श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 53 भाई रे साची सतिगुर सेव ॥ सतिगुर तुठै पाईऐ पूरन अलख अभेव ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: साची = सदा स्थिर रहने वाली, अटल, सफल। सतिगुर तुठै = यदि गुरु मेहरबान हो जाए। अलख = अलक्ष्य, अदृष्ट। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! गुरु की सेवा जरूर फल देती है। (क्योंकि) गुरु प्रसन्न हो जाए तो वह परमात्मा मिल जाता है जो सब में व्यापक है जो अदृष्ट है और जिस का भेद नहीं पाया जा सकता।1। रहाउ। सतिगुर विटहु वारिआ जिनि दिता सचु नाउ ॥ अनदिनु सचु सलाहणा सचे के गुण गाउ ॥ सचु खाणा सचु पैनणा सचे सचा नाउ ॥२॥ पद्अर्थ: विटहु = से। जिनि = जिस ने। सचु = सदा स्थिर। अनदिनु = हर रोज।2। अर्थ: हे भाई! मैं उस गुरु के सदके जाता हूँ, जिस ने (मुझे) सदा कायम रहने वाला हरि नाम दिया है। (जिस गुरु की कृपा से) मैं हर वक्त सदा स्थिर प्रभु को सलाहता रहता हूँ और सदा स्थिर प्रभु के गुण गाता रहता हूँ। (हे भाई! गुरु की मेहर से अब) सदा स्थिर हरि नाम (मेरी आत्मिक) खुराक बन गया है। सदा स्थिर हरि नाम (मेरी) पोशाक हो चुका है (आदर-सत्कार का कारण बन चुका है)। (अब मैं) सदा कायम रहने वाले प्रभु का सदा स्थिर नाम (हर वक्त जपता हूँ)।2। सासि गिरासि न विसरै सफलु मूरति गुरु आपि ॥ गुर जेवडु अवरु न दिसई आठ पहर तिसु जापि ॥ नदरि करे ता पाईऐ सचु नामु गुणतासि ॥३॥ पद्अर्थ: सासि = हरेक श्वास में। गिरासि = (हरेक) ग्रास में। सासि गिरासि = हरेक साँस व ग्रास के साथ। सफल मूरति = वह व्यक्तित्व जो सारे फल देने के समर्थ है। तिसु = उस (गुरु) को। ता = तब। गुणतासि = गुणों का खजाना।3। अर्थ: हे भाई! गुरु वह व्यक्तित्व है (सख्शियत है) जो सारे फल देने के समर्थ है (गुरु की शरण पड़ने से हरेक) श्वास के साथ (हरेक) ग्रास के साथ (कभी भी परमात्मा) नहीं भूलता। हे भाई! गुरु के बराबर और कोई (दाता) नहीं दिखता, आठों पहर उस (गुरु को) याद रख। जब गुरु मेहर की निगाह करता है, तो सारे गुणों के खजाने परमात्मा का सदा स्थिर रहने वाला नाम प्राप्त हो जाता है।3। गुरु परमेसरु एकु है सभ महि रहिआ समाइ ॥ जिन कउ पूरबि लिखिआ सेई नामु धिआइ ॥ नानक गुर सरणागती मरै न आवै जाइ ॥४॥३०॥१००॥ पद्अर्थ: पूरबि = पहले जन्म में। सेई = वही लोग। धिआइ = ध्यान करके, स्मरण करके।4। अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा सारी सृष्टि में व्यापक है, वह और गुरु एक रूप हैं। जिस मनुष्यों की पूर्व जन्म की नेक कमाई के संसकारों का लेखा अंकुरित होता है वही मनुष्य (गुरु की शरण पड़ के) परमात्मा का नाम स्मरण करके (ये श्रद्धा बनाते हैं कि परमात्मा सभ में व्यापक है)। हे नानक! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह मनुष्य आत्मिक मौत नहीं मरता। वह जनम मरण के चक्कर में नहीं पड़ता।4।30।100।
गुरु नानक देव जी--------------33 —————@—————
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सिरीरागु महला १ घरु १ असटपदीआ ॥ आखि आखि मनु वावणा जिउ जिउ जापै वाइ ॥ जिस नो वाइ सुणाईऐ सो केवडु कितु थाइ ॥ आखण वाले जेतड़े सभि आखि रहे लिव लाइ ॥१॥ पद्अर्थ: असटपदी = (अष्ट+पद), आठ बंद वाली रचना। आखि = कह के। वावणा = खपाना, खुआर करना। जापै = प्रतीत होता है, समझ पड़ती है। वाइ जापै = बोलने की समझ पड़ती है। वाइ = वाय, घ्वनि, बोल। कितु = किस में? थाइ = जगह में। कितु थाइ = किस जगह में? किस स्थान पर? सभि = सारे। रहे = रह गये, थक गये। लिव लाइ = तवज्जो/ध्यान जोड़ के।1। अर्थ: ज्यों ज्यों किसी जीव को (प्रभु के गुणों) को बोलने की समझ पड़ती है (त्यों त्यों ये समझ भी आती जाती है कि उसके गुण) बयान कर कर के मन को खपाना ही है। जिस प्रभु को बोल के सुनाते हैं (जिस प्रभु के गुणों के बारे में बोल के और लोगों को बताते हैं, उसकी बाबत ये तो पता ही नहीं लगता कि) वह कितना बड़ा है और किस जगह पे (निवास रखता) है। वह सारे बयान करते थक जाते हैं, (गुणों में) तवज्जो जोड़ते रह जाते हैं।1। बाबा अलहु अगम अपारु ॥ पाकी नाई पाक थाइ सचा परवदिगारु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बाबा = हे भाई! अलहु = अल्ला, रब, परमात्मा। अगम = अपहुंच, जिस तक पहुंच ना हो सके, जिस को समझा ना जा सके। अपारु = जिसके गुणों का पार न पाया जा सके। पाकी = पवित्र। नाई = बड़ाई (‘नाई’ का अरबी रूप ‘स्ना’ है जिसका अर्थ है “वडिआई, सिफति, उपमा, स्तुति”। पंजाबी में इसके दो रूप हैं: ‘असनाई’ और ‘नाई’। जैसे संस्कृत शब्द ‘स्थान’ से पंजाबी के दो रूप = ‘थान’ और ‘असथान’)। थाइ = जगह में, स्थान पे। परविदगारु = (सब) को पालने वाला परमात्मा।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के गुणों तक पहुँच नहीं हो सकती, उसके गुणों का परला छोर नहीं ढूंढा जा सकता। उसकी उपमा पवित्र है, वह पवित्र स्थान पर (शोभायमान) है। वह सदा कायम रहने वाला प्रभु (सब जीवों को) पालने वाला है।1। रहाउ। तेरा हुकमु न जापी केतड़ा लिखि न जाणै कोइ ॥ जे सउ साइर मेलीअहि तिलु न पुजावहि रोइ ॥ कीमति किनै न पाईआ सभि सुणि सुणि आखहि सोइ ॥२॥ पद्अर्थ: न जापी = समझ में नहीं आता। केतड़ा = कितना (अटल)? लिखि न जाणै = लिखा नहीं जा सकता। साइर = शायर, कवि। मेलीअहि = इकट्ठे किए जाएं। रोइ = खप के, बयान करने का व्यर्थ प्रयत्न करके। पुजावहि = पहुंचना। किनै = किसी ने भी। सोइ = सूह, खबर।2। अर्थ: हे प्रभु! किसी को भी ये समझ नहीं पड़ी कि तेरा हुक्म कितना अटल है। कोई भी तेरे हुक्म को बयान नहीं कर सकता। अगर सौ कवि भी एकत्र कर लिए जाएंतो भी वह बयान करने का व्यर्थ प्रयत्न करके तेरे गुणों तक एक तिल मात्र नहीं पहुँच सकते। किसी भी जीव ने तेरा मुल्य नहीं पाया, सारे जीव तेरी बाबत (दूसरों से) सुन सुन के ही कह देते हैं।2। पीर पैकामर सालक सादक सुहदे अउरु सहीद ॥ सेख मसाइक काजी मुला दरि दरवेस रसीद ॥ बरकति तिन कउ अगली पड़दे रहनि दरूद ॥३॥ पद्अर्थ: पैकामर = पैगंबर। सालक = रास्ता दिखाने वाला। सादक = सिदक वाले। सुहदे = शोहदे, मस्त फकीर। मसाइक = अनेक शेख। दरि = (प्रभु के) दर पे। रसीद = पहुँचे हुए। अगली = बहुत। दरूद = नमाज के बाद की दुआ।3। अर्थ: (दनिया में) अनेक पीर पैग़ंबर, और लोगों को जीवन-राह बताने वाले, अनेक शेख, काजी, मुल्ला और तेरे दरवाजे तक पहुंचे हुए दरवेश आए (किसी को, हे प्रभु! तेरे गुणों का अंत नहीं मिला, हाँ सिर्फ) उनको बहुत इनायत मिली। (उनके ही भाग्य जागे) जो (तेरे दर पे) दुआ (अरजोई) करते रहते हैं।3। पुछि न साजे पुछि न ढाहे पुछि न देवै लेइ ॥ आपणी कुदरति आपे जाणै आपे करणु करेइ ॥ सभना वेखै नदरि करि जै भावै तै देइ ॥४॥ पद्अर्थ: करण = सृष्टि। नदरि = मेहर की निगाह। जै = जो उसे। तै = तिसको।4। अर्थ: प्रभु ये जगत ना किसी से सलाह ले के बनाता है ना ही पूछ के नाश करता है। ना ही किसी की सलाह से शरीर में जीवात्मा डालता है, ना निकालता है। परमात्मा अपनी कुदरति स्वयं ही जानता है, स्वयं ही यह जगत रचना करता है। मेहर की निगाह करके सब जीवों की संभाल स्वयं ही करता है। जो उसे भाता है, उसको (अपने गुणों की कद्र) बख्शता है।4। थावा नाव न जाणीअहि नावा केवडु नाउ ॥ जिथै वसै मेरा पातिसाहु सो केवडु है थाउ ॥ अ्मबड़ि कोइ न सकई हउ किस नो पुछणि जाउ ॥५॥ पद्अर्थ: थावा नाव = अनेक स्थानों के नाम। केवडु = कितना बड़ा? अंबड़ि न सकई = पहुंच नहीं सकता।5। नोट: शब्द ‘नाउ’ का बहुवचन ‘नाव’। अर्थ: (बेअंत पुरियां, धरतियां आदि हैं। इतनी बेअंत रचना है कि) सब जगहों के (पदार्तों के) नाम जाने नहीं जा सकते। बेअंत नामों में से वह कौन सा नाम हो सकता है जो इतना बड़ा हो कि परमात्मा के असल बडेपन को बयान कर सके? यह बात कोई नहीं बता सकता कि जहां सुष्टि का पातशाह प्रभु बसता है, वह जगह कितनी बड़ी है। किसी से भी ये पूछा नहीं जा सकता, क्योंकि, कोई जीव उस अवस्था तक पहुँच ही नहीं सकता (जहां वह परमात्मा की प्रतिभा सही सही बता सके)।5। वरना वरन न भावनी जे किसै वडा करेइ ॥ वडे हथि वडिआईआ जै भावै तै देइ ॥ हुकमि सवारे आपणै चसा न ढिल करेइ ॥६॥ पद्अर्थ: वरनावरन = वर्ण+आवर्ण, ऊंच नीच जातियां। किसै = किसी खास जाति को। हुकमि = हुक्म में। चसा = रत्ती भर भी समय।6। अर्थ: (ये भी नहीं कहा जा सकता कि) परमात्मा को कोई खास ऊँची या नीची जाति भाती है या नहीं भाती और इस तरह वह किसी एक जाति को ऊंचा कर देता है। सब वडिआईआं बड़े प्रभु के अपने हाथ में हैं। जो जीव उसे अच्छा लगता है उसे बड़ाई बख्श देता है। अपनी रजा में ही वह जीव के जीवन को संवार देता है, रत्ती भर भी ढील नहीं करता।6। सभु को आखै बहुतु बहुतु लैणै कै वीचारि ॥ केवडु दाता आखीऐ दे कै रहिआ सुमारि ॥ नानक तोटि न आवई तेरे जुगह जुगह भंडार ॥७॥१॥ पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव को। वीचारि = विचार से, ख्याल से। लैणै के वीचारि = प्रभु से लेने के ख्याल से। सुमारि = शुमार से, गिनती से। भंडारे = खजाने।7। अर्थ: परमात्मा से दातें लेने के ख्याल से हरेक जीव बहुत बहुत मांगे मांगता है। यह बताया नहीं जा सकता कि परमात्मा कितना बड़ा दाता है। वह दातें दे रहा है, पर दातें गिनती से परे हैं। हे नानक! (कह, हे प्रभु!) तेरे खजाने सदा ही भरे रहते हैं, इनमें कभी भी कमी नहीं आ सकती।7।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |