श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 60

मन रे किउ छूटहि बिनु पिआर ॥ गुरमुखि अंतरि रवि रहिआ बखसे भगति भंडार ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। अंतरि = अंदर, दिल से। रवि रहिआ = हर वक्त मौजूद है।1। रहाउ।

अर्थ: हे मन! (प्रभु के साथ) प्यार पाने के बगैर तू (माया के हमलों से) बच नहीं सकता। (पर, ये प्यार गुरु की शरण पड़े बगैर नहीं मिलता) गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों के अंदर (गुरु की कृपा से ऐसी प्यार-सांझ बनती है कि) परमात्मा हर वक्त मौजूद रहता है, गुरु उन्हें प्रभु भक्ति के खजाने ही बख्श देता है।1। रहाउ।

रे मन ऐसी हरि सिउ प्रीति करि जैसी मछुली नीर ॥ जिउ अधिकउ तिउ सुखु घणो मनि तनि सांति सरीर ॥ बिनु जल घड़ी न जीवई प्रभु जाणै अभ पीर ॥२॥

पद्अर्थ: नीर = पानी। अधिकउ = बहुत। घणों = बहुत। मनि = मन में। अभ पीर = आंतरिक पीड़ा।2।

अर्थ: हे मन! परमात्मा के साथ ऐसा प्रेम कर, जैसा मछली का पानी के साथ है। पानी जितना ही बढ़ता है, मछली को उतना ही सुख आनंद मिलता है। उसके मन में तन में शरीर में ठंड पड़ती है। पानी के बगैर एक घड़ी भी जी नहीं सकती। मछली के दिल की यह वेदना परमात्मा (स्वयं) जानता है।2।

रे मन ऐसी हरि सिउ प्रीति करि जैसी चात्रिक मेह ॥ सर भरि थल हरीआवले इक बूंद न पवई केह ॥ करमि मिलै सो पाईऐ किरतु पइआ सिरि देह ॥३॥

पद्अर्थ: मेह = बरखा, वर्षा। चात्रिक = पपीहा। भरि = भरे हुए। केह = क्या अर्थ? करमि = मेहर से। किरतु पाइआ = पूर्बला कमाया हुआ, (पूर्वला) किया हुआ (जो संस्कार रूप में) एकत्रित किए हुए (अंदर मौजूद) है। सिरि = सिर पर। देह = शरीर पर।3।

अर्थ: हे मन! परमात्मा के साथ ऐसा प्रेम कर, जैसा पपीहे का बरसात के साथ है। (पानी से) सरोवर भरे हुए होते हैं, धरती (पानी की बरकत से) हरी भरी हो जाती है। पर यदि (स्वाति नक्षत्र में पड़ी वर्षा की) एक बूँद (पपीहे के मुंह में) ना पड़े, तो उसको इस सारे पानी से कोई सरोकार नहीं। (पर, हे मन! तेरे भी क्या बस! परमात्मा) अपनी मेहर से ही मिले तो मिलता है, (नहीं तो) पूर्बला कमाया हुआ सिर पर शरीर पर झेलना ही पड़ता है।3।

रे मन ऐसी हरि सिउ प्रीति करि जैसी जल दुध होइ ॥ आवटणु आपे खवै दुध कउ खपणि न देइ ॥ आपे मेलि विछुंनिआ सचि वडिआई देइ ॥४॥

पद्अर्थ: आवटणु = उबाला। खवै = बर्दाश्त करता है। सचि = सच में। देइ = देता है।4।

अर्थ: हे मन! हरि के साथ ऐसा प्यार बना, जैसा पानी और दूध का है। (पानी दूध में आ मिलता है, दूध की शरण पड़ता है, दूध उसकों अपना रूप बना लेता है। जब उस पानी मिले दूध को आग पर रखते हैं तो) उबाला (पानी) स्वयं ही बर्दाश्त करता है, दूध को जलने नहीं देता। (इसी तरह यदि जीव अपने आप को कुर्बान करे, तो प्रभु) विछुड़े जीवों कोअपने सदा स्थिर नाम में मिला के (लोक परलोक में) आदर सत्कार देता है।4।

रे मन ऐसी हरि सिउ प्रीति करि जैसी चकवी सूर ॥ खिनु पलु नीद न सोवई जाणै दूरि हजूरि ॥ मनमुखि सोझी ना पवै गुरमुखि सदा हजूरि ॥५॥

पद्अर्थ: सूर = सूर्य।5।

अर्थ: हे मन! परमात्मा के साथ ऐसा प्यार कर, जैसा कि चकवी का (प्यार) सूरज से है। (जब सूरज डूब जाता है, चकवी की नजरों से परे हो जाता है, तो वह चकवी) एक छिन भर एक पल भर नींद (के बस में आ के) नहीं सोती, दूर (छुपे सूर्य) को अपने अंग-संग समझती है।

जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है, उसको परमात्मा अपने अंग संग दिखाई देता है, पर अपने मन के पीछे चलने वाले को ये बात समझ नहीं आती।5।

मनमुखि गणत गणावणी करता करे सु होइ ॥ ता की कीमति ना पवै जे लोचै सभु कोइ ॥ गुरमति होइ त पाईऐ सचि मिलै सुखु होइ ॥६॥

पद्अर्थ: गणत गणावणी = अपनी प्रशंसा करता है।6।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य अपनी ही प्रशंसा करता रहता है (पर जीव के भी क्या वश?) वही कुछ होता हैजो कर्तार (स्वयं) करता (कराता) है। (कर्तार की मेहर के बिनां) यदि कोई जीव (अपनी उस्ततें छोड़ने का प्रयत्न भी करे, और परमात्मा के गुणों की कद्र पहचानने का उद्यम करे, तो भी) उस प्रभु के गुणों की कद्र नहीं पड़ सकती। (परमात्मा के गुणों की कद्र) तभी पड़ती है, जब गुरु की शिक्षा प्राप्त हो। (गुरु की मति मिलने से ही मनुष्य प्रभु के सदा स्थिर नाम में जुड़ता है और आत्मिक आनंद का सुख पाता है।6।

सचा नेहु न तुटई जे सतिगुरु भेटै सोइ ॥ गिआन पदारथु पाईऐ त्रिभवण सोझी होइ ॥ निरमलु नामु न वीसरै जे गुण का गाहकु होइ ॥७॥

पद्अर्थ: भेटै = मिल जाए। गिआन पदारथु = (परमात्मा के साथ) गहरी सांझ देने वाला (नाम) पदार्थ। त्रिभवण सोझी = तीनों भवनों में व्याप्त प्रभु की सूझ।7।

अर्थ: (प्रभु चरणों में जोड़ने वाला) यदि वह गुरु मिल जाए, तो (उसकी मेहर के सदका प्रभु के साथ ऐसा) पक्का प्यार (पड़ता है जो कभी भी) टूटता नहीं। (गुरु की कृपा से) परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालने वाला नाम पदार्थ मिलता है। ये समझ भी पड़ती है कि प्रभु तीनों भवनों में मौजूद है। यदि मनुष्य (गुरु की मेहर सदका) परमात्मा के गुणों (के सौदे) को खरीदने वाला बन जाए, तो इस को प्रभु का पवित्र नाम (फिर कभी) नहीं भूलता।7।

खेलि गए से पंखणूं जो चुगदे सर तलि ॥ घड़ी कि मुहति कि चलणा खेलणु अजु कि कलि ॥ जिसु तूं मेलहि सो मिलै जाइ सचा पिड़ु मलि ॥८॥

पद्अर्थ: खेलि गए = लद गए, खेल के चले गए। पंखणूं = (जीव) पंछी। सर तलि = (संसार) सरोवर पर। अजु कि कलि = आज या कल में, एक-दो दिनों में। मलि = जीत के,कब्जा करके। पिड़ = खिलाड़ियों के खेलने का स्थान। पिड़ मलि = बाजी जीत के।8।

अर्थ: (हे मन! देख) जो जीव पंछी इस (संसार) सरोवर पर (चोगा) चुगते हैं वह (आपो अपनी जीवन) खेल खोलके चले जाते हैं। हरेक जीव पंछी ने घड़ी पल की खेल खेलके यहाँ से चले जाना है। यह,खेल एक-दो दिनों में ही (जल्दी ही) खत्म हो जाती है। (हे मन! प्रभु के दर पे सदा अरदास कर और कह: हे प्रभु!) जिसको तू खुद मिलाता है, वही तेरे चरणों में जुड़ता है। वह यहां से सच्ची जीवन बाजी जीत के जाता है।8।

बिनु गुर प्रीति न ऊपजै हउमै मैलु न जाइ ॥ सोहं आपु पछाणीऐ सबदि भेदि पतीआइ ॥ गुरमुखि आपु पछाणीऐ अवर कि करे कराइ ॥९॥

पद्अर्थ: सोहं = वह मैं हूँ। आपु = अपना आप। सोहं आपु = वह मैं हूँ और मेरा स्वै। सोहं आपु पछाणीऐ = यह पहिचान आती है कि कि मेरा और प्रभु का स्वै (भाव, स्वभाव) मिला है या नहीं। सबदि = गुरु के शब्द के साथ। भेदि = राज।9।

अर्थ: गुरु (की शरण पड़े) बिनां (प्रभु चरणों में) प्रीत पैदा नहीं होती (क्योंकि मनुष्य के अपने प्रयास से ही मन में से) अहंकार की मैल दूर हो सकती है। जब मनुष्य का मन गुरु के शब्द में भेदा जाता है, गुरु के शब्द में पतीज जाता है, तब ये पता चलता है कि मेरा और प्रभु का स्वभाव मेल खाता है या नहीं। गुरु की शरण पड़ के ही मनुष्य अपने आप को (अपनी असलियत को) पहचानता है। (गुरु की शरण के बिनां) जीव अन्य कोई प्रयासा कर करा नहीं सकता।9।

मिलिआ का किआ मेलीऐ सबदि मिले पतीआइ ॥ मनमुखि सोझी ना पवै वीछुड़ि चोटा खाइ ॥ नानक दरु घरु एकु है अवरु न दूजी जाइ ॥१०॥११॥

पद्अर्थ: किआ मेलीऐ = मिलने वाली कोई और बात नहीं रह जाती, कभी नहीं विछुड़ते। पतीआइ = मान के, पतीज के, पलोस के। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला। दरु घरु एकु = एक ही दर और एक ही घर, एक ही आसरा। जाइ = जगह।10।

अर्थ: जो जीव गुरु के शब्द में पतीज के प्रभु चरणों में मिलते हैं, उनके अंदर कोई ऐसा विछोड़ा नहीं रह जाता जिसको दूर करके उन्हें पुनः प्रभु से जोड़ा जाए। पर अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे कोये समझ नहीं पड़ती, वह प्रभु चरणों से विछुड़ के (माया के मोह की) चोटें खाता है।

हे नानक! जो मनुष्य प्रभु चरणों में मिल गया है उसका प्रभु ही एक आसरा दृढ़ (दिखता) है। प्रभु के बिनां उसे और कोई सहारा नहीं (दिखाई देता) अन्य कोई जगह नहीं दिखती।10।11।

सिरीरागु महला १ ॥ मनमुखि भुलै भुलाईऐ भूली ठउर न काइ ॥ गुर बिनु को न दिखावई अंधी आवै जाइ ॥ गिआन पदारथु खोइआ ठगिआ मुठा जाइ ॥१॥

पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री। भूलै = राह से विछुड़ जाती है। भुलाईऐ = गलत रास्ते डाली जाती है। ठउर = जगह, सहारा। अंधी = माया के मोह में अंधी हुई। आवै जाइ = आती है जाती है, भटकती फिरती है। गिआन पदारथु = परमात्मा के साथ गहरी सांझ पैदा करने वाला नाम पदार्थ।1।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाली स्त्री (जीवन के) सही रास्ते से भटक जाती है, माया उसे गलत रास्ते पे डाल देती है। राह से भटकी हुई (गुरु के बिना) कोइ (ऐसा) स्थान नहीं मिलता (जो उसको रास्ता दिखा दे)। गुरु के बिना और कोई भी (सही रास्ता) दिख नहीं सकता। (माया में) अंधी हुई जीव-स्त्री भटकती फिरती है।

जिस भी जीव ने (माया के प्रलोभन में फंस के) परमात्मा के साथ गहरी सांझ पैदा करने वाले नाम-धन को गवा लिया है, वह ठगा जाता है, वह (आत्मिक जीवन की ओर से) लूटा जाता है।1।

बाबा माइआ भरमि भुलाइ ॥ भरमि भुली डोहागणी ना पिर अंकि समाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भरमि = भुलेखे में। डोहागणी = खराब किस्मत वाली। पिर अंकि = पिया के अंक में, पति की बाँहों में।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! माया (जीवों को) छलावे में डाल के गलत रास्ते पे डाल देती है। जो भाग्यहीन जीव-स्त्री भुलावे में पड़कर गलत रास्ते पड़ जाती है, वह (कभी भी) प्रभु पति के चरणों में लीन नहीं हो सकती।1। रहाउ।

भूली फिरै दिसंतरी भूली ग्रिहु तजि जाइ ॥ भूली डूंगरि थलि चड़ै भरमै मनु डोलाइ ॥ धुरहु विछुंनी किउ मिलै गरबि मुठी बिललाइ ॥२॥

पद्अर्थ: दिसंतरी = (देस+अंतरी) और-और देशों में। तजि जाइ = छोड़ जाती है। डूंगरि = पहाड़ पे। विछुंनी = बिछुड़ी हुई। गरबि = अहंकार से।2।

अर्थ: जीवन के राह से भटकी हुई जीव-स्त्री गृहस्थ त्याग के देस-देसांतरों में घूमती फिरती है। भटकी हुई कभी किसी पहाड़ (की गुफा) में बैठती है कभी किसी टीले पे चढ़ बैठती है। भटकती फिरती है, उसका मन (माया के असर में) डोलता है। (अपने किए कर्मों के कारण) धर से ही प्रभु के हुक्म अनुसार विछुड़ी हुई (प्रभु चरणों में) जुड़ नहीं सकती। वह तो (त्याग आदि के) अहंकार आदि में लूटी जा रही है, और (विछोड़े में) तड़पती है।2।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh