श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 61 विछुड़िआ गुरु मेलसी हरि रसि नाम पिआरि ॥ साचि सहजि सोभा घणी हरि गुण नाम अधारि ॥ जिउ भावै तिउ रखु तूं मै तुझ बिनु कवनु भतारु ॥३॥ पद्अर्थ: रसि = रस में। पिआरि = प्यार में। सहजि = अडोल अवस्था में (टिक के)। अधारि = आसरे के कारण।3। अर्थ: प्रभु से विछुड़ों को गुरु हरि नाम के आनंद में जोड़ के, नाम के प्यार में जोड़ के (पुनः प्रभु के साथ) मिलाता है। हरि के गुणों की इनायत से हरि-नाम के आसरे से सदा स्थिर प्रभु में (जुड़ने से) अडोल अवस्था में (टिके रहने से) बहुत शोभा (भी मिलती है)। (मैं तेरा दास विनती करता हूं- हे प्रभु) जैसे तेरी रजा हो सके, मुझे अपने चरणों में रख। तेरे बिना मेरा खसम सांई और कोई नहीं।3। अखर पड़ि पड़ि भुलीऐ भेखी बहुतु अभिमानु ॥ तीरथ नाता किआ करे मन महि मैलु गुमानु ॥ गुर बिनु किनि समझाईऐ मनु राजा सुलतानु ॥४॥ पद्अर्थ: अखर = विद्या। किनि = किस ने?।4। अर्थ: विद्या पढ़ पढ़ के (भी विद्या के अहंकार के कारण) कुमार्ग पर ही पड़ता है (गृहस्थ-त्यागियों के) भेषों से भी (मन में) बड़ा गुमान पैदा होता है। तीर्तों पर स्नान करने से भी कुछ नहीं संवार सकता। क्योंकि, मन में (इस) अहंकार की मैल टिकी रहती है (कि मैं तीर्थ स्नानी हूँ)। (हरेक भटके हुए रास्ते में) मन (इस शरीर नगरी का) राजा बना रहता है, सुल्तान बना रहता है। गुरु के बिनां इसको किसी और ने मति नहीं दी (कोई इसे समझा नहीं सका)।4। प्रेम पदारथु पाईऐ गुरमुखि ततु वीचारु ॥ सा धन आपु गवाइआ गुर कै सबदि सीगारु ॥ घर ही सो पिरु पाइआ गुर कै हेति अपारु ॥५॥ पद्अर्थ: साधन = जीव-स्त्री। आपु = स्वैभाव। घर ही = घर में ही। गुर कै हेति = गुरु के प्यार से।5। अर्थ: (हे बाबा!) गुरु की शरण पड़ के अपने मूल प्रभु (के गुणों) को विचार। गुरु की शरण पड़ने से ही (प्रभु चरणों से) प्रेम पैदा करने वाला नाम धन मिलता है। जिस जीव-स्त्री ने स्वै भाव दूर किया है, गुरु के शब्द में (जुड़ के आत्मिक जीवन को स्वैभाव दूर करने का) श्रृंगार किया है। उसने गुरु के बख्शे प्रेम से अपने हृदय रूपी घर में उस बेअंत प्रभु पति को ढूंढ लिया है।5। गुर की सेवा चाकरी मनु निरमलु सुखु होइ ॥ गुर का सबदु मनि वसिआ हउमै विचहु खोइ ॥ नामु पदारथु पाइआ लाभु सदा मनि होइ ॥६॥ पद्अर्थ: चाकरी = सेवा। मनि = मन में। विचहु = अपने अंदर से।6। अर्थ: गुरु की बताई हुई सेवा करने से चाकरी करने सेमन पवित्र हो जाता है, आत्मिक आनंद मिलता है। जिस मनुष्य के मन में गुरु का शब्द (उपदेश) बस जाता है, वह अपने अंदर से अहम् दूर कर लेता है। जिस मनुष्य ने (गुरु की शरण पड़ के) नाम-धन हासिल कर लिया है, उसके मन मेंसदा लाभ होता है। (उसके मन में आत्मक गुणों की सदैव बढ़होतरी ही होती है)।6। करमि मिलै ता पाईऐ आपि न लइआ जाइ ॥ गुर की चरणी लगि रहु विचहु आपु गवाइ ॥ सचे सेती रतिआ सचो पलै पाइ ॥७॥ पद्अर्थ: करमि = मेहर से। आपि = अपने उद्यम से। सेती = साथ। सचे = सच ही। पलै पाइ = मिलता है।7। अर्थ: परमात्मा मिलता है तो अपनी मेहर से मिलता है। मनुष्य के अपने उद्यम से नहीं मिल सकता। (इस वास्ते, हे भाई!) अपने अंदर से स्वैभाव दूर करके गुरु के चरणों में टिका रह। (गुरु की शरण की इनायत से) सदा कायम रहने वाले प्रभु के रंग में रंगे रहें, तब वह सदा स्थिर प्रभु मिल जाता है।7। भुलण अंदरि सभु को अभुलु गुरू करतारु ॥ गुरमति मनु समझाइआ लागा तिसै पिआरु ॥ नानक साचु न वीसरै मेले सबदु अपारु ॥८॥१२॥ पद्अर्थ: भुलण अंदरि = (माया के असर में आ के) गलत रास्ते पड़ने में। सभु को = हरेक जीव। अभुलु = वह जो माया के असर में जीवन सफर में गलत कदम नहीं उठाता। अपारु = बेअंत प्रभु।8। अर्थ: (हे बाबा! माया ऐसी प्रबल है कि इसके चक्कर में फंस के) हरेक जीव गलती खा जाता है। सिर्फ गुरु है कर्तार है जो (ना माया के असर में आता है, और) ना गलती खाता है। जिस मनुष्य ने गुरु का मति पर चल कर अपने मन को समझा लिया है, उसके अंदर (परमात्मा का) प्रेम बन जाता है। हे नानक! जिस मनुष्य को गुरु का शब्द अपार प्रभु मिला देता है उसे सदा स्थिर प्रभु कभी भूलता नहीं।8।12। सिरीरागु महला १ ॥ त्रिसना माइआ मोहणी सुत बंधप घर नारि ॥ धनि जोबनि जगु ठगिआ लबि लोभि अहंकारि ॥ मोह ठगउली हउ मुई सा वरतै संसारि ॥१॥ पद्अर्थ: सुत = पुत्र। बंधप = रिश्तेदार। नारि = स्त्री। धनि = धन ने। जोबनि = जोबन ने। लबि = लब ने। लोभि = लोभ ने। अहंकारि = अहंकार ने। ठगउली = ठग मूरी, ठग बुटी, धतूरा आदि वह बूटी जो पिला के ठग किसी को ठगता है। हउ = मैं। मुई = ठगी गई हूं। सा = वह (ठग-बूटा)। संसारि = संसार में।1। अर्थ: पुत्र, रिश्तेदार, घर, स्त्री (आदि के मोह) के कारण मोहनी माया की तृष्णा जीवों में व्याप रही है। धन ने, जवानी ने, लोभ ने, अहंकार ने (सारे) जगत को लूट लिया है। मोह की ठग-बूटी ने मुझे भी ठग लिया है यही मोह ठग-बूटी सारे संसार पर अपना जोर डाल रही है।1। मेरे प्रीतमा मै तुझ बिनु अवरु न कोइ ॥ मै तुझ बिनु अवरु न भावई तूं भावहि सुखु होइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: न भावई = ठीक नहीं लगता।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभु! (इस ठग-बूटी से बचाने के लिए) मुझे तेरे बिनां और कोई (समर्थ) नहीं (दिखता)। मुझे तेरे बिनां कोई और प्यारा नहीं लगता। जब तू मुझे प्यारा लगता है, तब मुझे आत्मिक सुख मिलता है।1। रहाउ। नामु सालाही रंग सिउ गुर कै सबदि संतोखु ॥ जो दीसै सो चलसी कूड़ा मोहु न वेखु ॥ वाट वटाऊ आइआ नित चलदा साथु देखु ॥२॥ पद्अर्थ: सालाही = तूं महिमा कर। रंग सिउ = प्रेम से। कूड़ा = झूठा, नाशवान। वाट = रास्ता। वटाऊ = राही, मुसाफिर।2। अर्थ: (हे मन!) गुरु के शब्द से संतोख धारण करके (तृष्णा के पंजे में से निकल के) प्रेम से (परमात्मा के) नाम की महिमा कर। इस नाशवान मोह को ना देख। ये तो जो कुछ दिखाई दे रहा है सभ नाश हो जाएगा। (यहां जीव) रास्ते का मुसाफिर (बन के) आया है, यह सारा साथ नित्य चलने वाला समझ।2। आखणि आखहि केतड़े गुर बिनु बूझ न होइ ॥ नामु वडाई जे मिलै सचि रपै पति होइ ॥ जो तुधु भावहि से भले खोटा खरा न कोइ ॥३॥ पद्अर्थ: आखणि = कहने को, कहने मात्र। केतड़े = कितने जीव? , बेअंत जीव। बूझ = समझ। सचि = सदा स्थिर प्रभु में। रपै = रंगा जाए। पति = इज्जत।3। अर्थ: बताने को तो बेअंत जीव बता देते हैं (कि माया की तृष्णा से इस प्रकार बच सकते हैं, पर) गुरु के बगैर सही समझ नहीं पड़ती। (गुरु की शरण पड़ के) अगर परमात्मा का नाम मिल जाए, परमात्मा की महिमा मिल जाए अगर (मनुष्य का मन) सदा स्थिर प्रभु (के प्यार) में रंगा जाए, तो उस लोक (परलोक में) इज्जत मिलती है। (पर, हे प्रभु! अपने प्रयास से कोई जीव) ना खरा बन सकता है, ना ही खोटा रह जाता है। जो तुझे प्यारे लगते हैं वही भले हैं।3। गुर सरणाई छुटीऐ मनमुख खोटी रासि ॥ असट धातु पातिसाह की घड़ीऐ सबदि विगासि ॥ आपे परखे पारखू पवै खजानै रासि ॥४॥ पद्अर्थ: खोटी रासि = वह पूंजी जो प्रभु पातशाह के दर पे खोटी समझी जाती है। असट धातु = आठ धातुओं से बना शरीर। विगासि = खिलता है, प्रफुल्लित होना।4। अर्थ: गुरु की शरण पड़ के ही (तृष्णा के पंजे में से) निजात पायी जाती है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य खोटी पूंजी ही जोड़ता है। परमात्मा की रची हुई ये आठ धातुओं वाली मानव कायाअगर गुरु के शब्द (की टकसाल) में घढ़ी जाए (सुचज्जी बनाई जाए, तो ही यह) खिलती है (आत्मिक उल्लास में आती है)। परखने वाला प्रभु खुद ही (इसकी मेहनत मुश्क्कत को) परख लेता है और (इसके आत्मिक गुणों की) संपत्ति (उसके) खजाने में (स्वीकार) पड़ता है।4। तेरी कीमति ना पवै सभ डिठी ठोकि वजाइ ॥ कहणै हाथ न लभई सचि टिकै पति पाइ ॥ गुरमति तूं सालाहणा होरु कीमति कहणु न जाइ ॥५॥ पद्अर्थ: तेरी कीमति ना पवै = तेरा मुल्य नहीं पड़ सकता, तेरे बराबर का और कोई नहीं मिल सकता। ठोकि वजाइ = ठोक बजा के, अच्छी तरह परख के। हाथ = गहराई। तूं = तुझे। होरु कहणु = कोई और बोल।5। अर्थ: (हे प्रभु!) मैंने सारी सृष्टि अच्छी तरह परख कर देख ली है, मुझे तेरे बराबर कोई नहीं दिखता (जो मुझे माया के पंजे से बचा सके। तूं बेअंत गुणों का मालिक है) ये बयान करने से तेरे गुण की थाह नहीं पाई जा सकती। जो जीव सदा स्थिर स्वरूप में टिकता है उसको इज्जत मिलती है। गुरु की मति ले के ही तेरी महिमा की जा सकती है। पर, तेरे बराबर का ढूंढने के वास्ते कोई बोल नहीं बोला जा सकता।5। जितु तनि नामु न भावई तितु तनि हउमै वादु ॥ गुर बिनु गिआनु न पाईऐ बिखिआ दूजा सादु ॥ बिनु गुण कामि न आवई माइआ फीका सादु ॥६॥ पद्अर्थ: जितु = जिस में। जितु तनि = जिस शरीर में। वादु = झगड़ा। बिखिआ = माया। सादु = स्वाद।6। अर्थ: जिस शरीर को परमात्मा का नाम प्यारा नहीं लगता, उस शरीर में अहम् बढ़ता है, उस शरीर में तृष्णा का बखेड़ा भी बढ़ता है। गुरु के बिनां परमात्मा से जान पहिचान नहीं बन सकती। माया का प्रभाव पड़ के परमात्मा के बिनां और तरफ का स्वाद मन में उपजता है। आत्मिक गुणों से वंचित रह कर यह मानव देह व्यर्थ जाती है और अंत को माया वाला स्वाद भी बे-रस हो जाता है।6। आसा अंदरि जमिआ आसा रस कस खाइ ॥ आसा बंधि चलाईऐ मुहे मुहि चोटा खाइ ॥ अवगणि बधा मारीऐ छूटै गुरमति नाइ ॥७॥ पद्अर्थ: बंधि = बांध के। चलाईऐ = चलाया जाता है। मुहे मुहि = मुंह मुंह, मुड़ मुड़ के मुँह पर। नाइ = नाम में (जुड़ के)।7। अर्थ: जीव आशा (तृष्णा) में बंधा हुआ जन्म लेता है (जब तक जगत में जीता है) आशा के प्रभाव में ही (मीठे) कसैले (आदिक) रसों (वाले पदार्थ) खाता रहता है। (उम्र खत्म हो जाने पर) आशा (तृष्णा) के (बंधन में) बंधा हुआ यहां से भेजा जाता है। (सारी उम्र आशा तृष्णा में ही फंसे रहने करके) मुड़ मुड़ मुंह पर चोटें खाता है। विकारमयी जीवन के कारण (आशा तृष्णा में) जकड़ा हुआ मार खाता है। यदि गुरु की शिक्षा लेकर प्रभु के नाम में जुड़ें, तो ही (आसा तृष्णा के जाल में से) खलासी पा सकता है।7। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |