श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 48 करे कराए आपि प्रभु सभु किछु तिस ही हाथि ॥ मारि आपे जीवालदा अंतरि बाहरि साथि ॥ नानक प्रभ सरणागती सरब घटा के नाथ ॥४॥१५॥८५॥ पद्अर्थ: तिस ही हाथि = उसी के हाथ में। मारि = मार के। प्रभ = हे प्रभु! नाथ = हे नाथ! 4। नोट: ‘तिस ही हाथि’ में ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा, क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण नहीं लगी है (देखें “गुरबाणी व्याकरण”)। अर्थ: (पर, जीवों के कुछ बस में नहीं) प्रभु स्वयं ही सब कुछ करता है, स्वयं ही जीवों से करवाता है। हरेक खेल उस प्रभु के अपने ही हाथ में है। प्रभु खुद ही आत्मिक मौत मारता है, खुद ही आत्मिक जीवन देता है, जीवों के अंदर-बाहर हर जगह उनके साथ रहता है। हे नानक! (अरदास कर और कह) हे प्रभु! हे सब जीवों के खसम पति! मैं तेरी शरण आया हूं (मुझे अपने नाम की दात दे।4।15।85।) सिरीरागु महला ५ ॥ सरणि पए प्रभ आपणे गुरु होआ किरपालु ॥ सतगुर कै उपदेसिऐ बिनसे सरब जंजाल ॥ अंदरु लगा राम नामि अम्रित नदरि निहालु ॥१॥ पद्अर्थ: सरणि प्रभु = प्रभु की श्रण में। अंदरु = हृदय। नामि = नाम में। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। निहाल = प्रसन्न, हरा भरा।1। नोट: शब्द ‘अंदरु’ संज्ञा है। उसमें और ‘अंदरि’ में फर्क याद रखने वाला है। अर्थ: जिस मनुष्य पर गुरु दयावान होता है, वह अपने परमात्मा की शरण पड़ता है। गुरु के उपदेश की इनायत से उस मनुष्य के (माया मोह वाले) सारे जंजाल नाश हो जाते हैं। उसका हृदय परमात्मा के नाम में जुड़ा रहता है। परमात्मा की मेहर की निगाह से उसका हृदय आनन्दित रहता है।1। मन मेरे सतिगुर सेवा सारु ॥ करे दइआ प्रभु आपणी इक निमख न मनहु विसारु ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सारु = संभाल। निमख = आँख झपकने जितना समय, निमेष।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! गुरु की (बताई हुई) सेवा ध्यान से कर, परमात्मा को आंख झपकने जितने समय के लिए भी अपने मन से ना भुला। जो मनुष्य ये उद्यम करता है, परमात्मा उस पर अपनी मेहर करता है।1। रहाउ। गुण गोविंद नित गावीअहि अवगुण कटणहार ॥ बिनु हरि नाम न सुखु होइ करि डिठे बिसथार ॥ सहजे सिफती रतिआ भवजलु उतरे पारि ॥२॥ पद्अर्थ: गावीअहि = गाए जाने चाहिए। कटणहार = काटने में समर्थ। बिस्थार = विस्थार, (माया का) पसारा, खिलारा। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में (टिक के)। भवजलु = संसार समुंदर।2। अर्थ: (हे भाई!) सदा परमात्मा के गुण गाने चाहिए। परमात्मा के गुण सारे अवगुणों को काटने में समर्थ हैं। हमने माया के अनेक पसारे करके देख लिए हैं (अर्थात, ये यकीन जानों कि माया के अनेक खिलारों के खिलारने पर) परमात्मा के नाम के बिना आत्मिक आनन्द नहीं मिलता। आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा की महिमा में प्यार डालने से जीव संसार समुंदर से पार लांघ जाते हैं।2। तीरथ वरत लख संजमा पाईऐ साधू धूरि ॥ लूकि कमावै किस ते जा वेखै सदा हदूरि ॥ थान थनंतरि रवि रहिआ प्रभु मेरा भरपूरि ॥३॥ पद्अर्थ: संजमा = इन्द्रियों को विकारों से बचाने के साधन। साधू = गुरु। लूकि = छुप के। किस ते = किस से? जा = क्यूंकि। थान थनंतरि = हर जगह, स्थान स्थान में अंतर। भरपूरि = पूरी तौर पे।3। नोट: ‘किस ते’ में ‘किसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण नहीं लगी है। देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’। अर्थ: (हे भाई!) गुरु के चरणों की धूर प्राप्त करनी चाहिए। यही है तीर्तों के स्नान, यही है बरत रखने, यही है इन्द्रियों को बस में रखने वाले लाखों उद्यम (परमात्मा इन बाहरले धार्मिक संजमों से नहीं पतीजता, वह तो) जीवों के अंग-संग रह के सदा (जीवों के सभ छुप के किए काम भी) देखता है (फिर भी मूर्ख मनुष्य) किस से छुप के (गलत काम) करता है? परमात्मा तो हरेक जगह पर पूरी तौर पर व्यापक है।3। सचु पातिसाही अमरु सचु सचे सचा थानु ॥ सची कुदरति धारीअनु सचि सिरजिओनु जहानु ॥ नानक जपीऐ सचु नामु हउ सदा सदा कुरबानु ॥४॥१६॥८६॥ पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला। अमरु = हुक्म। सचे = सदा स्थिर रहने वाले का। धारीअनु = धारी है उसने, उसने निष्चय किया है। सचि = सदा स्थिर प्रभु ने। सिरजिओनु = पैदा किया है उसने।4। अर्थ: परमात्मा की पातशाही सदा कायम रहने वाली है। परमात्मा का हुक्म अटल है। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का स्थान भी सदा कायम रहने वाला है! उस सदा स्थिर परमात्मा ने अटल कुदरत रची हुई है और ये सारा जगत पैदा किया हुआ है। उस सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए। हे नानक! (कह) मैं उस परमात्मा से सदा ही सदके जाता हूं।4।16।86। सिरीरागु महला ५ ॥ उदमु करि हरि जापणा वडभागी धनु खाटि ॥ संतसंगि हरि सिमरणा मलु जनम जनम की काटि ॥१॥ पद्अर्थ: करि = कर के। वडभागी = बड़े भाग्यों वाले। खाटि = कमाना, एकत्र करना। संगि = संगति में।1। अर्थ: (हे मन!) उद्यम कर के परमात्मा का नाम स्मरण कर। बड़े भाग्यों से परमात्मा का नाम धन इकट्ठा कर। साधु-संगत में रहके प्रभु के नाम का स्मरण करने से जन्मों-जन्मों में किये विकारों की मैल दूर कर लेगा।1। मन मेरे राम नामु जपि जापु ॥ मन इछे फल भुंचि तू सभु चूकै सोगु संतापु ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन इछे = मन चाहे। भुंचि = खा। चूके = खत्म हो जाएगा। सोगु = चिन्ता। संतापु = दुख। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम जप, परमात्मा (के नाम) का जाप जप। (नाम जपने की बरकत से) तू मन भावन फल प्राप्त करेगा और तेरा सारा दुख-कष्ट-सहम दूर हो जाएगा। रहाउ। जिसु कारणि तनु धारिआ सो प्रभु डिठा नालि ॥ जलि थलि महीअलि पूरिआ प्रभु आपणी नदरि निहालि ॥२॥ पद्अर्थ: जिसु कारणि = जिस उद्देश्य के लिए, जिस उद्देश्य वास्ते। तनु धारिया = जनम लिया। जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही+तल, मही (धरती) के तल पर, आकाश में, पाताल में। निहालि = निहारे, देखता है।2। अर्थ: (हे भाई!) इस उद्देश्य के लिएतूने ये मपनस जन्म हासिल किया है (जिस मनुष्य ने ये उद्देश्य पूरा किया है, प्रभु का नाम स्मरण किया है, उस ने) उस परमात्मा को अपने अंग-संग बसता देख लिया है। (उसे यह निष्चय हो गया है कि) प्रभु जल में, धरती में, आकाश में, हर जगह मौजूद है और (सभ जीवों को) अपनी मेहर की निगाह से देखता है।2। मनु तनु निरमलु होइआ लागी साचु परीति ॥ चरण भजे पारब्रहम के सभि जप तप तिन ही कीति ॥३॥ पद्अर्थ: निरमलु = पवित्र। साच = सदा स्थिर प्रभु। सभि = सारे। तिन ही = उसी ने।3। नोट: ‘तिन ही’ में ‘तिनि’ की ‘न’ की ‘ि’ की मात्रा क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण उड़ गई है। देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’। अर्थ: जिस मनुष्य की प्रीति सदा स्थिर परमात्मा के साथ बन जाती है, उसका मन पवित्र हो जाता है, उसका शरीर भी पवित्र हो जाता है (भाव, उसकी सारी ज्ञान-इंद्रिय विकारों से हट जाती हैं)। जिस मनुष्य ने अकाल-पुरख के चरण सेवे हैं, मानों, सारे जप, सारे तप उस ने ही कर लिए हैं।3। रतन जवेहर माणिका अम्रितु हरि का नाउ ॥ सूख सहज आनंद रस जन नानक हरि गुण गाउ ॥४॥१७॥८७॥ पद्अर्थ: माणिका = मोती। अंम्रितु = अटल आत्मिक देने वाला। सहज = आत्मिक अडोलता। जन नानक = हे दास नानक! 4। अर्थ: परमात्मा का अटल आत्मिक जीवन देने वाला नाम ही असली जवाहर रतन व मोती है। (क्योंकि, नाम की बरकत से ही) आत्मिक अडोलता के सुख आनंद के रस प्राप्त होते हैं। हे दास नानक! सदा प्रभु के गुण गा।4।17।87। सिरीरागु महला ५ ॥ सोई सासतु सउणु सोइ जितु जपीऐ हरि नाउ ॥ चरण कमल गुरि धनु दीआ मिलिआ निथावे थाउ ॥ साची पूंजी सचु संजमो आठ पहर गुण गाउ ॥ करि किरपा प्रभु भेटिआ मरणु न आवणु जाउ ॥१॥ पद्अर्थ: सोई = वह (गुरु) ही। सासतु = शास्त्र। सउण = शौणक का बनाया हुआ ज्योतिष शास्त्र। जितु = जिस (गुरु) से। चरण कमल = कमल के फूल जैसे सुंदर चरण। गुरि = गुरु ने। साची = सदा स्थिर रहने वाली। पूंजी = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। संजमो = संजम, इन्द्रियों को बस में करने का यत्न। आवणु जाउ = पैदा होना मरना।1। अर्थ: (पर, हे मन! गुरु की शरण पड़ने से ही नाम स्मरण किया जा सकता है) वह गुरु ही शास्त्र है, क्योंकि उस गुरु के द्वारा ही नाम स्मरण किया जा सकता है। जिस नि-आसरे को भी गुरु ने परमात्मा के सुंदर चरणों की प्रीति का धन दिया है, उस को (लोक परलोक में) आदर मिल जाता है। (हे मेरे मन!) आठ पहर परमात्मा के गुण गाता रह। यह सदा कायम रहने वाली संपत्ति है। यही इन्द्रियों को काबू रखने का अटल साधन है। (जो मनुष्य गुरु की शरण में आ के प्रभु का नाम स्मरण करता है उसको) प्रभु मेहर कर के मिल जाता है। उसे फिर आत्मिक मौत नहीं आती, उसका जन्म-मरण खत्म हो जाता है।1। मेरे मन हरि भजु सदा इक रंगि ॥ घट घट अंतरि रवि रहिआ सदा सहाई संगि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: इक रंगि = एक के रंग में, प्रभु के प्यार में।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के प्यार में (जुड़ के) सदा परमात्मा का भजन कर। वह परमात्मा हरेक शरीर में व्यापक है, वह सदा सहायता करने वाला है, और वह सदा अंग-संग रहता है।1। रहाउ। सुखा की मिति किआ गणी जा सिमरी गोविंदु ॥ जिन चाखिआ से त्रिपतासिआ उह रसु जाणै जिंदु ॥ संता संगति मनि वसै प्रभु प्रीतमु बखसिंदु ॥ जिनि सेविआ प्रभु आपणा सोई राज नरिंदु ॥२॥ पद्अर्थ: मिती = मिनती, नाप, हदबंदी। गणी = मैं गिनूं। सिमरी = मैं स्मरण करूँ। जिन = जिन्हों (लोगों) ने। जिनि = जिस ने। नरिंदु = राजा। राज नरिंदु = राजाओं का राजा।2। नोट: लफ्ज़ ‘जिन’ है बहुवचन, लफ्ज़ ‘जिनि’ एकवचन। नोट: ‘जिन’ लफ्ज़ स्त्रीलिंग होने की वजह से लफ्ज़ ‘जिंदु’ का विशेषण है। अर्थ: जब मैं धरती के मालिक प्रभु को स्मरण करता हूं (उस वक्त इतने सुख अनुभव होते हैं कि) मैं उन सुखों का अंदाजा नहीं लगा सकता। जिस लोगों ने नाम रस चखा है, वह (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो जाते हैं। (पर, जो जीवात्मा नाम रस चखती है) वही जीवात्मा उस नाम रस को समझती है। प्रीतम बख्शणहार प्रभु साधु-संगत में टिकने से ही मन में बसता है। जिस मनुष्य ने प्यारे प्रभु का स्मरण किया है, वह राजाओं का राजा बन गया है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |