श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सतिगुरु गहिर गभीरु है सुख सागरु अघखंडु ॥ जिनि गुरु सेविआ आपणा जमदूत न लागै डंडु ॥ गुर नालि तुलि न लगई खोजि डिठा ब्रहमंडु ॥ नामु निधानु सतिगुरि दीआ सुखु नानक मन महि मंडु ॥४॥२०॥९०॥

पद्अर्थ: गहिर = गहरा। गंभीरु = गंभीर, बड़े जिगरे वाला। सागरु = समुंदर। अघ खंडु = पापों को नाश करने वाला। डंडु = डंडा, सजा। तुलि = बराबर। ब्रहमंडु = जहान, संसार। निधानु = खजाना। सतिगुरि = सतिगुरु ने। मंडु = धरा है, रखा है, निहित किया है।4।

अर्थ: स्तिगुरू (मानों, एक) गहरा (समुंदर) है, गुरु बड़े जिगरे वाला है, गुरु सारे सुखों का समुंदर है। गुरु पापों का नाश करने वाला है। जिस मनुष्य ने अपने गुरु की सेवा की है यमदूतों का डंडा (उस के सिर पे) नहीं बजता। मैंने सारा सेसार ढूंढ के देख लियाहै, कोई भी गुरु के बराबर का नहीं है। हे नानक! सतिगुरु ने जिस मनुष्य को परमातमा का नाम खजाना दिया हे, उसने आत्मिक आनन्द (सदा के लिए) अपने मन में पिरो लिया है।4।20।90।

सिरीरागु महला ५ ॥ मिठा करि कै खाइआ कउड़ा उपजिआ सादु ॥ भाई मीत सुरिद कीए बिखिआ रचिआ बादु ॥ जांदे बिलम न होवई विणु नावै बिसमादु ॥१॥

पद्अर्थ: उपजिआ = पैदा हुआ। सादु = स्वाद, नतीजा। सुरदि = सुहृद, मित्र। बिखिआ = धन संपदा। बादु = झगड़ा। बिलम = देर। होवई = हुए। बिसमादु = आश्चर्य।1।

अर्थ: जीव दुनिया के पदार्तों को स्वाद-दार समझ के इस्तेमाल करता है। पर, इन (भोगों) का स्वाद (अंत में) कड़वा (दुखदाई) साबित होता है (विकार और रोग पैदा हो जाते हैं)। मनुष्य (जगत में) भाई-मित्र-दोस्त आदि बनाता है और (यह) माया का झगड़ा खड़ा किये रखता है। पर आश्चर्य की बात यह है कि परमात्मा के नाम के बिना किसी भी चीज के नाश होने में समय नहीं लगता।1।

मेरे मन सतगुर की सेवा लागु ॥ जो दीसै सो विणसणा मन की मति तिआगु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: विणसणा = नाशवान।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! गुरु की (बताई हुई) सेवा में व्यस्त रह। (हे भाई!) अपने मन के पीछे चलना छोड़ दे और (दुनिया के पदार्तों का मोह त्याग, क्योंकि) जो कुछ दिख रहा है सभ नाशवान है।1। रहाउ।

जिउ कूकरु हरकाइआ धावै दह दिस जाइ ॥ लोभी जंतु न जाणई भखु अभखु सभ खाइ ॥ काम क्रोध मदि बिआपिआ फिरि फिरि जोनी पाइ ॥२॥

पद्अर्थ: कूकर = कुक्ता। हरकाइआ = हलकाया हुआ। दह = दस। दिस = दिशाएं। जाइ = जाता है। अभखु = जो चीज खाने के लायक नहीं। मदि = नशे में। बिआपिआ = व्याप्त, फंसा हुआ।2।

अर्थ: जैसे हलकाया कुक्ता दौड़ता है और हर तरफ को दौड़ता है। (उसी तरह) लोभी जीव को भी कुछ नहीं सूझता, अच्छी-बुरी हरेक चीज खा लेता है। काम के और क्रोध के नशे में फंसा हुआ मनुष्य मुड़-मुड़ योनियों में पड़ता रहता है।2।

माइआ जालु पसारिआ भीतरि चोग बणाइ ॥ त्रिसना पंखी फासिआ निकसु न पाए माइ ॥ जिनि कीता तिसहि न जाणई फिरि फिरि आवै जाइ ॥३॥

पद्अर्थ: पसारिआ = बिखरा हुआ। भीतरि = में। फासिआ = फसाया हुआ। निकसु = निकास, खलासी। माइ = हे मां! जिनि = जिस (परमात्मा) ने।3।

अर्थ: माया के विषयों का चोगा जाल में तैयार करके वह जाल बिखेरा हुआ है। माया की तृष्णा ने जीव पक्षी को (उस जाल में) फंसाया हुआ है। हे (मेरी) मां! (जीव उस जाल में से) छुटकारा प्राप्त नहीं कर सकता, (क्योंकि) जिस ईश्वर ने (यह सभ कुछ) पैदा किया है उस से सांझ नहीं डालता।, और बार बार पैदा होता मरता रहता है।3।

अनिक प्रकारी मोहिआ बहु बिधि इहु संसारु ॥ जिस नो रखै सो रहै सम्रिथु पुरखु अपारु ॥ हरि जन हरि लिव उधरे नानक सद बलिहारु ॥४॥२१॥९१॥

पद्अर्थ: बहु बिधि = बहुत तरीकों से। संम्रिथु = ताकत वाला। अपारु = बेअंत। उधरे = बच गए।4।

अर्थ: इस जगत को (माया के) अनेक किस्म के रूपों रंगों में कई तरीकों से मोह रखा है। इस में से वही बच सकता है, जिसको सर्व समर्थ बेअंत अकाल-पुरख खुद बचाए। (परमात्मा की मेहर से) परमात्मा के भक्त ही परमात्मा (के चरणों) में तवज्जो जोड़ के बचते हैं। हे नानक! तू सदा उस परमात्मा से सदके रह।4।25।91।

सिरीरागु महला ५ घरु २ ॥ गोइलि आइआ गोइली किआ तिसु ड्मफु पसारु ॥ मुहलति पुंनी चलणा तूं समलु घर बारु ॥१॥

पद्अर्थ: गोइलि = नदियों के किनारे घास वाली वह हरियाली जगह जहां लोग पशु चराने ले जाते हैं। गोइलि = चरागाह में। गोइली = मवेशियों का मालिक ग्वाला। तिसु = उस (गोइली) को। डंफु = (अपने किसी बड़प्पन का) दिखावा, ढंढोरा। पसारु = खिलारा। मुहलति = मिला हुआ समय। संमलु = संभाल। घर बारु = घर घाट।1।

अर्थ: (मुसीबत के समय थोड़े समय के लिए) ग्वाला (अपने माल-मवेशी ले के) किसी चरने वाली जगह पे चला जाता है, वहां उसे अपने किसी बड़ेपन का दिखावा-पसारा शोभा नहीं देता। (वैसे ही, हे जीव! जब तुम्हारा यहां जगत में रहने के लिए) मिला हुआ समय समाप्त हो जाएगा, तू (यहां से) चल पड़ेगा। (इसलिए, अपना असली) घर घाट संभाल (याद रख)।1।

हरि गुण गाउ मना सतिगुरु सेवि पिआरि ॥ किआ थोड़ड़ी बात गुमानु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पिआरि = प्यार से। बात = बातें। गुमान = अहम्।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के गुण गाया कर। प्यार से गुरु की (बताई) सेवा करा कर। थोड़ी जितनी बात के पीछे (इस थोड़े से जीवन समय के वास्ते) क्यूँ गुमान करता है? 1। रहाउ।

जैसे रैणि पराहुणे उठि चलसहि परभाति ॥ किआ तूं रता गिरसत सिउ सभ फुला की बागाति ॥२॥

पद्अर्थ: रैणि = रात। उठि = उठ के। चलसहि = चले जाएंगे। सिउ = साथ। बागाति = बगीची।2।

अर्थ: जैसे रात के समय (किसी के घर आए हुए) मेहमान दिन चढ़ने पे (वहां से उठ के) चल पड़ेंगे। (उसी तरह, हे जीव! जिंदगी की रात खत्म होने पर तू भी इस जगत से चल पड़ेगा)। तू इस गृहस्थ से (बाग परिवार से) क्यूँ मस्त हुआ पड़ा है? यह सारी फूलों की बगीची के समान है।2।

मेरी मेरी किआ करहि जिनि दीआ सो प्रभु लोड़ि ॥ सरपर उठी चलणा छडि जासी लख करोड़ि ॥३॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। लोड़ि = ढूंढ। सरपर = जरूर। जासी = जाएगा।3।

अर्थ: यह चीज मेरी है, यह जयदाद मेरी है, क्यूं ऐसा गुमान कर रहा है? जिस परमात्मा ने यह सभ कुछ दिया है, उसको ढूंढ। यहां से जरूर कूच कर जाना है। (लाखों करोड़ों का मालिक भी) लाखों करोड़ों रूपए छोड़ के चला जाएगा।3।

लख चउरासीह भ्रमतिआ दुलभ जनमु पाइओइ ॥ नानक नामु समालि तूं सो दिनु नेड़ा आइओइ ॥४॥२२॥९२॥

पद्अर्थ: भ्रमतिआं = भटकते हुए। दुलभ = बड़ी मुश्किल से मिला हुआ। समालि = संभाल, हृदय में बसा।4।

अर्थ: (हे भाई!) चौरासी लाख जूनियों में भटक भटक के अब ये मानव जन्म बड़ी मुश्किल से मिला है।

हे नानक! (परमात्मा का) नाम हृदय में बसा, वह दिन नजदीक आ रहा है (जब यहां से कूच करना है)।4।22।92।

सिरीरागु महला ५ ॥ तिचरु वसहि सुहेलड़ी जिचरु साथी नालि ॥ जा साथी उठी चलिआ ता धन खाकू रालि ॥१॥

पद्अर्थ: तिचरु = उतने समय तक। वसहि = तू बसेगी। सुहेलड़ी = सरल। साथी = (जीवात्मा) साथी। जा = जग। धन = हे धन! हे काया! खाकू रालि = मिट्टी में मिल गई।1।

अर्थ: हे काया! तू उतना समय ही सुखी बसेगी, जितना समय (जीवात्मा तेरा) साथी (तेरे) साथ है। जब (तेरा) साथी (जीवात्मा) उठ के चल पड़ेगा, तब, हे काया! तू मिट्टी में मिल जाएगी।1।

मनि बैरागु भइआ दरसनु देखणै का चाउ ॥ धंनु सु तेरा थानु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। बैरागु = प्रेम। धंनु = भाग्यशाली। सु = वह (शरीर)। थानु = निवास।1। रहाउ।

अर्थ: (हे हरि!) वह शरीर भाग्यशाली है जिसमें तेरा निवास है (जहां तुझे याद किया जा रहा है)। (वह मनुष्य भाग्यवान है जिसके) मन में तेरा प्यार पैदा हो गया है। जिसके मन में तेरे दर्शन की तड़प पैदा हुई है।1। रहाउ।

जिचरु वसिआ कंतु घरि जीउ जीउ सभि कहाति ॥ जा उठी चलसी कंतड़ा ता कोइ न पुछै तेरी बात ॥२॥

पद्अर्थ: घरि = घर में। कंतु = पति, जीवात्मा। जीउ जीउ = जी जी, आदर के वचन। उठी = उठ के। चलसी = चला जाएगा। कंतड़ा = विचारा कंत, विचारी जीवात्मा।2।

अर्थ: हे काया! जितने समय तेरा पति (जीवात्मा तेरे) घर में बसता है, सभी लोग तुम्हें ‘जी’ ‘जी’ करते हैं (सारे तेरा आदर करते हैं)। पर जब निमाणी कंत (जीवात्मा) उठ के चल पड़ेगा, तब कोई भी तेरी बात नहीं पूछता।2।

पेईअड़ै सहु सेवि तूं साहुरड़ै सुखि वसु ॥ गुर मिलि चजु अचारु सिखु तुधु कदे न लगै दुखु ॥३॥

पद्अर्थ: पेईअड़ै = पिता के घर में, इस लोक में। सहु = पति। सेवि = स्मरण कर। साहुरड़ै = ससुराल में, परलोक में। सुखि = सुख से। गुर मिलि = गुरु से मिल के। चजु = काम करने का तरीका, जीवन विधि। आचारु = अच्छा चलन। सिखु = सीख।3।

नोट: ‘सिखु’ शब्द क्रिया है, हुकमी भविष्यत, मध्यम पुरख, एकवचन।

अर्थ: (हे जीवात्मा! जब तक तू,) पेके घर में (संसार में है, तब तक) पति प्रभु को सिमरती रह। ससुराल में (परलोक में जाकर) तू सुखी बसेगी। (हे जीवात्मा!) गुरु को मिल के जीवन विधि सीख, अच्छा आचरण बनाना सीख, तुझे कभी कोई दुख नहीं व्यापेगा।3।

सभना साहुरै वंञणा सभि मुकलावणहार ॥ नानक धंनु सोहागणी जिन सह नालि पिआरु ॥४॥२३॥९३॥

पद्अर्थ: वंञणा = जाना। सभि = सारी जीव स्त्रीयां। सह नालि = पति के साथ।4।

नोट: ‘सहु’ और ‘सह’ में फर्क स्माणीय हैं।

अर्थ: सभी जीव-स्त्रीयों ने ससुराल (परलोक में अपनी अपनी बारी से) चले जाना है, सभी ने मुकलावे जाना है। हे नानक! वह वह जीवस्त्री सुहाग-भाग वाली है जिनका पति प्रभु से प्यार (बन गया) है।4।23।93।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh