श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 59 वापारी वणजारिआ आए वजहु लिखाइ ॥ कार कमावहि सच की लाहा मिलै रजाइ ॥ पूंजी साची गुरु मिलै ना तिसु तिलु न तमाइ ॥६॥ पद्अर्थ: वजहु = तनखाह, रोजीना। लाहा = लाभ। तमाइ = लालच।6। अर्थ: सारे जीव बंजारे जीव व्यापारी (परमात्मा के दर से) दिहाड़ी (तनखाह) लिखा के (जगत में आते हैं। भाव, हरेक को जिंदगी के स्वाश व सारे पदार्तों की दाति प्रभु दर से मिलती है)। जो जीव व्यापारी सदा स्थिर प्रभु के नाम जपने की कार करते हैं, उनको प्रभु की रजा के अनुसार (आत्मिक जीवन का) लाभ मिलता है। (पर ये लाभ वही कमा सकते हैं जिनको) वह गुरु मिल जाता है जिस को (अपनी प्रशंसा आदि का) तिल जिनता भी लालच नहीं है। (जिस को गुरु मिलता है उनकी आत्मिक जीवन वाली) राशि पूंजी सदा के लिए स्थिर हो जाती है।6। गुरमुखि तोलि तुोलाइसी सचु तराजी तोलु ॥ आसा मनसा मोहणी गुरि ठाकी सचु बोलु ॥ आपि तुलाए तोलसी पूरे पूरा तोलु ॥७॥ पद्अर्थ: तोलि तुोलाइसी = तोल में पूरा उतरवाएगा। नोट: शब्द ‘तोलाइसी’ के अक्षर ‘त’के साथ दो मात्राएं हैं: ‘ु’ और ‘ो’। असल शब्द ‘तुोलाइसी’ ही है, जिसे यहां तुलाइसी पढ़ना है। तराजी = तीरजू। गुरि = गुरु ने। ठाकी = रोक दी है।7। अर्थ: (इन्सानी जीवन की सफलता की परख के वास्ते) सच ही तराजू है और सच ही बाँट है (जिसके पल्ले सच है वही सफल है)। इस परख तोल में वही मनुष्य पूरा उतरता है जो गुरु के सन्मुख रहता है। क्योंकि, गुरु ने (परमात्मा की महिमा की) सच्ची वाणी दे के मन को मोह लेने वाली आशाओं और मन के माया के फुरनों को (मन पर वार करने से) रोक रखा होता है। पूरे प्रभु का यह तोल (का रुतबा) कभी घटता-बढ़ता नहीं। वही जीव (इस तोल में) पूरा तुलता है जिसको प्रभु (नाम जपने की दात दे के) खुद (मेहर की निगाह से) तुलवाता है।7। कथनै कहणि न छुटीऐ ना पड़ि पुसतक भार ॥ काइआ सोच न पाईऐ बिनु हरि भगति पिआर ॥ नानक नामु न वीसरै मेले गुरु करतार ॥८॥९॥ पद्अर्थ: कहणि = जबानी बातें करने से। पढ़ि = पढ़ के। सोच = स्वच्छता। करतार = कर्तार (का मेल)।8। अर्थ: निरी बातें करने से या पुस्तकों के ढेरों के ढेर पढ़ने से आसा-मनसा से बचा नहीं जा सकता। (यदि हृदय में) परमात्मा की भक्ति नहीं, प्रभु का प्रेम नहीं, तो निरे शरीर की पवित्रता से परमात्मा नहीं मिलता। हे नानक! जिस को (गुरु की शरण पड़ के परमात्मा का) नाम नहीं भूलता, उसको गुरु परमात्मा के मेल में मिला देता है।8।9। सिरीरागु महला १ ॥ सतिगुरु पूरा जे मिलै पाईऐ रतनु बीचारु ॥ मनु दीजै गुर आपणे पाईऐ सरब पिआरु ॥ मुकति पदारथु पाईऐ अवगण मेटणहारु ॥१॥ पद्अर्थ: सरब पिआरु = सबसे प्यार करने वाला परमात्मा। मुकति = विकारों से खलासी। पदारथु = कीमती चीज।1 अर्थ: परमात्मा के गुणों की विचार (जैसे, कीमती) रत्न है (यह रत्न तभी) मिलता है यदि पूरा गुरु मिल जाए। अपना मन गुरु के हवाले कर देना चाहिए। (इस तरह) सब से प्यार करने वाला प्रभु मिलता है। (गुरु की कृपा से) नाम पदार्थ मिलता है, जो विकारों से निजात दिलवाता है और जो अवगुण मिटाने के समर्थ है।1। भाई रे गुर बिनु गिआनु न होइ ॥ पूछहु ब्रहमे नारदै बेद बिआसै कोइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गिआनु = आत्मक जीवन की समझ, परमात्मा से गहरी सांझ।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (बेशक) कोई ब्रह्मा को, नारद को, वेदों वाले ऋषि ब्यास को पूछ लो, गुरु के बिना परमात्मा के साथ गहरी सांझ नहीं पड़ सकती।1। रहाउ। गिआनु धिआनु धुनि जाणीऐ अकथु कहावै सोइ ॥ सफलिओ बिरखु हरीआवला छाव घणेरी होइ ॥ लाल जवेहर माणकी गुर भंडारै सोइ ॥२॥ पद्अर्थ: कहावै = स्मरण कराता है। सोइ = वह गुरु ही। सफलिओ = फल देने वाला। माणिक = मनकों से (भरपूर)। सोइ = वह परमात्मा।2। अर्थ: परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालनी, परमात्मा की याद में तवज्जो जोड़नी, परमात्मा के चरणों में लगन लगानी- (गुरु से ही) यह समझ आती है। गुरु ही उस प्रभु की महिमा करवाता है जिसके गुण बयान नहीं हो सकते। गुरु (मानों) एक हरा व फलदार वृक्ष है, जिसकी गहरी सघन छाया है। लालों, जवाहरों और मोतियों से भरपूर (भाव, ऊँचे व स्वच्छ आत्मिक गुण) वह परमात्मा गुरु के खजाने से ही मिलता है।2। गुर भंडारै पाईऐ निरमल नाम पिआरु ॥ साचो वखरु संचीऐ पूरै करमि अपारु ॥ सुखदाता दुख मेटणो सतिगुरु असुर संघारु ॥३॥ पद्अर्थ: भंडारे = खजाने में। संचीऐ = एकत्र किया जा सकता है। करमि = मिहर से। असुर = कामादिक दैंत।3। अर्थ: परमात्मा के पवित्र नाम का प्यार गुरु के खजाने में ही प्राप्त होता है। बेअंत प्रभु का नाम रूप सदा स्थिर सौदा पूरे गुरु की मेहर से ही एकत्र किया जा सकता है। गुरु (नाम की बख्शिश से) सुखों को देने वाला है। दुखों को मिटाने वाला है। गुरु (कामादिक) दैंतों का नाश करने वाला है।3। भवजलु बिखमु डरावणो ना कंधी ना पारु ॥ ना बेड़ी ना तुलहड़ा ना तिसु वंझु मलारु ॥ सतिगुरु भै का बोहिथा नदरी पारि उतारु ॥४॥ पद्अर्थ: भवजलु = संसार समुंदर। बिखमु = मुश्किल। कंधी = कंढा,किनारा। मलारु = मल्लाह। भै का बोहिथा = डरों से बचाने वाला जहाज। पारु = उस पार का इलाका।4। नोट: ‘पारु’और ‘पारि’ में फर्क ध्यानयोग्य है। {पारु = उस पार का इलाका (संज्ञा); पारि = उस तरफ ‘क्रिया विशेषण’}। अर्थ: ये संसार समुंदर बहुत बिखड़ा है बड़ा डरावना है। इसका ना कोई किनारा दिखाई देता है ना ही दूसरा छोर। ना कोई बेड़ी (नाव) ना कोई तुलहा ना कोई मल्लाह आर ना ही मल्लाह का चप्पू- कोई भी इस संसार समुंदर से पार लंघा नहीं सकता। (संसार समुंदर के) खतरों से बचाने वाला जहाज गुरु ही है। गुरु की मेहर की नजर से इस समुंदर के उस पार उतारा हो सकता है।4। इकु तिलु पिआरा विसरै दुखु लागै सुखु जाइ ॥ जिहवा जलउ जलावणी नामु न जपै रसाइ ॥ घटु बिनसै दुखु अगलो जमु पकड़ै पछुताइ ॥५॥ पद्अर्थ: जाइ = चला जाता है। जलउ = जल जाए (हुकमी भविष्यत)। जलावणी = जलने योग्य। रसाइ = रस से, स्वाद से। अगलो = ज्यादा।5। अर्थ: जब एक रत्ती जितने पल के लिए भी प्यारा प्रभु (स्मृति से) भूल जाता है, तब जीव को दुख आ घेरता है और उसका सुख आनंद दूर हो जाता है। जल जाए वह जलने योग्य जिहवा जो स्वाद से प्रभु का नाम नहीं जपती। (स्मरणहीन बंदे का जब) शरीर नाश होता है, उसे बहुत दुख व्यापता है। जब उसे जम आ पकड़ता है तबवह पछताता है (पर उस वक्त पछताने का क्या लाभ?)।5। मेरी मेरी करि गए तनु धनु कलतु न साथि ॥ बिनु नावै धनु बादि है भूलो मारगि आथि ॥ साचउ साहिबु सेवीऐ गुरमुखि अकथो काथि ॥६॥ पद्अर्थ: कलतु = स्त्री। बादि = व्यर्थ। मारगि = रास्ते पर। आथि = अर्थ, माया। मारगि आथि = माया के रास्ते पे। अकथो = जिसके गुण बयान नहीं किए जा सकते। काथि = कहते हैं, महिमा करते हैं।6। अर्थ: (संसार में बेअंत ही जीव आए, जो यह) कह कह के चले गए कि यह मेरा शरीर है, यह मेरा धन है, ये मेरी स्त्री है; पर ना शरीर ना धन ना स्त्री (कोई भी) साथ नहीं निभा। परमात्मा के नाम के बिना धन किसी अर्थ का नहीं। माया के रास्ते पड़ के (मनुष्य जिंदगी के सही राह से) भटक जाता है। (इस वास्ते, हे भाई!) सदा कायम रहने वाले मालिक को याद करना चाहिए। पर, उस बेअंत गुणों वाले मालिक की महिमा गुरु के द्वारा ही की जा सकती है।6। आवै जाइ भवाईऐ पइऐ किरति कमाइ ॥ पूरबि लिखिआ किउ मेटीऐ लिखिआ लेखु रजाइ ॥ बिनु हरि नाम न छुटीऐ गुरमति मिलै मिलाइ ॥७॥ पद्अर्थ: पइऐ किरति = पिछले किए कर्मों के संस्कार अनुसार। उस कर्म के अनुसार जो संस्कार रूप हो के मन में टिकी पड़ी है। कमाइ = कर्म करता है।7। अर्थ: जीव अपने पिछले किये कर्मों के संस्कारों के अनुसार (आगे भी वैसे ही) कर्म कमाता रहता है। (इसका नतीजा ये निकलता है कि) जीव पैदा होता है मरता है, पैदा होता है मरता है। इस चक्कर में पड़ा रहता है। पिछले कर्मों के अनुसार लिखा (माथे का) लेख परमात्मा के हुक्म में लिखा जाता है। इसे कैसे मिटाया जा सकता है? (इन लिखे लेखों की संगली की जकड़ में से) परमात्मा के नाम के बिना खलासी नहीं हो सकती। जब गुरु की मति मिलती है तब ही (प्रभु जीव को अपने चरणों में जोड़ता है)।7। तिसु बिनु मेरा को नही जिस का जीउ परानु ॥ हउमै ममता जलि बलउ लोभु जलउ अभिमानु ॥ नानक सबदु वीचारीऐ पाईऐ गुणी निधानु ॥८॥१०॥ पद्अर्थ: जीउ = जीव, जीवात्मा। पुरानु = प्राण,श्वास। जलि बलउ = (हुकमी भविष्यत) जल बल जाए। जलउ = जल जाए। गुणी निधानु = गुणों का खजाना प्रभु।8। अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर मुझे यह समझ आती है कि) जिस परमात्मा की दी हुई ये जीवात्मा है प्राण हैं, उस के बिनां (संसार में) मेरा कोई और आसरा नहीं है। मेरा यह अहम् जल जाए, मेरी यह अपणत जल जाए, मेरा यह लोभ जल जाए और मेरा यह अहंकार जल बल जाए (जिन्होंने मुझे परमात्मा के नाम से विछोड़ा है)। हे नानक! गुरु के शब्द को विचारना चाहिए, (गुरु के शब्द में जुड़ने से ही) गुणों का खजाना परमात्मा मिलता है।8।10। सिरीरागु महला १ ॥ रे मन ऐसी हरि सिउ प्रीति करि जैसी जल कमलेहि ॥ लहरी नालि पछाड़ीऐ भी विगसै असनेहि ॥ जल महि जीअ उपाइ कै बिनु जल मरणु तिनेहि ॥१॥ पद्अर्थ: कमलेहि = कमल में। विगसै = खिलता है। असनेहि = प्यार से (संस्कृत शबद = स्नेह है। इसके पंजाबी रूप दो हैं: नेह और असनेह)। जीअ = जीवात्मा। तिनेह = उनका। पछाड़िऐ = धक्के खाता है।1। अर्थ: हे मन! परमात्मा के साथ ऐसा प्यार कर, जैसा पानी और कमल के फूल का है (और कमल फूल का पानी के साथ)। कमल का फूल पानी की लहरों से धक्के खाता है, फिर भी (परस्पर) प्यार के कारण कमल फूल खिलता (ही) है (धक्कों से गुस्से नहीं होता)। पानी में (कमल के फूलों को) पैदा करके (परमात्मा ऐसी खेल खेलता है कि) पानी के बगैर उनकी (कमल फूलों) की मौत हो जाती है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |