श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सा धन खरी सुहावणी जिनि पिरु जाता संगि ॥ महली महलि बुलाईऐ सो पिरु रावे रंगि ॥ सचि सुहागणि सा भली पिरि मोही गुण संगि ॥६॥

पद्अर्थ: साधन = जीव-स्त्री। खरी = बहुत। जिनि = जिस (साधन) ने। महली = वह जीव-स्त्री। महिल = प्रभु के महल में। रावै = प्यार करता है, माणता है। रंगि = प्रेम में (आ के)। सचि = सच में, सदा स्थिर प्रभु में, अमर प्रभु में। पिरि = पिर ने।6।

अर्थ: (गुरु की शरण पड़ के) जिस जीव-स्त्री ने पति प्रभु को अपने अंग-संग समझ लिया है, वह जीव-स्त्री सचमुच सुंदर (सुंदर जीवन वाली) हो जाती है। वह जीव-स्त्री प्रभु के महल में बुलाई जाती है, वह प्रभु पति प्रेम रंग में आकर उससे प्यार करता है, पति प्रभु ने आत्मिक गुणों से उसको ऐसा मोह लिया होता है कि वह सदा स्थिर प्रभु में लीन हो के सुहाग भाग वाली नेक बन जाती है।6।

भूली भूली थलि चड़ा थलि चड़ि डूगरि जाउ ॥ बन महि भूली जे फिरा बिनु गुर बूझ न पाउ ॥ नावहु भूली जे फिरा फिरि फिरि आवउ जाउ ॥७॥

पद्अर्थ: थलि = धरती पे। चढ़ि = चढ़ के। डूगरि = पहाड़ों पे। जाउ = जाऊं, मैं जाऊँ। बूझ = समझ। नावहु = (प्रभु के) नाम से। आवउ जाउ = मैं आती और जाती हूँ, पैदा होती व मरती हूँ।7।

अर्थ: (आत्मिक गुणों के व्यापार से वंचित हो के, जीवन के सही रास्ते से) भूल के अगर मैं (दुनिया छोड़ के भी) सारी धरती पर घूमती रहूँ, धरती पे भ्रमण करके फिर यदि मैं पहाड़ों पर भी जा चढ़ूँ (यदि मैं किसी पहाड़ की गुफा में भी जा टिकूं) (सही रास्ते से) भटक के अगर मैं जंगलों में भटकती फिरूँ, तो भी मुझे (आत्मिक रास्ते की) सही समझ नहीं पड़ सकती। क्योंकि, गुरु के बिना इस रास्ते की सूझ नहीं पड़ती। यदि मैं परमात्मा के नाम से वंचित हुई (जंगलों पहाड़ों में) फिरती रही, तो मैं मुड़-मुड़ जनम मरन के चक्कर सहेड़ लूंगी।7।

पुछहु जाइ पधाऊआ चले चाकर होइ ॥ राजनु जाणहि आपणा दरि घरि ठाक न होइ ॥ नानक एको रवि रहिआ दूजा अवरु न कोइ ॥८॥६॥

पद्अर्थ: पधाऊ = मुसाफिर, राही, पांधी। चाकर = सेवक, दास। राजनु = राजा, परमात्मा। दरि = दर से। घरि = घर में। ठाक = रोक। रवि रहिआ = व्यापक है।8।

अर्थ: (हे भोली जीव-स्त्री! यदि जीवन का सही रास्ता ढूंढना है तो) जा के उन (आत्म) राहियों से पूछ जो (प्रभु दर के) सेवक बन के (जीवन-राह पे) चल रहे हैं, वह (इस सृष्टि के मालिक) पातशाह को अपना समझते हैं। उनको प्रभु पातशाह के दर और घर में (जाने की) कोई रोक नहीं होती। हे नानक! उनको हर जगह एक परमात्मा ही मौजूद दिखाई देता है। कहीं भी उन्हें उसके बिनां और कोई नहीं दिखता।8।6।

सिरीरागु महला १ ॥ गुर ते निरमलु जाणीऐ निरमल देह सरीरु ॥ निरमलु साचो मनि वसै सो जाणै अभ पीर ॥ सहजै ते सुखु अगलो ना लागै जम तीरु ॥१॥

पद्अर्थ: ते = से, के द्वारा। देह = शरीर, काया। मनि = मन में। अभ पीर = अंदरूनी वेदना, हृदय की पीड़ा। सहजै ते = सहज अवस्था से। अगलो = बहुत। जम तीरु = यम का तीर।1।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु के द्वारा ही पवित्र नाम जल से सांझ पड़ती है, और मनुष्य का शरीर पवित्र हो जाता है (भाव, सारी ज्ञान इद्रियां विकारों की मैल से बचे रहते हैं)। (गुरु की कृपा से) वह सदा स्थिर पवित्र प्रभु जो मनुष्य की अंदर की वेदना जानता है मनुष्य के मन में आ प्रगटता है (इस प्रकाश की इनायत से मन सहज अवस्था में टिक जाता है) सहज अवस्था से बहुतआत्मिक आनंद उत्पन्न होता है, जम का तीर भी नहीं लगता (ष्मौत का डर नहीं व्यापता)।1।

भाई रे मैलु नाही निरमल जलि नाइ ॥ निरमलु साचा एकु तू होरु मैलु भरी सभ जाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जलि = जल में। नाइ = नहा के, नहाने से। जाइ = जगह।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (जैसे साफ पानी में नहाने से शरीर की मैल उतर जाती है, वैसे ही परमात्मा के) पवित्र नाम जल में स्नान करने से मन पर (विकारों की) मैल नहीं रह जाती। इस वास्ते, हे भाई! उस आत्मिक स्नान की खातिर परमात्मा की महिमा करके कह: हे प्रभु! सिर्फ तू सदा स्थिर प्रभु ही पवित्र है, बाकी और हरेक जगह (माया के मोह की) मैल से भरी हुई है।1। रहाउ।

हरि का मंदरु सोहणा कीआ करणैहारि ॥ रवि ससि दीप अनूप जोति त्रिभवणि जोति अपार ॥ हाट पटण गड़ कोठड़ी सचु सउदा वापार ॥२॥

पद्अर्थ: हरि का मंदरु = मनुष्य का शरीर। करणै हारि = (जगत) की रचना करने वाले कर्तार ने। रवि = सूर्य, तेज (अज्ञानता का अंधेरा दूर करने वाला आत्म) प्रकाश। ससि = चंद्रमा, शीतलता, शांत अवस्था (जो काम, क्रोध आदि तपश को बुझाने के समर्थ है)। दीप = दीए आत्मिक प्रकाश देने वाले। अनूप = बेमिसाल। त्रिभवणि जोति = तीनों भवनों को प्रकाशमय करने वाली ईश्वरीय ज्योति। पटण = शहर। गढ़ = किले।2।

अर्थ: (जिस मनुष्य पे गुरु मेहरबान है, उसके दिल में सृष्टि के रचनहार) कर्तार ने (अपने रहने के लिए) सुंदर महल बना लिया है। तीनों भवनों में व्याप्त बेअंत प्रभु की अनूप ज्योति उसके अंदर जाग पड़ती है। उसके अंदर सूर्य और चाँद (मानों) दिए जल पड़ते हैं (भाव, उसके अंदर अज्ञानता का अंधेरा दूर करने वाला ज्ञान सूर्य व काम क्रोध आदि की तपश को बुझाने वाली शांत अवस्था का चाँद प्रगट हो जाता है।2।

गिआन अंजनु भै भंजना देखु निरंजन भाइ ॥ गुपतु प्रगटु सभ जाणीऐ जे मनु राखै ठाइ ॥ ऐसा सतिगुरु जे मिलै ता सहजे लए मिलाइ ॥३॥

पद्अर्थ: अंजनु = सुरमा। भै भंजना = दुनिया के डर नाश करने वाला। निरंजन भाइ = माया रहित प्रभु के प्रेम में। ठाइ = स्थान पर, एक ठिकाने पे। सहज = आत्मिक अडोलता में (जुड़ के)।3।

अर्थ: अगर मनुष्य अपने मन को ठिकाने पर रखे, तो उसे दृश्य-अदृश्य जगत में हर जगह परमात्मा ही बसता प्रतीत होता है। (तू भी, हे भाई!) प्रभु की रजा में रहके सब डर नाश करने वाला ज्ञान का सुरमा (अंजन) देने वाला गुरु यदि मिल जाए तो उस मनुष्य को अडोल आत्मिक अवस्था में जोड़ देता है।3।

कसि कसवटी लाईऐ परखे हितु चितु लाइ ॥ खोटे ठउर न पाइनी खरे खजानै पाइ ॥ आस अंदेसा दूरि करि इउ मलु जाइ समाइ ॥४॥

पद्अर्थ: कसि = (सोने को परखने वाली कसवटी पर) घिसाना। हितु = प्यार, ध्यान। नाइ = नहा के। ठउर = जगह। न पाइनी = नहीं पाते, नहीं प्राप्त करते।4।

अर्थ: (जैसे सोने को परखने के लिए) कसवटी ऊपर कस लेते हैं (वैसे ही ईश्वर अपने पैदा किए हुए लोगों के आत्मिक जीवन को) बड़े प्यार से ध्यान लगा के परखता है। खोटों को (उसके दर पर) जगह नहीं मिलती, खरों को वह अपने खजाने में शामिल कर लेता है। (हे भाई! गुरु की शरण पड़ के अपने अंदर से दुनिया वाली) उम्मीदें और सहम निकाल दे। ऐसा उद्यम करने से (मन के विकारों की) मैल दूर हो जाएगी, (और मन प्रभु चरणों में लीन हो जाएगा)।4।

सुख कउ मागै सभु को दुखु न मागै कोइ ॥ सुखै कउ दुखु अगला मनमुखि बूझ न होइ ॥ सुख दुख सम करि जाणीअहि सबदि भेदि सुखु होइ ॥५॥

पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। कउ = को। अगला = बहुत। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। बूझ = समझ। सम = बराबर, एक जैसे। जाणीअहि = (जब) जान लिए जाते हैं। सबदि = गुरु के शब्द के द्वारा। भेदि = भेद के (मन को)।5।

अर्थ: हरेक जीव (दुनिया के) सुख मांगता है, कोई भी दुख नहीं मांगता। पर, (संसारिक) सुखों को दुख-रूप फल बहुत लगता है, अपने मन के पीछे चलने वाले आदमी को इस (भेद) की समझ नहीं आती (वह दुनिया के सुख ही मांगता रहता हैऔर नाम से वंचित रहता है)। (दरअसल दुनिया के) सुख और दुख एक जैसे ही समझने चाहिए। असल आत्मिक सुख तभी मिलता है यदि गुरु के शब्द के द्वारा मन को भेद लिया जाए (मन को नाथ के दुनिया के मौज मेलों से रोक के रखा जाए)।5।

बेदु पुकारे वाचीऐ बाणी ब्रहम बिआसु ॥ मुनि जन सेवक साधिका नामि रते गुणतासु ॥ सचि रते से जिणि गए हउ सद बलिहारै जासु ॥६॥

पद्अर्थ: वाचीऐ = पढ़नी चाहिए। बाणी ब्रहम = ब्रहम की वाणी, परमेश्वर के महिमा की वाणी। बिआसु = व्यास (ऋषि)। मुनि जन = मुनि लोग। नामि = नाम में। गुण तासु = गुणों का खजाना प्रभु। जिणि गए = जीत के (यहां से) गए। जासु = मैं जाता हूं।6।

अर्थ: व्यास ऋषि (तो बारंबार) वेद को ही ऊँचा ऊँचा उचारता है, (पर, हे भाई!) परमात्मा की महिमा की वाणी पढ़नी चाहिए। असली मुनि लोग सेवक और साधिक वही हैंजो गुणों के खजाने परमात्मा के नाम में रंगे हुए हैं। जो लोग सदा कायम रहने वाले नाम रंग में रंगे जाते हैं, वह (संसार से जीवन की बाजी) जीत के जाते हैं। मैं भी उनसे कुर्बान जाता हूँ।6।

चहु जुगि मैले मलु भरे जिन मुखि नामु न होइ ॥ भगती भाइ विहूणिआ मुहु काला पति खोइ ॥ जिनी नामु विसारिआ अवगण मुठी रोइ ॥७॥

पद्अर्थ: चहु जुगि = सदा ही। मैलु भरे = (विकारों की) मैल से लिबड़े हुए। पति = इज्जत। खोइ = गवा के। जिस जिस जीव-स्त्री ने। मुठी = ठगी हुई, लुटी हुई।7।

अर्थ: पर जिनके मुंह में प्रभु का नाम नहीं है वह सदा ही मैले (मन वाले) हैं, (उनके मन विकारों की) मैल से भरे रहते हैं। परमात्मा की भक्ति और प्यार से वंचित लोगों का मुंह (उसकी हजूरी में) काला (दिखाई देता है।) वह अपनी इज्जत गवा के (जाते हैं)। जिस जिस जीव-स्त्री ने प्रभु का नाम भुला दिया है, (उसके आत्मिक सरमाए को औगुणों ने लूट लिया है, वह रोती पछताती है)।7।

खोजत खोजत पाइआ डरु करि मिलै मिलाइ ॥ आपु पछाणै घरि वसै हउमै त्रिसना जाइ ॥ नानक निरमल ऊजले जो राते हरि नाइ ॥८॥७॥

पद्अर्थ: आपु = अपने आप को। घरि = घर में। हरि नाइ = हरि के नाम में।8।

अर्थ: (गुरु के द्वारा) तलाश करते करते यह बात मिल जाती है कि परमात्मा का डर अदब हृदय में धारण करने से परमात्मा गुरु के मिलाने से मिल जाता है। जो मनुष्य (गुरु की शरण पड़ के) अपने आप को पहचानता है, उसका मन बाहर भटकने से हट कर अंतर-आत्मे टिक जाता है, उसका अहम् दूर हो जाता है, उसकी तृष्णा मिट जाती है।

हे नानक! जो मनुष्य प्रभु के नाम रंग में रंगे जाते हैं, उनके जीवन पवित्र व रौशन हो जाते हैं।8।7।

सिरीरागु महला १ ॥ सुणि मन भूले बावरे गुर की चरणी लागु ॥ हरि जपि नामु धिआइ तू जमु डरपै दुख भागु ॥ दूखु घणो दोहागणी किउ थिरु रहै सुहागु ॥१॥

पद्अर्थ: बावरे = हे पागल! दुख भागु = दुखों को भगदड़ (पड़ जाती है)। दोहागणी = दुर्भाग्यपूर्ण स्त्री।1।

अर्थ: हे पथ भ्रष्ट पागल मन! (मेरी शिक्षा) सुन। (शिक्षा ये है कि) गुरु की शरण पड़ (गुरु से परमात्मा का नाम मिलता है, तू भी वह) हरि नाम जप। (हरि चरणों में) तवज्जो जोड़ (प्रभु का नाम स्मरण करने से) यमराज भी डर जाता है और दुखों को भगदड़ पड़ जाती है। (पर, जो) भाग्यहीन जीवस्त्री (नाम नहीं सिमरती, उसे) बहुत दुख-कष्टों का सामना करना पड़ता है (दुखों में भगदड़ तभी मच सकती है, जब सिर पर खसम सांई हो, पर जो खसम का नाम कभी याद ही नहीं करती, उसके सिर पे) खसम सांई कैसे टिका हुआ प्रतीत हो?।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh