श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सरबे थाई एकु तूं जिउ भावै तिउ राखु ॥ गुरमति साचा मनि वसै नामु भलो पति साखु ॥ हउमै रोगु गवाईऐ सबदि सचै सचु भाखु ॥८॥

पद्अर्थ: पति = इज्जत। साथु = साथी।8।

अर्थ: (जीवों के भी क्या वश? हे प्रभु!) सब जीवों में तो तू स्वयं ही बसता है। जैसी तेरी मर्जी हो, हे प्रभु! तू स्वयं ही (जीवों को आसा तृष्णा के जाल से) बचा। हे प्रभु! तेरा सदा स्थिर नाम ही (जीव का) भला साथी है, तेरा नाम ही जीव की इज्जत है, तेरा नाम, गुरु की मति ले के ही, जीव के मन में बस सकता है।

(हे भाई!) गुरु के सच्चे शब्द के द्वारा सदा स्थिर नाम स्मरण कर। नाम स्मरण करने से ही अहंकार का रोग दूर होता है।8।

आकासी पातालि तूं त्रिभवणि रहिआ समाइ ॥ आपे भगती भाउ तूं आपे मिलहि मिलाइ ॥ नानक नामु न वीसरै जिउ भावै तिवै रजाइ ॥९॥१३॥

पद्अर्थ: त्रिभवणि = तीनों भवनों वाले संसार में।9।

अर्थ: हे प्रभु! आकाश में पाताल में तीनों ही भवनों में तू स्वयं ही व्यापक है। तू खुद ही (जीवों को अपनी) भक्ति बख्शता है, अपना प्रेम बख्शता है। तू खुद ही जीवों को अपने साथ मिला के मिलाता है।

हे नानक! (प्रभु के दर पे अरदास कर) और कह: (हे प्रभु!) जैसे तुझे ठीक लगे, वैसे तेरी रजा वर्तती है। (पर मेहर कर) मुझे तेरा नाम कभी ना भूले।9।13।

सिरीरागु महला १ ॥ राम नामि मनु बेधिआ अवरु कि करी वीचारु ॥ सबद सुरति सुखु ऊपजै प्रभ रातउ सुख सारु ॥ जिउ भावै तिउ राखु तूं मै हरि नामु अधारु ॥१॥

पद्अर्थ: अवरु वीचारु = और विचार। कि करी = मैं क्या करूँ? प्रभ रातउ = प्रभु के नाम में रंगा हुआ। सारु = श्रेष्ठ। अधारु = आसरा। मैं = मुझे।1।

अर्थ: जिस मनुष्य का मन परमात्मा के नाम में परोया जाए, (उसके संबंध में) मैं और क्या विचार करूँ (मैं और क्या बताऊँ? इस में कोई शक नहीं कि) जो मनुष्य प्रभु के (नाम में) रंगा जाता है, उसको श्रेष्ठ (आत्मिक) सुख मिलता है। जिसकी तवज्जो शब्द के (विचार में) जुड़ी हुई है, उसके अंदर आनंद पैदा होता है। (हे प्रभु!) जैसी भी तेरी रजा हो, मुझे भी तू (अपने चरणों में) रख। तेरा नाम (मेरे जीवन का) आसरा बन जाए।1।

मन रे साची खसम रजाइ ॥ जिनि तनु मनु साजि सीगारिआ तिसु सेती लिव लाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: साची = सदा स्थिर रहने वाली (कार), सच्ची कार। जिनि = जिस (प्रभु) ने।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! खसम प्रभु की रजा में चलना सही कार है। (हे मन!) तू उस प्रभु (के चरणों) से लगन जोड़, जिसने ये शरीर और मन पैदा करके इन्हें सुंदर बनाया है।1। रहाउ।

तनु बैसंतरि होमीऐ इक रती तोलि कटाइ ॥ तनु मनु समधा जे करी अनदिनु अगनि जलाइ ॥ हरि नामै तुलि न पुजई जे लख कोटी करम कमाइ ॥२॥

पद्अर्थ: बैसंतरि = आग में। होमीऐ = अपर्ण करें (जैसे हवन करने के वक्त घी आग में डालते हैं)। तोलि = तोल के। इक रती कटाइ = रक्ती रक्ती कटा के। समधा = हवन में इस्तेमाल की जाने वाली लकड़ी। करी = मैं करूँ। अनदिनु = हर रोज। कोटी = करोड़ों।12

अर्थ: अगर अपने शरीर को काट काट के एक-एक रक्ती भर तोल तोल के आग में हवन कर दिया जाए। अगर मैं अपने शरीर व मन को हवन सामग्री बनां दूं और हर रोज इन्हें आग में जलाऊँ। यदि इस प्रकार के अन्य लाखों करोड़ों कर्म किए जाएं, तो भी कोई कर्म परमात्मा के नाम की बराबरी तक नहीं पहुँच सकता।2।

अरध सरीरु कटाईऐ सिरि करवतु धराइ ॥ तनु हैमंचलि गालीऐ भी मन ते रोगु न जाइ ॥ हरि नामै तुलि न पुजई सभ डिठी ठोकि वजाइ ॥३॥

पद्अर्थ: अरध = अर्ध, आधा, दो फाड़। सिरि = सिर पर। करवतु = आरा। हैमंचलि = हिमालय (की बर्फ) में। भी = तो भी। ठोकि वजाइ = ठोक बजा के, अच्छी तरह परख के।3।

अर्थ: यदि सिर के ऊपर आरा रखा के शरीर को दो फाड़ चिरवा लिया जाए, यदि शरीर को हिमालय पर्वत (की बरफ) में गला दिया जाए, तो भी मन में से (अहम् आदिक) रोग दूर नहीं होते। (कर्मकाण्डों की) सारी (ही मर्यादा) मैंने अच्छी तरह परख के देख ली है। कोई करम प्रभु नाम जपने की बराबरी तक नहीं पहुँचता।3।

कंचन के कोट दतु करी बहु हैवर गैवर दानु ॥ भूमि दानु गऊआ घणी भी अंतरि गरबु गुमानु ॥ राम नामि मनु बेधिआ गुरि दीआ सचु दानु ॥४॥

पद्अर्थ: कंचन = सोना। कोट = किले। दतु करी = मैं दान करूँ। हैवर = हय+वर बढ़िया घोड़े। गैवर = गज+वर, बढ़िया हाथी। भूमि = जमीन। घणीं = ज्यादा। गरबु = अहंकार। बेधिआ = छेद कर दिया। गुरि = गुरु ने।4।

अर्थ: यदि मैं सोने के किले दान करूँ, बहुत सारे बढ़िया घोड़े व हाथी दान करूँ, जमीन दान करूँ, बहुत सारी गाऐं दान करूँ, फिर भी (बल्कि इस दान का ही) मन में अहंकार गुमान बन जाता है। जिस मनुष्य को सतिगुरु ने सदा स्थिर प्रभु (का नाम जपने की) बख्शिश की है, उसका मन परमात्मा के नाम में परोया रहता है (और यही है सही करनी)।4।

मनहठ बुधी केतीआ केते बेद बीचार ॥ केते बंधन जीअ के गुरमुखि मोख दुआर ॥ सचहु ओरै सभु को उपरि सचु आचारु ॥५॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से, गुरु की ओर मुंह करने से। मोख = (माया के मोह आदि से) छुटकारा, मोक्ष। दुआरु = दरवाजा। सचहु = सच से, सदा स्थिर प्रभु के नाम स्मरण से। ओरै = पीछे, घटिआ। उपरि = (हा किस्म के कर्मकांड से) ऊपर, बढ़िया, उत्तम। सचु आचारु = सदा स्थिर प्रभु के नाम स्मरण का कर्म। आचारु = कर्म।5।

अर्थ: अनेक ही लोगों की अक्ल (तप आदि कर्मों की ओर प्रेरती है जो) मन के हठ से (किये जाते हैं), अनेक ही लोग वेद आदि धर्म-पुस्तकों के अर्थ-विचार करते हैं (और इस वाद-विवाद को ही जीवन का सही राह समझते हैं), ऐसे और भी अनेक ही कर्म हैं जो जीवात्मा के वास्ते फांसी का रूप बन जाते हैं, (पर अहंकार आदि बंधनों से) निजात का दरवाजा गुरु के सन्मुख होने से ही मिलता है (क्योंकि, गुरु प्रभु का नाम जपने की हिदायत करता है)।5।

सभु को ऊचा आखीऐ नीचु न दीसै कोइ ॥ इकनै भांडे साजिऐ इकु चानणु तिहु लोइ ॥ करमि मिलै सचु पाईऐ धुरि बखस न मेटै कोइ ॥६॥

पद्अर्थ: सभ को = हरेक जीव। इकनै = एक परमात्मा से। भांडै साजिऐ = भांडे साजे जाने करके। तिहु लोइ = तीनों भवनों में। करमि = (प्रभु की) मेहर से। सचु = नाम का स्मरण। बखस = बख्शिश।6।

अर्थ: हरेक कर्म सदा स्थिर प्रभु के नाम स्मरण से नीचे है, घटिआ है। स्मरण रूपी कर्म सब कर्मों धर्मों से श्रेष्ठ है।

(पर कर्मकांड के जाल में फंसे उच्च जाति के लोगों को भी निंदना ठीक नहीं है), हरेक जीव को ठीक ही कहना चाहिए। (जगत में) कोई नीच नहीं दिखाई नहीं देता, क्योंकि, एक कर्तार ने ही सारे जीव रचे हैं और तीनों लोकों (के जीवों) में उसे (कर्तार की ज्योति) का ही प्रकाश है। स्मरण (का खैर) प्रभु की गुरु की मेहर से ही मिलता है और धुर से ही प्रभु की हुक्म अनुसार जिस मनुष्य को नाम जपने की दात मिलती है, कोई पक्ष उस (दात) के राह में रोक नहीं डाल सकता।6।

साधु मिलै साधू जनै संतोखु वसै गुर भाइ ॥ अकथ कथा वीचारीऐ जे सतिगुर माहि समाइ ॥ पी अम्रितु संतोखिआ दरगहि पैधा जाइ ॥७॥

पद्अर्थ: सादु = गुरमुखि। गुर भाइ = गुरु के अनुसार रहने से। अकथ कथा = अकथ प्रभु की कथा। पी = पी के। पैधा = सिरोपा ले के, आदर सहित।7।

अर्थ: जो गुरमुख मनुष्य गुरमुखों की संगति में मिल बैठता है, गुरु आशै के अनुसार चलने से (उसके मन में) संतोष आ बसता है। (क्योंकि,) यदि मनुष्य सतिगुरु के उपदेश में लीन रहे तो बेअंत गुणों वाले करतारकी महिमा की जा सकती है। और, महिमा रूपी अंमृत पीने से मन संतोष ग्रहण कर लेता है और (जगत में से) आदर सत्कार कमा के प्रभु की हजूरी में पहुँचता है।7।

घटि घटि वाजै किंगुरी अनदिनु सबदि सुभाइ ॥ विरले कउ सोझी पई गुरमुखि मनु समझाइ ॥ नानक नामु न वीसरै छूटै सबदु कमाइ ॥८॥१४॥

पद्अर्थ: घटि घटि = हरेक घट में। वाजै = बजती है। किंगुरी = बीन, वीणा, जीवन लहर। सुभाइ = स्वभाव में (जुड़ने से), स्वभाव में एक होने से।8।

अर्थ: गुरु के शब्द के द्वारा प्रभु के स्वभाव में हरवक्त एक-मेक होने से यह यकीन बन जाता है कि (रूहानी लहर की) वीणा हरेक शरीर में बज रही है। पर ये समझ किसी विरले को ही पड़ती है। हे नानक! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर अपने मन को ऐसे समझा लेता है, उसको परमात्मा का नाम कभी नहीं भूलता। वह गुरु के उपदेश को कमा के (गुरु के शब्द मुताबिक जीवन बना के, अहम् आदि रोगों से) बचा रहता है।8।14।

सिरीरागु महला १ ॥ चिते दिसहि धउलहर बगे बंक दुआर ॥ करि मन खुसी उसारिआ दूजै हेति पिआरि ॥ अंदरु खाली प्रेम बिनु ढहि ढेरी तनु छारु ॥१॥

पद्अर्थ: चिते = चित्रित। धउलहर = महिल माढ़ीआं। बगे = सफेद। बंक = बांके। करि खुसी = खुशियां करके, चाव से। मन = हे मन! दूजै हेति = माया के प्रेम में। अंदरु = अंदर का, हृदय। ढहि = गिर के। छारु = राख।1।

अर्थ: जैसे बड़े चाव से बनाए हुए चित्रित किए हुए महल-माढियां (सुंदर) दिखाई देते हैं, उनके सफेद बांके दरवाजे होते हैं। (पर यदि वे अंदर से खाली रहें तो गिर के ढेरी हो जाते हैं, वैसे ही माया के मोह में प्यार में (ये शरीर) पालते हैं, पर यदि हृदय नाम से वंचित है, प्रेम के बगैर है, तो ये शरीर भी गिर के ढेरी हो जाता है (व्यर्थ जाता है।)।1।

भाई रे तनु धनु साथि न होइ ॥ राम नामु धनु निरमलो गुरु दाति करे प्रभु सोइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: निरमलो = पवित्र। सोइ = वह।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! यह शरीर यह धन (जगत से चलने के वक्त) साथ नहीं निभता। परमात्मा का नाम ऐसा पवित्र धन है (जो सदा साथ निभता है, पर ये मिलता उसको ही है) जिसे गुरु देता है जिसको वह परमात्मा दात करता है।1। रहाउ।

राम नामु धनु निरमलो जे देवै देवणहारु ॥ आगै पूछ न होवई जिसु बेली गुरु करतारु ॥ आपि छडाए छुटीऐ आपे बखसणहारु ॥२॥

पद्अर्थ: पूछ = पूछ पड़ताल, रोक। बेली = सहयोगी।2।

अर्थ: परमात्मा का नाम पवित्र धन है (तब ही मिलता है) अगर देने के समर्थ हरि खुद दे। (नाम धन हासिल करने में) जिस मनुष्य का सहयोगी गुरु खुद बने, कर्तार खुद बने, परलोक में उस पर कोई एतराज नहीं होता। पर माया के मोह से प्रभु स्वयं ही बचाए तो बच सकते हैं। प्रभु खुद ही बख्शिश करने वाला है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh