श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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हउमै करि करि जाइसी जो आइआ जग माहि ॥ सभु जगु काजल कोठड़ी तनु मनु देह सुआहि ॥ गुरि राखे से निरमले सबदि निवारी भाहि ॥७॥

पद्अर्थ: देहि = सरीर। गुरि = गुरु ने। सबदि = शब्द के द्वारा। भाहि = आग, तृष्णा।7।

अर्थ: जगत में जो भी आया है, “मैं बड़ा मैं बड़ा” कह कह के आखिर यहां से चला जाएगा। ये सारा जगत काजल की कोठरी (के समान) है (जो भी इसके मोह में फंसता है, उसका) तन मन शरीर राख में मिल जाता है। गुरु ने अपने शब्द के द्वारा, जिनकी तृष्णा आग दूर कर दी, वह (इस काजल कोठरी में) साफ-सुथरे ही रहे।7।

नानक तरीऐ सचि नामि सिरि साहा पातिसाहु ॥ मै हरि नामु न वीसरै हरि नामु रतनु वेसाहु ॥ मनमुख भउजलि पचि मुए गुरमुखि तरे अथाहु ॥८॥१६॥

पद्अर्थ: वेसाहु = पूंजी। सिरि साहा = शाहों के सिर पर। पचि = खुआर हो के। अथाहु = जिसकी गहराई ना मिल सके।8।

अर्थ: जो परमात्मा सभी शाहों के ऊपर बादशाह है, उसके सदा स्थिर नाम में जुड़ के (इस संसार समुंदर में से) पार लंघते हैं। हे नानक! (अरदास करके कह) मुझे परमात्मा का नाम कभी ना भूले। परमात्मा का नाम रतन नाम पूंजी (मेरे पास सदा स्थिर रहे)। अपने मन के पीछे चलने वाले लोग संसार समुंदर में खप खप के आत्मिक मौत मरते हैं, और गुरु के सन्मुख रहने वाले इस बेअंत गहरे समुंदर को पार कर जाते हैं (वह विकारों की लहरों में नहीं डूबते)।8।16।

सिरीरागु महला १ घरु २ ॥ मुकामु करि घरि बैसणा नित चलणै की धोख ॥ मुकामु ता परु जाणीऐ जा रहै निहचलु लोक ॥१॥

पद्अर्थ: मुकामु = पक्का ठिकाना, तकिया। करि = कर के, बना के। घरि = घर में। धोख = धुक धुकी, चिन्ता। ता परु = तभी। लोक = जगत। निहचलु = अटल।1।

अर्थ: (दुनिया को अपने रहने के लिए) पक्का ठिकाना समझ के घर में बैठ जाना भी (मनुष्य को मौत से बे-फिक्र नहीं कर सकता, क्यूँकि यहां से) चले जाने की चिन्ता तो सदा लगी रहती है। जगत में जीव का पक्का ठिकाना तो तभी समझना चाहिए, यदि ये जगत भी सदा कायम रहने वाला हो (पर ये तो सब कुछ ही नाशवान है)।1।

दुनीआ कैसि मुकामे ॥ करि सिदकु करणी खरचु बाधहु लागि रहु नामे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कैसि = किस तरह? मुकामे = पक्का ठिकाना। सिदकु = श्रद्धा। करणी = उच्च आचरण। नामे = नाम में।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) यह जगत (जीवों के वास्ते) सदा रहने वाली जगह नहीं हो सकती। (इस वास्ते अपने दिल में) श्रद्धा धारण करके उच्च आत्मिक जीवन को (अपने जीवन सफर के लिए) खर्च (तैयार करके पल्ले) बांध। सदा परमात्मा के नाम में जुड़ा रह।1। रहाउ।

जोगी त आसणु करि बहै मुला बहै मुकामि ॥ पंडित वखाणहि पोथीआ सिध बहहि देव सथानि ॥२॥

पद्अर्थ: मकामि = तकिए में। देव सथानि = देवते के मन्दिर में। सिध = करामाती योगी।2।

अर्थ: जोगी आसन जमा के बैठता है। सांई फकीर तकिये में डेरा लगाते हैं, पंडित (धर्म स्थलों में बैठ के) धर्म पोथिआं (और लोगों को) सुनाते है, करामाती योगी शिव आदि के मंदिर में बैठते हैं (पर अपनी अपनी बारी सब जगत से कूच करते जा रहे हैं)।2।

सुर सिध गण गंधरब मुनि जन सेख पीर सलार ॥ दरि कूच कूचा करि गए अवरे भि चलणहार ॥३॥

पद्अर्थ: सुर = देवते। गण = शिवजी के उपासक। गंधर्व = देवताओं के रागी। सलार = सरदार। दरि कूच कूचा = अपनी अपनी बारी कूच। अवरे भी = बाकी और भी।3।

अर्थ: देवते, योग साधना में लीन योगी, (शिव के उपासक) गण, देवताओं के गवईए (गंधर्व), (समाधियों में मौन टिके रहने वाले) मुनि जन, शेख, पीर और सरदार (कहलाने वाले) अपनी अपनी बारी सभी जगत से कूच कर गए, (जो इस वक्त यहां दिखाई दे रहे हैं) ये भी सारे यहां से चले जाने वाले हैं।3।

सुलतान खान मलूक उमरे गए करि करि कूचु ॥ घड़ी मुहति कि चलणा दिल समझु तूं भि पहूचु ॥४॥

पद्अर्थ: मलूक = राजे, मलक। उमरे = अमीर लोग। मुहति = दो घड़ी के समय में। दिल = हे दिल! पहूचु = पहुँचने वाला।4।

अर्थ: बादशाह, खान, राजे, अमीर, वजीर अपना अपना डेरा कूच कर के चले गए। घड़ी दो घड़ी में हरेक ने यहां से चले जाना है। हे मन! दिमाग से काम ले (मूर्ख ना बन, गाफिल ना हो) तूने भी (परलोक) पहुँच जाना है।4।

सबदाह माहि वखाणीऐ विरला त बूझै कोइ ॥ नानकु वखाणै बेनती जलि थलि महीअलि सोइ ॥५॥

पद्अर्थ: सबदाह माहि = शब्दों में, जुबानी जुबानी, बातों से। वखाणै = कहता है। महीअलि = मही+तल, धरती के तल पर, आकाश में।5।

अर्थ: नानक बेनती करता है, जबानी जबानी तो हर कोई कहता है, पर कोई एक आध ही यकीन लाता है (कि हरेक ने यहां से चले जाना है और यहां सिर्फ) वही परमात्मा (अटल रहने वाला है जो) जल में, धरती में, आकाश में (हर जगह मौजूद है)।5।

अलाहु अलखु अगमु कादरु करणहारु करीमु ॥ सभ दुनी आवण जावणी मुकामु एकु रहीमु ॥६॥

पद्अर्थ: अगंम = अगम्य (पहुँच से परे)। कादरु = कुदरति का मालिक। करीमु = बख्शिश करने वाला। मुकामु = पक्का ठिकाना,सदा कायम। रहीमु = रहिम करने वाला प्रभु।6।

अर्थ: सारी दुनिया आने जाने वाली है (नाशवान है)। सदा कायम रहने वाला सिर्फ एक वही है जो अल्लाह (कहलाता) है, जो अलख है, अगम्य (पहुँच से परे) है, जो सारी कुदरति का मालिक है, जो सारे जगत का रचनहार है, और, जो सभ जीवों पे रहिम करने वाला है।6।

मुकामु तिस नो आखीऐ जिसु सिसि न होवी लेखु ॥ असमानु धरती चलसी मुकामु ओही एकु ॥७॥

पद्अर्थ: तिस नो = उसको (परमात्मा को)। जिसु सिसि = जिसके सीस पे। लेखु = मौत का लेख। ओही एकु = वही एक परमात्मा।7।

अर्थ: सदा कायम रहने वाला सिर्फ उस परमात्मा को ही कहा जा सकता है, जिसके सिर पर मौत का लेख नहीं है। ये आकाश ये धरती यब कुछ नाशवान है, पर वह परमात्मा सदा अटल है।7।

दिन रवि चलै निसि ससि चलै तारिका लख पलोइ ॥ मुकामु ओही एकु है नानका सचु बुगोइ ॥८॥१७॥

पद्अर्थ: रवि = सूरज। निसि = रात। ससि = चंद्रमा। पलोइ = पलायन कर जाने वाले, चले जाने वाले, नाशवान। बगोइ = कह।8।

अर्थ: हे नानक! ये अटल वचन कह दे- दिन और सूर्य नाशवान हैं, (ये दिखाई दे रहे) लाखों तारे भी नाश हो जाएंगे। सदा कायम रहने वाला सिर्फ एक परमात्मा ही है।8।17।

महले पहिले सतारह असटपदीआ ॥ सिरीरागु महला ३ घरु १ असटपदीआ
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

गुरमुखि क्रिपा करे भगति कीजै बिनु गुर भगति न होइ ॥ आपै आपु मिलाए बूझै ता निरमलु होवै कोइ ॥ हरि जीउ सचा सची बाणी सबदि मिलावा होइ ॥१॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने से। कीजै = की जा सकती है। आपै = (गुरु के) स्वै में। आपु = अपने आप को। बूझे = समझ लेता है। सदा = सच्चा, सदा स्थिर रहने वाला। सबदि = शब्द के द्वारा।1।

अर्थ: गुरु की शरण पड़ने से (जब) परमात्मा मेहर करता है, तो उसकी भक्ति की जाती है। गुरु (की शरण) के बिना (परमात्मा की) भक्ति नहीं हो सकती। जब कोई मनुष्य (गुरु के) स्वै में स्वयं को मिलाना सीख जाता है, तोवह पवित्र (जीवन वाला) हो जाता है। जो परमातमा सदा स्थिर रहने वाला है जिसकी महिमा की वाणी सदा अटल है, उससे गुरु के शब्द में जुड़ने से मिलाप हो जाता है।1।

भाई रे भगतिहीणु काहे जगि आइआ ॥ पूरे गुर की सेव न कीनी बिरथा जनमु गवाइआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जगि = जगत में। बिरथा = व्यर्थ।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति से वंचित रहा, उसका जगत में आना किस अर्थ का? जिसने (जगत में आ के) पूरे गुरु का पल्ला नहीं पकड़ा, उसने अपना जन्म व्यर्थ गवा लिया।1। रहाउ।

आपे हरि जगजीवनु दाता आपे बखसि मिलाए ॥ जीअ जंत ए किआ वेचारे किआ को आखि सुणाए ॥ गुरमुखि आपे दे वडिआई आपे सेव कराए ॥२॥

पद्अर्थ: जग जीवनु = जगत का जीवन, जगत के जीवों की जिंदगी का सहारा। बखसि = मेहर करके। आखि = कह के। गुरमुखि = गुरु के द्वारा।2।

अर्थ: परमात्मा खुद ही जगत के सारे जीवों की जिंदगी का सहारा है वह खुद ही मेहर करके (जीवों को अपने साथ) मिलाता है। (नहीं तो) ये जीव-जंतु बिचारे क्या करें? (भाव, इनकी कोई बिसात नहीं कि ये अपने प्रयास से प्रभु चरणों से जुड़ सकें। अपने किसी ऐसे प्रयास के बाबत) कोई जीव क्या कह के (किसी को) सुना सकता है? प्रभु खुद ही गुरु के द्वारा (अपने नाम की) बड़ाई महिमा देता है, स्वयं ही अपनी सेवा भक्ति कराता है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh