श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सिरीरागु महला ४ ॥ हउ पंथु दसाई नित खड़ी कोई प्रभु दसे तिनि जाउ ॥ जिनी मेरा पिआरा राविआ तिन पीछै लागि फिराउ ॥ करि मिंनति करि जोदड़ी मै प्रभु मिलणै का चाउ ॥१॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। पंथ = रास्ता। दसाई = पूछती हूँ। तिनी = उसकी सहायता से। जाउ = जाऊँ, मैं जाऊँ। राविआ = रमा हुआ। लागि = लग के। फिराउ = घूमूं। मिंनत = विनती, अर्ज। जोदड़ी = सेवा मुशक्कत।1।

अर्थ: मै सदा (चाह में) खड़ी हुई (परमात्मा के देश का) राह पूछती हूँ (मैं सदा लोचती रहती हूँ कि) कोई मुझे प्रभु के बारे में बताए, और उस के द्वारा (उसकी सहायता से प्रभु के चरणों में) पहुँचू। जिस (सत्संगी सहेलियों) ने प्यारे प्रभु का मिलाप हासिल किया है मैं उनके आगे तरला विनती करूँ, उनकी सेवा करके उनके पीछे लगी फिरूँ। क्योंकि, मेरे अंदर प्रभु मिलन की चाह है।1।

मेरे भाई जना कोई मो कउ हरि प्रभु मेलि मिलाइ ॥ हउ सतिगुर विटहु वारिआ जिनि हरि प्रभु दीआ दिखाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मो कउ = मुझे। विटहु = से। वारिआ = सदके। जिनि = जिस ने।1। रहाउ।?

अर्थ: हे मेरे भाईओ! कोई मुझे परमात्मा से मिला दे। (पर गुरु के बिना और कौन मिला सकता है?) मैं सतिगुरु से सदके जाता हूँ, जिसने परमात्मा दिखा दिया (जो दिखा देता है)।1। रहाउ।

होइ निमाणी ढहि पवा पूरे सतिगुर पासि ॥ निमाणिआ गुरु माणु है गुरु सतिगुरु करे साबासि ॥ हउ गुरु सालाहि न रजऊ मै मेले हरि प्रभु पासि ॥२॥

पद्अर्थ: साबासि = शाबासी, आदर। पासि = नजदीकही।2।

अर्थ: (मेरा मन चाहता है कि) मैं और मान-सम्मान आसरे छोड़ के पूरे सतिगुरु के चरणों पे गिर जाऊँ। गुरु उनका मान आसरा है, जिनका और कोई आसरा नहीं होता। (निमाणियों को) गुरु दिलासा देता है। गुरु की महानताओं का बयान कर कर के मेरा मन नहीं भरता। गुरु मुझे मेरे पास ही बसते परमात्मा को मिलाने के समर्थ है।2।

सतिगुर नो सभ को लोचदा जेता जगतु सभु कोइ ॥ बिनु भागा दरसनु ना थीऐ भागहीण बहि रोइ ॥ जो हरि प्रभ भाणा सो थीआ धुरि लिखिआ न मेटै कोइ ॥३॥

पद्अर्थ: नो = को। सभु को = हरेक जीव। जेता = जितना। थीऐ = होता। भागहीण = मंद भाग्य वाली जीव-स्त्री। बहि = बैठ के।3।

अर्थ: जितना ये सारा जगत है हरेक जीव सत्गुरू को मिलने की चाह रखता है, पर खुश-किस्मती के बगैर सतिगुरु के दर्शन नहीं होते (गुरु की कद्र नहीं पड़ती)। (गुरु से विछुड़ के) दुर्भाग्यवान जीव-स्त्री बैठी दुखी होती है। (पर, जीवों के भी क्या बस?) जो कुछ परमात्मा को ठीक लगता है वही होता है। धुर से प्रभु की दरगाह से लिखे हुक्म को कोई मिटा नहीं सकता।3।

आपे सतिगुरु आपि हरि आपे मेलि मिलाइ ॥ आपि दइआ करि मेलसी गुर सतिगुर पीछै पाइ ॥ सभु जगजीवनु जगि आपि है नानक जलु जलहि समाइ ॥४॥४॥६८॥

पद्अर्थ: करि = कर के। मेलसी = मिलाएगा। पाइ = पा के। सभु = हर जगह। जग जीवन = जगत का जीवन। जगि = जगत में। जलहि = जल ही, जल में ही।4।

अर्थ: परमात्मा खुद ही सतिगुरु मिलाता है (और गुरु के द्वारा) अपने चरणों में मिलाता है। प्रभु (जीवों को) स्वयं ही सतिगुरु से जोड़ के मेहर करके अपने साथ मिलाने के समर्थ है। हे नानक! जगत (के जीवों) का सहारा परमात्मा जगत में हर जगह खुद ही खुद है (जिस जीव को वह अपने चरणों से जोड़ता है वह उस से इस प्रकार घुल-मिल के एक हो जाता है जैसे) पानी पानी में एक रूप हो जाता है।4।4।68।

सिरीरागु महला ४ ॥ रसु अम्रितु नामु रसु अति भला कितु बिधि मिलै रसु खाइ ॥ जाइ पुछहु सोहागणी तुसा किउ करि मिलिआ प्रभु आइ ॥ ओइ वेपरवाह न बोलनी हउ मलि मलि धोवा तिन पाइ ॥१॥

पद्अर्थ: अंम्रित = अमर करने वाला, आत्मिक जीवन देने वाला। अति भला = बहुत अच्छा। कितु बिधि = किस तरीके से? जाइ = जा के। सोहागणी = अच्छे भाग्यवाली जीव स्त्रीयां, वह जीव स्त्रीयां जिन्होंने प्रभु पति को खुश कर लिया। किउकरि = किस तरह? ओए = वे। बोलनी = बोलतीं। मलि = मल के। तिन पाइ = उनके पैर।1।

नोट: ‘ओए’ है ‘ओह’ का बहुवचन।

अर्थ: परमात्मा का नाम बड़ा श्रेष्ठ रस है, आत्मिक जीवन देने वाला है। ये रस किस तरह मिल सकता है? कैसे कोई मनुष्य यह रस खा सकता है? (अगर यह भेद समझना है तो हे भाई!) उन जीव स्त्रीयों को जा के पूछो, जिन्होंने प्रभु पति को प्रसन्न कर लिया है। (उनको पूछो कि तुम्हें) प्रभु कैसे आ के मिला है।

(जिस जीव स्त्रीयों ने प्रभु पति को प्रसन्न कर लिया है) वह (दुनियां की शोभा आदि से) बेमुहताज हो जाती हैं (इस वास्ते वह ज्यादा) नहीं बोलतीं। मैं उनके पैर मल मल के धोती हूँ।1।

भाई रे मिलि सजण हरि गुण सारि ॥ सजणु सतिगुरु पुरखु है दुखु कढै हउमै मारि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मिलि सजणु = सज्जन (गुरु) को मिल के। सारि = (हृदय में) संभाल।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (गुरु) सज्जन को मिल के परमात्मा के गुण (अपने हृदय में) संभाल। सज्जन गुरु अकाल-पुरख का रूप है, वह (शरण आए मनुष्य के हृदय में से) अहंकार का दुख मार के निकाल देता है।1। रहाउ।

गुरमुखीआ सोहागणी तिन दइआ पई मनि आइ ॥ सतिगुर वचनु रतंनु है जो मंने सु हरि रसु खाइ ॥ से वडभागी वड जाणीअहि जिन हरि रसु खाधा गुर भाइ ॥२॥

पद्अर्थ: गुरमुखीआ = गुरु के सन्मुख रहने वालीयां। मनि = मन में। दइआ = तरस। रतंनु = कीमती पदार्थ। जाणीअहि = जाने जाते हैं। गुर भाइ = गुरु के प्रेम में (रह के)।2।

अर्थ: जे जीव स्त्रीयां गुरु के सन्मुख रहती हैं, वही सुहाग भाग वाली हो जाती हैं। (उनसे जीनव युक्ति पूछने से) उनके मन में तरस आ जाता है (और वह बताती हैं कि) सतिगुरु के वचन एक कीमती रतन है, जो जीव (गुरु के वचन पर) श्रद्धा बना लेता है वह परमात्मा का रस चख लेता है।

जिस मनुष्यों ने गुरु के अनुसार रहके परमात्मा का नाम रस चखा है वह बड़े भाग्यशाली समझे जीते हैं।2।

इहु हरि रसु वणि तिणि सभतु है भागहीण नही खाइ ॥ बिनु सतिगुर पलै ना पवै मनमुख रहे बिललाइ ॥ ओइ सतिगुर आगै ना निवहि ओना अंतरि क्रोधु बलाइ ॥३॥

पद्अर्थ: वणि = वन में। तिणि = तृण में, तीले में। सभतु = हर जगह। भागहीण = दुर्भाग्यपूर्ण जीव स्त्री। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले लोग। बलाय = आफत।3।

अर्थ: (जैसे जल सारी बनस्पति को हरा भरा कर देने वाला है, वैसे ही) परमात्मा का यह नाम-रस वन-तृण में हर जगह मौजूद है (और सारी सृष्टि की जीवात्मा का आसरा है) पर दुर्भाग्यपूर्ण जीव-स्त्री इस नाम रस को नहीं चखती।

गुरु की शरण पड़े बिना ये नाम-रस नहीं प्राप्त होता। अपने मन के पीछे चलने वाले लोग (नाम रस से वंचित रह कर) बिलकते ही रहते हैं। उनके अंदर क्रोध की आफ़त टिकी रहती है, वे सतिगुरु के आगे सिर नहीं झुकाते।3।

हरि हरि हरि रसु आपि है आपे हरि रसु होइ ॥ आपि दइआ करि देवसी गुरमुखि अम्रितु चोइ ॥ सभु तनु मनु हरिआ होइआ नानक हरि वसिआ मनि सोइ ॥४॥५॥६९॥

पद्अर्थ: आपे = स्वयं ही। देवसी = देगा। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख करके। चोइ = चोअ के।4।

अर्थ: (परमात्मा व परमात्मा के नाम रस में कोई फर्क नहीं है) परमात्मा खुद ही (सब जीवों की जीवात्मा का सहारा) रस है।

परमात्मा खुद ही मेहर करके यह नाम रस देता है (जैसे शहद के छत्ते में से शहद चूता है, वैसे ही) गुरु की शरण पड़ने से आत्मिक जीवन देने वाला रस (जीव के अंदर से) टपकता है। हे नानक! जिस मनुष्य के मन में वह परमात्मा आ बसता है (नाम आ बसता है) उसका सारा शरीर, उसका मन हरा हो जाता है (खिल पड़ता है)।4।5।69।

सिरीरागु महला ४ ॥ दिनसु चड़ै फिरि आथवै रैणि सबाई जाइ ॥ आव घटै नरु ना बुझै निति मूसा लाजु टुकाइ ॥ गुड़ु मिठा माइआ पसरिआ मनमुखु लगि माखी पचै पचाइ ॥१॥

पद्अर्थ: आथवै = डूब जाता है। रैणि = रात। सबाई = सारी। आंव = उम्र। नरु = मनुष्य। निति = सदा। मूसा = चूहा। लाजु = रस्सी। पसरिया = पसरा हुआ है,प्रभाव डाल रहा है, बिखरा हुआ है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। पचै पचाइ = खुआर होता है।1।

अर्थ: दिन चढ़ता है फिर डूब जाता है, सारी रात भी गुजर जाती है (इस तरह धीरे-धीरे) वह घटती जाती है पर मनुष्य समझता नहीं (गुजरता समय मनुष्य की उम्र को इस तरह काटता जा रहा है, जैसे) चूहा सदा रस्सी को कुतरता जाता है। (जैसे) गुड़ (जीवों को) मीठा (लगता है, तैसे ही) माया का मीठा मोह प्रभाव डाल रहा है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य माया की मिठास में फंस के खुआर होता है जैसे मक्खी गुड़ पर चिपक कर मर जाती है।1।

भाई रे मै मीतु सखा प्रभु सोइ ॥ पुतु कलतु मोहु बिखु है अंति बेली कोइ न होइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मै = मेरे वास्ते, मेरा। सखा = साथी, मित्र। कलतु = कलत्र, स्त्री, पत्नी। बिखु = जहर।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मेरे वास्ते तो वह परमात्मा ही मित्र है, साथी है। पुत्र का, स्त्री का मोह जहर है। (जो आत्मिक जीवन को खत्म कर देता है, और पुत्र स्त्री में से) अंत में कोई भी साथी नहीं बनता।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh