श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 51 सिरीरागु महला ५ घरु ६ ॥ करण कारण एकु ओही जिनि कीआ आकारु ॥ तिसहि धिआवहु मन मेरे सरब को आधारु ॥१॥ पद्अर्थ: करण = जगत। कारण = मूल। जिनि = जिस ने। आकारु = दिखता जगत। के = का। आधारु = आसरा।1। अर्थ: हे मेरे मन! जिस परमात्मा ने यह दिखाई देता जगत बनाया है, सिर्फ वही सृष्टि का रचनहार है, और जीवों का रचनहार है, तथा जीवों का आसरा है। उसी को सदा स्मरण करते रहो।1। गुर के चरन मन महि धिआइ ॥ छोडि सगल सिआणपा साचि सबदि लिव लाइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: साचि = सदा स्थ्रि रहने वाले परमात्मा में। शबदि = (गुरु के) शब्द से।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) गुरु के चरण अपने मन में टिका के रख (भाव, अहम् को छोड़ के गुरु में श्रद्धा बना)। (अपनी) सारी चतुराईयां छोड़ दे। गुरु के शब्द द्वारा सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में तवज्जो जोड़।1। रहाउ। दुखु कलेसु न भउ बिआपै गुर मंत्रु हिरदै होइ ॥ कोटि जतना करि रहे गुर बिनु तरिओ न कोइ ॥२॥ पद्अर्थ: न बिआपै = दबाव नहीं डालता। गुर मंत्र = गुरु का उपदेश। कोटि = करोड़ों।2। अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में गुरु का उपदेश (सदा) बसता है। उसको कोई दुख कोई कष्ट कोई डर सता नहीं सकता। लोग करोडों (और-और) यत्न करके थक जाते हैं, पर गुरु की शरण के बिनां (उन दुख-कष्टों से) कोई मनुष्य पार नहीं लांघ सकता।2। देखि दरसनु मनु साधारै पाप सगले जाहि ॥ हउ तिन कै बलिहारणै जि गुर की पैरी पाहि ॥३॥ पद्अर्थ: साधारै = आधर सहित होता है। पाहि = पहने जाते हैं।3। अर्थ: गुरु का दर्शन करके जिस मनुष्य का मन (गुरु का) आसरा पकड़ लेता है, उसके सारे (पहले किए) पाप नाश हो जाते हैं। मैं उन (भाग्यशाली) लोगों से कुर्बान जाता हूँ जो गुरु के चरणों में गिर पड़ते हैं।3। साधसंगति मनि वसै साचु हरि का नाउ ॥ से वडभागी नानका जिना मनि इहु भाउ ॥४॥२४॥९४॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। साचु = सदा स्थिर रहने वाला। भाउ = प्रेम।4। अर्थ: साधु-संगत में रहने से सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का नाम मन में बस जाता है। हे नानक! वह लोग भाग्यशाली हैं, जिनके मन में (साधु संगति में टिकने का) यह प्रेम है।4।24।94। सिरीरागु महला ५ ॥ संचि हरि धनु पूजि सतिगुरु छोडि सगल विकार ॥ जिनि तूं साजि सवारिआ हरि सिमरि होइ उधारु ॥१॥ पद्अर्थ: संचि = एकत्र कर। पूजि = आदर सत्कार से हृदय में बसा। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। तूं = तूझे। साजि = पैदा कर के। सवारिआ = सुंदर बनाया। उधारु = (विकारों से) बचाव।1। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम धन इकट्ठा कर। अपने गुरु का आदर सत्कार हृदय में बसा (और इस तरह) सारे विकार छोड़। जिस परमात्मा ने तुझे पैदा करके सुंदर बनाया है, उसका स्मरण कर, (विकारों से तेरा) बचाव हो जाएगा।1। जपि मन नामु एकु अपारु ॥ प्रान मनु तनु जिनहि दीआ रिदे का आधारु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अपारु = बेअंत। जिनहि = जिसने। रिदे का = हृदय का। आधारु = आसरा।1। रहाउ। अर्थ: अर्थ- हे मन! उस परमात्मा का नाम जप। जो एक खुद ही खुद है और जो बेअंत है। जिसने ये जीवात्मा दी है मन दिया है और शरीर दिया है, जो सभ जीवों के हृदय का आसरा है।1। रहाउ। कामि क्रोधि अहंकारि माते विआपिआ संसारु ॥ पउ संत सरणी लागु चरणी मिटै दूखु अंधारु ॥२॥ पद्अर्थ: कामि = काम में। माते = मस्त। विआपिआ = जोर डाले रखता है। संसारु = जगत (का मोह)। अंधारु = घोर अंधकार।2। अर्थ: जिस लोगों पे जगत का मोह दबाव डाले रखता है, वह काम में, क्रोध में, अहंकार में मस्त रहते हैं। (इन विकारों से बचने के लिए, हे भाई!) गुरु की शरण पड़, गुरु की चरणी लग (गुरु का आसरा लेने से अज्ञानता का) घोर अंधकार रूप दुख मिट जाता है।2। सतु संतोखु दइआ कमावै एह करणी सार ॥ आपु छोडि सभ होइ रेणा जिसु देइ प्रभु निरंकारु ॥३॥ पद्अर्थ: सतु = दान, सेवा। सार = श्रेष्ठ। आपु = स्वैभाव। रेणा = चरणधूड़। देइ = देता है।3। अर्थ: जिस (भाग्यशाली मनुष्य) को निरंकार प्रभु (अपने नाम की दात) देता है, वह स्वै भाव छोड़के सभ की चरण धूल बनता है। वह सेवा, संतोख व दया (की कमाई) कमाता है, और यही है श्रेष्ठ करणी।3। जो दीसै सो सगल तूंहै पसरिआ पासारु ॥ कहु नानक गुरि भरमु काटिआ सगल ब्रहम बीचारु ॥४॥२५॥९५॥ पद्अर्थ: पसरिआ = बिखरा हुआ। गुरि = गुरु ने। बीचारु = सोच।4। अर्थ: हे नानक! कह: गुरु ने जिस मनुष्य के मन की भटकन दूर कर दी है, उस को, हे प्रभु! जो ये जगत दिखाई देता है सारा तेरा ही रूप दिखता है। तेरा ही पसारा हुआ ये पसारा दिखता है। उसे यही सोच बनी रहती है कि हर जगह तू ही तू है।4।25।95। सिरीरागु महला ५ ॥ दुक्रित सुक्रित मंधे संसारु सगलाणा ॥ दुहहूं ते रहत भगतु है कोई विरला जाणा ॥१॥ पद्अर्थ: दुक्रित = (शास्त्रों अनुसार नीयत) बुरे काम। सुक्रित = (नीयत) अच्छे काम। मंधे = बीच। सगलाणा = सारा। जाणा = जाना।1। अर्थ: (हे भाई!) सारा जगत (शास्त्रों के अनुसार नीयत) बुरे कर्मों और अच्छे कर्मों (की विचार) में ही डूबा हुआ है। परमात्मा की भक्ति करने वाला मनुष्य इन दोनों विचारों से ही मुक्त रहता है (कि शास्त्रों अनुसार ‘दुक्रित’ कौन से हैं और ‘सुक्रित’ कौन से हैं), पर ऐसा कोई विरला ही मिलता है।1। ठाकुरु सरबे समाणा ॥ किआ कहउ सुणउ सुआमी तूं वड पुरखु सुजाणा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ठाकुरु = पालणहार। सरबे = सभ जीवों मे। किआ कहउ = मैं क्या कहूँ? किआ सुणउ = मैं क्या सुनूँ? सुआमी = हे स्वामी। सुजाणा = सबके दिल की जानने वाला।1। रहाउ। अर्थ: हे स्वामी! तू सब जीवों में समाया हुआ है और सबको पालनेवाला है। तू सबसे बड़ा है, सभ में व्यापक है। सबके दिल की जानने वाला है। (हे स्वामी! इससे ज्यादा तेरे बाबत) मैं (क्या) कहूँ और क्या सुनूँ?।1। रहाउ। मान अभिमान मंधे सो सेवकु नाही ॥ तत समदरसी संतहु कोई कोटि मंधाही ॥२॥ पद्अर्थ: मान = आदर। अभिमान = अपमान, निरादर। तत = मूल-प्रभु। तत दरसी = हर जगह मूल प्रभु को देखने वाला। सम दरसी = सभी को एक जैसा देखने वाला। कोटि = करोड़ों। मंधाही = में।2। अर्थ: हे संत जनों! हर जगह जगत के मूल-प्रभु को देखने वाला और सभी को एक-सी प्रेम निगाह से देखने वाला करोड़ों में कोई एक होता है। जो मनुष्य (जगत में मिलते) आदर या निरादरी (के अहसास) में फंसा रहता है, वह परमात्मा का असल सेवक नहीं (कहला सकता)।2। कहन कहावन इहु कीरति करला ॥ कथन कहन ते मुकता गुरमुखि कोई विरला ॥३॥ पद्अर्थ: कीरति = शोभा, स्तुति। करला = रास्ता। ते = से। मुकता = आजाद, बचा हुआ। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ा हुआ मनुष्य।3। अर्थ: (ज्ञान आदि की बातें निरी) कहनी या कहलानी- ये रास्ता है दुनिया से शोभा कमाने का। गुरु की शरण पड़ा हुआ कोई विरला ही मनुष्य होता है जो (ज्ञान की यह जबानी जबानी बातें) कहने से आजाद रहता है।3। गति अविगति कछु नदरि न आइआ ॥ संतन की रेणु नानक दानु पाइआ ॥४॥२६॥९६॥ पद्अर्थ: गति = मुक्ति। अविगति = मुक्ति के विपरीत हालत। रेणु = चरण धूल।4। अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने संत जनों के चरणों कीधूड़ (का) दान प्राप्त कर लिया है, उसे इस बात की ओर ध्यानही नहीं होता कि मुक्ति क्या है और ना-मुक्ति क्या है (उसे प्रभु ही हर जगह दिखता है, प्रभु की याद ही उस का निशाना है)।4।26।96। सिरीरागु महला ५ घरु ७ ॥ तेरै भरोसै पिआरे मै लाड लडाइआ ॥ भूलहि चूकहि बारिक तूं हरि पिता माइआ ॥१॥ पद्अर्थ: लाड लडाइआ = लाड करता रहा, लाडों में दिन व्यतीत करता रहा। चूकहि = चूकना। माइआ = मईया, मां।1। अर्थ: हे प्यारे (प्रभु-पिता)! तेरे प्यार के भरोसे पे मैंने लाडों में ही दिन गुजार दिए हैं। (मुझे यकीन है कि) तू हमारा माता-पिता है, और बच्चे भूल-चूक करते ही रहते हैं।1। सुहेला कहनु कहावनु ॥ तेरा बिखमु भावनु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सुहेला = आसान। बिखमु = मुश्किल। भावनु = होनी को मानना।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! तेरा भाणा मानना (तेरी रजा में रहना, तेरी मर्जी में चलना) कठिन है। (पर यह) कहना और कहलाना आसान है (कि हम तेरा भाणा मानते हैं)।1। रहाउ। हउ माणु ताणु करउ तेरा हउ जानउ आपा ॥ सभ ही मधि सभहि ते बाहरि बेमुहताज बापा ॥२॥ पद्अर्थ: हउ करउ = मैं करता हूं। जानउ आपा = मुझे अपना जानता हूं। मधि = बीच में।2। अर्थ: हे मेरे बे-मुथाज पिता (प्रभु)! मैं तेरा (ही) मान (गर्व) करता हूं (मुझे ये फखर है कि तू मेरे सिर पर है), मैं तेरा ही आसरा रखता हूं। मैं जानता हूं कि तू मेरा अपना है। तू सभ जीवों के अंदर बसता है, और सभी से बाहर भी है (निरलेप भी है)।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |