श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पिता हउ जानउ नाही तेरी कवन जुगता ॥ बंधन मुकतु संतहु मेरी राखै ममता ॥३॥

पद्अर्थ: जुगता = युक्ति, तरीका। तेरी कवन जुगता = तुझे प्रसन्न करने का कौन सा तरीका है? बंधन मुकतु = बंधनों से आजाद करने वाला। ममता = ‘मेरा’ कहने का दावा।3।

अर्थ: हे पिता प्रभु! मुझे पता नहीं कि तुझे प्रसंन्न करने का तरीका क्या है? हे संत जनों! पिता प्रभु मुझे माया के बंधनों से आजाद करने वाला है। वह मुझे अपना जानता है।3।

भए किरपाल ठाकुर रहिओ आवण जाणा ॥ गुर मिलि नानक पारब्रहमु पछाणा ॥४॥२७॥९७॥

पद्अर्थ: आवण जाणा = पैदा होना मरना। गुर मिलि = गुरु को मिल के।4।

अर्थ: हे नानक! पालणहार प्रभु जी जिस मनुष्य पर दया करते हैं, उसके जनम-मरन का चक्कर खत्म हो जाता है। गुरु को मिल के ही वह मनुष्य उस बेअंत परमात्मा के साथ गहरी सांझ पा लेता है।4।27।97।

सिरीरागु महला ५ घरु १ ॥ संत जना मिलि भाईआ कटिअड़ा जमकालु ॥ सचा साहिबु मनि वुठा होआ खसमु दइआलु ॥ पूरा सतिगुरु भेटिआ बिनसिआ सभु जंजालु ॥१॥

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। जमकालु = मौत, मौत का डर, आत्मिक मौत का खतरा। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। मनि = मन में। वुठा = आ बसा है। भेटिआ = मिला। सभु = सारा। जंजालु = माया के बंधन।1।

अर्थ: (जिस मनुष्य को) पूरा गुरु मिल जाता है, उसका सारा माया मोह का जाल नाश हो जाता है। संत जन भाईयों से मिल के उसकी आत्मिक मौत का खतरा दूर हो जाता है। पति परमेश्वर उस पर दयावान होता है और सदा स्थिर मालिक प्रभु उसके मन में आ बसता है।1।

मेरे सतिगुरा हउ तुधु विटहु कुरबाणु ॥ तेरे दरसन कउ बलिहारणै तुसि दिता अम्रित नामु ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। तुसि = प्रसन्न हो के। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे सतिगुरु! मैं तूझसे कुर्बान जाता हूं, मैं तेरे दर्शनों से सदके जाता हूं। तूने प्रसन्न हो के मुझे (प्रभु का) आत्मिक जीवन देने वाला नाम बख्शा है।1। रहाउ।

जिन तूं सेविआ भाउ करि सेई पुरख सुजान ॥ तिना पिछै छुटीऐ जिन अंदरि नामु निधानु ॥ गुर जेवडु दाता को नही जिनि दिता आतम दानु ॥२॥

पद्अर्थ: तूं = तुझे। भाउ = प्रेम। सुजान = सयाने। पिछै = अनुसार हो के, शरण पड़ कर। छुटीऐ = (विकारों से) बचते हैं। निधानु = खजाना। जिनि = जिस ने।2।

नोट: ‘जिनि’ बहुवचन है, ‘जिन’ एकवचन है।

अर्थ: (हे प्रभु!) जिन्होंने प्रेम से तुझे स्मरण किया है, वही सयाने मनुष्य हैं। जिस के हृदय में (तेरा) नाम खजाना बसता है। उन की ही शरन पड़ के (विकारों से बच जाते हैं)। (पर नाम की यह दात गुरु से ही मिलती है)। गुरु जितना और कोई दाता नहीं है क्योंकि उसने आत्मिक जीवन की दात दी है।2।

आए से परवाणु हहि जिन गुरु मिलिआ सुभाइ ॥ सचे सेती रतिआ दरगह बैसणु जाइ ॥ करते हथि वडिआईआ पूरबि लिखिआ पाइ ॥३॥

पद्अर्थ: हहि = है। सुभाइ = प्यार से। सेती = साथ। बैसणु = बैठने को। जाइ = जगह। हथि = हाथ में।3।

अर्थ: जिनको प्यार की इनायत से गुरु आ मिलता है, जगत में आए हुउ वही स्वीकार हैं। (गुरु की सहायता से) सदा स्थिर प्रभु (के नाम) में रंग के उनको परमात्मा की हजूरी में बैठने को जगह मिल जाती है। (पर यह सभ) आदर-सत्कार परमात्मा के (अपने) हाथ में हैं (जिस पे वह मेहर करता है, वह मनुष्य) पहले जनम में की गई नेक कमाई का लिखा लेख प्राप्त कर लेता है।3।

सचु करता सचु करणहारु सचु साहिबु सचु टेक ॥ सचो सचु वखाणीऐ सचो बुधि बिबेक ॥ सरब निरंतरि रवि रहिआ जपि नानक जीवै एक ॥४॥२८॥९८॥

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर। टेक = आसरा। वखाणऐ = कहा जाता है, हर कोई कहता है। बिबेक बुधि = विवेक की बुद्धि वाला, सकारात्मक तीक्ष्ण बुद्धि वाला। जपि = जप के। एक = (उस) एक (का नाम)।4।

अर्थ: जगत का कर्ता जो सब कुछ करने के समर्थ है और सबका मालिक है। सदा ही कायम रहने वाला है, वही सबका सहारा है। हरेक जीव उसी को ही सदा स्थिर रहने वाला कहता है। वह सदा स्थिर प्रभु ही (असली) परख की बुद्धि रखने वाला है, सभ जीवों के अंदर व्यापक है। हे नानक! जो मनुष्य उस एक प्रभु (का नाम) जपता है उसको आत्मिक जीवन प्राप्त होता है।4।28।98।

सिरीरागु महला ५ ॥ गुरु परमेसुरु पूजीऐ मनि तनि लाइ पिआरु ॥ सतिगुरु दाता जीअ का सभसै देइ अधारु ॥ सतिगुर बचन कमावणे सचा एहु वीचारु ॥ बिनु साधू संगति रतिआ माइआ मोहु सभु छारु ॥१॥

पद्अर्थ: पूजीऐ = पूजना चाहिए। लाइ = लगा के। जीअ का = जीवात्मा का, आत्मिक जीवन का। सभसै = (शरण आए) हरेक को। देइ = देता है। अधारु = आसरा। साधू = गुरु। छारु = राख, व्यर्थ।1।

अर्थ: गुरु परमात्मा (का रूप) है। (गुरु के वास्ते अपने) मन में हृदय में प्यार बना के (उसको) अपने हृदय में आदर की जगह देनी चाहिए। गुरु आत्मिक जीवन देने वाला है। (गुरु) हरेक (शरण आए) जीव को (परमात्मा के नाम का) आसरा देता है। सबसे उत्तम यही है कि गुरु के वचन कमाए जाएं (गुरु के उपदेश के अनुसार जीवन का सृजना की जाए)। गुरु की संगति में प्यार पाए बिना (यह) माया का मोह (जो) सारे का सारा व्यर्थ है (जीव पर अपना जोर डाले रखता है)।1।

मेरे साजन हरि हरि नामु समालि ॥ साधू संगति मनि वसै पूरन होवै घाल ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: समालि = हृदय में बसाओ। मनि = मन में। घाल = मेहनत। पूरन = सफल।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मित्र! परमात्मा का नाम (अपने) हृदय में बसा (और गुरु चरणों में टिका रह)। गुरु की संगति में रहने से (परमात्मा का नाम) मन में बसता है, और मेहनत सफल हो जाती है।1। रहाउ।

गुरु समरथु अपारु गुरु वडभागी दरसनु होइ ॥ गुरु अगोचरु निरमला गुर जेवडु अवरु न कोइ ॥ गुरु करता गुरु करणहारु गुरमुखि सची सोइ ॥ गुर ते बाहरि किछु नही गुरु कीता लोड़े सु होइ ॥२॥

पद्अर्थ: अगोचरु = (अ+गो+चरु, गो = ज्ञानेंद्रिय) जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच ना हो सके। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। सोइ = शोभा। ते = से। बाहिर = परे। लोड़े = चाहे।2।

अर्थ: गुरु सभ ताकतों का मालिक है, गुरु बेअंत (गुणों वाला) है। सौभाग्यशाली मनुष्य को (ही) गुरु का दर्शन प्राप्त होता है। गुरु (उस प्रभु का रूप है जो) ज्ञानेंद्रियों की पहुँच से परे हैं, गुरु पवित्र स्वरूप है। गुरु जितना बड़ा (व्यक्तित्व वाला) और कोई नही है। गुरु कर्तार (का रूप) है। गुरु (उस परमात्मा का रूप है जो) सब कुछ करने के समर्थ है। गुरु की शरण पड़ने से सदा कायम रहने वाली शोभा मिलती है। गुरु से बे-मुख हो के (आकी हो के) कोई काम नहीं किया जा सकता। जो कुछ गुरु करना चाहता है वही होता है (भाव, गुरु उस प्रभु का रूप है जिससे कोई आकी नहीं हो सकता, और जो कुछ वह करना चाहता है वही होता है)।2।

गुरु तीरथु गुरु पारजातु गुरु मनसा पूरणहारु ॥ गुरु दाता हरि नामु देइ उधरै सभु संसारु ॥ गुरु समरथु गुरु निरंकारु गुरु ऊचा अगम अपारु ॥ गुर की महिमा अगम है किआ कथे कथनहारु ॥३॥

पद्अर्थ: पारजातु = पारिजात (स्वर्ग के पाँच वृक्षों में से एक ‘पारिजात’ वृक्ष है, जो मनोकामनाएं पूरी करता है। वह पांच वृक्ष ये हैं: मंदार, पारजात, संतान, कल्पवृक्ष और हरिचंदन)।

नोट: समुंदर मंथन पर ये पारिजात वृक्ष देवताओं को चौदह रत्नों में ही मिला था। बंटवारे के समय यह इन्द्र के कब्जे में आया। कृष्ण ने उससे छीन के अपनी प्यारी ‘सत्यभामा’ के आँगन में लगा दिया।

“पारमस्या स्तीति पारी समुद्र स्तत्र जात:, तस्य समुद्रौत्पन्नत्वात्”।

मनसा = मनीषा,इच्छा। उधरै = (विकारों से) बचालेता है। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)।3।

अर्थ: गुरु (ही असल) तीर्थ है। गुरु ही पारजात वृक्ष है, गुरु ही सारी कामनाएं पूरी करने वाला है। गुरु ही (वह) दाता है (जो) परमात्मा का नाम देता है (जिसकी इनायत से) सारा संसार (विकारों से) वचता है। गुरु (उस परमात्मा का रूप है जो) सभ ताकतों का मालिक है, जिसका कोई खास स्वरूप नहीं बताया जा सकता, जो सबसे ऊँचा है, अपहुंच है और बेअंत है। गुरु की उपमा तक (शब्दों द्वारा) पहुँचा नहीं जा सकता। कोई भी (विद्वान से विद्वान) बयान करने वाला बयान नहीं कर सकता।3।

जितड़े फल मनि बाछीअहि तितड़े सतिगुर पासि ॥ पूरब लिखे पावणे साचु नामु दे रासि ॥ सतिगुर सरणी आइआं बाहुड़ि नही बिनासु ॥ हरि नानक कदे न विसरउ एहु जीउ पिंडु तेरा सासु ॥४॥२९॥९९॥

पद्अर्थ: बाछीअहि = जिनकी इच्छा की जाती है। तितड़े = वह सारे। दे = देता है। रासि = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। बिनासु = (आत्मिक) मौत। विसरउ = मैं भूलूं। जीउ = जीवात्मा। पिंडु = शरीर। सासु = साँस, श्वास।4।

अर्थ: जितने भी पदार्तों की मन में इच्छा धारी जाए, वह सारे गुरु से प्राप्त हो जाते हैं। पहिले जनम में की नेक कमाई के लिखे लेख अनुसार (गुरु की शरण पड़ने से) मिल जाते हैं। गुरु सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम की पूंजी देता है।

अगर, गुरु की शरण आ पड़ें, तो उससे मिले आत्मिक जीवन का फिर कभी नाश नहीं होता। हे नानक! (कह) हे हरि! (गुरु की शरण पड़ के) मैं तुझे कभी ना भुलाऊँ। मेरी ये जीवात्मा, मेरा यह शरीर और (शरीर में आते) श्वास, सभ तेरा ही दिया हुआ है।4।29।99।

सिरीरागु महला ५ ॥ संत जनहु सुणि भाईहो छूटनु साचै नाइ ॥ गुर के चरण सरेवणे तीरथ हरि का नाउ ॥ आगै दरगहि मंनीअहि मिलै निथावे थाउ ॥१॥

पद्अर्थ: सुणि = सुनो। भाईहो = हे भाईयो! छूटनु = (विकारों से) खलासी। नाइ = नाम से। सचै नाइ = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम में (जुड़ के)। सरेवणे = पूजने। आगै = परलोक में। मंनीअहि = माने जाते हैं, आदर पाते हैं।1।

अर्थ: हे भाईयो! हे संत जनों! (ध्यान से) सुनो। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम में जुड़ने से ही (विकारों से) खलासी होती है। (पर यह नाम गुरु के पास से ही मिल सकता है) गुरु के चरण पूजने (भाव, अहम् त्याग के गुरु की शरण पड़ना और गुरु के सन्मुख रह कर) परमात्मा का नाम (जपना) ही (सारे) तीर्तों (का तीर्थ) है। (इसकी इनायत से) परलोक में परमात्मा की दरगाह में (भाग्यशाली जीव) आदर पाते हैं। जिस मनुष्य को और कहीं भी आसरा नहीं मिलता, उसको (प्रभु की दरगाह में) आसरा मिल जाता है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh