श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 56 सिरीरागु महला १ ॥ मनि जूठै तनि जूठि है जिहवा जूठी होइ ॥ मुखि झूठै झूठु बोलणा किउ करि सूचा होइ ॥ बिनु अभ सबद न मांजीऐ साचे ते सचु होइ ॥१॥ पद्अर्थ: मनि = मन से। जूठै = जूठे से। मनि जूठै = जूठे मन से, यदि मन जूठा है। (शब्द ‘जूठै’, ‘जूठा’ से बना है। ‘जूठा’ विशेषण है और शब्द ‘जूठि’ संज्ञा है)। तनि = शरीर में। जिहवा = जीभ। अभ = पानी। अभ शबद = गुरु-शब्द रूप पानी (अंभस् = पानी)।1। अर्थ: अगर, जीव का मन (विकारों की छूह से) जूठा हो चुका है, तो उसके शरीर में भी जूठ ही जूठ है (सारी ज्ञानेद्रियां विकारों की ओर ही दौड़ती हैं) उसकी जीभ (खाने के चस्को के साथ) जूठी हुई रहती है। झूठे मुंह से झूठ बोलने का ही स्वभाव बन जाता है। ऐसा जीव (किसी बाहरी स्वच्छता आदि कर्मां से अंदर) की स्वच्छता कभी भी नहीं हो सकता। गुरु के शब्द जल के बिनां (मन) मांजा नहीं जा सकता, (तथा) यह सच (स्मरण) सदा स्थिर प्रभु से ही मिलता है।1। मुंधे गुणहीणी सुखु केहि ॥ पिरु रलीआ रसि माणसी साचि सबदि सुखु नेहि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मुंधे = हे भोली जीव-स्त्री! केहि = किसके बीच? पिरु रलीआ = पति मिलाप के सुख। रसि = आनंद के साथ। नेहि = प्यार में।1। रहाउ। अर्थ: हे भोली जीव-स्त्री! जो (अपने अंदर, आत्मिक सुख देने वाले) गुणों से वंचित है उसको (बाहर से) किसी और तरीके से आत्मिक सुख नहीं मिल सकता। आत्मिक सुख उसको है जो सदा कायम रहने वाले प्रभु में (लीन रहती है)। जो गुरु के शब्द में (जुड़ी हुई) है। जो प्रभु के प्यार में (मस्त) है। पति प्रभु के मिलाप के सुख का (वही जीव-स्त्री) आनंद लेती है।1। रहाउ। पिरु परदेसी जे थीऐ धन वांढी झूरेइ ॥ जिउ जलि थोड़ै मछुली करण पलाव करेइ ॥ पिर भावै सुखु पाईऐ जा आपे नदरि करेइ ॥२॥ पद्अर्थ: धन = जीव-स्त्री। वांढी = परदेसन, विछुड़ी हुई। करणु पलाव = करुणा+प्रलाप, वह रोना जो सुनने वाले के मन में तरस पैदा कर दें, तरले, मिन्नतें। पिर भावै = पति को अच्छी लगे।2। अर्थ: यदि पति प्रभु (जीव-स्त्री के हृदय देश में प्रगट नहीं, उसके हृदय को छोड़ के) और-और हृदय देश का निवासी है, तो पति से बिछुड़ी हुई वह जीव-स्त्री झुरती (सतत् निराशा की ओर अग्रसर होती) रहती है (अंदर ही अंदर से चिन्ता से खाई जाती है)। जिस प्रकार थोड़े पानी में मछुली तड़फती है, उसी प्रकार वह भी प्रलाप करती है। आत्मिक सुख तभी मिलता है जब प्रभु पति को (जीव-स्त्री) अच्छी लगे। जब वह खुद (उस पर) मेहर की नजर करे।2। पिरु सालाही आपणा सखी सहेली नालि ॥ तनि सोहै मनु मोहिआ रती रंगि निहालि ॥ सबदि सवारी सोहणी पिरु रावे गुण नालि ॥३॥ पद्अर्थ: सालाही = सालाह, महिमा कर। तनि = तन में। निहालि = निहाले, देखती है। रावै = माणती है, भोगती है।3। अर्थ: (हे जीव-स्त्री!) तू सखियों सहेलियों के साथ मिल के (भाव, साधु-संगत में बैठ के) अपने पति प्रभु की महिमा कर। (जो जीव-स्त्री महिमा करती है, उस के) हृदय में प्रभु प्रगट हो जाता है। उसका मन (प्रभु के प्रेम में) मोहा जाता है। वह प्रभु के प्रेम रंग में रंगी हुई उसका दर्शन करती है। गुरु के शब्द (की इनायत) से उसका जीवन संवर जाता है। गुणों से वह सुंदर बन जाती है, और पति प्रभु उसको प्यार करता है।3। कामणि कामि न आवई खोटी अवगणिआरि ॥ ना सुखु पेईऐ साहुरै झूठि जली वेकारि ॥ आवणु वंञणु डाखड़ो छोडी कंति विसारि ॥४॥ पद्अर्थ: कामणि = स्त्री। कामि न आवई = किसी काम नहीं आती, जीवन व्यर्थ जाता है। पेईऐ = पेके घर में, इस जगत में। जली = सड़ी हुई। आवणु वंञणु = जनम मरन (का चक्कर)। डाखड़े = मुश्किल, दुखदाई। कंति = कंत ने। विसारि छोडी = भुला दी।4। अर्थ: (गुरु से वंचित होने के कारण) जो जीव-स्त्री (अंदर से) खोटी है और अवगुणों से भरी हुई है, उसका जीवन व्यर्थ चला जाता है। ना इस लोक में ना ही परलोक में, कहीं भी उसको आत्मिक सुख नहीं मिलता। झूठ में विकारों में वह जल जाती है (उसका आत्मिक जीवन जल जाता है); (उसके वास्ते) जनम मरन का मुश्किल चक्कर बना रहता है। (क्योंकि) कंत प्रभु ने उसको भुला दिया होता है।4। पिर की नारि सुहावणी मुती सो कितु सादि ॥ पिर कै कामि न आवई बोले फादिलु बादि ॥ दरि घरि ढोई ना लहै छूटी दूजै सादि ॥५॥ पद्अर्थ: मुती = छोड़ी हुई, त्यागी हुई। कितु सादि = किस स्वाद के कारण? फादिलु = फजूल के बोल। बादि = व्यर्थ ही। दरि = दर पे। घरि = घर में। छुटी = त्यागी गई।5। अर्थ: पर वह प्रभु-पति की खूबसूरत नारी थी, वह किस स्वाद में (फंसने के कारण) त्याग हो गई? वह क्यों व्यर्थ फजूल बोल बोलती है जो पति प्रभु के साथ मिलाप के लिए काम नहीं दे सकता? वह जीव-स्त्री (प्रभु को भुला के) माया के स्वाद में (फंसने के कारण) त्यागी गई है, (तभी उसको) प्रभु के दर पर प्रभु के महल में (टिकने के लिए) आसरा नहीं मिलता (माया का मोह उसे भटकनों में डाले रखता है)।5। पंडित वाचहि पोथीआ ना बूझहि वीचारु ॥ अन कउ मती दे चलहि माइआ का वापारु ॥ कथनी झूठी जगु भवै रहणी सबदु सु सारु ॥६॥ पद्अर्थ: वाचहि = पढ़ते हैं। अन कउ = और लोगों को। भवै = भटकता है। सबदु = गुरु का शब्द (हृदय में टिकाना), परमात्मा की महिमा। सारु = श्रेष्ठ।6। अर्थ: पंडित लोग धार्मिक पुस्तकें पढ़ते हैं (पर अंदर से गुणहीन होने के कारण उन पुस्तकों की) विचार नहीं समझते। और लोगों को ही उपदेश दे के (जगत से) चले जाते हैं (उनका ये सारा उद्यम) माया कमाने के लिए व्यापार ही बना रह जाता है। सारा जगत झूठी कथनी में ही भटकता रहता है (भाव, आम तौर पे जीवों के अंदर झूठ-फरेब है, और बाहर ज्ञान की बातें करते हैं)। प्रभु की महिमा का शब्द (हृदय में टिकाए रखना) ही श्रेष्ठ रहन सहन है।6। केते पंडित जोतकी बेदा करहि बीचारु ॥ वादि विरोधि सलाहणे वादे आवणु जाणु ॥ बिनु गुर करम न छुटसी कहि सुणि आखि वखाणु ॥७॥ पद्अर्थ: जोतकी = ज्योतिषी। करहि = करते हैं। वादि = झगड़े बहस में। वादे = वाद में ही। करम = बख्शिश। न छुटसी = खलासी प्राप्त नहीं करेगा। कहि = कह के। सुणि = सुन के। वखाणु = व्याख्यान, उपदेश।7। अर्थ: अनेक ही पंडित ज्योतिषी (आदि) वेदों (के मंत्रों) को विचारते हैं, अपने आप में मतभेद होने के कारण (चर्चा करते हैं और दृढ़ता के कारण) वाह वाह कहलवाते हैं। पर, सिर्फ इस मतभेद में रह के ही उनका जन्म मरन बना रहता है। कोई भी मनुष्य (निरा अच्छा) व्याख्यान करके या सुन के (आत्मिक आनंद नहीं ले सकता, और जन्म मरन के चक्कर में से) मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। हउमै, अहंकार छोड़ के गुरु के शरण पड़ने की जरूरत है। गुरु की बख्शिश के बगैर (माया के मोह से) मुक्ति नहीं होती।7। सभि गुणवंती आखीअहि मै गुणु नाही कोइ ॥ हरि वरु नारि सुहावणी मै भावै प्रभु सोइ ॥ नानक सबदि मिलावड़ा ना वेछोड़ा होइ ॥८॥५॥ पद्अर्थ: सभि = सारी। वरु = वर, खसम।8। अर्थ: (जो जीव-स्त्रीयां प्रभु-पति को प्यारी लगती हैं वही) सारे गुणों वाली कहलाती हैं। पर, मेरे अंदर ऐसा कोई गुण नहीं है (जिसकी इनायत से मैं प्रभु प्रेम को अपने दिल में बसा सकूँ)। अगर वह हरि पति प्रभु मुझे प्यारा लगने लग जाए, तो मैं भी उसकी सुंदर नारी बन जाऊँ। हे नानक! गुरु के शब्द में (जुड़ के जिसने प्रभु चाणों से) खूबसूरत मिलाप हासिल कर लिया है उसका उससे फिर विछोड़ा नहीं होता।8।5। सिरीरागु महला १ ॥ जपु तपु संजमु साधीऐ तीरथि कीचै वासु ॥ पुंन दान चंगिआईआ बिनु साचे किआ तासु ॥ जेहा राधे तेहा लुणै बिनु गुण जनमु विणासु ॥१॥ पद्अर्थ: जपु = मंत्रों का पाठ (किसी सिद्धि आदि की प्राप्ति के लिए)। तपु = उल्टा लटक के या धूणियां आदि तपा के शरीर को कष्ट देना। संजमु = इन्द्रियों को काबू में रखने का कोई साधन। तीरथि = तीर्थ पर। किआ तासु = उसका क्या (लाभ)? राधे = बीजता है। लुणै = फल प्राप्त करता है, कटता है।1। अर्थ: अगर (किसी सिद्धि आदि वास्ते मंत्रों का) पाठ किया जाए, (धूणियां आदि तपा के) शरीर को कष्ट दिया जाए, इन्द्रियों को वस में करने का कोई साधन किया जाए, किसी तीर्थ पर निवास किया जाए, (अगर खलकत के भले के वास्ते) दान-पुंन्न आदि अच्छे काम किए जांए (पर परमात्मा का स्मरण ना किया जाए, तो) प्रभु स्मरण के बिना उपरोक्त सारे ही उद्यमों का कोई लाभ नहीं। मनुष्य जैसा बीज बीजता है, वैसा ही फल काटता है (यदि स्मरण नहीं किया तो आत्मिक गुण कहां से आ जाएं, तथा) आत्मिक गुणों के बिना जिंदगी व्यर्थ है।1। मुंधे गुण दासी सुखु होइ ॥ अवगण तिआगि समाईऐ गुरमति पूरा सोइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मुंधे = हे भोली जीव-स्त्री! तिआगि = त्याग के। समाईऐ = लीन होते हैं। सोइ = वह परमात्मा।1। रहाउ। अर्थ: हे भोली जीव-स्त्री! (आत्मिक गुणों के बिनां आत्मिक सुख नहीं हो सकता, और परमात्मा के नाम के बिना गुण पैदा नहीं हो सकते) गुणों की खातर परमात्मा के गुणों की दासी बन, तभी आत्मिक सुख सुख होगा। औगुणों को त्याग के ही प्रभु चरणों में लीन हो सकते हैं। गुरु की मति पे चल कर ही वह पूरा प्रभु मिलता है।1। रहाउ। विणु रासी वापारीआ तके कुंडा चारि ॥ मूलु न बुझै आपणा वसतु रही घर बारि ॥ विणु वखर दुखु अगला कूड़ि मुठी कूड़िआरि ॥२॥ पद्अर्थ: रासी = राशि, पूंजी, संपत्ति, धन-दौलत। कुंडा = तरफें, पासे। वसतु = (असल) सौदा। रही = पड़ी रही, बेकद्री पड़ी रही। घर बारि = अंदर ही। वखर = सौदा। अगला = बहुत। कूड़िआर = नाशवान पदार्तों की गाहक।2। अर्थ: सरमाये के बिना व्यापारी (नफे के लिए व्यर्थ ही) चारों तरफ देखता है। जो मनुष्य (अपनी जिंदगी के) मूल प्रभु को नहीं समझता, उसकी असल संपत्ति उसके हृदय घर के अंदर ही (बे-पहिचान सा) पड़ा रहता है। नाशवान पदार्थ की व्यापारिन (जीव-स्त्री) झूठ में लग के (आत्मिक गुणों से) लूटी जा रही है। नाम धन से वंचित रह के उसे बहुत आत्मिक कष्ट व्यापता है।2। लाहा अहिनिसि नउतना परखे रतनु वीचारि ॥ वसतु लहै घरि आपणै चलै कारजु सारि ॥ वणजारिआ सिउ वणजु करि गुरमुखि ब्रहमु बीचारि ॥३॥ पद्अर्थ: लाहा = लाभ। अहि = दिन। निसि = रात। नउतना = नया। वीचारि = विचार के। घरि = घर में। सारि = संभाल के, संवार के, सिरे चढ़ा के। करि = कर के। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के। ब्रहम बीचारि = परमात्मा (के गुणों) को सोच मंडजल में ला के।3। अर्थ: जो मनुष्य सोच समझ के नाम रतन को परखता है (नाम की कीमत जानता व समझता है) उसको दिन रात (आत्मिक गुणों का नित्य) नया नफा होता रहता है। जो मनुष्य नाम के व्यापारी सत्संगियों के साथ मिल के नाम का व्यापार करता है, जो गुरु की शरण पड़ के परमात्मा (के गुणों) को अपने सोच मण्डल मेंलाता है, वह अपने दिल में ही अपनी असल संपत्ति ढूंढ लेता है, और अपनी जिंदगी का उद्देश्य सिरे चढ़ा के यहां से जाता है।3। संतां संगति पाईऐ जे मेले मेलणहारु ॥ मिलिआ होइ न विछुड़ै जिसु अंतरि जोति अपार ॥ सचै आसणि सचि रहै सचै प्रेम पिआर ॥४॥ पद्अर्थ: जिसु अंतरि = जिस (मनुष्य) के अंदर। सचै आसणि = अडोल आसन पे।4। अर्थ: (परमात्मा खुद ही आत्मिक गुणों का खजाना ढुंढवा सकता है) अगर उस खजाने के साथ मिलाप करवाने के समर्थ प्रभु खुद मिलाप करवा दे तो वह खजाना संतो की संगति में रह के मिल सकता है, और जिस मनुष्य के अंदर बेअंत प्रभु की ज्योति (एक बार जाग जाए) वह प्रभु चरणों में मिल के फिर नहीं बिछुड़ता। क्योंकि, वह अडोल (आत्मिक) आसन पर बैठ जाता है। वह सदा स्थिर प्रभु में लगन लगा लेता है। वह अपना प्रेम प्यार सदा स्थिर प्रभु में लगा लेता है।4। जिनी आपु पछाणिआ घर महि महलु सुथाइ ॥ सचे सेती रतिआ सचो पलै पाइ ॥ त्रिभवणि सो प्रभु जाणीऐ साचो साचै नाइ ॥५॥ पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। महलु = परमात्मा का महल। सुथाइ = (ष्) सु+थाइ, श्रेष्ठ जगह में (हृदय-रूपी)। पलै पाइ = प्राप्त कर लेता है। त्रिभवणि = तिनों भवनों वाले सारे जगत में। साचै नाइ = सदा स्थिर प्रभु के नाम में (जुड़ के)।5। अर्थ: (गुरु की मति पर चल के) जिन्होंने अपने आप को पहिचान लिया है, उनको अपने हृदय-रूप सुंदर स्थान में ही परमात्मा का निवास स्थान मिल जाता है। सदा स्थिर प्रभु के प्यार रंग में रंगे रहने के कारण उन्हे वह सदा कायम रहने वाला प्रभु मिल जाता है। (हे भोली जीव-स्त्री!) यदि सच्चे प्रभु के नाम में जुड़े रहें, तो उस सदा स्थिर प्रभु की तीनों भवनों में सर्व-व्यापकता को पहचान लेते हैं।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |