श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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अउसरि हरि जसु गुण रमण जितु कोटि मजन इसनानु ॥ रसना उचरै गुणवती कोइ न पुजै दानु ॥ द्रिसटि धारि मनि तनि वसै दइआल पुरखु मिहरवानु ॥ जीउ पिंडु धनु तिस दा हउ सदा सदा कुरबानु ॥३॥

पद्अर्थ: अउसरि = अवसर, समय में। जितु अउसरि = जिस समय में। मजन = स्नान। रसना = जीभ। गुणवती रसना = भाग्यशाली जीभ। धारि = धार के। मनि = मन में। जीउ = जीवात्मा। पिंडु = शरीर। तिस दा = उस प्रभु का (दिया हुआ)। हउ = मैं।3।

नोट: ‘तिस’ की ‘ु’ की मात्रा नहीं लगी है क्योंकि सम्बंधक ‘दा’ लगा है।

अर्थ: जिस समय में परमात्मा की महिमा की जाए, परमात्मा के गुण याद किये जाएं (उस समय मानों) करोड़ों तीरथों के स्नान हो जाते हैं। अगर कोई भाग्यशाली जिहवा परमात्मा के गुण उचारती है, तो और कोई दान (इस काम की) बराबरी नहीं कर सकता। (जो मनुष्य स्मरण करता है उस के) मन में, शरीर में मेहरवान,दयाल अकाल-पुरख मेहर की निगाह करके आ बसता है। यह जीवात्मा, यह शरीर, यह धन सब कुछ उस परमात्मा का ही दिया हुआ है, मैं सदा ही उस के सदके जाता हूँ।3।

मिलिआ कदे न विछुड़ै जो मेलिआ करतारि ॥ दासा के बंधन कटिआ साचै सिरजणहारि ॥ भूला मारगि पाइओनु गुण अवगुण न बीचारि ॥ नानक तिसु सरणागती जि सगल घटा आधारु ॥४॥१८॥८८॥

पद्अर्थ: करतारि = कर्तार ने। साचै = सदा स्थिर रहने वाले ने। सिरजणहारि = निर्माता ने। मारगि = (सही) रास्ते पे। पइओनु = पाइआ उनि, उस ने डाल दिया। बीचारि = विचार के। जि = जो। घटा = घटों, शरीरों का। आधारु = आसरा।4।

अर्थ: जिस मनुष्य को कर्तार ने (अपने चरणों में) जोड़ लिया है, प्रभु चरणों में जुड़ा वह मनुष्य (कभी माया के बंधनों में नहीं फंसता, और) कभी (प्रभु से) नहीं विछुड़ता। सदा स्थिर रहने वाले निर्माता ने अपने दासों के (माया के) बंधन (सदा के वास्ते) काट दिये हुए हैं।

(अगर उसका दास पहिले) गलत रास्ते पर भी पड़ गया (था और फिर उसकी शरण आया है तो) उस प्रभु ने उस के (पहले) गुण-अवगुण ना विचार के उसे सही राह पे डाल दिया है। हे नानक! उस प्रभु की शरण पड़, जो सारे शरीरों का (जीवों का) आसरा है।4।18।88।

सिरीरागु महला ५ ॥ रसना सचा सिमरीऐ मनु तनु निरमलु होइ ॥ मात पिता साक अगले तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥ मिहर करे जे आपणी चसा न विसरै सोइ ॥१॥

पद्अर्थ: रसना = जीभ (साथ)। सचा = सदा स्थिर रहने वाला रमात्मा। होइ = हो जाता है। अगले = बहुत। तिसु बिनु = उस (परमात्मा) के बिना। चसा = रत्ती भर समय के लिए भी। सोइ = वह प्रभु।1।

अर्थ: (हे भाई!) जीभ से सदा कायम रहने वाले परमात्मा का स्मरण करना चाहिए। (नाम जपने की इनायत से) मन पवित्र हो जाता है, शरीर पवित्र हो जाता है। (जगत में) माता-पिता (आदि) साक-संबंधी होते हैं। पर उस परमात्मा के बिना और कोई (सदा साथ निभने वाला संबन्धी) नहीं होता। (स्मरण भी उसकी मेहर से ही हो सकता है), अगर वह प्रभु अपनी मेहर करे, तो वह (जीव को) रत्ती भर समय के लिए भी नहीं भूलता।1।

मन मेरे साचा सेवि जिचरु सासु ॥ बिनु सचे सभ कूड़ु है अंते होइ बिनासु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जिचरु = जितना समय भी। कूड़ु = झूठा परपंच। अंतै = आखिर को।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! जितने समय तक (तेरे शरीर में) सांस (आता) है (उतने समय तक) सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का स्मरण कर। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के अलावाऔर सारा झूठा परपंच है, ये आखिर को नाश हो जाने वाला है।1। रहाउ।

साहिबु मेरा निरमला तिसु बिनु रहणु न जाइ ॥ मेरै मनि तनि भुख अति अगली कोई आणि मिलावै माइ ॥ चारे कुंडा भालीआ सह बिनु अवरु न जाइ ॥२॥

पद्अर्थ: साहिबु = मालक। रहणु न जाइ = रहा नहीं जा सकता, धरवास नहीं आती। मनि = मन में। अगली = ज्यादा, बहुत। आणि = ले आ के। माइ = हे मां! स्ह बिनु = पति (प्रभु) के बिना। जाइ = (आसरे की) जगह, आसरा।2।

अर्थ: हे (मेरी) मां! मेरा मालिक प्रभु पवित्र स्वरूप है। उसके स्मरण के बिना मुझसे रहा नहीं जा सकता। (उसके दीदार के वास्ते) मेरे मन में, मेरे तन में बहुत ही ज्यादा तड़प है। (हे मां! मेरे अंदर तड़प है कि) कोई (गुरमुख) उसे ला के मुझसे मिला दे। मैंने चारों दिशाऐ ढूंढ के देख ली हैं, खसम-पति के बिना मेरा कोई आसरा नहीं (सूझता)।2।

तिसु आगै अरदासि करि जो मेले करतारु ॥ सतिगुरु दाता नाम का पूरा जिसु भंडारु ॥ सदा सदा सालाहीऐ अंतु न पारावारु ॥३॥

पद्अर्थ: तिसु आगै = उस (गुरु) के आगे। पूरा = अमुक। भंडारु = खजाना। पारावारु = पार+अवार, उस पार इस पार का किनारा।3।

अर्थ: (हे मेरे मन!) तू उस गुरु के दर पे अरदास कर, जो कर्तार (को) मिला सकता है। गुरु नाम (की दात) देने वाला है, उस (गुरु) का (नाम का) खजाना कभी ना खत्म होने वाला है। (गुरु की शरण पड़ के ही) सदा उस परमात्मा की महिमा करनी चाहिए जिसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। जिसके गुणों का इस पार उस पार का किनारा नहीं ढूंढा जा सकता।3।

परवदगारु सालाहीऐ जिस दे चलत अनेक ॥ सदा सदा आराधीऐ एहा मति विसेख ॥ मनि तनि मिठा तिसु लगै जिसु मसतकि नानक लेख ॥४॥१९॥८९॥

पद्अर्थ: परवदगारु = पालने वाला। चलत = चरित्र, चोज, चमत्कार। विसेख = विशेष, खास। जिसु मसतकि = जिस के माथे पे।4।

नोट: ‘जिसु’ और ‘जिस’ में फर्क याद रखने योग्य है।

अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण पड़ के ही) उस पालनहार परमात्मा की महिमा करनी चाहिए जिसके अनेक चमत्कार (दिखाई दे रहे हैं)। उसका नाम सदा ही स्मरणा चाहिए, यही सबसे उत्तम अक्ल है।

(पर, जीव के भी क्या बस?) हे नानक! जिस मनुष्य के माथे पर (सौभाग्य का) लेख (अंकुरित हो आए), उस को (परमात्मा) मन में, हृदय में प्यारा लगता है।4।19।89।

सिरीरागु महला ५ ॥ संत जनहु मिलि भाईहो सचा नामु समालि ॥ तोसा बंधहु जीअ का ऐथै ओथै नालि ॥ गुर पूरे ते पाईऐ अपणी नदरि निहालि ॥ करमि परापति तिसु होवै जिस नो होइ दइआलु ॥१॥

पद्अर्थ: संत जनहु = हे संत जनों! मिलि = (साधु-संगत में) मिल के। भाईहो = हे भाईयो! सचा = सदा स्थिर। समालि = संभाल के, हृदय में टिका के। तोसा = (जीवन सफर का) खर्च। बंधहु = एकत्र करो। जीअ का = जीवात्मा वास्ते। ऐथै ओथै = इस लोक में परलोक में। ते = से। निहालि = निहाले, देखता है। करमि = बख्शिश के द्वारा। जिस नो = जिस का।1।

नोट: ‘जिस नो’ में ‘जिसु’ में से संबंधक के कारन ‘ु’ मात्रा हट गई है; देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’।

अर्थ: हे संत जनों! (साधु संगति में) मिल के सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का नाम हृदय में बसा के अपनी जीवात्मा के वास्ते (जीवन सफर का) खजाना एकत्र करो। यह नाम रूप सफर खर्च इस लोक में और परलोक में (जीवात्मा के साथ) निभता है। (जब प्रभु) अपनी मेहर की निगाह से देखता है (तब ये नाम खजाना) पूरे गुरु से मिलता है। प्रभु की मेहर से यह उस मनुष्य को प्राप्त होता है जिस पे प्रभु दयाल होता है।1।

मेरे मन गुर जेवडु अवरु न कोइ ॥ दूजा थाउ न को सुझै गुर मेले सचु सोइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! जेवडु = जितना बड़ा। गुर मेले = गुरु मिलाता है। सोइ = वही।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! गुरु जितना बड़ा (ऊँचे जीवन वाला जगत में) और कोई नहीं है। (गुरु के बिना मुझे) और कोई दूसरा आसरा नहीं दिखाई देता। (पर) वह सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा खुद ही गुरु से मिलाता है।1। रहाउ।

सगल पदारथ तिसु मिले जिनि गुरु डिठा जाइ ॥ गुर चरणी जिन मनु लगा से वडभागी माइ ॥ गुरु दाता समरथु गुरु गुरु सभ महि रहिआ समाइ ॥ गुरु परमेसरु पारब्रहमु गुरु डुबदा लए तराइ ॥२॥

पद्अर्थ: सगल = सारे। जिनि = जिस ने। जाइ = जा के। माइ = हे मां।2।

नोट: लफ्ज़ ‘जिन’ बहुवचन, ‘जिनि’ एकवचन।

अर्थ: जिस मनुष्य ने जा के गुरु का दर्शन किया है, उसे सारे (कीमती) पदार्थ मिल गए (समझो)। हे माँ! जिस मनुष्यों का मन गुरु के चरणों में जुडता है, वह बड़े भागयशाली हैं। गुरु (जो उस परमात्मा का रूप है) सभ दातें देने वाला है जो सभ ताकतों का मालिक है जो सभ जीवों में व्यापक है। गुरु परमेश्वर (का रूप) है। गुरु पारब्रह्म (का रूप) है। गुरु (संसार समुंदर में) डूबते जीव को पार लंघा देता है।2।

कितु मुखि गुरु सालाहीऐ करण कारण समरथु ॥ से मथे निहचल रहे जिन गुरि धारिआ हथु ॥ गुरि अम्रित नामु पीआलिआ जनम मरन का पथु ॥ गुरु परमेसरु सेविआ भै भंजनु दुख लथु ॥३॥

पद्अर्थ: कितु = किस से? मुखि = मुंह से। कितु मुखि = किस मुंह से? करण = संसार। समरथु = ताकत वाला। निहचल = अडोल, सदा संतुलित। गुरि = गुरु ने। पथु = परहेज। भै भंजन = सारे डर दूर करने वाला। दुख लथु = सारे दुख उतार देने वाला।3।

अर्थ: किस मुंह से गुरु की स्तुति की जाए? गुरु (उस प्रभु का रूप है जो) जगत को पैदा करने की ताकत रखता है। वह माथे (गुरु चरणों में) सदा टिके रहते हैं, जिस पे गुरु ने (अपनी मेहर का) हाथ रखा है।

(परमात्मा का नाम) जनम-मरण के चक्कर रूप रोग का परहेज है। आत्मिक जीवन देने वाला यह नाम जल जिस (भाग्यशालियों) को गुरु ने पिलाया है वह परमेश्वर के रूप गुरु को, हमारे डर दूर करने वाले गुरु को, सारे दुख नाश करने वाले गुरु को अपने हृदय में बसाते है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh