श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 54 महला १ ॥ सभे कंत महेलीआ सगलीआ करहि सीगारु ॥ गणत गणावणि आईआ सूहा वेसु विकारु ॥ पाखंडि प्रेमु न पाईऐ खोटा पाजु खुआरु ॥१॥ पद्अर्थ: कंत महेलीआ = पति (प्रभु) की (जीव) स्त्रीयां। गणत = गिनती मिनतीए दिखावा। सूहा = लाल, मन को खीचने वाला गाढ़ा लाल रंग। वेसु = पहिरावा। पाखंडि = पाखण्ड से। पाजु = दिखावा।1। अर्थ: सारी जीव-स्त्रीयां प्रभु पति की ही हैं, सारी ही (उस प्रभु पति को प्रसन्न करने के लिए) श्रृंगार करती हैं। पर, जो अपने श्रृंगार का दिखावा मान करती हैं उनका गाढ़ा लाल पहिरावा भी विकार (ही) पैदा करता है। क्योकि, दिखावा करने से प्रभु का प्यार नहीं मिलता। (अंदर खोट हो और बाहर से प्रेम का दिखावा हो) यह खोटा दिखावा खुआर ही करता है।1। हरि जीउ इउ पिरु रावै नारि ॥ तुधु भावनि सोहागणी अपणी किरपा लैहि सवारि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हरि जीउ = हे प्रभु जी! इउ = इस तरीके से, इस श्रद्धा से, ऐसी श्रद्धा रखने से। रावै = मिलता है, प्यार करता है। तुधु = तुझे। सोहागणी = सुहागन, भाग्यशाली। लैहि सवारि = तू सवार लेता है।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु जी! व्ह जीव-स्त्रीयां सुहाग भाग वालियां हैं जो तुझे अच्छी लगती हैं। जिनको तू अपनी मेहर से खुद सुचज्जियां बना लेता है, यह श्रद्धा धारी प्रभु पति जीव-स्त्रीयों को प्यार करता है।1। रहाउ। गुर सबदी सीगारीआ तनु मनु पिर कै पासि ॥ दुइ कर जोड़ि खड़ी तकै सचु कहै अरदासि ॥ लालि रती सच भै वसी भाइ रती रंगि रासि ॥२॥ पद्अर्थ: सीगारीआ = जो जीव-स्त्री श्रृंगारी गई है। कर = हाथ। खड़ी = खड़ी हुई, सावधान हो के, सुचेत रह के। लालि = लाल में, प्यारे के प्रेम में। सच भै = सच्चे प्रभु के डर अदब में। भाइ = (प्रभु के) प्रेम में। रंगि = रंग में। रासि = रसी हुई।2। अर्थ: पर, जो जीव-स्त्री गुरु के शब्द के द्वारा (अपने जीवन को) संवारती है, जिसका शरीर पति प्रभु के हवाले है, जिसका मन पति प्रभु के हवाले है (भाव, जिसका मन और जिसकी ज्ञानेद्रियां प्रभु की याद से अलग कुराहे नहीं जाते), जो दोनों हाथ जोड़ के पूरी श्रद्धा से (प्रभु पति का आसरा ही) देखती है, जो सदा स्थिर प्रभु को ही याद करती है और उसके दर पे अरजोईयां करती है, वह प्रभु प्रीतम (के प्यार) में रंगी रहती है। वह सदा स्थिर प्रभु के डर अदब में टिकी रहती है, वह प्रभु के प्रेम में रंगी रहती है, तथा उस के रंग में रसी रहती है।2। प्रिअ की चेरी कांढीऐ लाली मानै नाउ ॥ साची प्रीति न तुटई साचे मेलि मिलाउ ॥ सबदि रती मनु वेधिआ हउ सद बलिहारै जाउ ॥३॥ पद्अर्थ: चेरी = दासी। कांढीऐ = कही जाती है। लाली = चेरी, दासी। मेलि = मेल में, संगति में। मिलाउ = मिलाप। वेधिआ = छेद किया हुआ, बेधा हुआ।3। अर्थ: जो (प्रभु चरणों की) सेविका प्रभु के नाम को मानती है (प्रभु के नाम को ही अपनी जिंदगी का आसरा बनाती है) वह प्रभु पति की दासी कही जाती है, प्रभु के साथ उसकी प्रीति सदा कायम रहती है। कभी टूटती नहीं, सदा स्थिर प्रभु की संगति में (चरणों में) उसका मिलाप बना रहता है। प्रभु की महिमा के शब्द में वह रंगी रहती है, उसका मन परोया रहता है। मैं ऐसी जीव-स्त्री से कुर्बान हूँ।3। सा धन रंड न बैसई जे सतिगुर माहि समाइ ॥ पिरु रीसालू नउतनो साचउ मरै न जाइ ॥ नित रवै सोहागणी साची नदरि रजाइ ॥४॥ पद्अर्थ: साधन = जीव-स्त्री। रीसालू = रसों का घर, आनंद का श्रोत। नउतनो = नया, जिसका प्यार कभी पुराना नहीं होता। न जाइ = पैदा नहीं होता।4। अर्थ: अगर, जीव-स्त्री गुरु (के शब्द) में तवज्जो जोड़ के रखे, तो वह कभी विधवा (हो के) नहीं बेठती। (भाव, खसम सांई का हाथ सदा उसके सिर पर टिका रहता है, फिर वह) खसम (भी ऐसा है जो) आनंद का स्रोत है (जिसका प्यार नित्य) नया है, (जो) सदा कायम रहने वाला (है, जो) ना मरता है ना पैदा होता है। वह अपनी सदा स्थिर मेहर की नजर से अपनी रजा के मुताबिक सदा उस सुहागन जीव-स्त्री को प्यार करता है।4। साचु धड़ी धन माडीऐ कापड़ु प्रेम सीगारु ॥ चंदनु चीति वसाइआ मंदरु दसवा दुआरु ॥ दीपकु सबदि विगासिआ राम नामु उर हारु ॥५॥ पद्अर्थ: धड़ी = पट्टियां। माडीऐ = सजाती है। चीति = चिक्त में। दीपकु = दीया। सबदि = गुरु के शब्द में। विगासिआ = (अपना हृदय) हुलारे में ले आया है। उर हारु = हृदय का हार।5। अर्थ: जो जीव-स्त्री सदा स्थिर प्रभु (की याद अपने हृदय में टिकाती है, यह मानो, पति प्रभु को प्रसन्न करने के लिए) केसों की लटें संवारती है, प्रभु के प्यार को (सुंदर) कपड़ा और (गहनों का) श्रृंगार बनाती है, जिसने प्रभु को अपने चिक्त में बसाया है (और यह जैसे उसके माथे पर) चंदन (का टीका लगाया) है, जिसने अपने दसवें द्वार (दिमाग, चिक्त-आकाश) को (पति प्रभु के रहने के लिए) सुंदर घर बनाया है। जो गुरु के शब्द द्वारा (अपने हृदय को) हिलोरों में ले आई है। (और यह जैसे, उसके हृदय में) दीआ (जलाया है), जिसने परमात्मा के नाम को अपने गले का हार बना लिया है।5। नारी अंदरि सोहणी मसतकि मणी पिआरु ॥ सोभा सुरति सुहावणी साचै प्रेमि अपार ॥ बिनु पिर पुरखु न जाणई साचे गुर कै हेति पिआरि ॥६॥ पद्अर्थ: मसतकि = माथे पे। मणी = रतन, जड़ाऊं टिक्का। हेति = प्रेम में।6। अर्थ: जिसने अपने माथे पर प्रभु के प्यार का जड़ाऊ टिका लगाया हुआ है। जिसने सदा स्थिर रहने वाले बेअंत प्रभु के प्रेम में अपनी तवज्जो (जोड़ के) खबसूरति बना ली है (और, इसको वह अपनी) शोभा समझती है। वह जीव-स्त्री और जीव स्त्रीयों (जानी मानी) खूबसूरति है, वह अपने गुरु के शब्द के प्रेम प्यार में रह के सदा स्थिर सर्व-व्यापक प्रभु पति के बिना और किसी से जान-पहिचान नहीं डालती।6। निसि अंधिआरी सुतीए किउ पिर बिनु रैणि विहाइ ॥ अंकु जलउ तनु जालीअउ मनु धनु जलि बलि जाइ ॥ जा धन कंति न रावीआ ता बिरथा जोबनु जाइ ॥७॥ पद्अर्थ: निसि अंधिआरी = अंधेरी रात में, माया के मोह की अंधेरी रात में। रैणि = जिंदगी की रात। अंकु = हृदय। जलउ = जल जाए। जालीअउ = जलाया जाए। जा = जब। कंति = कंत ने। न राविआ = प्यार ना किया।7। अर्थ: माया के मोह की काली अंधियारी रात में सो रही जीव-स्त्री! प्रभु पति के मिलाप के बगैर जिंदगी की रात आसान नहीं गुजर सकती। जल जाए वह हृदय और वह शरीर (जिसमें प्रभु की याद नहीं)। प्रभु की याद के बिना मन (विकारों में) जल-बल जाता है, माया धन भी व्यर्थ ही जाता है। अगर, जीव-स्त्री को प्रभु पति ने प्यार नहीं किया, तो उसकी जवानी व्यर्थ ही चली जाती है।7। सेजै कंत महेलड़ी सूती बूझ न पाइ ॥ हउ सुती पिरु जागणा किस कउ पूछउ जाइ ॥ सतिगुरि मेली भै वसी नानक प्रेमु सखाइ ॥८॥२॥ नोट: इस शब्द के शीर्षक में शब्द ‘सिरीरागु’ नहीं है। पद्अर्थ: सैजे कंत = कंत की सेज पर। महेलड़ी = भोली जीव-स्त्री। बूझ = समझ। पूछउ = मैं पूछूं। सतिगुरि = सत्गुरू ने। सखाइ = सखा, मित्र, साथी।8। अर्थ: भाग्यहीन जीव-स्त्री खसम प्रभु की सेज पर सो रही है, पर उसे ये समझ नहीं (कि हृदय सेज पर जीवात्मा और परमात्मा का इकट्ठा निवास है, पर माया के मोह में ग्रसित जीवात्मा को इस की सार नहीं है)। हे प्रभु पति! मैं जीव-स्त्री (माया की मोह की नींद में) सोई रहती हूँ, तू पति सदा जागता है (तुझे माया व्याप नहीं सकती); मैं किससे जा के पूछूँ (कि मैं किस तरह माया की नींद में से जाग के तुझे मिल सकती हूँ)? हे नानक! जिस जीव-स्त्री को सतिगुरु ने (प्रभु के चरणों में) मिला लिया है, वह परमात्मा के भय-अदब में रहती है, परमात्मा का प्यार उसका (जीवन) साथी बन जाता है।8।2। सिरीरागु महला १ ॥ आपे गुण आपे कथै आपे सुणि वीचारु ॥ आपे रतनु परखि तूं आपे मोलु अपारु ॥ साचउ मानु महतु तूं आपे देवणहारु ॥१॥ पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) खुद ही। कथै = कहता है। सुणि = सुन के। परखि = परखता है। साचउ = सदा कायम रहने वाला। महतु = महत्वता।1। अर्थ: प्रभु खुद ही (अपने) गुण है, खुद ही (अपने गुणों को) बयान करता है, खुद ही (अपनी महिमा) सुन के उस को विचारता है (उस में तवज्जो जोड़ता है)। हे प्रभु तू खुद ही (अपना नाम रूप) रत्न है। तू स्वयं ही उस रत्न का मुल्य डालने वाला है, तू स्वयं ही (अपने नाम रूपी रत्न का) बेअंत मूल्य है। तू स्वयं ही सदा कायम रहने वाला गर्व है, बड़प्पन है, तू स्वयं ही (जीवों को आदर सत्कार) देने वाला है।1। हरि जीउ तूं करता करतारु ॥ जिउ भावै तिउ राखु तूं हरि नामु मिलै आचारु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: आचारु = धार्मिक रस्म।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु जी! (हरेक चीज को) पैदा करने वाला तू स्वयं ही है। हे प्रभु! जैसे तूझे ठीक लगे, मुझे (अपने नाम में जोड़ के) रख। हे हरि! (मेहर कर) मुझे तेरा नाम मिल जाए। तेरा नाम ही मेरे वास्ते (बढ़िया से बढ़िया) कर्तव्य है।1। रहाउ। आपे हीरा निरमला आपे रंगु मजीठ ॥ आपे मोती ऊजलो आपे भगत बसीठु ॥ गुर कै सबदि सलाहणा घटि घटि डीठु अडीठु ॥२॥ पद्अर्थ: उजलो = चमकीला। बसीठु = वकील, विचौला। डीठु = दिखता। अडीठु = अदृष्ट।2। अर्थ: हे प्रभु! तू खुद ही चमकता हीरा है, तू खंद ही मजीठ का रंग है, तू खुद ही चमकता मोती है, तू खुद ही (अपने) भक्तों का विचोला है। सत्गुरू के शब्द से तेरी महिमा हो सकती है। हरेक शरीर में तू ही दिखाई दे रहा है और तू ही अदृष्ट है।2। आपे सागरु बोहिथा आपे पारु अपारु ॥ साची वाट सुजाणु तूं सबदि लघावणहारु ॥ निडरिआ डरु जाणीऐ बाझु गुरू गुबारु ॥३॥ पद्अर्थ: बोहिथा = जहाज। अपारु = इधर का छोर। वाट = रास्ता। सबदि = शब्द के द्वारा। गुबारु = घुप अंधेरा।3। अर्थ: हे प्रभु! (यह संसार-) समुंदर तू खुद ही है, (इस में से पार लंघाने वाला) जहाज़ भी तू खुद ही है। (इस संसार-समुंदर का) इस पार का और उसपार का छोर भी तू स्वयं ही है। (हे प्रभु! तेरी भक्ति-रूप) मार्ग भी तू स्वयं ही है, तू सब कुछ जानता है। गुरु-शब्द के द्वारा (इस संसार समुंदर में से भक्ति द्वारा) पार लंघाने वाला भी तू ही है। गुरु की शरण के बिना (ये जीवन-यात्रा, जीवों के लिए) घोर अंधेरा है। हे प्रभु! जो जीव तेरा डर-भय नही रखते, उनको दुनिया का सहम सहना पड़ता है।3। असथिरु करता देखीऐ होरु केती आवै जाइ ॥ आपे निरमलु एकु तूं होर बंधी धंधै पाइ ॥ गुरि राखे से उबरे साचे सिउ लिव लाइ ॥४॥ पद्अर्थ: केती = बेअंत (सृष्टि)। धंधे = धंधे में, बंधन में। गुरि = गुरु ने।4। अर्थ: (इस जगत में) एक कर्तार ही सदा स्थिर रहने वाला दिखाई देता है, और बेअंत सृष्टि पैदा होती मरती रहती है। हे प्रभु! एक तू ही (माया के मोह की) मैल से साफ है, बाकी सारी दुनिया (माया के मोह के) बंधन में बंधी हुई है। जिनको गुरु ने (इस मोह से) बचा लिया है, वह सदा स्थिर प्रभु (के चरणों) में तवज्जो जोड़ के बच गए हैं।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |