श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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भाई रे अवरु नाही मै थाउ ॥ मै धनु नामु निधानु है गुरि दीआ बलि जाउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: निधानु = खजाना। गुरि = गुरु ने। बलि = कुरबान, सदके।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मेरे वास्ते तो प्रभु नाम ही धन है, नाम ही खजाना है (ये खजाना जिस किसी को दिया है) गुरु ने (ही) दिया है। मैं गुरु पे कुर्बान हूँ। (नाम खजाना हासिल करने के लिए) मुझे (गुरु के बिनां) और कोई जगह नहीं दिखती।1। रहाउ।

गुरमति पति साबासि तिसु तिस कै संगि मिलाउ ॥ तिसु बिनु घड़ी न जीवऊ बिनु नावै मरि जाउ ॥ मै अंधुले नामु न वीसरै टेक टिकी घरि जाउ ॥२॥

पद्अर्थ: पति = इज्जत। मरि जाउ = मैं आत्मिक मौत मर जाता हूँ।2।

अर्थ: साबाश है उस (गुरु) को जिस गुरु की मति मिलने से इज्जत मिलती है। (प्रभु मेहर करे) मैं उस (गुरु) की संगति में जुड़ा रहूँ। (नाम की दाति देने वाले) उस गुरु के बिना मैं एक घड़ी भी नहीं रह सकता। क्योंकि, नाम के बिना मेरी आत्मिक मौत हो जाती है। (नाम के बिना मैं माया के मोह में अंधा हो जाता हूँ, प्रभु मेहर करे) मुझ अंधे को उसका नाम ना भूल जाए। मैं गुरु के आसरे की टेक ले के प्रभु चरणों में जुड़ा रहूँ।2।

गुरू जिना का अंधुला चेले नाही ठाउ ॥ बिनु सतिगुर नाउ न पाईऐ बिनु नावै किआ सुआउ ॥ आइ गइआ पछुतावणा जिउ सुंञै घरि काउ ॥३॥

पद्अर्थ: सुआउ = स्वार्थ, जीवन उद्देश्य। काउ = कौआ।3।

अर्थ: (पर गुरु भी हो तो आँखों वाला हो) जिनका गुरु (खुद ही माया के मोह में) अंधा हो गया हो, उनके चेलों को (आत्मिक सुख का) स्थान टिकाना नहीं मिल सकता। (पूरे) गुरु के बिना प्रभु का नाम नहीं मिलता। नाम के बिना और कोई (बढ़िया) जीवन उद्देश्य हो ही नहीं सकता। नाम से वंचित रहा मनुष्य दुनिया में आया और चला गया, पछतावा ही (साथ ले गया, खाली हाथ ही जग से गया)। जैसे सूने घर में आया कौआ (भी खली ही जाता है)।3।

बिनु नावै दुखु देहुरी जिउ कलर की भीति ॥ तब लगु महलु न पाईऐ जब लगु साचु न चीति ॥ सबदि रपै घरु पाईऐ निरबाणी पदु नीति ॥४॥

पद्अर्थ: देहुरी = शरीर (को)। भीति = दीवार। चीति = चिक्त में। रपै = रंगा जाए। निरबाणी पदु = वह आत्मक दर्जा जहां कोई वासना असर नहीं करती। निरबाणी = निर्वाण अवस्था, वासना रहित।4।

अर्थ: नाम स्मरण के बिना शरीर को (चिन्ता आदि इतना) दुख सताते हैं (कि शारीरिक क्षमता इस प्रकार छीण होती जाती है) जैसे कलर की दीवार (झड़ती जाती है)। (इस झुरने को बचाने के लिए) तब तक (प्रभु का) महल (रूपी सहारा) नहीं मिलता, जब तक वह सदा स्थिर प्रभु (जीव के) चिक्त में नहीं आ बसता। यदि गुरु के शब्द में मन रंगा जाए, तो प्रभु की हजूरी (की ओट) मिल जाती है, और वह आत्मिक अवस्था सदा के लिए प्राप्त हो जाती है जहां कोई वासना अपना प्रभाव नहीं डाल सकती।4।

हउ गुर पूछउ आपणे गुर पुछि कार कमाउ ॥ सबदि सलाही मनि वसै हउमै दुखु जलि जाउ ॥ सहजे होइ मिलावड़ा साचे साचि मिलाउ ॥५॥

पद्अर्थ: पुछि = पूछ के। सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। मनि = मन मे।5।

अर्थ: (सो, हे भाई! इस निर्वाण पद की प्राप्ति के वास्ते) मैं अपने गुरु को पूछूँगी। गुरु से पूछ के (उस द्वारा बताए) कर्म करूँगी। मैं गुरु के शब्द में जुड़ के प्रभु की महिमा करूँगी। (भला कहीं प्रभु मेरे) मन में आ बसे (प्रभु की मेहर हो, मेरा) अहम् का दुख जल जाए, सहज अवस्था में टिक के मेरा प्रभु से सुंदर मिलाप हो जाए। सदा टिके रहने वाले प्रभु में मेरा सदा के लिए मेल हो जाए।5।

सबदि रते से निरमले तजि काम क्रोधु अहंकारु ॥ नामु सलाहनि सद सदा हरि राखहि उर धारि ॥ सो किउ मनहु विसारीऐ सभ जीआ का आधारु ॥६॥

पद्अर्थ: तजि = त्याग के। सलाहनि = सराहते हैं। उरि धारि = दिल में टिका के। आधारु = आसरा।6।

अर्थ: जो लोग गुरु के शब्द में रंगे जाते हैं वह काम क्रोध (आदि विकारों) को त्याग के पवित्र (जीवन वाले) हो जाते हैं। वह सदा प्रभु का नाम सलाहते हैं, वे परमात्मा की याद को सदैव अपने दिल में टिका के रखते हैं।

(हे भाई!) जो प्रभु सारे जीवों (की जिंदगी का) आसरा है, उसे कभी भी मन से भुलाना नहीं चाहिए।6।

सबदि मरै सो मरि रहै फिरि मरै न दूजी वार ॥ सबदै ही ते पाईऐ हरि नामे लगै पिआरु ॥ बिनु सबदै जगु भूला फिरै मरि जनमै वारो वार ॥७॥

पद्अर्थ: सबदि = शब्द में (जुड़ के)। मरै = (विकारों की ओर से) मरता है।7।

अर्थ: जो मनुष्य गुरु के शब्द में जुड़ के (विकारों की ओर से) मर जाता है (बेअसर हो जाता है) वह (ऐसी मरनी) मर के स्थिर हो जाता है (विकारों से टक्कर के लिए तगड़ा हो जाता है, वह मनुष्य विकारों की जकड़ में आ के) फिर कभी आत्मिक मौत नहीं मरता। (ये अटल आत्मिक जीवन) गुरु के शब्द से ही मिलता है। (गुरु के शब्द से ही) प्रभु के नाम में प्यार बनता है। गुरु के शब्द के बिनां जगत (जीवन-राह से) गुमराह हो के भटकता है, और बारंबार जन्म मरण के चक्रव्यूह में फंसा रहता है।7।

सभ सालाहै आप कउ वडहु वडेरी होइ ॥ गुर बिनु आपु न चीनीऐ कहे सुणे किआ होइ ॥ नानक सबदि पछाणीऐ हउमै करै न कोइ ॥८॥८॥

पद्अर्थ: आप कउ = अपने आप को। ना चीनीऐ = परखा नहीं जा सकता, ना पहचाना जा सके।8।

अर्थ: सारी दुनिया अपने आप को सालाहती है कि हमारी ज्यादा से ज्यादा प्रशंसा सत्कार हो (अपने आप की सूझ के बिना ही यह लालसा बनी रहती है)। गुरु की शरण पड़े बगैर अपने आप की पहिचान नहीं हो सकती। ज्ञान की बातें निरी कहने सुनने से कुछ नहीं बनता।

हे नानक! गुरु के शब्द से ही अपने आप को पहचाना जा सकता है (और जो मनुष्य अपने आप की पहिचान कर लेता है) वहअपनी प्रशंसा की बातें नहीं करता।8।8।

सिरीरागु महला १ ॥ बिनु पिर धन सीगारीऐ जोबनु बादि खुआरु ॥ ना माणे सुखि सेजड़ी बिनु पिर बादि सीगारु ॥ दूखु घणो दोहागणी ना घरि सेज भतारु ॥१॥

पद्अर्थ: धन = स्त्री। सीगारीऐ = (अगर) श्रृंगारी जाए, यदि गहने आदि से सजाई जाए। जोबनु = जवानी। बादि = व्यर्थ। खुआरु = दुखी। सुखि = सुख से, आनंद से। सेजड़ी = सुंदर सेज। घणे = बहुत। घरि = घर में। सेज भतारु = सेज का मालिक खसम।1।

अर्थ: (अगर, स्त्री गहनों आदि से) अपने आप को सजा ले, पर उसे पति ना मिले तो उसकी जवानी व्यर्थ जाती है। उसकी आत्मा भी दुखी होती है। क्योंकि, आनंद से पति की सुंदर सेज का आनंद नहीं ले सकती। पति मिलाप के बगैर उसका सारा श्रृंगार व्यर्थ जाता है। उस दुर्भाग्यपूर्ण स्त्री को बहुत दुख होता है, उसके घर में सेज का मालिक खसम नहीं आता (जीवस्त्री के सारे बाहरमुखी धार्मिक कर्म व्यर्थ जाते हैं, अगर हृदय सेज का मालिक प्रभु हृदय में प्रगट ना हो)।1।

मन रे राम जपहु सुखु होइ ॥ बिनु गुर प्रेमु न पाईऐ सबदि मिलै रंगु होइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सबदि = गुरु के शब्द में (जुड़ने से)। रंगु = नाम का रंग।1। रहाउ।

अर्थ: हे मन! परमात्मा का नाम स्मरण कर, (तुझे) सुख होगा। (पर मन भी क्या करे? जिसके साथ प्यार ना हो, उसको बार बार कैसे याद किया जाए? परमात्मा के साथ ये) प्यार गुरु के बिनां नहीं बन सकता। जो मन गुरु के शब्द में जुड़ता है उसको प्रभु के नाम का रंग चढ़ जाता है।1। रहाउ।

गुर सेवा सुखु पाईऐ हरि वरु सहजि सीगारु ॥ सचि माणे पिर सेजड़ी गूड़ा हेतु पिआरु ॥ गुरमुखि जाणि सिञाणीऐ गुरि मेली गुण चारु ॥२॥

पद्अर्थ: सहजि = अडोल आत्मिक अवस्था में। सचि = सदा स्थिर प्रभु में (जुड़ के)। पिर सेजड़ी = पति की सुंदर सेज। हेतु = हित, प्रेम। जाणि = जान के, गहरी सांझ डालके। गुरि = गुरु ने। चारु = सुंदर। गुण चारु = सुंदर गुणों वाला प्रभु।2।

अर्थ: गुरु द्वारा बताई सेवा से ही आत्मिक आनंद मिलता है। प्रभु पति उसी जीव-स्त्री को प्राप्त होता है जिसने अडोल आत्मिक अवस्था में (जुड़के) अपने आप को श्रृंगारा हैं वही जीव-स्त्री प्रभु पति की सुंदर सेज का आनंद ले सकती है जो उस सदा स्थिर प्रभु में (जुड़ी रहती है), जिसका प्रभु पति के साथ गहरा हित है, गहरा प्यार है। गुरु के सन्मुख रहके ही प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल के उसे मनाया जा सकता है (भाव, ये समझ आती है कि वह हमारा है), वह सुंदर गुणों का मालिक प्रभु (जिस जीव-स्त्री को मिला है) गुरु ने मिलाया है।2।

सचि मिलहु वर कामणी पिरि मोही रंगु लाइ ॥ मनु तनु साचि विगसिआ कीमति कहणु न जाइ ॥ हरि वरु घरि सोहागणी निरमल साचै नाइ ॥३॥

पद्अर्थ: वर कामणी = हे प्रभु पति की जीव-स्त्री! पिरि = पिर ने। विगसिआ = खिल पड़ा। साचै नाइ = सच्चे प्रभु के नाम में (जुड़ के)।3।

अर्थ: हे प्रभु पति की सुंदर स्त्री! उस सदा स्थिर प्रभु (के चरणों) में (सदा) मिली रह। पति प्रभु ने (जिस जीव-स्त्री के मन को अपने प्यार का) रंग चढ़ा के (अपनी ओर) खींच लिया है, उसका मन, उसका तन सदा स्थिर प्रभु में जुड़के खिल पड़ा है (उसका जीवन इतना अमोलक बन जाता है कि) उसका मुल्य नहीं पड़ सकता। वह सोहाग भाग वाली जीव-स्त्री सदा स्थिर हरि के नाम में (जुड़ के) पवित्र आत्मा हो जाती है, और प्रभु पति को अपने (दिल) घर में (ही ढूंढ लेती है)।3।

मन महि मनूआ जे मरै ता पिरु रावै नारि ॥ इकतु तागै रलि मिलै गलि मोतीअन का हारु ॥ संत सभा सुखु ऊपजै गुरमुखि नाम अधारु ॥४॥

पद्अर्थ: मनूआ = होछा मन, भुलक्कड़ मन। रावै = प्यार करता है। इकतु = एक में। इकतु तागै = एक ही धागे में। रलि = मिल-जुलके, एकमेक हो के। अधारु = आसरा।4।

अर्थ: यदि (जीव-स्त्री का) छोटा सा मन (प्रभु पति के विशाल) मन में (छोटे स्वाभाव से) मर जाए, तो जैसे एक ही धागे में परोए हुए मोतियों का हार गले में डाल लेते हैं, उसी तरह यदि (जीव-स्त्री प्रभु के ही) एक-तवज्जो धागे एक मेक हो के प्रभु में लीन हो जाए तो प्रभु पति उस जीव नारी को प्यार करता है। पर यह आत्मिक आनंद सत्संग में टिकने से ही मिलता है, और सत्संग में गुरु की शरण पड़ के (मन को) प्रभु के नाम का सहारा मिलता है।4।

खिन महि उपजै खिनि खपै खिनु आवै खिनु जाइ ॥ सबदु पछाणै रवि रहै ना तिसु कालु संताइ ॥ साहिबु अतुलु न तोलीऐ कथनि न पाइआ जाइ ॥५॥

पद्अर्थ: उपजै = पैदा हो जाता है, प्रोत्साहित हो जाता है। खिनि = छिन में। खपै = खपता है, दुखी होता है। रवि रहे = (गुरु के शब्द में) जुड़ा रहे। ना संताइ = नहीं सताता।5।

अर्थ: (अगर मन नाम से वंचित रहे, तो माया, धन-संपदा आदि के लाभ से) एक छिन में ही (ऐसे होता है जैसे) जी पड़ता है (और माया आदि की कमी से) एक पल में ही दुखी हो जाता है। एक छिन (गुजरता है तो) वह पैदा हो जाता है, एक छिन (गुजरता है तो) वह मर जाता है (भाव, नाम के सहारे के बिना माया जीव के जीवन का आसरा बन जाती है। अगर माया आए तो उत्साह, अगर जाए तो सहम)। जो मनुष्य गुरु के शब्द से सांझ डालता है (प्रभु के चरणों में जुड़ने से ये तो नहीं हो सकता कि) उस मालिक (की हस्ती) को तोला जा सके। वह तौल से परे है (हां, ये जरूर है कि वह मिलता स्मरण से ही है) निरी बातों से नहीं मिलता।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh