श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 63 मनमुखु जाणै आपणे धीआ पूत संजोगु ॥ नारी देखि विगासीअहि नाले हरखु सु सोगु ॥ गुरमुखि सबदि रंगावले अहिनिसि हरि रसु भोगु ॥३॥ पद्अर्थ: संजोग = मेल। देखि = देख के। विगासीअहि = खुश होते हैं। हरखु = खुशी। सोगु = चिन्ता, सहम। सबदि = (गुरु के) शब्द में (जुड़ के)। अहि = दिन। निसि = रात। भोगु = (आत्मिक) भोजन।3। अर्थ: (प्रभु की रजा मुताबिक जगत में) बेटी बेटों का मेल (आ बनता है), पर अपने मन के पीछे चलने वाला आदमी इनको अपने समझ लेता है। (मनमुख लोग अपनी अपनी) स्त्री को देख के खुश होते हैं, (देख के) खुशी भी होती है सहम भी होता है (कि कहीं ये बच्चे स्त्री मर ना जाएं)। गुरु के बताए रास्ते पर चलने वाले लोग गुरु के शब्द के द्वारा आत्मिक सुख पाते हैं। परमात्मा का नाम रस दिन रात उनकी आत्मिक खुराक होता है।3। चितु चलै वितु जावणो साकत डोलि डोलाइ ॥ बाहरि ढूंढि विगुचीऐ घर महि वसतु सुथाइ ॥ मनमुखि हउमै करि मुसी गुरमुखि पलै पाइ ॥४॥ पद्अर्थ: चलै = डोलता है। वितु = धन। डोलाइ = बारंबार डोलता है। विगुचीऐ = परेशान होता है, खुआर होता है। वसतु = नाम धन। सुथाइ = नीयत स्थान पे। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री। मुसी = ठगी जाती है, लूटी जाती है। पलै पाइ = (वस्तु को) हासिल कर लेती है।4। अर्थ: (मनुष्य धन को सुख का मूल समझता है, जब) धन जाने लगता है तो साकत का मन डोलता है। (सुख को) बाहर से ढूंढने से खुआर ही होते हैं। (साकत मनुष्य यह नहीं समझता कि सुख का मूल) परमात्मा का नाम धन घर में ही, हृदय में ही है। अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री “मैं मैं” कर के ही लुटी जाती है (अंदर से नाम धन लुटा बैठती है)। (जबकि) गुरु के मार्ग पर चलने वाली ये धन हासिल कर लेती है।4। साकत निरगुणिआरिआ आपणा मूलु पछाणु ॥ रकतु बिंदु का इहु तनो अगनी पासि पिराणु ॥ पवणै कै वसि देहुरी मसतकि सचु नीसाणु ॥५॥ पद्अर्थ: साकत = हे साकत! , हे प्रभु चरणों से विछुड़े जीव! रकतु = (माँ का) लहू। बिंदु = पिता वीर्य। पिराण = पहचान, याद रख। पवण = श्वास। मसतकि = माथे पर। नीसाणु = अटल हुक्म।5। अर्थ: हे गुणहीन साकत मनुष्य! (तू गुमान करता है अपने शरीर का) अपना असल तो पहचान। ये शरीर माँ के लहू और पिता के वीर्य से बना है। याद रख, (आखिर इसने) आग में (जल जाना है)। हरेक जीव के माथे पे यह अटल हुक्म है कि यह शरीर स्वासों के अधीन है (हरेक के गिने चुने श्वास हैं)।5। बहुता जीवणु मंगीऐ मुआ न लोड़ै कोइ ॥ सुख जीवणु तिसु आखीऐ जिसु गुरमुखि वसिआ सोइ ॥ नाम विहूणे किआ गणी जिसु हरि गुर दरसु न होइ ॥६॥ पद्अर्थ: जिसु = जिस (मनि), जिसके मन में। सोइ = वह प्रभु। किआ गणी = मैं क्या (जीता) समझूं?।6। अर्थ: लम्बी लम्बी उम्र मांगी जाती है। कोई भी जल्दी मरना नहीं चाहता। पर उसी मनुष्य का जीवन सुखी कह सकते हैं, जिसके मन में, गुरु की शरण पड़ कर, परमात्मा आ बसता है। जिस मनुष्य को कभी गुरु के दर्शन नहीं हुए, कभी परमात्मा के दीदार नहीं हुए, उस प्रभु नाम से वंचित मनुष्य को मैं (जीवित) क्या समझूँ?।6। जिउ सुपनै निसि भुलीऐ जब लगि निद्रा होइ ॥ इउ सरपनि कै वसि जीअड़ा अंतरि हउमै दोइ ॥ गुरमति होइ वीचारीऐ सुपना इहु जगु लोइ ॥७॥ पद्अर्थ: भुलीऐ = भुलेखा खा जाते हैं। निद्रा = नींद। सरपनि = सपणीं, माया। जीअड़ा = कमजोर जीवात्मा। दोइ = द्वैत, मेर तेर। वीचारिऐ = समझ पड़ती है। लोइ = लोक, दुनिया।7। अर्थ: जैसे रात को (सोते हुए को) सुपने में (कई चीजें देख के) भुलेखा पड़ जाता है (कि जो कुछ देख रहे हैं यह सचमुच ठीक है, और यह भुलेखा तब तक टिका रहता है) जब तक नींद टिकी रहती है। इसी तरह कमजोर जीव माया नागिन के बस में (जब तक) है (तब तक) इसके अंदर अहम् और मेर तेर बनी रहती है। (और इस अहम् और मेर तेर को यह जीवन सही जीवन समझता है)। जब गुरु की मति प्राप्त हो तो यह समझ पड़ती है कि ये जगत (का मोह) यह दुनिया (वाली मेर तेर) निरा स्वपन ही है।7। अगनि मरै जलु पाईऐ जिउ बारिक दूधै माइ ॥ बिनु जल कमल सु ना थीऐ बिनु जल मीनु मराइ ॥ नानक गुरमुखि हरि रसि मिलै जीवा हरि गुण गाइ ॥८॥१५॥ पद्अर्थ: दूधै माइ = मां के दूध से। ना थीऐ = नहीं रह सकता। मीनु = मछली। रसि = रस में।8। अर्थ: जैसे बालक की आग (पेट की आग, भूख) माँ का दूध पीने से शांत होती है, वैसे ही ये तृष्णा की आग तभी बुझती है जब प्रभु के नाम का जल इस ऊपर डालते हैं। पानी के बिनां कमल काफूल नहीं रह सकता। पानी के बिना मछुली मर जाती है। वैसे ही गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य (प्रभु नाम के बिना जी नहीं सकता। उसका आत्मिक जीवन तभी प्रफुल्लित होता है जब) वह परमात्मा के नाम रस में लीन होता है। हे नानक! (प्रभु दर पे अरदास कर और कह: हे प्रभु! मेहर कर), मैं तेरे गुण गा के (आत्मिक जीवन) जीऊँ।8।15। सिरीरागु महला १ ॥ डूंगरु देखि डरावणो पेईअड़ै डरीआसु ॥ ऊचउ परबतु गाखड़ो ना पउड़ी तितु तासु ॥ गुरमुखि अंतरि जाणिआ गुरि मेली तरीआसु ॥१॥ पद्अर्थ: डूंगरु = पहाड़। पेईअड़ै = पेके घर में। गाखड़े = कठिन। तितु = उस में। तासु = तस्य, उसकी। गुरि = गुरु ने।1। अर्थ: (एक तरफ संसार समुंदर है, दूसरी तरफ, इस में से पार लांघने के लिए गुरमुखों वाला रास्ता है। पर आत्मिक जीवन वाला वह रास्ता पहाड़ी रास्ता है। आत्मिक जीवन के शिखर पर पहुँचना, मानो एक बड़े ऊँचे डरावने पहाड़ पर चढ़ने के समान है। उस) डरावने पहाड़ को देख के पेके घर में (माँ-बाप भाई बहन आदि के मोह में ग्रसित जीव-स्त्री) डर गई (कि इस पहाड़ पर चढ़ा नहीं जा सकता, जगत का मोह दूर नहीं किया जा सकता, स्वै को न्यौछावर नहीं किया जा सकता)। (आत्मिक जीवन के शिखर पे पहुँचना, मानों) बहुत ऊंचा और मुश्किल पर्वत है; उस पर्वत पर चढ़ने के लिए उस (जीव-स्त्री) के पास कोई सीढ़ी भी नहीं है। गुरु के सन्मुख रहने वाली जिस जीव-स्त्री को गुरु ने (प्रभु चरणों में) मिला लिया, उसने अपने अंदर ही बसते प्रभु को पहिचान लिया। और, वह इस संसार समुंदर से पार लांघ गई।1। भाई रे भवजलु बिखमु डरांउ ॥ पूरा सतिगुरु रसि मिलै गुरु तारे हरि नाउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: भवजलु = संसार समुंदर। बिखमु = मुश्किल। डराउ = डरावणा। रसि = आनंद से।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! ये संसार समुंदर बड़ा डरावणा है और (तैरना) मुश्किल है। जिस मनुष्य को पूरा गुरु प्रेम से मिलता है उसको वह गुरु परमात्मा का नाम दे के (इस समुंदर में से) पार लंघा लेता है।1। रहाउ। चला चला जे करी जाणा चलणहारु ॥ जो आइआ सो चलसी अमरु सु गुरु करतारु ॥ भी सचा सालाहणा सचै थानि पिआरु ॥२॥ पद्अर्थ: चला = चलूं। अमर = मौत रहित। भी = तो। सचै थानि = सच्चे स्थान में, सत्संग में।2। अर्थ: अगर मैं सदा याद रखूं कि मैंने जगत में से जरूर चले जाना है। यदि मैं समझ लूं कि सारा जगत ही चले जाने वाला है। जगत में जो भी आया है, वह आखिर चला जाएगा। मौत-रहित एक गुरु परमात्मा ही है, तो फिर सत्संग में (प्रभु चरणों के साथ) प्यार डाल के सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा की महिमा करनी चाहिए (बस! यही है संसार समुंदर के विकारों भारी लहरों से बचने का तरीका)।2। दर घर महला सोहणे पके कोट हजार ॥ हसती घोड़े पाखरे लसकर लख अपार ॥ किस ही नालि न चलिआ खपि खपि मुए असार ॥३॥ पद्अर्थ: कोट = किले। हसती = हाथी। पाखरे = काठीआं। असार = जिनको सार नहीं, बेसमझ।3। अर्थ: सुंदर दरवाजों वाले सुंदर घर व महल, हजारों पक्के किले, हाथी घोड़े, काठियां, लाखों तथा बेअंत लशकर- इनमें कोई भी किसी के साथ नहीं गए। बेसमझ ऐसे ही खप खप के आत्मिक मौत मरते रहे (इनकी खातिर आत्मिक जीवन गवा गए)।3। सुइना रुपा संचीऐ मालु जालु जंजालु ॥ सभ जग महि दोही फेरीऐ बिनु नावै सिरि कालु ॥ पिंडु पड़ै जीउ खेलसी बदफैली किआ हालु ॥४॥ पद्अर्थ: संचीऐ = एकत्र करें। दोही = दुहाई, ढंढोरा। सिरि = सिर पर। खेलसी = खेल खेल जाएगा, खेल खत्म कर जाएगा। पिंडु = सरीर। पड़ै = गिर जाता है। बदफैली = विकारी।4। अर्थ: अगर सोना-चाँदी इकट्ठा करते जाएं, तो यह माल धन (जीवात्मा को मोह में फंसाने के लिए) जाल बनता है, फांसी बनता है। यदि अपनी ताकत की दुहाई सारे जगत में फिरा सकें, तो भी परमात्मा का नाम स्मरण के बिनां सिर पर मौत का डर (कायम रहता) है। जब जीवात्मा जिंदगी की खेल खेल जाती है और शरीर (मिट्टी हो के) गिर पड़ता है, तब (धन पदार्थ की खातिर) गंदे काम करने वालों का बुरा हाल होता है।4। पुता देखि विगसीऐ नारी सेज भतार ॥ चोआ चंदनु लाईऐ कापड़ु रूपु सीगारु ॥ खेहू खेह रलाईऐ छोडि चलै घर बारु ॥५॥ पद्अर्थ: विगसीऐ = खुश होते हैं। चोआ = इत्र। खेह = मिट्टी। घर बारु = घर का सामान।5। अर्थ: पिता (अपने) पुत्रों को देख के खुश होता है। पति (अपनी) सेज पर स्त्री को देख कर प्रसन्न होता है। (इस शरीर को) इत्र व चंदन लगाते हैं। सुंदर कपड़ा, रूप, गहना आदि (देख के मन खुश होता है)। पर आखिर में शरीर मिट्टी हो के मिट्टी में मिल जाता है, और गुमान करने वाला जीव घर बार छोड़ के (संसार से) चला जाता है।5। महर मलूक कहाईऐ राजा राउ कि खानु ॥ चउधरी राउ सदाईऐ जलि बलीऐ अभिमान ॥ मनमुखि नामु विसारिआ जिउ डवि दधा कानु ॥६॥ पद्अर्थ: महर = चौधरी, सरदार। मलूक = बादशाह। राउ = राजा। कि = अथवा। डवि = दावानल, जंगल की आग से। दधा = जला हुआ। कानु = तिनका।6। अर्थ: सरदार, बादशाह, राजा, राव औा खान कहलवाते हैं। (अपने आप को) चौधरी, राय (साहिब आदि) बुलवाते हैं। (इस बड़प्पन के) अहंकार में जल मरते हैं (यदि कोई पूरा मान आदर ना करे)। (पर इतना कुछ होते हुए भी) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य ने परमात्मा का नाम भुला दिया, और (और ऐसे बताया) जैसे जंगल की आग में जला हुआ तिनका है (बाहर से चमकदार, अंदर से काला स्याह)।6। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |