ। मै = मुझे। गुणतास = गुणों का खजाना। विटहु = में से। चउ खनीऐ = चार टुकड़े होता हूं। नाम परगासु = नाम का प्रकाश।1। अर्थ: (जिस मनुष्य को परमात्मा का) नाम मिल जाता है (उस का) मन (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो जाता है। नाम विहीन जीना धिक्कारयोग्य है (नाम से खाली रह कर जिंदगी को गुजारने से तिरस्कार ही प्राप्त होता है)। यदि गुरु के सन्मुख रहने वाला कोई भला मनुष्य मुझे मिल जाए, और मुझे गुणों के खजाने परमात्मा के बारे में बता दे, मैं उस पर से कुर्बान होने को तैयार हूँ।1। मेरे प्रीतमा हउ जीवा नामु धिआइ ॥ बिनु नावै जीवणु ना थीऐ मेरे सतिगुर नामु द्रिड़ाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। जीवा = जीऊँ, आत्मिक जीवन हासिल कर लेता हूं। थीऐ = हो सकता है। जीवणु = आत्मिक जीवन। सतिगुर = हे सतिगुरु! द्रिड़ाइ = हृदय में दृढ़ करके, पक्का करके।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभु! तेरा नाम स्मरण करके ही मैं आत्मिक जीवन जीअ सकता हूँ। हे मेरे सतिगुरु! (मेरे हृदय में परमात्मा का) नाम पक्का कर दे (क्योंकि) प्रभु नाम के बिना आत्मिक जीवन नहीं बन सकता।1। रहाउ। नामु अमोलकु रतनु है पूरे सतिगुर पासि ॥ सतिगुर सेवै लगिआ कढि रतनु देवै परगासि ॥ धंनु वडभागी वड भागीआ जो आइ मिले गुर पासि ॥२॥ पद्अर्थ: अमोलकु = अमुल्य वस्तु, जितनी कीमती और कोई चीज ना हो। कढि = निकाल के। परगासि = प्रकाश करके, आत्मिक रौशनी करके। धंनु = सराहनीय।2। अर्थ: परमात्मा का नाम एक ऐसा रतन है, जिस जितनी कीमती शै और कोई नहीं है। यह नाम पूरे गुरु के पास ही है। अगर गुरु की बताई सेवा में लग जाएं, तो वह हृदय में ज्ञान का प्रकाश करके (अपने पास से नाम) रतन निकाल के देता है। (इस वास्ते) वह मनुष्य भाग्यशाली हैं, सराहनीय हैं, जो आ कर गुरु की शरण में पड़ते हैं।2। जिना सतिगुरु पुरखु न भेटिओ से भागहीण वसि काल ॥ ओइ फिरि फिरि जोनि भवाईअहि विचि विसटा करि विकराल ॥ ओना पासि दुआसि न भिटीऐ जिन अंतरि क्रोधु चंडाल ॥३॥ पद्अर्थ: जिना = जिनको। भेटिओ = मिला। वसि काल = काल के वस में, आत्मिक मौत के काबू में। ओए = वह लोग। भवाईअहि = भटकते फिरते हैं। विसटा = विकारों का गंद। विकराल = डरावने (जीवन वाले)। पासि दुआसि = आस पास। न भिटीऐ = ना छूना, पास ना फटकना।3। नोट: शब्द ‘ओए’, ‘ओह’ का बहुवचन है। अर्थ: (पर,) जिस लोगों को अकाल-पुरख का रूप सतिगुरु कभी नहीं मिला, वह दुर्भाग्यशाली हैं वह आत्मिक मौत के बस में रहते हैं। वह विकारों के गंद में पड़े रहने के कारण भयानक आत्मिक जीवन वाले बना के बार बार जन्म व मरन के चक्क्र में डाले जाते हैं। (हे भाई! नाम से वंचित) जिस लोगों के अंदर चण्डाल क्रोध बसता रहता है उनके कभी भी नजदीक नहीं फटकना चाहिए।3। सतिगुरु पुरखु अम्रित सरु वडभागी नावहि आइ ॥ उन जनम जनम की मैलु उतरै निरमल नामु द्रिड़ाइ ॥ जन नानक उतम पदु पाइआ सतिगुर की लिव लाइ ॥४॥२॥६६॥ पद्अर्थ: अंम्रितसरु = नाम अमृत का सरोवर। आइ = आ के। द्रिड़ाइ = हृदय में पक्का करके। पदु = आत्मिक जीवन का दर्जा। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ के, ध्यान धर के।4। अर्थ: (पर यह विकारों का गंद, यह चण्डाल क्रोध आदि का प्रभाव तीर्तों से स्नान आदि से दूर नहीं हो सकता) अकाल-पुरख का रूप सत्गुरू ही अंमृत का सरोवर है। जो लोग इन तीर्तों पे आ के स्नान करते हैं वह बड़े भाग्यशाली हैं। (गुरु की शरण पड़ कर) पवित्र प्रभु नाम हृदय में पक्का करने के कारण उनकी (भाग्यशालियों की) जन्मों जन्मांतरों की (विकारों की) मैल उतर जाती है। हे दास नानक! (कह) सतिगुरु की शिक्षा में तवज्जो जोड़ के वह मनुष्य सब से श्रेष्ठ आत्मिक जीवन का दर्जा हासिल कर लेते हैं।4।2।66। सिरीरागु महला ४ ॥ गुण गावा गुण विथरा गुण बोली मेरी माइ ॥ गुरमुखि सजणु गुणकारीआ मिलि सजण हरि गुण गाइ ॥ हीरै हीरु मिलि बेधिआ रंगि चलूलै नाइ ॥१॥ पद्अर्थ: गावा = मैं गाऊँ। विथरा = मैं विस्तार करूँ। बोली = मैं बोलूं। माइ = हे माँ। गुणकारीआ = गुण पैदा करने वाला। मिलि सजण = (उस) सज्जन को मिल के। हीरै = हीरे (गुरु) को। हीरु = (मन) हीरा। बेधिआ = विच्छेदित। रंगि चलूलै = गूढ़े रंग में। नाइ = नाम से।1। अर्थ: हे मेरी माँ! (मेरा मन तरसता है कि) मैं (प्रभु के) गुण गाता रहूँ। गुणों का विस्तार करता रहूँ और प्रभु के गुण उचारता रहूँ। गुरु के सन्मुख रहने वाला कोई संत जन ही (प्रभु के गुण गाने की यह) कीर्ति पैदा कर सकता है। किसी गुरमुख को ही मिल के प्रभु के गुण कोई गा सकता है। (जो मनुष्य प्रभु के गुण गाता है, उसका) मन-हीरा, गुरु हीरे को मिल के (उस में) मिल जाता है, प्रभु के नाम में (लीन हो के) वह प्रभु के गाढ़े प्यार रंग में (रंगा) जाता है।1। मेरे गोविंदा गुण गावा त्रिपति मनि होइ ॥ अंतरि पिआस हरि नाम की गुरु तुसि मिलावै सोइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: त्रिपति = तृप्ति, संतोख। मनि = मन में। तुसि = प्रसन्न हो के।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे गोबिंद! (कृपा करो कि) मैं तेरे गुण गाता रहूँ। (तेरे गुण गाते ही) मन में (माया की) तृष्णा से खलासी होती है। हे गोबिंद! मेरे अंदर तेरे नाम की प्यास है (मुझे गुरु मिला) गुरु प्रसन्न हो के उस नाम का मिलाप कराता है।1। रहाउ। मनु रंगहु वडभागीहो गुरु तुठा करे पसाउ ॥ गुरु नामु द्रिड़ाए रंग सिउ हउ सतिगुर कै बलि जाउ ॥ बिनु सतिगुर हरि नामु न लभई लख कोटी करम कमाउ ॥२॥ पद्अर्थ: तुठा = प्रसन्न हुआ हुआ। पसाउ = प्रसाद, कृपा। रंग सिउ = प्यार से। कोटी = करोड़ों।2। अर्थ: हे बड़े भाग्य वालो! (गुरु की शरण पड़ कर अपना) मन (प्रभु के नाम रंग में) रंग लो। गुरु प्रसन्न हो के (नाम की यह) बख्शिश करता है। गुरु प्यार से परमात्मा का नाम (शरण आए सिख के हृदय में) पक्का कर देता है। (इस वजह से) मैं गुरु से सदके जाता हूँ। अगर मैं लाखों करोड़ों (और-और धार्मिक) कर्म करूँ तो भी सतगुरू की शरण के बिना परमात्मा का नाम प्राप्त नहीं होता।2। बिनु भागा सतिगुरु ना मिलै घरि बैठिआ निकटि नित पासि ॥ अंतरि अगिआन दुखु भरमु है विचि पड़दा दूरि पईआसि ॥ बिनु सतिगुर भेटे कंचनु ना थीऐ मनमुखु लोहु बूडा बेड़ी पासि ॥३॥ पद्अर्थ: घरि = घर में। निकटि = नजदीक। नित = सदा। भरमु = भटकना। पड़दा = दूरी, पर्दा। कंचन = सोना। थीऐ = होता है। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला। बूडा = डूब गया।3। अर्थ: अच्छी किस्मत के बगैर गुरु नहीं मिलता (और गुरु के बिना परमात्मा का मिलाप नहीं होता, चाहे) हमारे हृदय में बैठा हर वक्त हमारे नजदीक है, हमारे पास है। जिस जीव के अंदर अज्ञानता (के अंधेरे) का दुख टिका रहे, जिसको माया भटकाती रहे, उसके अंदर परमात्मा से माया के मोह का व भटकने का पर्दा बना रहता है। उसकी जीवात्मा अंदर बसते प्रभु से दूर पड़ी रहती है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (मानो) लोहा है जो गुरु पारस को मिले बगैर सोना नहीं बन सकता। गुरु-बेड़ी उस मनमुख लोहे के पास ही है, पर वह (विकारों की नदी में) डूबता है।3। सतिगुरु बोहिथु हरि नाव है कितु बिधि चड़िआ जाइ ॥ सतिगुर कै भाणै जो चलै विचि बोहिथ बैठा आइ ॥ धंनु धंनु वडभागी नानका जिना सतिगुरु लए मिलाइ ॥४॥३॥६७॥ पद्अर्थ: बोहिथ = जहाज। नाव = नाम में। कितु बिधि = किस तरीके से? भाणे = रजा में।4। अर्थ: सत्गुरू, परमात्मा के नाम का जहाज है (पर उस जहाज में चढ़ने का भी तरीका होना चाहिए, फिर) किस तरह (उस जहाज में) चढ़ा जाए? जो मनुष्य सतिगुरु के हुक्म में चलता है वह उस जहाज में सवार हो गया समझो। हे नानक! वे मनुष्य बड़े भाग्यवान हैं, धन्य हैं, धन्य हैं, जिस को सतिगुरु (प्रभु चरणों में) मिला लेता है।4।3।67। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |